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अष्टाध्यायी प्रवचनम् अध्याय 1 सूत्र 1_40

 


वृद्धिरादैच् ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - वृद्धिः १।१ आदैच् १।१

समासः - आत् च ऐच् च एतयोः समाहार आदैच् (समाहारद्वन्द्वः) । तः परो यस्मात् स तपरः, तादपि परस्तपरः (बहुव्रीहि समास:) ।

अर्थ: - तपराणाम् आकार-ऐकार - औकाराणां वृद्धि-संज्ञा भवति । 

उदाहरणम् - (आकार) आश्वलायनः । शालीयः । मालीय: । (ऐकार:) ऐतिकायनः । (औकार:) औपगवः ।

आर्यभाषार्थ - (आदैच्) आ + त् + ऐच् अर्थात् तपर आकार, ऐकार और औकार की (वृद्धि:) वृद्धि संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - (आकार) आश्वलायन: । अश्वलायन का पुत्र । शालीयः । शाला में रहनेवाला गृहस्थ । मालीयः । माला में रहनेवाला पुष्प । (एकार) ऐतिकायनः । इतिक का पुत्र । (औकार) - औपगवः । उपगु का पुत्र ।

सिद्धिः - (१) आश्वलायनः । अश्वल + फक् । आश्वल् + आयन । आश्वलायन + सु । आश्वलायनः । यहां अश्वल शब्द से अपत्य अर्थ में 'नडादिभ्यः फक्' (४.१.८८) से फक् प्रत्यय, 'आयनेय' (७.१.२) से फ के स्थान में आयन-आदेश और 'किति च' (७.१.११८) से आदि वृद्धि होती है ।

(२) शालीय: । शाला + छ । शाल् + ईय । शालीय + सु । शालीय: । यहां शाला शब्द के आदि में वृद्धिसंज्ञक आकार के होने से उसकी वृद्धिर्यस्याचामादिस्तद् वृद्धम्' (१.१.७३) से वृद्ध संज्ञा होकर 'वृद्धाच्छ: ' (४.१.११४) से छ प्रत्यय होता है । छ के स्थान में 'आयनेय०' (७.१.२) से ईय-आदेश होता है । ऐसे ही माला शब्द से मालीयः ।

(३) ऐतिकायनः । इतिक + फक् । ऐतिक् + आयन । ऐतिकायन + सु । ऐतिकायनः । यहां इतिक शब्द से अपत्य अर्थ में 'नडादिभ्यः फक्' (४.१.८८) से फक् प्रत्यय, 'आयनेय' (७.१.२) से फ के स्थान में आयन- आदेश और 'किति च' (७.२.११८) से आदि वृद्धि होती है ।

(४) औपगवः । उपगु + अण्। औपगो + अ । औपगव + सु । औपगवः । यहां उपगु शब्द से अपत्य अर्थ में 'तस्यापत्यम्' (४.१.९२) से अण् प्रत्यय और 'तद्वितेष्वचामादेः' (७.२.११७) से आदि वृद्धि होती है । यहां 'ओर्गुण:' (६.४.१४६) से उपगु के अन्त्य उकार को गुण होता है ।

विशेष - आदैच् पद के मध्य में 'त' किसलिये लगाया गया है ? आ + त् + ऐच् । अष्टाध्यायी में अनेक स्थानों पर 'त्' लगाकर वर्णों का निर्देश किया गया है । उन वर्णों को तपर कहते हैं । यहां आ और ऐच् के मध्य में त् लगाया गया है । इसलिये देहली-दीपक न्याय से आ और ऐच् दोनों तपर हैं । जैसे घर की देहली पर रखा हुआ दीपक दोनों ओर अपना प्रकाश फैलाता है, वैसे यहां दोनों के मध्य में विद्यमान त् आ और ऐच दोनों को तपर करता है । तः परो यस्मात् स तपरः, तादपि परस्तपरः । जिससे त् परे है उसे तपर कहते हैं और जो त् से परे है वह भी तपर कहाता है । अष्टाध्यायी में वर्णों को तपर करने का प्रयोजन यह है कि 'तपरस्तत्कालस्य' (१.१.७०) अर्थात् तपर वर्ण तत्काल के ग्राहक होते हैं । ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत जिस भी काल के वर्ण के साथ त् लगाया जाता है, वह उसी काल के उदात्त, अनुदात्त, स्वरित तथा निरनुनासिक और सानुनासिक वर्णों का ग्राहक होता है ।

इस प्रकार तपर वर्ण अपने छः प्रकार के स्वरूप का ग्रहण करता है, शेष का नहीं । अतः यहां छ: प्रकार के आकार, ऐकार और औकार की वृद्धि संज्ञा का विधान किया है । इसे निम्नलिखित अकार के १८ अठारह भेदों की रीति से यथावत् समझ लेवें ।

अदेङ् गुणः ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - अदेङ् १।१ गुण: १।१

समासः - अत् च एङ् च एतयोः समाहारः - अदेङ् (समाहारद्वन्द्वः) । तः परो यस्मात् स तपरः, तादपि परस्तपरः (बहुव्रीहि:) ।

अर्थः - तपराणाम् अकार-एकार-ओकाराणां गुणसंज्ञा भवति । 

उदाहरणम् - (अकार:) कर्ता । हर्ता । (एकार:) जेता । नेता । (ओकार:) होता । पोता ।

आर्यभाषार्थ - (अदेङ्) अ + त् + एङ् अर्थात् तपर अकार, एकार और ओकार की (गुण:) गुण संज्ञा होती हैं ।

उदाहरणम् - (अकार) कर्ता । करनेवाला । हर्ता । हरनेवाला । (एकार) जेता । जीतनेवाला । नेता । ले जानेवाला । (ओकार) होता । हवन करनेवाला । पोता । पवित्र करनेवाला । 

सिद्धिः - (१) कर्त्ता । कृ + तृच् । कर + तृ । कर्तृ + सु । कर्तृ अनङ् + स् । कर्तन् + त् । कर्तान् + स् । कर्तान् + ० = कर्ता । यहां डुकृञ् करणे (तनादि.उ.) धातु से 'वुल्तृचौ' (३.४१.१३३) से तृच् प्रत्यय करने पर 'सर्वधातुकार्धधातुकयो:' (७.३.८४) से 'कृ' के ऋको 'अ' गुण होता है और वह 'उरण् रपरः' (१.१.५१) से रपर हो जाता है - अर् । यहां 'ऋदुशनस्..' (७.१.९४) से कर्तृ के ऋ को अनङ् आदेश, सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ (६.४.८) से नकारान्त की उपधा को दीर्घ 'हल्डयाब्भ्यो दीर्घात्..' (६.१.६८) से सु का लोप और 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य (८.२.७) से न का लोप होता है । कर्ता । करनेवाला । इसी प्रकार हृञ् हरणे (भ्वा.उ.) धातु से हर्ता' शब्द सिद्ध होता है ।

(२) जेता । जि + तृच् । जे + तृ । जेतृ + सु । जेत अनङ् + सु । जेतन् + स् । जेतान् + स् । जेतान् + ०। जेता । यहां जि जये (भ्वा.उ.) धातु से पूर्ववत् तृच् प्रत्यय और 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' से जि' के 'इ' को ए गुण होता है । शेष कार्य पूर्ववत् है । इसी प्रकार 'णी' प्रापणे' (भ्वा.उ.) धातु से 'नेता' शब्द सिद्ध होता है ।

(३) होता । हु + तृच् । हो + तृ । होतृ + सु । होत् अनङ् + स् । होतन् + स् । होतान् + ० = होता । यहां 'हु दानादनयोरादाने चेत्येकें' (अदा.प.) धातु से पूर्ववत् तृथ् प्रत्यय करने पर सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७.३.८४) से हु के 'उ' को 'ओ' गुण होता है । शेष कार्य पूर्ववत् हैं । इसी प्रकार पुत्र पवने (क्रया०उ०) धातु से 'पोता' शब्द सिद्ध होता है । 

विशेष - अदेङ् पद में अ और एङ् के मध्य में त् लगाया गया है । अतः पूर्वोक्त विधि से अ और एड दोनों तपर हैं । ये तपर होने से 'तपरस्तत्कालस्य' (१.१.७०) से तत्काल का ग्रहण करते हैं । अतः यहां उदात्त, अनुदात्त, स्वरित तथा निरनुनासिक और सानुनासिक भेद से छः प्रकार के अकार, एकार और ओकार की गुण संज्ञा होती है । 

॥ इको गुणवृद्धी ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - इक: ६।१ गुण - वृद्धी १।२

समासः - गुणश्च वृद्धिश्च ते गुणवृद्धी (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।

अनुवृत्तिः - 'वृद्धिरादैच्' इत्यस्माद् वृद्धि:, 'अदेङ् गुणः' इत्यस्माच्च गुणइत्यनुवर्तते ।

अन्वय - गुणवृद्धिभ्यां गुवृद्धी इकः ।

अर्थ: - गुणवृद्धिभ्यां शब्दाभ्यां यत्र गुणवृद्धी विधीयेते तत्र 'इक:' इति षष्ठ्यन्तं पदमुपस्थितं भवति ।

उदाहरणम् - गुण: - (इ) जेता । नेता ! (उ) होता । पोता । (ऋ) कर्ता हर्ता । वृद्धि: (इ) अचैषीत् । अनैषीत् । (उ) अस्तावीत् । अलावीत् । (ऋ) अकार्षीत् अहार्षीत् ।

आर्यभाषार्थ - यहां 'वृद्धिरादैच्' से वृद्धि और 'अदेङ् गुणः' से गुण पद की अनुवृत्ति आती है । (गुणवृद्धिभ्याम्) गुण और वृद्धि शब्दों के द्वारा जहां (गुणवृद्धी) गुण और वृद्धि का विधान किया जाता है, वहां (इक:) यह षष्ठ्यन्त पद उपस्थित होता है । इससे शास्त्र में इक् के स्थान में गुण और वृद्धि होती है ।

उदाहरणम् - गुण - (इ) जेता । जीतनेवाला । नेता । ले जानेवाला । (उ) होता । हवन करनेवाला । पोता । पवित्र करनेवाला । (ऋ) कर्ता । करनेवाला । हर्ता । हरनेवाला ।

वृद्धि - (इ) अचैषीत् । उसने चुना । अनैषीत् । वह ले गया । (उ) अस्तावीत् । उसने स्तुति की । अलावीत् । उसने काटा। (ऋ) अकार्षीत् । उसने किया । अहार्षीत् । उसने हरण किया ।

सिद्धिः - (१) जेता । जि + तृच् । जि + तृ । जेतृ + सु । जेता यहां जि जये (भ्वादि) धातु से पूर्ववत् तृच् प्रत्यय करने पर 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७.३.८४) से जि. धातु के इक् को गुण होता है । इसी प्रकार 'णीञ् प्रापणे' (भ्वा.उ.) धातु से 'नेता' शब्द सिद्ध होता है ।

(२) होता । हु + तृच् । हु + तृ । होतृ + सु । होता । यहां 'हु दानादनयोरादाने चेत्येके' (अदा.प.) धातु से पूर्ववत् तृच् प्रत्ययं करने पर 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७.३.८४) से 'हु' धातु के इक् को गुण होता है । इसी प्रकार पूञ पवने (क्रया.उ.) धातु से 'पोता' शब्द सिद्ध होता है ।

(३) कर्ता । कृ + तृच् । कृ + तृ । कर्तृ + सु । कर्ता । यहां 'डुकृञ् करणें (तना.उ.) धातु से पूर्ववत् तृच् प्रत्यय करने पर 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३१८४) से कृ धातु के इक् के स्थान में 'अ' गुण होता है और वह 'उरण् रपरः' (१.१.५१) से रपर हो जाता है । इसी प्रकार 'हृञ् हरणे' (भ्वा.उ.) धातु से हर्ता शब्द सिद्ध होता है ।

(४) अचैषीत् । चि + लुङ् । अट् + चि + चिल + तिप् । अ + चि + सिच् + ति । अ + चि + स् + ईट् + त् । अ + चै + ष् + ई + त् । अचैषीत् । यहां चिञ् चयने धातु से 'लुङ्' (३.२.११०) से लुङ् प्रत्यय, 'चिल लुङि' (३.१.४३) से चिल प्रत्यय, 'च्लेः सिच्' (३.१.४४) से चिल के स्थान में सिच् आदेश और 'सिचि वृद्धिः परस्मैपदेषु' (७.१.१) सेचि धातु के इक् को वृद्धि होती है । यहां 'लुङ्लङ्लृङ्स्वडुदात्तः' (६.४.७१) से अट् आगम और 'अस्तिसिचोऽपृक्ते' (७.३.८६) से ईट् आगम होता है । 'आदेशप्रत्यययोः' (८.३.५९) से पत्व होता है । अचैषीत् - उसने चयन किया । इसी प्रकार अनैषीत्, अस्तावीत्, अलावीत्, अकार्षीत् अहार्षीत् शब्द सिद्ध करें|

॥ न धातुलोप आर्धधातुके ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - न अव्ययपदम् । धातुलोपे ७।१। आर्धधातुके ७।१।

समासः - धातुं लोपयतीति धातुलोप:, तस्मिन् धातुलोपे (उपपदसमासः) धातोरवयवस्य लोप इति धातुलोपः तस्मिन् धातुलोपे (मध्यपदलोपी समासः) । 

अनुवृत्तिः - 'इको गुणवृद्धी' इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - धातुलोप आर्धधातुक इको गुणवृद्धी न ।

अर्थ: - धातुलोपे आर्धधातुके प्रत्यये परत इक: स्थाने गुणवृद्धी न भवतः ।

उदाहरणम् - गुण: - (इ) चेचियः । (उ) लोलुवः । पोपुवः । वृद्धि: - (ऋ) मरीमृजः ।       

आर्यभाषार्थ - (धातुलोपे) यदि धातु के अवयव का लोप करनेवाला (आर्धधातुके) आर्धधातुक प्रत्यय परे हो तो (इक:) इक् के स्थान में (गुणवृद्धी) गुण और वृद्धि (न) नहीं होती है ।

उदाहरणम् - गुण - (इ) चेचियः । अधिक चुननेवाला । लोलुवः । अधिक काटनेवाला । पोपुवः । अधिक पवित्र करनेवाला । वृद्धि: - (ऋ) मरीमृजः । अधिक शुद्ध करनेवाला ।

सिद्धिः - (१) चेचियः । चेचिय + अच् । चेचिय + अ । चेचिय + सु । चेचियः । यहां यङन्त चिञ् चयने (स्वा.उ.) धातु से 'नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः' (३.१.१३४) से अच् प्रत्यय करने पर 'यङझेऽचि च' (२.४.७४) से यङ् का लुक् हो जाता है । यङ् का लोप धातु के एक अवयव का लोप है और उसका लोप करनेवाला 'अच्' प्रत्यय आर्धधातुक है । यङ् का लोप होने के पश्चात् आर्धधातुक अच् प्रत्यय के परे रहने पर 'चेचि' धातु के इक् 'को 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७.३.८४) से गुण प्राप्त होता है । उसका इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है । तत्पश्चात् 'अचि श्नुधातुभ्रुवां..' (६.४.७७) से इयङ् आदेश हो जाता है ।

(२) लोलुवः । लोलूय + अच् । लोलू + अ । लोलू उवङ् + अ । लोलुव्+अ । लोलुवः । यहां यडन्त लूञ् लवने (क्रया.उ.) धातु से पूर्ववत् अच् प्रत्यय और यङ् का लुक् हो जाने पर 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७.३.८४) से गुण प्राप्त होता है । उसका इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है । तत्पश्चात् 'अचि श्नुधातुभ्रुवां..' (६.४.७७) से उवङ् आदेश हो जाता है ! इसी प्रकार पूरा पवने (क्रया.उ.) धातु से 'पोपुव:' शब्द सिद्ध होता है । 

(३) मरीमृजः । मरीमृज् + अच् । मरीमृज् + अ । मरीमृज + सु । मरीमृजः । यहां यङन्त मृजूष् शुद्धौ (अदा.प.) धातु से पूर्ववत् अच् प्रत्यय 'मृजेर्वृद्धि:' (७.२.११४) से धातुस्थ इक् (ऋ) को वृद्धि प्राप्त होती है, उसका इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है । 

॥ क्ङिति च ॥

॥ व्याव्या ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - क्ङिति ७।१। च अव्ययपदम् ।

समासः - गश्च, कश्च, ङश्च ते क्क्ङ, इच्च इच्च इच्च ते इत: । क्क्ङ इतो यस्य स क्क्ङित्, तस्मिन्  क्क्ङिति । (इतरेतरद्वन्द्वगर्भितबहुव्रीहिः) ।

अनुवृत्तिः - इको गुणवृद्धी, न इति चानुवर्तते ।

अन्वयः - क्ङिति च इको गुणवृद्धी न ।

अर्थ: - गिति किति ङिति च प्रत्यये परत: इक: स्थाने गुणवृद्धी न भवतः ।

उदाहरणम् - (गिति) जिष्णुः । भूष्णुः । (किति) चित: । चितवान् । स्तुतः । स्तुतवान् । मृष्टः। मृष्टवान् । (ङिति) चिनुतः । चिन्वन्ति । मृष्टः । मृजन्ति ।

आर्यभाषार्थ - (क्ङिति) गित, कित् और ङित् प्रत्यय के परे होने पर (च) भी (इक:) इक् के स्थान में (गुणवृद्धी) गुण और वृद्धि (न) नहीं होती है ।

उदाहरणम् - (गित्) जिष्णुः । जीतनेवाला । भूष्णुः। सत्तावाला । (कित्) चितः, चितवान् । चयन किया । स्तुतः स्तुतवान् । स्तुति की । मृष्टः, मृष्टवान् । शुद्ध किया । (ङित्) चिनुतः, वे दोनों चुनते हैं । चिन्वन्ति । वे सब चुनते हैं ।

सिद्धिः - (१) जिष्णुः । जि + ग्स्नु । जि + स्नु । जिष्णु + सु । जिष्णुः। यहां जि जये (भ्वा.प.) धातु से 'ग्लाजिस्थश्च ग्स्सुः' (३.२.१३८) से ग्स्नु प्रत्यय करने पर जि धातु के इक् को 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७.३.८४) से गुण प्राप्त होता हैं किन्तु स्तु प्रत्यय के गित होने से गुण का प्रतिषेध हो जाता है ।

(२) भूष्णुः । भू + स्नु । भू + स्नु । भूष्णु + सु । भूष्णुः । यहां 'भू सत्तायाम्' (भ्वा.प.) धातु से 'भुवश्च' (३.२.१४०) से ग्स्नु प्रत्यय होता है । शेष कार्य पूर्ववत् है ।

(३) चितः । चि + क्त । चि + त । चित + सु । चितः । यहां चिञ् चयने (स्वा०उ०) धातु से क्त प्रत्यय करने पर 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७.३.८०) से चि धातु के इक् को गुण प्राप्त होता है किन्तु क्त प्रत्यय के कितु होने से गुण का प्रतिषेध हो जाता है ।

(४) चितवान् । चि + क्तवतु। चि + तवत् । चितवत् + सु । चितवान् । यहाँ चि धातु से क्तवतु प्रत्यय है । शेष पूर्ववत् है ।

(५) पृष्ट: । मृज् + क्त। यहां मृजूष शुद्धी (अदा.प.) धातु से क्त प्रत्यय करने पर 'मृजेर्वृद्धि:' (७.२.११४) से मृज् धातु के इक् को वृद्धि प्राप्त होती है, किन्तु क्त प्रत्यय के कित् होने से वृद्धि का निषेध हो जाता है ।

(६) मृष्टवान् । यहां 'मृजूष शुद्धौ' (अदा.प.) धातु से क्तवतु प्रत्यय है । शेष पूर्ववत् है ।

(७) चिनुतः । चि + लट् । चि + श्नु + तस्। चि + नु + तस् । चिनुतः । यहां चि धातु से लट्लकार में तस् प्रत्यय और श्नु विकरण प्रत्यय करने पर यह पद सिद्ध होता है । तस् प्रत्यय के परे होने पर श्नु के इक को तथा श्नु प्रत्यय के परे होने पर चि धातु के इक को 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७.३.८४) से गुण प्राप्त होता है, किन्तु तस् प्रत्यय और इनु प्रत्यय के ङित् होने से गुण का प्रतिषेध हो जाता है । तस् और श्नु प्रत्यय 'सार्वधातुकमपित' (१.२.४) से ङित् माने जाते हैं । ऐसे ही - चिन्वन्ति ।

(८) सृष्ट: । मृज् + लट् । मृज् + शप् + तस्। मृज + ० + तस् । मृज् + तस् । मृष्टः । यहां 'मृजूष शुद्धौ' (अदा.प.) धातु से तस् प्रत्यय है । उसके परे रहने पर 'मृज्' धातु के इक् को 'मृजेर्वृद्धि:' (७.२.११४) से वृद्धि प्राप्त होती है, किन्तु तस् प्रत्यय के ङित् होने से वृद्धि का प्रतिषेध हो जाता है ।

विशेष - प्रश्न- यहां सूत्रार्थ में गित्, कित् और ङित् प्रत्यय के परे रहने पर इक् के स्थान में प्राप्त गुण और वृद्धि का प्रतिषेध किया है, किन्तु 'क्ङिति च' सूत्र में तो कित् और ङित् प्रत्यय के परे रहने पर गुण और वृद्धि का प्रतिषेध दिखाई दे रहा ?

उत्तर - यहां वैयाकरण लोग गकार का चर्त्वभूत उपदेश मानते हैं । ग् + क् + ङ् = ग्क्ङ् । यहां 'खरि च' (८.४.५६) से ग् को चर् क् हो जाता है - क्क्ङ् । यहां 'यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा' (८१४।४५) से द्वितीय क् को अनुनासिक ङ्हो जाता है - कङ्ङ । यहां 'हलो यमां यमि लोपः' (८.४.६४) से मध्यस्थ ङ्का लोप हो जाता है । क्ङ् । 'क्ङिति च' । इस प्रकार यहां चर्त्वभूत गकार का उपदेश किया गया है ।

॥ दीधीवेवीटाम् ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - दीधी-वेवी-इटाम् ६।१

समासः - दीधीश्च वेवीश्च इट् च ते - दीधीवेवीट:, तेषाम् - दीधीवेवीटाम् (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।

अनुवृत्तिः - इको गुणवृद्धी, न इति चानुवर्तते ।

अन्वयः - दीधीवेवीटाम् इको गुणवृद्धी न । 

अर्थ: - दीधी-वेवी-इटाम् इक: स्थाने गुणवृद्धी न भवतः ।

उदाहरणम् - (दीधी) आदीध्यनम् । आदीध्यकः । (वेवी) आवेव्यनम् । आवेव्यकः । (इट्) श्वः कणिता ।

आर्यभाषार्थ - (दीधीवेवीटाम्) दीधी, देवी और इट् के (इक:) इक् के स्थान में (गुणवृद्धी) गुण और वृद्धि (न) नहीं होती है ।

उदाहरणम् - (दीधी) आदीध्यनम् । चमकना । आदीध्यकः । चमकनेवाला । (वेवी) आवेव्यनम् । गति आदि करना । आवेव्यकः । गति आदि करनेवाला । (इट) श्वः कणिता । वह कल आवाज करेगा ।

सिद्धिः - (१) आदीध्यनम् । आङ्+दीधी+ल्युट् । आ+दीधी+अन । आदीध्यन+सु । आदीध्यनम् । यहां आङ् उपसर्गपूर्वक 'दीधीङ् दीप्तिदेवनयो:' (अदा.आ.) धातु से 'ल्युट् च' (३.३.११५) से भाव अर्थ में ल्युट् प्रत्यय करने पर 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७.३.८४) को गुण प्राप्त होता है, किन्तु इस सूत्र से गुण का प्रतिषेध हो जाता है । 

(२) आदीध्यकः । आङ्+दीधी+ण्वुल् । आ+दीधी+अक । आदीध्यक+सु । आदीध्यकः । यहां आङ् उपसर्गपूर्वक 'दीधीङ् दीप्तिदेवनयो:' (अदा.आ.) धातु से 'ण्वुल्तृचौ (२.१.१३३) से ण्वुल् प्रत्यय करने पर 'अचो ञ्णिति' (७.२.११५) से वृद्धि प्राप्त होती है, किन्तु इस सूत्र से वृद्धि का प्रतिषेध हो जाता है ।

(३) आवेव्यनम् और आवेव्यकः शब्दों की सिद्धिः आङ्पूर्वक वेवी वेतिना तुल्ये (अदा.आ.) धातु से आदीध्यनम् और आदीध्यक: के समान समझें ।

(४) श्वः कणिता । कण्+लुट् । कण्+तिप् । कण्+डा । कण्+तास्+आ । कण्+इट्+तास्+आ । कण्+इ+त्+आ । कणिता । यहां 'कण शब्दार्थे' (भ्वादि.प.) धातु 'अनद्यतने लुट्' (३.३.१५) लुट् प्रत्यय करने पर और तास के टि भाग का लोप हो जाने पर 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७.३.८६) से इट् को गुण प्राप्त होता है, किन्तु इस सूत्र से गुण का प्रतिषेध हो जाता है ।

॥ हलोऽनन्तराः संयोगः ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - हलः १।३ अनन्तराः १।३ संयोगः ७।१।

समासः - हल् च हल् च तौ हलौ । हल् च, हल् च, हल् च ते हल:, हलौ च हलश्च ते हल: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । न विद्यतेऽन्तरं येषु तेऽनन्तराः (बहुव्रीहिः) ।

अन्वयः - अनन्तरा हलः संयोगः ।

अर्थ: - अनन्तरा (व्यवधानरहिता:) हल: संयोगसंज्ञका भवन्ति । 

उदाहरणम् - अग्निः । अश्वः । कर्णः । इन्द्रः । चन्द्रः । उष्ट्रः । राष्ट्रम् । भ्राष्ट्रम् ।

आर्यभाषार्थ - (अनन्तराः) अचों के व्यवधान से रहित (हलः) हलों की (संयोग:) संयोग संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - अग्निः । आग । अश्वः । घोड़ा । कर्णः । कान । इन्द्रः । राजा । चन्द्रः । चांद । उष्ट्रः । ऊंट ।राष्ट्रम् । राज्य । भ्राष्ट्रम् । दाने भूनने का पात्र ।

सिद्धिः - (१) अग्निः । अ+ग्+न्+इ+:- अग्निः । यहां ग्न् की संयोग संज्ञा है । 

(२) अश्वः । अ+श्+व्+अ+:=अश्व । यहां श्- व् की संयोग संज्ञा है । 

(३) इन्द्र: । इ+न्+द्+र्+अ+:=इन्द्र: । यहां न्+द्+र् की संयोग संज्ञा है । इसी प्रकार अन्यत्र भी समझ लेवें । संयोग संज्ञा का फल यह है कि 'संयोगे गुरु' (१.४.११) से संयोग परे होने पर, पूर्व ह्रस्व वर्ण भी गुरु माना जाता है-  ।

॥ मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - मुखनासिकावचन: १।१ अनुनासिक: १।१

समासः - मुखं च नासिका च एतयोः समाहारः - मुखनासिकम् । ईषद्वचनम् - आवचनम् । मुखनासिकम् आवचनं यस्य स मुखनासिकावचन: (समाहारद्वन्द्वगर्भितबहुव्रीहिः) ।

अर्थ: - मुखनासिकावचनो वर्णोऽनुनासिक - संज्ञको भवति । 

उदाहरणम् - अभ्र आँ अप: । गभीर आँ उग्र पुत्रे । चन आँ इन्द्रः । 

आर्यभाषार्थ - (मुखनासिकावचन:) मुख और नासिका से उच्चारण किये जानेवाले वर्ण की (अनुनासिक:) अनुनासिक संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - अभ्र आँ अपः । गभीर आँ उम्र पुत्रे । चन आँ इन्द्रः ।

सिद्धिः - आँ - यहां 'आङोऽनुनासिकश्छन्दसि' (६.१.११६) से आ को अनुनासिक हो जाता है । इसका उच्चारण मुख सहित नासिका से किया जाता है । अत: यह अनुनासिक है ।

॥ तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् ॥

॥ व्याख्या: ॥

वार्तिक

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - तुल्यास्यप्रयत्नम् १।१ सवर्णम् १।१।

समासः - आस्यं मुखम् । आस्ये भवमिति आस्यम् । आस्ये प्रयत्न इति आस्यप्रयत्नः । तुल्य आस्यप्रयत्नो यस्य तत् तुल्यास्यप्रयत्नम् । (सप्तमीतत्पुरुषगर्भितबहुव्रीहि:) ।

अर्थ: - येषां वर्णानां तुल्य आस्ये प्रयत्नस्ते परस्परं सवर्णसंज्ञका भवन्ति ।

उदाहरणम् - दण्डाग्रम् । खट्वाग्रम् । दधीन्द्रः । मधूदकम् । पितॄणम् । 

आर्यभाषार्थ - (तुलास्यप्रयत्नम्) जिन वर्णों का आस्य मुख में तुल्य प्रयत्न है, उनकी परस्पर (सवर्णम्) सवर्ण संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - दण्डाग्रम् । दण्ड का अग्रभाग । खट्वाग्रम् । खाट का अग्रभाग । दधीन्द्रः । दही का स्वामी । मधूकदम् । मधुर जल । पितॄणम् । पिता का ऋण ।

सिद्धिः - (१) दण्डाग्रम् । दण्ड + अग्रम् । दण्डाग्रम् । महां दोनों अकारों का मुख में होनेवाला विवृत प्रयत्नतुल्य है । अत: उनकी परस्पर सवर्ण संज्ञा है । सवर्ण संज्ञा होने से 'अकः सवर्णे दीर्घः' (६.१.१०१) से दीर्घ एकादेश हो जाता है ।

(२) खट्वा + अग्रम् । खट्वाग्रम् । दधि + इन्द्र । दधीन्द्र । मधु + उदकम् । मधूदकम् । पितृ + ऋणम् । पितॄणम् । यहां भी 'दण्डाग्रम्' के समान ही कार्य जानें ।

विशेष - वर्णों के आभ्यन्तर और बाह्य भेद से दो प्रकार के प्रयत्न होते हैं । सवर्ण संज्ञा में आभ्यन्तर अर्थात् मुख के अन्दर होनेवाले प्रयत्नों का ग्रहण किया जाता है । आभ्यन्तर प्रयत्न - स्पृष्ट, ईषत्स्पृष्ट, संवृत और विवृत भेद से चार प्रकार का होता है । पाणिनीय शिक्षा की व्याख्या 'वर्णोच्चारण शिक्षा' से यथावत् समझ लेवें ।

॥ नाज्झलौ ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - न अव्ययपदम् । अच्-हलौ १।२

समासः - अच् च हल् च तौ - अज्झलौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।

अनुवृत्तिः - तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - तुल्यास्यप्रयत्नम् अज्झलौ सवर्णं न ।

अर्थः - तुलास्यप्रयत्नावपि अच्-हलौ परस्परं सवर्णसंज्ञकौ न भवतः । 

उदाहरणम् - दण्डहस्तः । दधिशीतम् ।

आर्यभाषार्थ - (तुलास्यप्रयत्नम्) तुल्य स्थान और तुल्य आभ्यन्तर प्रयत्नवाले (अच्-हलौ) अच् और हल् वर्णों की परस्पर (सवर्णम्) सवर्णसंज्ञा (न) नहीं होती है । 

उदाहरणम् - दण्ड+हस्तः । दण्ड है हाथ में जिसके वह । दधि+शीतम् । ठण्डी दही ।

सिद्धिः - (१) दण्डहस्त: । यहां अ और ह का स्थान कष्ठ है । अ का आभ्यन्तर प्रयत्न विवृत और ह का आभ्यन्तर प्रयत्न ईषद् विवृत है । इस प्रकार अ और ह का स्थान और प्रयत्न में सादृश्य है किन्तु 'अ' अच् और 'ह' हल् है । अत: इनकी परस्पर सवर्ण संज्ञा नहीं होती है । सवर्ण संज्ञा न होने से 'अकः सवर्णे दीर्घः' (६.१.१०१) से सवर्ण दीर्घत्व नहीं होता है ।

(२) दधिशीतम् - यहां इकार और शकार का स्थान तुल्य है और पूर्ववत् प्रयत्न की भी समानता है । यहां भी पूर्वोक्त कारण से सवर्ण संज्ञा नहीं होती है ।

॥ ईदूदेद्द्विवचनं प्रगृह्यम् ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - ईत्-ऊत्-एद् १।१ द्विवचनम् १।१ प्रगृह्यम् १।१। 

समासः - इत् च ऊत् च एत् च एतेषां समाहार: - ईदूदेद् (समाहारद्वन्द्वः) ।

अर्थ: - ईदन्तम्, ऊदन्तम्, एदन्तम् च द्विवचनं शब्दरूपं प्रगृह्यसंज्ञकं भवति ।

उदाहरणम् - (ईदन्तम्) अग्नी इति । (ऊदन्तम्) वायू इति । (एदन्तम्) माले इति । पचेते इति ।

आर्यभाषार्थ - (ईत्-उत्-एत्) ईकारान्त, ऊकारान्त और एकारान्त (द्विवचनम्) द्विवचनान्त पद की (प्रगृह्यम्) प्रगृह्य संज्ञा होती है । 

उदाहरणम् - (ईकारान्त) अग्नी इति । (ऊकारान्त) वायू इति । (एकारान्त) माले इति, पचेते इति ।

सिद्धिः - (१) अग्नी इति । यहां अग्नी पद ईकारान्त द्विवचन है । इसकी प्रगृह्य संज्ञा होने से यह 'प्लुतप्रगृह्या अचि नित्यम्' (६.१.१२५) से प्रकृतिभाव से रहता है । 'अकः सवर्णे दीर्घः' (६.१.१०१) से प्राप्त सवर्ण दीर्घ नहीं होता है ।

(२) वायू इति । यहां वायू पद ऊकारान्त द्विवचन है । इसकी प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृति भाव से रहता है । 'इको यणचि' (६.१.७७) से प्राप्त यण्-आदेश (व्) नहीं होता है ।

(३) माले इति । यहां माले पद एकारान्त द्विवचन है । इसकी प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृतिभाव से रहता है । 'एचोऽयवायाव:' (६.१.७८) से प्राप्त अयादेश नहीं होता है ।

॥ अदसो मात् ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - अदसः ६।१ मात् ५।१।

अनुवृत्तिः - ईदूदेत् प्रगृह्यम् इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - अदसो मात् ईदूदेत् प्रगृह्यम् ।

अर्थ: - अदसो मकारात् परम् ईदूदेत् प्रगृह्यसंज्ञकं भवति ।

उदाहरणम् - (ईत्) अमी अत्र । (ऊत्) अमू अत्र । (एत्) एकारस्य नास्त्युदाहरणम् ।

आर्यभाषार्थ - (अदसः) अदस् शब्द के (मात्) म से परे (ईदूदेत्) ई, ऊ, एकी (प्रगृह्यम्) प्रगृह्य संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - (ई) अमी अत्र । (ऊ) अमू अत्र । (ए) ए का उदाहरण नहीं है ।

सिद्धिः - (१) अमी अत्र । यहां अदस् शब्द के मकार से उत्तर ई की प्रगृह्य संज्ञा होने से यह 'प्लुतगृह्या अचि नित्यम्' (६.१.११५) से प्रकृति भाव से रहता है । 'इको यणचि' (६.१.७७) से प्राप्त यण आदेश (य्) नहीं होता है ।

(२) अमू अत्र । यहां सब कार्य 'अमी अत्र' के समान है ।

॥ शे ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - 'शे' इत्यविभक्तिको निर्देश: ।

अनुवृत्तिः - 'प्रगृह्यम्' इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - शे प्रगृह्यम् ।

अर्थ: - 'शे' इति सुपामादेशः प्रगृह्यसंज्ञको भवति । 

उदाहरणम् - युष्मे इति । त्वे इति । मे इति ।

आर्यभाषार्थ - (शे) 'शे' सुप्-आदेश की (प्रगृह्यम्) प्रगृह्य संज्ञा होती है । 

उदाहरणम् - युष्मे इति । त्वे इति । मे इति । युष्मे = तुम्हारा । त्वे = तेरा । मे = मेरा ।

सिद्धिः - (१) युष्ये इति । 'युष्मे' यहां 'सुषां सुलुक्पूर्वसवर्णाच्छेयाडाड्यायाजाल:' (७.१.३९) से सुप् के स्थान में वैदिक भाषा में 'शे' आदेश है । इसकी प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृति भाव से रहता है । 'एचोऽयवायावः' (६.१.७८) से प्राप्त अय् आदेश नहीं होता है ।

(२) त्वे इति, मे इति - यहां सब कार्य 'युष्मे इति' के समान है । 

॥ निपात एकाजनाङ् ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - निपातः १।१ एकाच् १।१ अनाङ् १।१।

समासः - एकश्चासौ अच् इति एकाच् (कर्मधारयः) । 

अनुवृत्तिः - प्रगृह्यम् इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - अनाङ् एकाच् निपातः प्रगृह्यम् । न आङिति अनाङ् (नञ्तत्पुरुषः) ।

अर्थ: - आभिन्न एकाच् निपातः प्रगृह्यसंज्ञको भवति । 

उदाहरणम् - अ अपेहि । इ इन्द्रं पश्य । उ उत्तिष्ठ । आ एवं नु मन्यसे । आ एवं किल तत् ।

आर्यभाषार्थ - (अनाङ्) आङ् को छोड़कर (एकाच्) एक अच् स्वरूप (निपातः) निपात की (प्रगृह्यम्) प्रगृह्य संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - अ अपेहि । रे ! दूर हट । इ इन्द्रं पश्य । रे ! राजा को देख । उ उत्तिष्ठ । रे ! खड़ा हो । आ एवं नु मन्यसे । क्या तू ऐसा मानता है ? आ एवं किल तत् । क्या वह ऐसा है ?

सिद्धिः - (१) अ अपेहि । यहां 'अ' एकाच् मात्र निपात है । इसकी प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृतिभाव से रहता है । 'अकः सवर्णे दीर्घः' (६.१.१०१) से प्राप्त सवर्ण दीर्घ नहीं होता है ।

(२) 'इ इन्द्रं पश्य' आदि उदाहरणों में भी 'अ अपेहिं' के समान कार्य समझ लेवें । 

॥ ओत् ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - ओत् १।५।

अनुवृत्तिः - निपातः, प्रगृह्यम् इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - ओत् निपातः प्रगृह्यम् ।

अर्थ: - ओकारान्तो निपातः प्रगृह्यसंज्ञको भवति । 

उदाहरणम् - आहो इति । उताहो इति ।

आर्यभाषार्थ - (ओत्) ओकारान्त (निपातः) निपात की (प्रगृह्यम्) प्रगृह्य संज्ञा ।

उदाहरणम् - आहो इति । उताहो इति । आहो । हां ! उताहो । अथवा ।

सिद्धिः - (१) आहो इति । यहां 'आहो' ओकारान्त निपात की प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृति भाव से रहता है । 'एचोऽयवायाव:' (६.१.७८) से प्राप्त अव् आदेश नहीं होता है ।

(२) 'अताहो इति' । सब कार्य 'आहो इति' के समान है ।

॥ सम्बुद्धौ शाकल्यस्येतावनार्षे ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - सम्बुद्धौ ७।१ शाकल्यस्य ६।१ इतौ ७।१ अनार्षे ७।१ 

समासः - ऋषिणा प्रोक्तमिति आर्षम्, न आर्षम् अनार्षम्, तस्मिन् अनार्षे (नञ्तत्पुरुषः) ।

अनुवृत्तिः - ओत्, प्रगृह्यम् इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - सम्बुद्धौ ओत् प्रगृह्यं शाकल्यस्य अनार्षे इतौ । 

अर्थ: - सम्बुद्धिनिमित्तको य ओकारः स प्रगृह्यसंज्ञको भवति, शाकल्यस्याचार्यस्य मतेन, अनार्षे (अवैदिके) इति शब्दे परतः । 

उदाहरणम् - वायो इति (शाकल्यमते) वायविति (पाणिनिमते) ।

आर्यभाषार्थ - (सम्बुद्धौ) सम्बुद्धिनिमित्तक जो (ओत्) ओंकार है उसकी (शाकल्यस्य) शाकल्य आचार्य के मत में (प्रगृह्यम्) प्रगृह्य संज्ञा होती है । (अनार्षे) अवैदिक (इती) इति शब्द के परे होने पर ।

उदाहरणम् - 'वायो इति' (शाकल्य के मत में) 'वायविति' (पाणिनि के मत में) ।

सिद्धिः - 'वायो इति' । यहां वायो पद में सम्बुद्धिनिमित्तक ओकार है । इसकी शाकल्य आचार्य के मत में प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृति भाव से रहता है । यहां 'एचोऽयवायाव:' (६.१.७८) से अव् - आदेश नहीं होता है ।

(२) वायविति । वायो + इति = वायविति । यहां ओकार की पाणिनि मुनि के मत में प्रगृह्य संज्ञा न होने से 'एचोऽयवायाव:' (६.१.७८) से अव्-आदेश हो जाता है ।

॥ उञः ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - उञः ६।१ 

अनुवृत्तिः - शाकल्यस्येतावनार्षे, प्रगृह्यम् इति चानुवर्तते । 

अन्वयः - उञः शाकल्यस्य प्रगृह्यम् अनार्षे इतौ ।

अर्थ: - उञः शब्दस्य शाकल्यस्याचार्यस्य मतेन प्रगृह्यसंज्ञा भवति, अनार्षे (अवैदिके) इति शब्दे परतः । उ इति (शकल्यमते) विति (पाणिनिमते) ।

आर्यभाषार्थ - (उञः) उञ शब्द की (शाकल्यस्य) शाकल्य आचार्य के मत में (प्रगृह्यम्) प्रगृह्य संज्ञा होती है, (अनार्षे) अवैदिक (इतौ) इति शब्द के परे होने पर । 

उदाहरणम् - उ इति (शाकल्य के मत में) विति (पाणिनि के मत में) उ = वितर्क (विचार करना) ।

सिद्धिः - (१) उ इति । यहां उन् की शाकल्य आचार्य के मत में प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृतिभाव से रहता है । यहां 'इको यणचि (६.१.७७) से प्राप्त यण - आदेश (व्) नहीं होता ।

(२) 'विति - उ + इति = विति' । यहां उञ् की पाणिनि मुनि के मत में प्रगृह्यसंज्ञा न होने से 'इको यचि' (६.१.७७) से प्राप्त पण आदेश (व्) हो जाता है ।

॥ ऊँ ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - उँ १।१।

अन्वयः - उञ ऊँ शाकल्यस्य प्रगृह्यम् अनार्षे इतौ ।

अनुवृत्तिः - उञ इत्यनुवर्तते ।

अर्थ: - उञः स्थाने ऊँ आदेशो भवति, स च शाकल्याचार्यस्य मतेन प्रगृह्यसंज्ञको भवति, अनार्षे (अवैदिके) इति शब्दे परतः ।

उदाहरणम् - ऊँ इति ।

आर्यभाषार्थ - (उञः) उञ् के स्थान में (ऊँ) ऊँ आदेश होता है और उसकी (शाकल्यस्य) शाकल्य आचार्य के मत में (प्रगृह्यम्) प्रगृह्य संज्ञा होती है । (अनार्षे) अवैदिक (इतौ) इति शब्द के परे होने पर ।

उदाहरणम् - ऊँ इति । ऊँ -वितर्क (विचार करना) ।

सिद्धिः - (१) ऊँ इति-यहां उज् के स्थान में सानुनासिक ऊँ आदेश है । इसकी प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृति भाव से रहता है । 'इको यणचि' (६.१.७७) से प्राप्त पण आदेश (व्) नहीं होता है ।

(२) ऊँ इति । यह किसी व्यक्ति की रोषोक्ति है ।

॥ ईदूतौ च सप्तम्यर्थे ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - ईत्- ऊतौ १।२ च अव्ययपदम् । सप्तमी-अर्थे ७।१। 

समासः - ईत् च ऊत् च तौ - ईदूतौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । सप्तम्या अर्थ इति सप्तम्यर्थः, तस्मिन् सप्तम्यर्थे । (षष्ठीतत्पुरुषः) ।

अनुवृत्तिः - प्रगृह्यम् इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - सप्तम्यर्थे ईदूतौ च प्रगृह्यम् ।

अर्थ: - सप्तम्यर्थे वर्तमानौ ईकारान्त-अकारान्तौ शब्दौ च प्रगृह्यसंज्ञकोकौ भवतः ।

उदाहरणम् - (ईकारान्तः) मामकी इति । सोमो गौरी अधिश्रितः । (ऋ.९।१२।३) (ऊकारान्तः) तनू इति ।

आर्यभाषार्थ - (सप्तमी - अर्थे) सप्तमी विभक्ति के अर्थ में विद्यमान (ईद-ऊतौ) ईकारान्त और ऊकारान्त शब्द की (च) भी (प्रगृह्यम्) प्रगृह्य संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - (ईकारान्त) मामकी इति । मामकी । मेरे में । सोमो गौरी अधिश्रितः । (ऋ०९।१२।३) चन्द्रमा सूर्य पर आश्रित है । ऊकारान्त - तनू इति । तनू । शरीर में ।

सिद्धिः - (१) मामकी इति । यहां मामकी पद सप्तमी विभक्ति के अर्थ में है - मामक्याम् । इसके ईकार की प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृति भाव से रहता है । 'अकः सवर्णे दीर्घः' (६.१.१०१) से प्राप्त सवर्ण दीर्घ नहीं होता है ।

(२) सोमो गौरी अधिश्रितः । यहां गौरी पद सप्तमी विभक्ति के अर्थ में है - गौर्याम् । इसके ईकार की प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृतिभाव से रहता है । 'इको यणचि’ (६.१.७७) से प्राप्त (य्) आदेश नहीं होता है ।

(३) तनू इति । यहां तनू पद सप्तमी विभक्ति के अर्थ में है - तन्वाम् । इसके ऊकार की प्रगृह्य संज्ञा होने से यह पूर्ववत् प्रकृतिभाव से रहता है । 'इको यणचि' (६.१.७७) से प्राप्त यण्-आदेश (व्) नहीं होता है ।

॥ दाधा घ्वदाप् ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - दाधा: १।३ घु १।१ अदाप् १।१ (लुप्तप्रथमानिर्देश:) 

समासः - दाश्च धौ च ते दाधा: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । दाय् च दैप् चेति दाप् । न दाप् अदाप् (नञ्तत्पुरुषः) ।

अन्वयः - अदाय् दाधा घु ।

अर्थ: - दाप्-दैप्-भिन्ना दारूपा धारूपौ च धातू घुसंज्ञका भवन्ति । 

उदाहरणम् - दारूपाश्चत्वारो धातवः - डुदाञ् दाने - प्रणिददाति । दाण् दा प्रणिदास्यति । दो अवखण्डने - प्रणिद्यति । देङ् रक्षणे - प्रणिदयते । धारूपौ द्वौ धातू - डुधाञ् धारणपोषणयो: - प्रणिदधाति । धेट् पाने - प्रणिधयते वत्सो मातरम् ।

आर्यभाषार्थ - (दा-धा:) दा रूप और धा रूप धातुओं की (घु) घु संज्ञा होती है । (अदाप्) दाप् और प् धातु को छोड़कर । दा रूप चार धातु हैं - डुदाञ् दाने (जुहोत्या.उ.) प्रणिददाति । प्रदान करता है । दाण् दाने (भ्वादि.प.) प्रणिदास्यति । प्रदान करेगा । दो अवखण्डने (दिवा.प.) पणिद्यति । खण्डित करता है । देङ् रक्षणे (भ्वादि.आ.) । प्रणिदयते । रक्षा करता है । धा रूप दो धातु हैं - डुधाञ् धारणपोषणयो: (जुहोत्या.उ.) प्रणिदधाति । धारण-पोषण करता है । धेट् पाने (ध्वादि.) प्रणिधयति वत्सो मातरम् । बछड़ा माता का दूध पीता है ।

सिद्धिः - (१) प्रणिददाति । प्र + नि + ददाति प्रणिददाति । यहां दा धातु की घु संज्ञा होने से 'नैर्गदनदपतपदघु.. (८.४.१७) से नि को णत्व हो जाता । अन्यत्र भी ऐसा ही समझें ।      

(२) यहां अदाप् कहकर दाप लवने भ्वादि और दैप् शोधने (ध्वादि) धातुरूपों की घु संज्ञा का निषेध किया है । इससे दाप् लवने - दातं बर्हिः । कटा हुआ दर्भ । दैप् शोधने - अवदातं मुखम् । शुद्ध मुख । यहां घु संज्ञा नहीं होती । घु संज्ञा न होने से यहां 'दो दद् घो.' (७.४.४७) से दा के स्थान में दद् - आदेश नहीं होता है ।

॥ आद्यन्तवदेकस्मिन् ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - आदि-अन्तवद् अव्ययपदम् । एकस्मिन् ७।१। 

समासः - आदिश्च अन्तश्च तौ आद्यन्तौ तयो: - आद्यन्तयो:, आद्यन्तयोरिव आद्यन्तवत् (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।

अन्वयः - एकस्मिन् आद्यन्तवत् ।

अर्थ: - एकस्मिन् वर्णेऽपि आदिवद् अन्तवच्च कार्यं भवति ।

उदाहरणम् - (आदिवत्) औपगवः । (अन्तवत्) आभ्याम् ।

आर्यभाषार्थ - (एकस्मिन्) एक वर्ण में भी (आदि - अन्तवत्) आदि और अन्त के समान कार्य होता है । व्याकरणशास्त्र में आदि और अन्त को कहे हुये कार्य एक वर्ण में सिद्ध नहीं हो सकते, इसलिए यह अतिदेश = तुल्यता विधान आरम्भ किया गया है । 

उदाहरणम् - (आदिवत्) औपगवः । उपगु का पुत्र । (अन्तवत्) आभ्याम् । इन दोनों के द्वारा ।

सिद्धिः - (१) औपगवः । उपगु + अण् । उपगु + अ । औपगो  + अ । औपगव + अ । औपगव + सु । औपगवः । यहां जैसे 'आद्युदात्तश्च' (३.१.३) से तव्य आदि प्रत्यय आद्युदात्त होते हैं । वैसे 'अण्' प्रत्यय का एक वर्ण 'अ' भी इस अतिदेश से आद्युदात्त होता है ।

(२) आभ्याम् । इदम् + भ्याम् । अ + भ्याम् । आ + भ्याम् । आभ्याम् । यहां जैसे 'सुपि च' (७.३.१०८) से रामाभ्याम् आदि में अकारान्त पद को दीर्घ होता है, वैसे 'आभ्याम्' में भी एक वर्ण 'अ' को इस अतिदेश से अकारान्त मानकर दीर्घ हो जाता है ।

जैसे लोक में देखा जाता है कि देवदत्त का एक ही पुत्र है । उसका वही आदिम, वही मध्यम और वही अन्तिम पुत्र होता है, वैसे व्याकरणशास्त्र में एक वर्ण को भी आदिम और अन्तिम वर्ण मानकर कार्य किया जाता है ।

॥ तरप्तमपौ घः ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - तरप्तमपौ १।२ घ १।१

समासः - तरप् च तमप् च तौ - तरप्तमपौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।

अर्थ: - तरप्तमपौ प्रत्ययौ घ-संज्ञकौ भवतः ।

उदाहरणम् - (तरम्) कुमारितरा । (तमप्) कुमारितमा ।

आर्यभाषार्थ - (तरप्तमपौ) तरप् और तमप् प्रत्यय की (घः) घ संज्ञा होती है । 

उदाहरणम् - (तरप्) कुमारितरा । दो में अधिक कुमारी। (तमप्) कुमारितमा । सब में अधिक कुमारी ।

सिद्धिः - (१) कुमारितरा । कुमारी + तरप् । कुमारी + तर । कुमारितर + टाप् । कुमारितर + आ । कुमारितरा + सु । कुमारितरा। यहां तरप् प्रत्यय की घ-संज्ञा होने से 'रूपकल्पम्बेलवगोत्रमतहलेषु इन्योऽनेकाचो हस्व:' (६.३.४३) से 'कुमारी' शब्द का ह्रस्व हो जाता है ।

(२) कुमारितमा । कुमारी + तमप् । कुमारितमा । शेष कार्य 'कुमारितरा' केसमान है ।

॥ बहुगणवतुडति संख्या ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - बहु-गण-वतुडति १।१ संख्या १।१।

समासः - बहुश्च गणश्च वतुश्च डतिश्च एतेषां समाहारः - बहुगणवतुडति (समाहारद्वन्द्वः) ।

अर्थः - बहु-गणशब्दौ वतुप्रत्ययान्ता इतिप्रत्ययान्ताश्च शब्दा: संख्या संज्ञा भवन्ति ।

उदाहरणम् - (बहु:) बहुकृत्वः । बहुधा । बहुकः । बहुश: । (गण) गणकृत्वः । गणधा । गणकः । गणशः । (वतुप्रत्ययान्तः) तावत्कृत्वः । तावद्धा । तावत्कः । तावच्छ: । (इतिप्रत्ययान्तः) कतिकृत्वः । कतिधा । कतिकः । कतिश: ।

आर्यभाषार्थः - (बहु-गण-वतु-डति) बहु और गण शब्द की तथा वतु-प्रत्ययान्त और इति प्रत्ययान्त शब्द की (संख्या) संख्यासंज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - (बहु) बहुकृत्व: । बहुत बार । बहुधा । बहुत प्रकार से । बहुकः । बहुतों से खरीदा हुआ । बहुशः । बहुतों को । (गण) गणकृत्वः । गणधा । गणकः । गणशः । अर्थ पूर्ववत् है । (वतुप्रत्ययान्त) तावत्कृत्वः । उतनी बार । तावद्धा । उतने प्रकार से । तावत्कः । उतने से खरीदा हुआ । तावच्छ: । उतनों को। (इतिप्रत्ययान्त) कतिकृत्वः । कितनी बार । कतिधा । कितने प्रकार से । कतिकः । कितने प्रकार से खरीदा हुआ । कतिश: । कितनों को ।

सिद्धिः - (१) बहुकृत्वः । बहु + कृत्वसुच् । बहु + कृत्वस् । बहुकृत्वः । यहां बहु शब्द की संख्या संज्ञा होने से 'संख्याया: क्रियाभ्यावृत्तिगणने कृत्वसुच्' (५.४.१७) से कृत्वसुच् प्रत्यय होता है ।

(२) बहुधा । बहु + धा । बहुधा । यहां बहु शब्द की संख्या संज्ञा होने से 'संख्याया विद्यार्थी धा (५.३.४२) से 'धा' प्रत्यय होता है ।

(३) बहुकः । बहु + कन् । बहु + क। बहुक + सु । बहुकः । यहां बहु शब्द की संख्या संज्ञा होने से 'संख्याया अतिशदन्ताया: कन्' (५.१.२२) से कन् प्रत्यय होता है ।

(४) बहुश: । बहु + शस् । बहुशः । यहां बहु शब्द की संख्या संज्ञा होने से 'बहल्पार्थाच्छस्कारकादन्यतरस्याम् (५.४.४२) से शस् प्रत्यय होता है ।

(५) गणकृत्व: आदि में सब कार्य 'बहुकृत्वः' आदि के समान समझें ।

(६) तावत्कृत्वः । तद् + वतुप् । तद् + वत् । त + वत् । तावत् । तावत् + कृत्वसुच् । तावत् + कृत्वस् । तावत्कृत्वः । यहां प्रथम तद् शब्द से 'यत्तदेतेभ्यः परिमाणे वतुप् (५.२.३९) से वतुप् प्रत्यय होता है, तत्पश्चात् वतु- प्रत्ययान्त तावत् शब्द की संख्या संज्ञा होने से 'बहुकृत्व:' आदि के समान इससे कृत्वसुच् आदि प्रत्यय होते हैं ।

(७) कतिकृत्वः । किम् + इति । किम् + अति । क + अति । कति । कति + कृत्वसुच् । कति + कृत्वस् । कतिकृत्वः । यहां प्रथम किम् शब्द से किम: संख्यापरिमाणे इति च' (५.२.४१) से इति प्रत्यय होता है, तत्पश्चात् इतिप्रत्ययान्त कति शब्द की संख्या संज्ञा होने से 'बहुकृत्व:' आदि के समान इससे 'कृत्वसुच्' आदि प्रत्यय होते हैं । 

॥ ष्णान्ता षट् ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - ष्णान्ता १।१ षट् १।१।

समासः - षश्च णश्च तौ ष्णौ, अन्तश्च अन्तश्च तौ - अन्तौ । ष्णौ अन्तौ यस्या: सा ष्णान्ता (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितबहुव्रीहि:) ।

अनुवृत्तिः - संख्या इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - ष्णान्ता संख्या षट् ।

अर्थ: - षकारान्ता नकारान्ता च या संख्या सा षट्संज्ञिका भवति । 

उदाहरणम् - (षकारान्ता) षट् तिष्ठन्ति । षट् पश्य । (नकारान्ता) पञ्च तिष्ठन्ति । पञ्च पश्य ।

आर्यभाषार्थ - (ष्णान्ता) षकारान्त और नकारान्त (संख्या) संख्यावाची शब्द की (षट्) षट् संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - (षकारान्त) षट् तिष्ठन्ति । छः बैठते हैं । षट् पश्य । छः को देख । (नकारान्त) पञ्च तिष्ठन्ति । पांच बैठते हैं । पञ्च पश्य । पांचों को देख । इत्यादि ।

सिद्धिः - (१) षट् तिष्ठन्ति । षष् + जस् । षष् + अस् । षष् + ०। षड् । षट् । यहां 'ष' शब्द की षट् संज्ञा होने से 'षड्भ्यो लुक्' (७.१.२२) से जस् प्रत्यय का लुक हो जाता है ।

(२) षट् पश्य । षष् + शस् । षष् + अस् । षष् + ०। षड् । षट् । यहां षष्' शब्द की षट् संज्ञा होने से पूर्ववत् शस् प्रत्यय का लुक हो जाता है ।

(३) पञ्च तिष्ठन्ति । पञ्च पश्य । यहां पञ्चन् शब्द से सब कार्य 'षट्' के समान समझें ।

॥ डति च ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - इति १।१ (लुप्तप्रथमानिर्देशः) च अव्ययपदम् । 

अनुवृत्तिः - संख्या, षट् इति चानुवर्तते ।

अन्वयः - इति संख्या च षट् ।

अर्थ: - इति - प्रत्यायान्ता या संख्या साऽपि षट्संज्ञिका भवति । 

उदाहरणम् - कति तिष्ठन्ति । कति पश्य ।

आर्यभाषार्थ - (इति) इति - प्रत्ययान्त (संख्या) संख्यावाची शब्द की (च) भी (षट्) संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - कति तिष्ठन्ति । कितने बैठते हैं । कति पश्य । कितनों को देख ।

सिद्धिः - (१) कति तिष्ठन्ति । किम् + इति । किम् + अति । क् + अति । कति । कति + जस् । कति + ०। कति । यहां इति प्रत्ययान्त कति शब्द की षट् संज्ञा होने से 'षड्भ्यो लुक्' (७.१.२१) से जस् प्रत्यय का लुक् हो जाता है ।

(२) कति पश्य । कति + शस् । कति+०।कति । यहां इति प्रत्ययान्त कति शब्द की षट् संज्ञा होने से पूर्ववत् शस् प्रत्यय का लुक हो जाता है ।

॥ क्तक्तवतू निष्ठा ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - क्त-क्तवतू १।२ निष्ठा १।१

समासः - क्तश्च क्तवतुश्च तौ क्तक्तवतू (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।

अर्थ: - क्त-क्तवतू प्रत्ययौ निष्ठा-संज्ञकौ भवतः ।

उदाहरणम् - (क्त) कृतः । भुक्त: । (क्तवतु) कृतवान् । भुक्तवान् ।

आर्यभाषार्थ - (क्तक्तवतू) क्त और क्तवतु प्रत्यय की (निष्ठा) निष्ठा संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - (क्त) कृतः । किया । भुक्तः । खाया । क्तवतु-कृतवान् । किया । भुक्तवान् । खाया ।

सिद्धिः - (१) कृतः । कृ + क्त । कृ + त। कृत + सु । कृतः। यहां डुकृञ् करणे (तना.उ.) धातु से 'निष्ठा' (३.२.१०२) सूत्र से क्त प्रत्यय भूतकाल में विधान किया गया है । 

(२) कृतवान् । कृ + क्तवतु । कृ + तवत् । कृ + तव + तुम् + त् । कृ + तव + न् + त् । कृ + तवन् । कृतवन् + सु । कृतवान् + सु । कृतवान् + ० । कृतवान् । यहां डुकृञ करणे धातु 'निष्ठा' (३.२.१०२) सूत्र से भूतकाल में क्तवतु प्रत्यय किया गया है । यहां 'उगिदवा सर्वनामस्थाने चाधातो:' (७.१.७०) से नुम का आगम और सर्वनामस्थाने चाऽसम्बुद्धौ (६.४.८) से दीर्घ होता है.

विशेष - क्त और क्तवतु ये दोनों प्रत्यय भूतकाल में होते हैं । क्त प्रत्यय प्रायशः कर्मवाच्य में और क्तवतु प्रत्यय कर्तृवाच्य में होता है ।

॥ सर्वादीनि सर्वनामानि ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - सर्वादीनि १।३ सर्वनामानि १।३।

समासः - सर्व आदिर्येषां तानीमानि - सर्वादीनि (बहुव्रीहि समास:) । 

अर्थ: - सर्वादीनि शब्दरूपाणि सर्वनामसंज्ञकानि भवन्ति ।

उदाहरणम् - (सर्व:) सर्वे । सर्वस्मै । सर्वस्मात् । सर्वस्मिन् । सर्वकः । (विश्व:) विश्वे । विश्वस्मै । विश्वस्मात् । विश्वस्मिन् । विश्वकः ।

सर्वादिगण: - सर्व । विश्व । उभ । उभय । इतर । उतम । कतर । कतम। इतर । अन्यतर । त्व । त्वत् । नेम । सम । सिम। पूर्वपरावर दक्षिणोत्तरापराधराणि व्यवस्थायामसंज्ञायाम् । स्वमज्ञातिधनाख्यायाम् । अन्तरं बहिर्योगोपसंव्यानयोः। त्यद् । यद् । एतद् । इदम् अदस्। एक । द्वि । युष्मद् । अस्मद् । भवतु । किम् । इति सर्वादयः ।

आर्यभाषार्थ - (सर्वादीनि) सर्व आदि शब्दों की (सर्वनामानि) सर्वनाम संज्ञा होती है ।    

उदाहरणम् - (सर्व) सर्वे । सब । सर्वस्मै । सबके लिये । सर्वस्मात् । सब से। सर्वस्मिन् । सब में । सर्वकः । सब । (विश्व) विश्वे । विश्वस्मै । विश्वस्मात् । विश्वस्मिन् । विश्वकः । इत्यादि । अर्थ पूर्ववत् है ।

सिद्धिः - (१) सर्वे । सर्व+जस् । सर्व+शी । सर्व+ई। सर्वे । यहां सर्व शब्द की सर्वनाम संज्ञा होने से 'जस: शी' (७.१.१७) से जस् के स्थान में शी आदेश होता है ।

(२) सर्वस्मै । सर्व+ङे । सर्व+स्मै । सर्वस्मै । यहां सर्व शब्द की सर्वनाम संज्ञा होने से 'सर्वनाम्नः स्में (७.१.१४) से 'ङे' के स्थान में 'स्मै' आदेश होता है ।

(३) सर्वस्मात् । सर्व+ङसि । सर्व+स्मात् । सर्वस्मात् । यहां सर्व शब्द की सर्वनाम संज्ञा होने से 'इसियोः स्मात्स्मिनौ (७.१.१५) से 'इसि' के स्थान में 'स्मात्' आदेश होता है ।

(४) सर्वस्मिन् । सर्व+ङि । सर्व+स्मिन् । सर्वस्मिन् । यहां सर्व शब्द की सर्वनाम संज्ञा होने से पूर्ववत् ङि' के स्थान में 'स्मिन्' आदेश होता है ।

(५) सर्वक: । सर्व+अकच्+अ । सर्व + अक + अ । सर्वक+सु । सर्वक: । यहां सर्व शब्द की सर्वनाम संज्ञा होने से 'अव्ययसर्वनाम्नामकच् प्राक् टेः' (५.३.७१) से टि भाग से पूर्व अकच् प्रत्यय होता है ।

(६) 'विश्वे' आदि शब्दों की सिद्धिः 'सर्वे' आदि शब्दों से समान समझें । 

॥ विभाषा दिक्समासे बहुव्रीहौ ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - विभाषा १।१ दिक्-समासे ७।१ बहुव्रीहौ ७।१। 

समासः - दिशां समासः इति दिक् समासः तस्मिन् दिक्समासे (षष्ठीतत्पुरुष:) ।

अनुवृत्तिः - सर्वादीनि सर्वनामानि इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - बहुव्रीहौ दिक्समासे सर्वादीनि सर्वनामानि ।

अर्थ: - बहुव्रीहिसंज्ञके दिग्वाचिशब्दानां समासे सर्वादीनि शब्दरूपाणि विकल्पेन सर्वनामसंज्ञकानि भवन्ति ।

उदाहरणम् - उत्तरस्या: पूर्वस्याश्चान्तराला दिक् - उत्तरपूर्वा । उत्तरपूर्वस्यै । उत्तपूर्वायै । दक्षिणस्याः पूर्वस्याश्चान्तराला दिक् दक्षिणपूर्वा । दक्षिणपूर्वस्यै । दक्षिणपूर्वायै ।

आर्यभाषार्थ - (बहुव्रीही) बहुव्रीहि नामक (दिक्समासे) दिशावाची शब्दों के समास में (सर्वादीनि) सर्व आदि शब्दों की (विभाषा) विकल्प से (सर्वनामानि) सर्वनाम संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - उत्तरपूर्वस्यै । उत्तरपूर्वायै । उत्तर - पूर्वा दिशा के लिये । दक्षिणपूर्वस्यै । दक्षिणपूर्वायै । दक्षिण-पूर्वा दिशा के लिये ।

सिद्धिः - (१) उत्तरपूर्वस्यै । उत्तरस्याः पूर्वस्याश्चान्तराला दिक् उत्तरपूर्वा । यहां 'दिङ्नामान्यन्तराले' (२.२.२६) से बहुव्रीहि समास है । उत्तरपूर्वा+डे । उत्तरपूर्वा+स्याट्+ए । उत्तरपूर्वा+स्या+ए । उत्तरपूर्वस्यै । यहां सर्वनाम संज्ञा होने से 'सर्वनाम्नः स्याङ्गस्वश्च' (७.३.११४) से प्रत्यय को स्याट् का आगम और अड्ग को ह्रस्व हो जाता है । 

(२) उत्तरपूर्वायै । उत्तरपूर्वा+ङे । उत्तरपूर्वा+याद+ए। उत्तरपूर्वा+या+ए । उत्तरपूर्वायै । यहां सर्वनाम संज्ञा न होने से 'याडाप:' (७.३.११३) से प्रत्यय को याद आगम होता है ।

(३) दक्षिणस्याः पूर्वस्याश्चान्तराला दिक् दक्षिणपूर्वा । तस्मै दक्षिणपूर्वस्यै अथवा दक्षिणपूर्वायै । यहां सब कार्य पूर्ववत् है ।

॥ न बहुव्रीहौ ॥

॥ व्याख्या: ॥

वार्तिक

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - न अव्ययपदम् । बहुव्रीहौ ७।१। 

अनुवृत्तिः - सर्वादीनि सर्वनामानि इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - बहुव्रीहौ सर्वादीनि सर्वनामानि न ।

अर्थ: - बहुव्रीहिसमासे सर्वादीनि शब्दरूपाणि सर्वनामसंज्ञकानि न भवन्ति ।

उदाहरणम् - प्रियं विश्वं यस्य सः - प्रियविश्वः, तस्मै प्रियविश्वाय । द्वावन्यौ यस्य स: - द्वयन्यः, तस्मै द्वन्याय ।

आर्यभाषार्थ - (बहुव्रीहौ) बहुव्रीहि समास में (सर्वादीनि) सर्व आदि शब्दों की (सर्वनामानि) सर्वनाम संज्ञा (न) नहीं होती है ।

उदाहरणम् - प्रियं विश्वं यस्य सः प्रियविश्वः, तस्मै प्रियविश्वाय । प्रिय है विश्व जिसका उसके लिये । द्वावन्यौ यस्य सः - द्वयन्यः, तस्मै द्वयन्याय । दो अन्य पुत्रादि जिसके उसके लिये । 

सिद्धिः - (१) प्रियविश्वाय । प्रियविश्व + ङे । प्रियविश्व+य । प्रियविश्वा+य । प्रियविश्वाय। यहां विश्व शब्द की सर्वनाम संज्ञा न होने से 'डैर्य:' (७.१.१३) से ङे' के स्थान में 'य' आदेश होता है ।

(२) द्व्यन्याय । यहां सब कार्य प्रियविश्वाय के समान है ।

॥ तृतीयासमासे ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - तृतीयासमासे ७।१।

समासः - तृतीयया समास इति तृतीयासमासः, तस्मिन् - तृतीयासमासे (तृतीयातत्पुरुषः) ।

अनुवृत्तिः - सर्वादीनि सर्वनामानि न इत्यनुवर्तते । 

अन्वयः - तृतीयासमासे सर्वादीनि सर्वनामानि न ।

अर्थः - तृतीयासमासे सर्वादीनि शब्दरूपाणि सर्वनामसंज्ञकानि न भवन्ति ।

उदाहरणम् - मासेन पूर्व इति मासपूर्वः, तस्मै मासपूर्वाय । संवत्सरेण पूर्व इति संवत्सरपूर्व:, तस्मै संवत्सरपूर्वाय ।

आर्यभाषार्थ - (तृतीयासमासे) तृतीयासमास में (सर्वादीनि) सर्व आदि शब्दों की (सर्वनामानि) सर्वनाम संज्ञा (न) नहीं होती है ।

उदाहरणम् - मासेन पूर्व इति मासपूर्व, तस्मै मासपूर्वाय । मास से पूर्व के लिये । संवत्सरेण पूर्व इति संवत्सरपूर्वः, तस्मै संवत्सरपूर्वाय । वर्ष से पूर्व के लिये ।

सिद्धिः - (१) मासपूर्वाय । मासपूर्व + ङे । मासपूर्वा + य। मासपूर्वाय। यहां तृतीया समास में 'पूर्व' शब्द की सर्वनाम संज्ञा न होने से 'डेर्य:' (७.१.१३) से 'डे' के स्थान में 'य' आदेश होता है ।

(२) संवत्सरपूर्वाय । यहां सब कार्य मासपूर्वाय' के समान है ।

॥ द्वन्द्वे च ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - द्वन्द्वे ७।१ च अव्ययपदम् ।

अनुवृत्तिः - 'सर्वादीनि सर्वनामानि न' इत्यनुवर्तते । 

अन्वयः - द्वन्द्वे च सर्वादीनि सर्वनामानि न ।

अर्थ: - द्वन्द्वे समासे सर्वादीनि शब्दरूपाणि सर्वनामसंज्ञकानि न भवन्ति । 

उदाहरणम् - पूर्वे चाऽपरे च ते पूर्वापरा:, तेषां पूर्वापराणाम् । कतरे च कतमे च ते-कतरकतमा:, तेषाम् - कतरकतमानाम् ।

आर्यभाषार्थ - (द्वन्द्वे) द्वन्द्व समास में (च) भी (सर्वादीनि) सर्व आदि शब्दों की (सर्वनामानि) सर्वनाम संज्ञा (न) नहीं होती है ।

उदाहरणम् - पूर्वे चापरे च ते पूर्वापरा:, तेषाम् - पूर्वापराणाम् । पूर्व और अपरों का । कतरे च कतमे च ते कतरकतमा:, तेषाम् कतरकतमानाम् । कौन-कौन सों का ।

सिद्धिः - (१) पूर्वापराणाम् । पूर्वापर+आम् । पूर्वापर+नुट्+आम् । पूर्वापर+न्+आम् । पूर्वापरा+नाम् । पूर्वापराणाम् । यहां द्वन्द्व समास में सर्वादि शब्दों की सर्वनाम संज्ञा न होने से 'हस्वनद्यापो त्रुट' सूत्र से 'आम्' प्रत्यय को नुट् आगम होता है । 'आमि सर्वनाम्नः सुट् (७.८.५२) से सुट् आगम नहीं होता है ।

(२) कतरकतमानाम् । यहां सब कार्य 'पूर्वापराणाम्' के समान है ।

॥ विभाषा जसि ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - विभाषा १।१ जसि ७।१।

अनुवृत्तिः - द्वन्द्वे, सर्वादीनि सर्वनामानि इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - द्वन्द्वे सर्वादीनि विभाषा सर्वनामानि जसि । 

अर्थ: - द्वन्द्वे समासे सर्वादीनि शब्दरूपाणि जसि परतो विकल्पेन सर्वनामसंज्ञकानि भवन्ति ।

उदाहरणम् - कतरे च कतमे च ते - कतरकतमे । कतरे च कतमे च ते - कतरकतमाः ।

आर्यभाषार्थ - (द्वन्द्वे) द्वन्द्व समास में (सर्वादीनि) सर्व आदि शब्दों की (जति) जस् प्रत्यय परे होने पर (विभाषा) विकल्प से (सर्वनामानि) सर्वनाम संज्ञा होती है । 

उदाहरणम् - कतरे च कतमे च ते कतरकतमे । कतरे च कतमे च ते कतरकतमाः । कौन-कौन से ।

सिद्धिः - (१) कतरकतमे । कतरकतम + जस् । कतरकतम + शी । कतरकतम + ई । कतरकतमे । यहां सर्वनाम संज्ञा होने से 'जस: शी' (७.१.१७) से 'जस्' के स्थान में 'शी' आदेश होता है ।

(२) कतरकतमाः । कतरकतम + जस् । कतरकतम + अस् । कतरकतमाः । यहां सर्वनाम संज्ञा न होने से पूर्ववत् 'जस्' के स्थान में 'शी' आदेश नहीं होता ।

॥ प्रथमचरमतयाल्पार्धकतिपयनेमाश्च ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - प्रथम-चरम-तय-अल्प-अर्ध-कतिपय - नेमा: १।३। च अव्ययपदम् ।

समासः - प्रथमश्च चरमश्च तयश्च अल्पश्च अर्धश्च कतिपयश्च नेमश्च ते प्रथमचरमतयाल्पार्धकतिपयनेमाः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । 

अनुवृत्तिः - सर्वनामानि विभाषा जसि इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - प्रथम० नेमाश्च जसि विभाषा सर्वनामानि ।

अर्थ: - प्रथमचरमतयाल्पार्धकतिपयनेमा: शब्दा अपि जसि परतो विकल्पेन सर्वनामसंज्ञका भवन्ति ।

उदाहरणम् - (प्रथम) प्रथमे । प्रथमा: । (चरमः) चरमे । चरमा: । (तयः) द्वितये । द्वितया: । (अल्प:) अल्पे । अल्पा: । (अर्ध:) अर्धे । अर्धा: । (कतिपयः) कतिपये । कतिपयाः । (नेम:) नेमे । नेमाः ।

आर्यभाषार्थ - (प्रथम ०) प्रथम, चरम, तय, अल्प, अर्ध, कतिपय और नेम शब्दों की (च) भी (जसि) जस् प्रत्यय परे होने पर (विभाषा) विकल्प से (सर्वनामानि) सर्वनाम संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - (प्रथम) प्रथमे । प्रथमाः । पहले । (चरम) चरमे । चरमाः । अन्तिम । (तय) द्वितये, द्वितया: । दो अवयवोंवाले । (अर्ध) अर्धे । अर्धा: । आधे । (कतिपय) कतिपये । कतिपयाः । कई । (निम) नेमे । नेमाः । आधे ।

सिद्धिः - (१) प्रथमे । प्रथम + जस् । प्रथम + शी । प्रथम + ई । प्रथमे । यहां प्रथम शब्द की सर्वनाम संज्ञा होने से 'जस: शीं' (७.१.१७) से 'जस्' के स्थान में 'शी' आदेश होता है ।

(२) प्रथमा: । प्रथम + जस् । प्रथम + अस् । प्रथमा: । यहां प्रथम शब्द की सर्वनाम संज्ञा न होने से 'जस: शीं' (७.१.१७) से 'जस्' के स्थान में 'शी' आदेश नहीं होता है । 

(३) द्वितये । द्वि + तयप् । द्वि + तय । द्वितय + जस् । द्वितय + शी । द्वितय + ई । द्वितये । सूत्र में 'तय' कहने से तयप्-प्रत्ययान्त शब्द का ग्रहण किया जाता है । यहां प्रथशब्द से संख्याया अवयवे तयप्' (५.२.४२) से तयप् प्रत्यय होता है । शेष कार्य 'प्रथम' के समान है ।

(४) चरमे, चरमा: आदि पदों की सिद्धिः प्रथम शब्द के समान समझें । 

॥ पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि व्यवस्थायामसंज्ञायाम् ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - पूर्व-पर- अवर-दक्षिण-उत्तर-अपर-अधराणि १।३ व्यवस्थायाम् ७।१ असंज्ञायाम् ७।१।

समासः - पूर्वश्च परश्च अवरश्च दक्षिणश्च उत्तरश्च अपरश्च अधरं च तानीमानि-पूर्वापरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । न संज्ञा असंज्ञा, तस्याम् - असंज्ञायाम् (नञ्तत्पुरुषः)  ।

अनुवृत्तिः - सर्वनामानि विभाषा जसि इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - पूर्व० अधराणि विभाषा जसि सर्वनामानि व्यवस्थायाम् असंज्ञायाम् ।

अर्थः - पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि शब्दरूपाणि जसि परतो विकल्पेन सर्वनामसंज्ञकानि भवन्ति व्यवस्थायाम् असंज्ञायां च गम्यमानायाम् । 

उदाहरणम् - (पूर्व) पूर्वे । पूर्वा: । (परः) परे । पराः । (अवरः) अवरे । अवरा: । (दक्षिण) दक्षिणे । दक्षिणा: । (उत्तर:) उत्तरे । उत्तराः । (अपरः) अपरे । अपरा: । (अधर:) अधरे । अधरा: ।

आर्यभाषार्थ - (पूर्व०) पूर्व, पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अपर और अधर शब्दों की (जसि) जस् प्रत्यय परे होने पर (विभाषा) विकल्प से (सर्वनामानि) सर्वनाम संज्ञा होती है, यदि वहां (व्यवस्थायाम्) व्यवस्था और (असंज्ञायाम्) असंज्ञा हो ।

उदाहरणम् - (पूर्व) पूर्वे । पूर्वाः । पहले । (पर) परे । पराः । दूसरे । (अवर) अवरे । अवराः । इधरवाले । (दक्षिण) दक्षिणे । दक्षिणाः । दक्षिणवाले । (उत्तर) उत्तरे । उत्तराः । उत्तरवाले । (अपर) अपरे । अपराः । दूसरे । (अधर) अधरे । अधराः । निचले ।

सिद्धिः - (१) पूर्वे । पूर्व + अस् । पूर्व + पणी । पूर्व + ई । पूर्वे । यहां पूर्व शब्द की सर्वनाम संज्ञा होने से 'जस: शीं (७.१.१७) से जस् के स्थान में 'शी' आदेश होता है ।

(२) पूर्वा: । पूर्व + जस् । पूर्व + अस् । पूर्वा: । यहां पूर्व शब्द की सर्वनाम संज्ञा न होने से पूर्ववत् जस्' के स्थान में 'शी' आदेश नहीं होता है ।

विशेष - व्यवस्था का क्या लक्षण है ? 'स्वाभिधेयापेक्षावधिनियमो व्यवस्था' अपने अभिधेय की अपेक्षा से अवधि (मर्यादा) के नियम को व्यवस्था कहते हैं । यहां व्यवस्था में ही पूर्व आदि शब्दों की सर्वनाम संज्ञा होती है, अन्यत्र नहीं । जैसे 'दक्षिणा इमे गायक:' यहां दक्षिण शब्द व्यवस्था का द्योतक नहीं है, अपितु प्रवीण अर्थ का वाचक है, अतः यहां सर्वनाम संज्ञा नहीं होती है । यहां 'असंज्ञायाम्' का ग्रहण इसलिए किया गया है कि संज्ञा विशेष में पूर्व आदि शब्दों की सर्वनाम संज्ञा न हो । जैसे 'उत्तराः कुरव:' यहां उत्तर शब्द कुरु की संज्ञा विशेष है । अतः यहां सर्वनाम संज्ञा नहीं होती है ।

॥ स्वमज्ञातिधनाख्यायाम् ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - स्वम् १।१अज्ञातिधनाख्यायाम् ७।१।

समासः - ज्ञातिश्च धनं च ते ज्ञाति धने, तयोः ज्ञातिधनयो: । ज्ञातिधनयोराख्या इति ज्ञातिधनाख्या । न ज्ञाति-धनाख्या इति अज्ञातिधनाख्या, तस्याम् - अज्ञातिधनाख्यायाम् (इतरेतरयोगद्वन्द्वषष्ठीतत्पुरुषगर्भितनञ्-तत्पुरुषः) ।

अनुवृत्तिः - सर्वनामानि विभाषा जसि इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - स्वं जसि विभाषा सर्वनामानि अज्ञाति-धनाख्यायाम् । 

अर्थ: - स्वं शब्दो जसि परतो विकल्पेन सर्वनामसंज्ञको भवति, ज्ञातिधनाख्यां वर्जयित्वा ।

उदाहरणम् - स्वे पुत्राः  । स्वाः पुत्राः । स्वे गाव: । स्वा: गावः ।

आर्यभाषार्थ - (स्वम्) स्व शब्द की (जसि) जस् प्रत्यय परे होने पर (विभाषा) विकल्प से (सर्वनामानि) सर्वनाम संज्ञा होती है । (अज्ञाति-धनाख्यायाम्) यदि वह 'स्व' शब्द ज्ञाति और धन अर्थ का वाचक न हो ।

उदाहरणम् - (स्व) स्वे पुत्राः  । स्वाः पुत्राः । अपने पुत्र । स्वे गाव: । स्वा: गावः । अपने बैल । यहां स्व शब्द आत्मीय अर्थ का वाचक है । ज्ञाति और धन का नहीं । यहां ज्ञात अर्थ का इसलिये निषेध किया है कि यहां सर्वनाम संज्ञा न हो-स्वा ज्ञातव्य: । ज्ञाति-परिवार । यहां धन अर्थ का निषेध इसलिये किया है कि यहां सर्वनाम संज्ञा न हो - प्रभूता: स्वा न दीयन्ते । प्रभूत धन नहीं दिये जाते । प्रभूताः स्वा न भुज्यन्ते । प्रभूत धन नहीं भोगे जाते ।

सिद्धिः - (१) स्वे पुत्राः । स्व+जस् । स्व+शी । स्व+ई । स्वे । यहां 'स्व' शब्द की सर्वनाम संज्ञा होने से 'जस: शी' (७.१.१७) से जसू के स्थान में 'शी' आदेश होता है । 

(२) स्वाः पुत्राः । स्व+जस् । स्व+अस् । स्वाः । यहां स्व शब्द की सर्वनाम संज्ञा न होने से 'जस्' के स्थान में पूर्ववत् 'शी' आदेश नहीं होता है ।

॥ अन्तरं बहिर्योगोपसंव्यानयोः ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - अन्तरम् १।१ बहिर्योग-उपसंव्यानयोः ७।२। 

समासः - बहिर्योगश्च उपसंव्यानं च ते - बहिर्योगोपसंव्याने, तयोः बहिर्योगोपसंव्यानयोः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।

अनुवृत्तिः - सर्वनामानि विभाषा जसि इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - बहिर्योगोपसव्यानयो: अन्तरं जसि विभाषा सर्वनामानि । 

अर्थ: - बहिर्योगे उपसंव्याने चार्थेऽन्तरं - शब्दो जसि परतो विकल्पेन सर्वनामसंज्ञको भवति ।

उदाहरणम् - अन्तरे शाटका: । अन्तरा: शाटका: । (बहिर्योग) अन्तरे गृहाः । अन्तरा गृहाः । (उपसंव्याने)

आर्यभाषार्थ - (अन्तरम्) अन्तर शब्द की (जसि) जस् प्रत्यय परे रहने पर (विभाषा) विकल्प से (सर्वनामानि) सर्वनाम संज्ञा होती है । (बहिर्योग-उपसंव्यानयोः) यदि बहिर्योग और उपसंव्यान अर्थ हो ।

उदाहरणम् - (बहिर्योग) अन्तरे गृहाः । अन्तरा गृहाः । नगर से बाहर के चाण्डाल आदि के घर । (उपसंव्यान) अन्तरे शाटका: । अन्तराः शाटकाः । परिधान के योग्य धोती। 

सिद्धिः - (१) अन्तरे गृहाः । अन्तर+जस् । अन्तर+शी । अन्तर+ई। अन्तरे । यहां अन्तर शब्द की सर्वनाम संज्ञा होने से 'जस: शीं (७.१.१७) से 'जस्' के स्थान में 'शी' आदेश होता है ।

(२) अन्तरा गृहाः । अन्तर+जस् । अन्तर+अस् । अन्तराः । यहां अन्तर शब्द की सर्वनाम संज्ञा न होने से पूर्ववत् 'जस्' के स्थान 'शी' आदेश नहीं होता है ।

(३) यहां बहिर्योग और उपसंव्यान अर्थ का कथन इसलिये किया गया है कि अन्तर शब्द की यहां सर्वनाम संज्ञा न हो - 'अनयोर्ग्रामयोरन्तरे तापसः प्रतिवसति' इन दो ग्रामों के बीच में एक तपस्वी रहता है । यहां अन्तर शब्द मध्य अर्थ का वाचक है, बहिर्योग और उपसंव्यान अर्थ का नहीं ।

॥ स्वरादिनिपातमव्ययम् ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - स्वरादिनिपातम् १।१ अव्ययम् १।१।

समासः - स्वर् आदिर्येषां ते - स्वरादयः । स्वरादयश्च निपाताश्च एतेषां समाहारः - स्वरादिनिपातम् । (बहुव्रीहिगर्भितसमाहारद्वन्द्वः) । 

अर्थ: - स्वरादिगणे पठिता निपातसंज्ञकाश्च शब्दा अव्ययसंज्ञाभवन्ति ।

उदाहरणम् - स्वरादयः-स्वर् । अन्तर् । प्रातर् । निपाता: - च । वा । ह । अह । एव । स्वरादिगण: - स्वर् । अन्तर् । प्रातर् । एते । अन्तोदात्ताः पठ्यन्ते । पुनर् आद्युदात्तः । सनुतर् । उच्चैस् । नीचैस् । शनैस् । ऋधक् । आरात् । ऋते । युगपत् । पृथक् । एतेऽपि सनुतर्प्रभृतयोऽन्तोदात्ताः पठ्यन्ते । ह्यस् । श्वस् । दिवा । रात्रौ । सायम् । चिरम् । मनाक् । ईषत् । जोषम् । तूष्णीम् । बहिस्  । आविस् । अवस् । अधस् । समया । निकषा । स्वयम् । मृषा । नक्तम् । नञ् । हेतौ । अद्धा । इद्धा । सामि । एतेऽपि ह्यंस्प्रभृतयोऽन्तोदात्ताः । पठ्यन्ते । वत्-वदन्तमव्ययसंज्ञं भवति, ब्राह्मणवत्, क्षत्रियवत् । सन् । सनात् । सनत् । तिरस् । एते आद्युदात्ताः पठ्यन्ते । अन्तरा, अयमन्तोदात्तः । अन्तरेण । ज्योक् । कम् । शम् । सना । सहसा । विना । नाना । स्वस्ति । स्वधा । अलम् । वषट् । अन्यत् । अस्ति । उपांशु । क्षमा । विहायसा । दोषा । मुधा ! मिथ्या । क्त्वातोसुन्कसुनः, कृन्मकारान्तः सन्ध्यक्षरान्तोऽव्ययीभावश्च । पुरा । मिथो । मिथस् । प्रवाहुकम् । आर्यहलम् । अभीक्ष्णम् । साकम् । सार्धम् । समम् । नमस् । हिरुक् । तसलादियस्तद्धिता एधाच्पर्यन्ताः । शस्-तसी । कृत्वसुच् । सुच् । आच्-थालौ । च्यर्थाश्च । अम् । आम् । प्रतान् । प्रशान् । आकृतिगणोऽयम् ।

आर्यभाषार्थ - (स्वरादि-निपातम्) स्वर आदि शब्दों की तथा निपातसंज्ञक शब्दों की (अव्ययम्) अव्यय संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - (स्वरादि) स्वर् । अन्तर् । प्रातर् इत्यादि । (निपात) च । वा । ह । अह । एव इत्यादि । 'प्रागीश्वरान्निपाता:' (१.४.५६) इस अधिकार में निपातों का वर्णन किया जायेगा ।

अव्यय का लक्षण: -

सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु सर्वासु च विभक्तिषु ।

वचनेषु च सर्वेषु यन्न व्येति तदव्ययम् ॥

जो शब्द पुंल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग में, प्रथमादि सब विभक्तियों में, एकवचन, द्विवचन और बहुवचन में समान होता है, जो इनमें विविध रूपों को प्राप्त नहीं होता है, उसे अव्यय कहते हैं ।

॥ तद्धितश्चासर्वविभक्तिः ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - तद्धितः १।१ च अव्ययपदम् । असर्वविभक्तिः १।१। 

समासः - नोत्पद्यन्ते सर्वा विभक्तयो यस्मात् सः - असर्वविभक्ति: (बहुव्रीहि: समास:)

अनुवृत्तिः - 'अव्ययम्' इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - असर्वविभक्तिस्तद्धितश्च अव्ययम् ।

अर्थ: - असर्वविभक्तिस्तद्धितप्रत्ययान्तः शब्दोऽव्ययसंज्ञको भवति । 

उदाहरणम् - (पञ्चमी) ततः । यतः । (सप्तमी) तत्र । यत्र । तदा । यदा ।

आर्यभाषार्थ - (असर्वविभक्तिः -) सब विभक्तियों से रहित (तद्धितः) तद्धित प्रत्ययान्त शब्द की (च) भी (अव्ययम्) अव्यय संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - (पञ्चमी) तत: । वहां से । यतः। जहां से। (सप्तमी) तत्र । वहां । यत्र । जहां तदा। तब। यदा । कब ।

सिद्धिः - (१) ततः । तत्+ङसि+तस्। तत्+तस्। त अ+तस् । त+तस् । ततः । यहां पञ्चम्यन्त तत् शब्द से 'पञ्चम्यास्तसिल' (५.३.७) से तद्धित तसिल् प्रत्यय होता है । 'त्यदादीनामः' (७.१.१०२) के तत् के त् को अकार आदेश और 'अतो गुणे' (६.१.९७) से दोनों अकारों को पररूप एकादेश होता है । ततः' शब्द पञ्चमी विभक्ति केही अर्थ का बोधक है, सब विभक्तियों का नहीं । अतः इसकी अव्यय संज्ञा है ।

(२) यतः । यत् शब्द से सब कार्य 'तत्' के समान समझें ।

(३) तत्र । तत्+ङि+त्रत् । तत्+त्र । त अ+त्र । त+त्र । तत्र । यहां सप्तम्यन्त तत् 'शब्द' से 'सप्तम्यास्त्रल्' (५.३.१०) से तद्धित त्रत् प्रत्यय है । शेष कार्य ततः' के समान है । तत्र शब्द सप्तमी विभक्ति के ही अर्थ का बोधक है, सब विभक्तियों का नहीं । अतः इसकी अव्यय संज्ञा है ।

(४) यत्र । यत् शब्द से सब कार्य 'तत्र' के समान समझें ।

(५) तदा और यदा यहां सप्तम्यन्त तत् और यत् शब्द से 'सर्वेकान्यकिंयत्तदः काले दा' (५.३.१५) से 'दा' प्रत्यय होता है । शेष कार्य पूर्ववत् है ।

विशेष - 'तद्धिता:' (४.१.७६) से लेकर पञ्चम अध्याय के अन्त तक तद्धित का अधिकार है । इस अधिकार के प्रत्ययों को तद्धित प्रत्यय कहते हैं |

॥ कृन्मेजन्तः ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - कृत् १।१ म् - एजन्तः १।१। मश्च एच्च तौ मेचौ । अन्तश्च अन्तश्च तौ अन्तौ । मेचौ अन्तौ चस्य स: - (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितबहुव्रीहि:) ।

अनुवृत्तिः - 'अव्ययम्' इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - मेजन्तः कृत् अव्ययम् ।

अर्थ: - मकारान्त एजन्तश्च कृत्प्रत्ययान्तः शब्दोऽव्ययसंज्ञको भवति ।

उदाहरणम् - (मकारान्त:) स्वादुङ्कारं भुङ्क्ते । सम्पन्नङ्कारं भुङ्क्ते । लवणङ्कारं भुङ्क्ते । (एजन्तः) वक्षे राय: । ता वामेषे रथानाम् । क्रत्वे दक्षाय जीवसे  । ज्योक् च सूर्यं दृशे ।

आर्यभाषार्थ - (म् -एजन्त:) मकारान्त और एजन्त (कृत्) कृत् प्रत्ययान्त शब्द की (अव्ययम्) अव्यय संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - (मकारान्त) स्वादुङ्कारं भुङ्क्ते । स्वादिष्ट बनाकर खाता है । सम्पन्नङ्कारं भुङ्क्ते । घृतादि से समृद्ध बनाकर खाता है । लवणङ्कारं भुङ्क्ते । नमकीन बनाकर खाता है । (एजन्त) वक्षे रायः । ता वामेषे रथानाम् । कत्वे दक्षाय जीवसे । ज्योक् च सूर्यं दृशे । वक्षे । कहने के लिये । एषे । गति के लिये । जीवसे । जीने के लिये । दृशे । देखने के लिये ।

सिद्धिः - (१) स्वादुङ्कारम् । स्वादुम् + कृ + णमुल् । स्वादुम् + कृ + अम् । स्वादुम् + कार् + अम् । स्वादुङ्कारम् । यहां 'स्वादुमि णमुल् (३.४.२६) से स्वादुम् शब्द के उपपद होने पर डुकृञ् करणे (त.उ.) धातु से णमुल् प्रत्यय होता है । यह मकारान्त कृत्प्रत्ययान्त शब्द होने से इसकी अव्यय संज्ञा है ।

(२) वक्षे । वच् + से । वक् + षे । वक्षे । यहां वच् परिभाषणे (अदा.प.) धातु से 'तुमर्थे सेसेन' (३.४.९) से 'से' प्रत्यय होता है । यहां 'चोः कुः' (८.२.३०) से कुत्व तथा 'आदेशप्रत्यययो:' (८.३.५९) से षत्व होता है । यहां एजन्त कृत् प्रत्ययान्त शब्द होने से इसकी अव्यय संज्ञा है ।

(३) एषे । इण् + से । इ + से । ए + से । एषे । यहां इण्गतौ (अदा.प.) धातु से पूर्ववत् 'से' प्रत्यय होता है । शेष कार्य पूर्ववत् है ।

(४) जीवसे  । जीव + असे । जीवसे । यहां जीव प्राणधारणे' (भ्वा.प.) धातु पूर्ववत् 'असे' प्रत्यय होता है ।

(५) दृशे । दृश् + केन । दृश् + ए । दृशे । यहां 'दृशिर् प्रेक्षण (स्वा.प.) धातु से'दृशे विख्ये च' (३.४.११) से केन - प्रत्ययान्त निपातन किया गया है ।

(६) कृदतिङ् (३.१.९३) से लेकर तृतीय अध्याय के अन्त तक 'कृत्' का अधिकार है । इस अधिकार के प्रत्ययों को कृत्' प्रत्यय कहते हैं ।

(७) मकारान्त और एजन्त कृत् प्रत्ययान्त शब्दों की अव्यय संज्ञा होने से 'अव्ययादाप्सुपः' (२.४.८२) से 'सुप् का लुक् हो जाता है ।

॥ क्त्वातोसुन्कसुनः ॥

॥ व्याख्या: ॥

॥ अष्टाध्यायी प्रवचनम् ॥

विभक्तिः - क्त्वा-तोसुन्कसुनः १।३।

समासः - क्त्वा च तोसुन् च कसुन् च ते क्त्वातोसुन्कसुनः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।

अनुवृत्तिः - अव्ययम्, कृत् इत्यनुवर्तते ।

अन्वयः - क्त्वा -तोसुन्कसुनः कृत् अव्ययम् ।

अर्थ: - क्त्वाप्रत्ययान्तः, तोसुन्प्रत्ययान्तः, कसुन्प्रत्ययान्तश्च शब्दोऽव्ययसंज्ञको भवति ।

उदाहरणम् - (क्त्वा) कृत्वा । हृत्वा । (तोसुन्) पुरा सूर्यस्योदेतोराधेय: (काठक.८.३) । पुरा वत्सानामपाकर्तो: (कसुन्) पुरा क्रूरस्य विसृपो विरप्शिन् (यजु.१.२८) । पुरा जर्तृभ्य आतृदः ।

आर्यभाषार्थ - (क्त्वातोसुन्कसुनः) क्त्वा, तोसुन् और कसुन् (कृत्) प्रत्ययान्त शब्द की (अव्ययम्) अव्यय संज्ञा होती है ।

उदाहरणम् - (क्त्वा) कृत्वा । करके । हृत्वा । हरण करके । तोसुन्- पुरा सूर्यस्योदेतोराधेयः । पुरा वत्सानामपाकर्ता: । कसुनपुरा क्रूरस्य विसृपो विरप्शिन् । पुरा जर्तृभ्य आतृदः । उदेतो: । उदय होना । अगकर्ताः । दूर करने के लिये । विसृपः । फैलाना । वितृदः । हिंसा आदि करना ।

सिद्धिः - (१) कृत्वा । कृ + क्त्वा । कृत्वा । कृत्वा । यहां डुकृञ् करणे (तना.उ.) से 'समानकर्तृकयोः पूर्वकाले (३.४.२१) से क्त्वा प्रत्यय होता है ।

(२) हृत्वा । यहां हृञ् हरणे (भ्वा.उ.) धातु से पूर्ववत् क्त्वा प्रत्यय है ।

(३) उदेतो: । उत् + इण् + तोसुन् । उत् + इ + तोस् । उत् + ए + तोस् । उदेतोः । यहां उत् उपसर्ग पूर्वक 'इण् गतौं' (अदा.प.) धातु से 'भावलक्षणे स्थेणकृञ्वदिचरिहुतमिजनिभ्यस्तोसुन्' (३.४.१६) से तोसुन् प्रत्यय होता है ।

(४) अपाकतों । अप + आ + कृ + तोसुन् । अप + आ + र् + तोस् । अपाकर्ता: । यहां अप और आङ् उपसर्गपूर्वक 'कृ' धातु से पूर्ववत् 'तोसुन्' प्रत्यय होता है ।

(५) विसृपः । वि + सृप् + कसुन् । वि + सृप् + अस् । विसृपः । यहां वि उपसर्गपूर्वक 'सुपल' गतौ (स्वा.प.) धातु से 'सृपितृदो: कसुन्' (३.४.१६) से 'कसुन्' प्रत्यय होता है । 

(६) वितृदः । वि + तृद् + कसुन् । यहां वि उपसर्गपूर्वक 'उहृदिर हिंसानादरयो:' (रुधा.प.) धातु से पूर्ववत् कसुन्' प्रत्यय है । यहां क्त्वा, तोसुन, और कसुन् कृत् प्रत्ययान्त शब्दों की अव्यय संज्ञा होने से 'अव्ययादाप्युप:' (२.४.८२) से सुप् का लुक् हो जाता है ।

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