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वेदों का उपदेश- विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण के लिएः-

वेदों का उपदेश- विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण के लिएः- 


      शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं पर विचार करते हुए वेद कहता है कि प्रत्येक शिक्षार्थी , जिसे आज हम विद्यार्थी के नाम से जानते हैं, उसका चरित्र उच्च होना आवश्यक है । चरित्रवान होने से गुणों को ग्रहण करने की शक्ति बढ़ जाती है । कम समय में अधिक काम किया जा सकता है । एकाग्र बुद्धि होने से पढ़ा हुआ पाठ शीघ्र ही स्मरण हो जाता है । इस लिए वेद प्रत्येक ब्रह्मचारी के लिए उच्च चरित्र को उसका आवश्यक गुण मानता है । अथर्ववेद के अध्याय नौ के सूक्त पांच के मन्त्र संख्या तीन में इस विषय पर ही चर्चा करते हुए बताया गया है कि :

प्र पदोउव नेनीग्धी दुश्चरितं यच्चचार शुद्ध: शफेरा क्रमता प्रजानन ।

तीर्त्वा तमांसी बहुधा विपश्यन्न्जो नाकमा क्रमता त्रतियम ।। अथर्व.९.५.३।।

 

      इस मन्त्र के द्वारा परम पिता परमेश्वर मानव मात्र को उपदेश करते हुए कह रहा है कि हे मानव ! जीव होने के कारण गल्तीयाँ करना तेरा स्वभाव है । इस स्वभाव के कारण तू अपने जीवन में अनेक ऐसी आए दिन गलतीयां कर लेता है , जिनके कारण तेरे जीवन की उन्नति रुक जाती है । तेरा आगे बढ़ने का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है , बंद हो जाता है । इसलिए तेरे लिए यह आवश्यक हो जाता है की तू जो भी कार्य कर, बड़ी सावधानी से कर । अपनी किसी भी गतिविधि में किसी प्रकार की गलती न कर , कोई दोष , कोई न्यूनता न आने दे । कोई भी गलती भी तेरी उन्नति में बाधक हो सकती है । इसलिए तू जो भी कार्य हाथ में ले, उसमें किसी प्रकार की कमी न रहने दे , किसी प्रकार की गलती न आने दे ।

 

    हे मानव ! तूने अपने जीवन में अनेक प्रकार के दुराचार किये होंगे , अनेक प्रकार के श्रेष्ठ आचरण भी किए होंगे, अनेक प्रकार की गल्तियां की होंगी किन्तु तेरे पास अवसर है। तू अपने उत्तम कर्मों से, उत्तम व्यवहारों से, सद्विचार से इन सब प्रकार के दुराचार , सब प्रकार के भ्रष्ट आचरण को धो कर साफ़ कर दे । इन सब को धो कर उज्ज्वल कर दे । इस प्रकार सब दुराचारों, भ्रष्ट आचरणों को उज्ज्वल, शुद्ध व निर्मल करने के पश्चात अपने आप को सब प्रकार के उत्तम ज्ञान से सम्पन्न कर । इन उत्तम ज्ञानो का स्वामी बनकर उन्नति के मार्ग पर आगे को बढ़, उन्नति को प्राप्त कर । सब जानते हैं कि सब दुराचारों से रहित व्यक्ति ही सुशिक्षा का उत्तम अधिकारी होता है ।

 

       जब किसी व्यक्ति में दुराचार होते हैं, किसी प्रकार का कपट व्यवहार करता है, किसी को अकारण ही कष्ट देता है तो दूसरे के हृदय को तो पीड़ा होती ही है, इसके साथ ही साथ जो अकारण कष्ट देता है, उसकी अपनी स्वयं की आत्मा भी उसे दुत्कारती है, उसे उपदेश करती है कि यह कार्य अच्छा नहीं है, इसे तू न कर किन्तु दुष्ट व्यक्ति अपनी आत्मा की आवाज जो ईश्वर के आदेश पर आत्मा उसे देती है, उसको न सुनकर अपनी दुष्टता पर अटल रहता है, तथा बुरा कार्य कर ही देता है, तो उसकी अपनी शांति ही भंग हो जाती है । यह तो वही बात हुई कि कोई व्यक्ति अपने पड़ौसी को कष्ट देने के लिए स्वयं दो गुणा कष्ट भी सहने को तैयार मिलता है । पडौसी की दो आँखें फुटवाने के लिए अपनी एक आँख का बलिदान करने को भी तैयार रहता है । ऐसे व्यक्ति को सदा यह चिंता सताती रहती है कि कहीं किसी को मेरी इस दुष्टता का पता न चल जाये । इस सोच में डूबा वह अपने भले के लिए भी कुछ नहीं कर पाता । इस चिंता में रहने वाला विद्यार्थी अपना पाठ याद करने के लिए भी समय नहीं निकाल पाता । यदि किसी प्रकार वह कुछ समय निकाल भी लेता है तो उसका शैतान मन पाठ में न लग कर जो बुरा आचरण किया है , उसमें ही उलझा रहता है । जब ध्यान अपनी पढ़ाई में न होकर, अपने गलत आचरण पर है तो पाठ कैसे याद हो सकता है ? अर्थात नहीं होता और वह ज्ञान प्राप्त करने में अन्यों सो पिछड़ जाता है । इसलिए ही मन्त्र ने उपदेश किया है कि हे मानव ! अपनी उन्नति के लिए अपने अन्दर के सब भ्रष्ट आचरण को धो कर साफ सुथरा बना ले । साफ़ मन ही कुछ ग्रहण करेगा । यदि वह मलिनता से भरा है तो जो कुछ भी अन्दर जाएगा,वह मलिन के साथ मिलाकर मलिन ही होता जाएगा । कूड़े की कड़ाही में जितना चाहे घी डालो, वह कूड़ा ही बनता जाता है । इस लिए मन को मलिनता रहित करना आवश्यक है ।

 

 

      मानव जीवन अज्ञान के अंधकार से भरा रहता है । अपने जीवन के अन्दर विद्यमान सब प्रकार के अज्ञान के अँधेरे को दूर करने के लिए ज्ञान का दीपक अपने अंदर जलाना आवश्यक है । इसके लिए निरंतर ध्यान लगाना होगा । इस को शुद्ध करने के लिए एक लम्बे समय तक समाधि लगानी होगी, एकाग्रता पैदा करनी होगी । जब इस प्रकार तू अपने दुरितों को धोने का यत्न करेगा, तो तुझे मोक्ष का मार्ग मिलेगा । मोक्ष का मार्ग उस जीव को ही मिलता है, जो अपने जीवन के कलुष धोकर सब प्रकार की उन्नतियों को पाने का यत्न करता है । बिना यत्न के, बिना पुरुषार्थ के, बिना मेहनत के किसी को कभी कुछ नहीं मिला करता । इस लिए मन्त्र कहता है की हे जीव ! उठ, साहस कर, पुरुषार्थ कर, भरपूर मेहनत से अपने अंदर के सब दोषों को धो डाला । जब सब मलिनताएँ नष्ट हो जाने से तेरा अंदर खाली हो जाएगा तो इस खाली स्थान को भरने के लिए शुभ कर्म, उत्तम कर्म तेरे अन्दर प्रवेश करेंगे । जब तेरे अंदर सब शुभ ही शुभ होगा तो मोक्ष मार्ग की और तेरे कदम स्वयमेव ही चलेंगे ।

 

       इस सुंदर तथ्य पर प्रकाश डालते हुए पंडित धर्मदेव विद्यामार्तंड जी अपनी पुस्तक वेदों द्वारा समस्त समस्याओं का समाधान के पृष्ट १६ पर इस प्रकार लिखते हैं पुन: अनेक बार अज्ञानान्धकार को ज्ञान ,दीया, समाधि के द्वारा पार करता हुआ तेरा अजन्मा अमर आत्मा सुख दू:ख की सामान्य अवस्था से परे तथा दू:ख रहित मोक्ष को प्राप्त करें ।

 

वैदिक शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण :

 

      ऊपर वर्णित तथ्यों से यह बात स्पष्ट होती है की वेदों के अनुसार यदि हम शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं, यदि हम वेदानुसार शिक्षा पाना चाहते हैं तो हमारे लिए आवश्यक है कि हम उच्च चरित्र के स्वामी बनें । हमारी शिक्षा जो वेद आधारित होती है, उसका सबसे मुख्य उद्देश्य चरित्र का निर्माण ही है । चरित्र ही है जो एक व्यक्ति को बहुत ऊँचा उठा सकता है तो इस का नाश होने पर यह उसे मिट्टी में भी मिलाने की शक्ति रखता है । इसलिए चरित्र के उच्च अथवा स्वच्छ होने पर ही हम उन्नति के पथ पर बढ़ सकते हैं, मुक्ति के मार्ग पर चल सकते हैं ।

 

सदाचार का पाठ पढ़ाने वाला ही आचार्य :

 

   आज हम अपने स्कूलों में पढ़ने वालो को अध्यापक कहते हैं । यह अध्यापक लोग हमें पढ़ाते तो हैं किन्तु सिखाते नहीं । जो आचरण हमारे जीवन में होने आवश्यक हैं , जो आचरण हमारे जीवन में आवश्यक होते हैं , उन्हें पाने के लिए एक उत्तम, एक अच्छे आचार्य की शरण में जाना आवश्यक है । जिस प्रकार हम जानते हैं की धन सब सुखों का साधन है किन्तु वह धन ही सुख दे सकता है , जो पुरुषार्थ से कमाया जाए । जिस धन को लुट पाट कर प्राप्त किया गया हो , वह चिंता का कारण होता है ,सुख नहीं दे सकता । इस लिए किसी कवि ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में कहा है की :

 

जागो रे , जागो रे , हे दौलत के दीवानों

धन से बिस्तर मिल सकता

पर नींद कहाँ से लाओगे ।

दौलत स्त्री दे सकती

पर पत्नी नहीं दिला सकती ।

 

     इसलिए केवल धन के पीछे भागना भी उत्तम नहीं है । जीवन के वास्तविक सार को पाने के लिए आवश्यक है कि हम अपने जीवन को भय रहित बनाए। जीवन भय रहित तब ही बनेगा जब हम अपने जीवन के सब क्लेशों को, सब पापों को धोकर शुद्ध, साफ कर लेंगे । इन कलुशों को धोने के लिए ज्ञान पाने को लिए ही आचार्य की आवश्यकता होती है । हम इन सन्मार्ग पर ले जाने वालों को इस लिए ही तो आचार्य कहते हैं क्योंकि वह हम सदाचार का पाठ पढ़ाते हुए हमें सदाचार की और ले जाते हैं, सदाचारी बनाते हैं । उनका हमारे लिए किया गया यह कार्य ही उन्हें आचार्य बनाता है । आचरण शब्द से ही आचार्य शब्द सामने आता है । अत; हम कह सकते हैं जो हमें सदाचार के मार्ग पर लेकर जाए , वह आचार्य है ।

 

 

चरित्र निर्माण ही शिक्षा :

 

    जिस साधन से हमारे चरित्र का निर्माण हो, हम उसे शिक्षा के नाम से जानते हैं । इस से स्पष्ट है कि हम ने चाहे स्कूलों अथवा कालेजों में जा कर कितनी भी शिक्षा पा ली , कितने ही बड़े बड़े प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिए किन्तु हमारे अंदर सदाचार नहीं आया तो हमारी यह सब शिक्षा बेकार है । वास्तव में शिक्षा सदा चरित्र निर्माण का कार्य करती है तथा चरित्र निर्माण की और ही ध्यान देती है । ध्यान ही नहीं देती अपितु विशेष ध्यान देती है । इसलिए ही इसे शिक्षा की कोटि में रखा जाता है । इस कारण ही जब हम विश्व के मानचित्र पर अनेक प्रकार के शिक्षा शास्त्रियों का अवलोकन करते हैं तो हम पाते हैं कि समग्र विश्व का शिक्षाविद इस वैदिक धारणा के सामने नत है तथा एक मत से कह रहा है कि वह इस वेदोक्त शिक्षा के इस चरित्र निर्माण के उद्देश्य से पूर्णतया सहमत होने के साथ ही साथ इस के उद्देश्य का बड़ी प्रबलता से समर्थन करता हैं ।

 

महर्षि दयानंद के अनुसार शिक्षा का लक्षण :

 

महर्षि दयानंद सरस्वती ने स्वमंत्व्यमंतव्य प्रकाश के अंतर्गत सत्यार्थ प्रकाश में शिक्षा के लिए बड़े सुंदर लक्षण दिए हैं जो इस प्रकार हैं :

 

    जिससे विद्या ,सभ्यता ,धर्मात्मा ,जितेन्द्रियतादि की बढ़ती होवे और अविद्यादी दोष छूटें , उसको शिक्षा कहते हैं ।

 

     इससे स्पष्ट होता है की स्वामी जी ने उसे ही शिक्षा स्वीकार किया है ,जिस से हमें उत्तम विद्या की प्राप्ति हो, जिस से हम सभी समाज के अंग होने के योग्य स्वयंम को बना सकें , जिसके ज्ञान से हम धर्म का पालन करने वाले बनें, जिस से हम जितेन्द्रिय अर्थात अपने अंदर के सोम के रक्षण करने वाले बनें, वह सब ही विद्या अथवा शिक्षा कहलाने के योग्य है अन्य कुछ नहीं । कुछ इस प्रकार के उद्गार ही देश विदेश के अन्य महापुरुषों ने भी दिए हैं ।

 

     इंग्लैंड के सुप्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री हर्बर्ट स्पेंसर ने तो पूर्णतया स्वामी जी की बात को ही शिक्षा के रूप में स्वीकार करते हुए इस प्रकार लिखा है एजुकेशन हैस इट्स ऑब्जेक्ट्स ऑफ़ करैक्टर । जिस का भाव यह है की शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण है ।

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