आज देश का राजा वेद विरुद्ध पुराणों का प्रचार कर रहा है। जो देश वैदिक ज्ञान के कारण विश्व भर में प्रसिद्ध था आज पुराणों की काल्पनिक कहानियों के कारण हंसी का पात्र बन रहा है। प्राचीन समय कुमारिल भट्ट ने वेदों की रक्षा की थी लेकिन आज
वैदिक धर्म की रक्षा कौन करेगा ?
कौन थे कुमारिल भट्ट ?
कुमारिल भट्ट वैदिक धर्म के अनन्य भक्त थे, बौद्ध युग में वेदों की गिरी हुई दशा देखकर उन्हें बड़ा ही दुख होता था, और जिस तरह हो, वे वेदों का फिर एक बार उद्धार करना चाहते थे । उन्होंने बौद्ध मत का खंडन करना निश्चय किया; पर बौद्ध धर्म के ग्रन्थों की उन्हें अच्छी जानकारी न थी । इसलिये वे एक बौद्ध धर्माचार्य श्रीनिकेतन के पास विद्यार्थी के रूप में गये और बौद्ध-धर्म का अध्ययन करने लगे । इसी तरह कुछ दिन व्यतीत हुए। एक दिन श्रीनिकेतन ने वेदों को दूषित बताया और वैदिक-मार्ग की बड़ी निन्दा की । कुमारिल से वेदों की निन्दा न सुनी गयी । वे गुरु के सामने तो कुछ न बोंले पर उनके नेत्रो में ऑसू भर आये । उनका यह भाव देखकर अन्य बौद्ध विद्यार्थी समझ गये, कि यह मनुष्य वेदों का मानने वाला है । उस दिन से उन पर बौद्धों की बड़ी ही कडी दॄष्टि रहने लगी ।
कुमारिल के बौद्ध सहपाठी उनसे चिढ़ने लगे और उन्हें पाठशाला से निकालने की युक्ति सोचने लगे । एक दिन कुमारिल एक मन्दिर की ऊँची दीवार पर बैठे विचारों में निमग्न थे । उसी समय कुछ बौद्ध विद्यार्थियो ने पहुँचकर उन्हें धक्का देकर गिरा दिया, जिसमें वे मर जायें । पर कुमारिल ने गिरते समय कहा - "यदि वेद सत्य होंगे, तो मेरी रक्षा होगी।" सचमुच उनकी रक्षा हुई और उनके प्राण बच गये, पर चोट लगने के कारण उनको एक ऑख फूट गयी । कुमारिल इसे अपना कर्म फल बताते हुए कहते, कि – “मैने यदि वेद सत्य होंगे” इस प्रकार का संशयात्मक वाक्य कहा, इसीलिये मुझे यह दंड मिला है।"
किन्तु इस दुर्घटना के बाद कुमारिल को बौद्ध धर्म की सत्यता में भारी सन्देह होने लगे । वे सोचते, कि "बुद्ध भगवान् तो दया और अहिंसा-धर्म के प्रचारक थे । पर इन बौद्ध ने मुझे धक्का देकर क्यों गिराया ? इसलिये, जिसमें मैं मर जाऊँ और उनके मतवाद का विरोध नहीं करूँ । क्या दया और अहिंसा का भाव अन्य धर्मावलम्बियों के साथ नहीं दिखाना चाहिये ? क्या शत्रु भी दया के पात्र नहीं हैं ? परन्तु, यह सब कुछ नहीं, बौद्ध लोग वेदों के विरोधी हैं इसलिये बड़े धूर्त और पाखंडी हैं । वे अन्य धर्मावलम्बियों को ठुकराकर ही रखना चाहते हैं । वे अपने पाखण्ड में सारे संसार को झुकाना चाहते हैं । पर मैं यथाशक्ति शीघ्र ही इन पाखंडियो के भ्रम-जाल से संसार को सावधान करूँगा ।"
यही सच सोचकर और मन में दृढ़ संकल्प करके वे वैदिक कर्मवाद का प्रचार करने लगे । इसी प्रचार-कार्य के सिलसिले में वे चम्पा-नगरी में जा पहुचे । वहाँ सुधन्वा नामक एक बौद्ध राजा था पर उसकी रानी वैदिक सिद्धान्तों को मानती थी
एक दिन कुमारिल राज-भवन के नीचे से जा रहे थे । इतने में ही उनके कानों को चौंका देने वाले शब्द सुनाई दिये। उन्होंने ऊपर देखा, तो उन्हें झरोखे में रानी बैठी हुई दिखाई दी । वह बडे ही उदास ओर चिन्तामस रो रही मालूम होती थी । वह मुख से बारम्बार वही चौंका देने वाला वाक्य उच्चारण कर रही थी –
"किं करोमि कगच्छामि को वेदानुद्धरिष्यति ।
अर्थात् - क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? वेदीं का उद्धार कौन करेगा ?"
रानी के ये शब्द सुनकर कुमारिल के हृदय में भरा हुआ वेदाभिमान जाग उठा । वे गम्भीरता के साथ बोले -"मा विषाद वरारोहे ! भट्टाचार्योंस्मि भूतले ।“
अर्थात् - "हे रानी ! खेद न कर ! मैं कुमारिल भट्टाचार्य अभी इस पृथ्वी पर मौजूद हूँ ।"
कुमारिल के ये शब्द सुनकर रानी एकाएक चौंक उठी । उसने कुमारिल को श्रद्धा-भक्ति से देखा, और दासी भेजकर सारा दुखड़ा वर्णन करते हुए कहां -"महाराज ! मुझे बौद्ध धर्म मे दीक्षित करने के लिए बड़ा आग्रह करते है, अब तक तो मैं किसी तरह बच रही , पर राजा के दुराग़्रह से किसी-न-किसी दिन मुझे वैदिक धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म ग्रहण करना ही होगा। मेरे ऊपर इस समय धर्म-संकट का पहाड़ टूटा है।"
फिर एक दिन अनुकूल अवसर में कुमारिल भट्ट ने महाराज सुधन्वा से भेट की और उन्हें बौद्ध धर्मावलंबियों से शास्त्रार्थ करवाने के लिए कहा । राजा सुधन्वा भी उनका शास्त्रार्थ सुनने के लिये पहले से ही उत्सुक था । राजा की आज्ञा से शास्त्रार्थ के लिये विराट सभा का आयोजन हुआ। शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ । दोनों ओर से खण्डन-मण्डन होने लगा । बौद्ध आचार्यो ने वेद-विरुद्ध जितने तर्क सुनाये, जितनी बातें और युक्तिर्या कहीं, कुमारिल ने उन सभी का खणडन कर दिया । वेदोंके विरुद्ध बौद्धों की एक भी युक्ति न टिकने पायी । उन्होंने सिद्ध कर दिया, कि बौद्धों के सिद्धान्त सर्वथा भ्रामक, भ्रान्ति-मूलक है और इसलिये अनिष्टकारी हैं । अतः इनका प्रचार वैदिक आर्यावर्त में कदापि न होना चाहिये । इसके बाद महाराज सुधन्वा भक्ति-पूर्वक कुमारिल भट्ट के शिष्य हो गये । बौद्धों को परास्त करने के लिये उन्होंने विभिन्न प्रान्तों में दौरे किये, और बौद्ध को परास्त किया । भारतीय जनता में फिर वैदिक धर्म का प्रचार किया गया । लोग आम तौर से बौद्ध धर्म को त्यागने और वैदिक धर्म को ग्रहण करनें लगे ।
वेदों का फिर प्रचार और मान हुआ । पुनः यज्ञादि कर्म होने और पुनः वेद-मन्त्रों की सुललित ज्ञानध्वनि से देश गूँजने लगा ।
आज फिर किसी कुमारिल भट्ट की बहुत आवश्यकता है ताकि देश में फिर से वेदों का प्रचार हो और फिर से लोग वेद यज्ञ योग और आयुर्वेद कि ओर लौटें।
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