ओम स्वाध्याय-सन्दोह
(दोग्धा का निवेदन)
ओ३म । यः पा॑वमा॒नीर॒ध्येत्यृषि॑भि॒: सम्भृ॑तं॒ रस॑म् ।
सर्वं॒ स पू॒तम॑श्नाति स्वदि॒तं मा॑त॒रिश्व॑ना ॥
ओ३म । पा॒व॒मा॒नीर्यो अ॒ध्येत्यृषि॑भि॒: सम्भृ॑तं॒ रस॑म् ।
तस्मै॒ सर॑स्वती दुहे क्षी॒रं स॒र्पिर्मधू॑द॒कम् ॥ ऋग्वेद 9.67.31,32
जो मनुष्य भगवान की कल्याणी वाणी का मनन करता है, वह ऋषियों के प्राप्त किये रस का, भगवान में विचरण करने वाले ब्रह्मनिष्ठ महात्मानों से चखे, पवित्र अमृत का पूर्णतया भोग करता है। उसे ज्ञानदायिनी आद्या-शक्ति संसार की सुख-सामग्री दूध, घी, मधु, जल आदि दोह कर देती है।
सचमुच वेदज्ञान का बहुत बड़ा महात्म्य है। भगवान की कल्याणी वाणी का बार - बार मनन करने से मनुष्य का बड़ा कल्यागा होता है, जो अन्य किसी साधन से हो नहीं सकता। जब संसार में वेद का प्रचार था, इतिहास इस बात का साक्षी है कि, तब संमार में सब तरह की शान्ति, समृद्धि का प्रसार था, सब का सब से प्यार था । जब से वेद धर्म का लोप हुआ है, तभी से संसार में सब प्रकार के उपद्रव, कलह, अशान्ति और दुःख दारिद्रय की वृद्धि हो रही है। संसार में सब उपद्रव को दूर करने के लिये वेद-प्रचार की नितान्त आवश्यक्ता है। इस तत्व का अनुभव करके संसार के उपकारक महर्षि दयानन्द सरस्वती स्वामी जी ने सुक्ष्म वेद-मर्म का पुनः प्रचार करने का सफल प्रयत्न किया ।
निःसंदेह वेद सब सत्यविद्यायों की पुस्तक है, लोक परलोक-उपयोगी सभी साधनों का यथार्थ ज्ञान देता है। किन्तु आत्मा परमात्मा आदि का जैसा निरूपण वेद में है, संसार के किसी भी अन्य शास्त्र में नहीं।
उप॑ ह्वये सु॒दुघां॑ धे॒नुमे॒तां सु॒हस्तो॑ गो॒धुगु॒त दो॑हदेनाम्।
श्रेष्ठं॑ स॒वं स॑वि॒ता सा॑विषन्नो॒ऽभी॑द्धो घ॒र्मस्तदु॒ षु प्र वो॑चम् ॥
वेद को वेद (ऋ. 1.164.26) में धेनु = कामधेनु कहा गया है । सचमुच यह सभी कामनाओं को दोह देती है । हां, कामधेनु को दोहन की युक्ति आना चाहिये ।
पदार्थ -
जैसे (सुहस्तः) सुन्दर जिसके हाथ वह (गोधुक्) गौ को दुहता हुआ मैं (एताम्) इस (सुदुघाम्) अच्छे दुहाती अर्थात् कामों को पूरा करती हुई (धेनुम्) दूध देनेवाली गौरूप विद्या को (उप, ह्वये) स्वीकार करूँ (उत) और (एनाम्) इस विद्या को आप भी (दोहत्) दुहते वा जिस (श्रेष्ठम्) उत्तम (सवम्) ऐश्वर्य को (सविता) ऐश्वर्य का देनेवाला (नः) हमारे लिये (साविषत्) उत्पन्न करे वा जैसे (अभीद्धः) सब ओर से प्रदीप्त अर्थात् अति तपता हुआ (घर्मः) घाम वर्षा करता है (तदु) उसी सबको जैसे मैं (सु, प्र, वोचम्) अच्छे प्रकार कहूँ वैसे तुम भी इसको अच्छे प्रकार कहो ॥ २६ ॥
भावार्थ - इस मन्त्र में रूपकालङ्कार है। अध्यापक विद्वान् जन पूरी विद्या से भरी हुई वाणी को अच्छे प्रकार देवें। जिससे उत्तम ऐश्वर्य को शिष्य प्राप्त हों। जैसे सविता समस्त जगत् को प्रकाशित करता है, वैसे उपदेशक लोग सब विद्याओं को प्रकाशित करें ॥ २६ ॥
ऋषिराज के, अनुग्रह से इस नगण्य मन को उस कामधेनु के दर्शन, स्पर्शन, सेवन, आराधन करने का शुभ योग प्राप्त हुथा। उस की दया-माया से हमें गय्या मय्या का दूध भी पीने को मिला । तब से निरन्तर इसे दोहता हूं, अब स्वयं पीता हूं और अन्यों को भी पिलाता हूं। वेद के इन शब्दों में
दुहे सांय दुहे प्रातर्दुहे मध्यन्दिन परि
दोहा ये अस्य सयन्ति तान् विद्यानुपदस्वत ।। ४।११।१२
'सांयकाल दोहता हूं, प्रातः काल दोहता हूं, दोपहर में दोहता हूं। इस के जो दोह-दूध उत्तमता से प्राप्त होते हैं, उस नाश ना होने वालें को हम जाने।
यह ऐसी कामधेनु है, जो दुध ही दुध देताी है। जिसके सर्वांग में दूध ही दूध है। दूध दूध मे भेद है। फिल यह ऐसा दूध है, जो इसे पीता है, वह इसे फिर पीना चाहता है, पीता पीता भी अघाता है। जैसै गौ का दूध पूर्ण भोजन है, गौ का दूध पीने वाले को दूसरे पदार्थों की, शरीर-यात्रा निर्वाह के लिये आवश्यकता नहीं होती, वेद-गौ दुग्ध भी आधाय्तमजीज्ञासु के लिये वैसा गुणकारी है, इस रस का पान करने वाले को किसी प्रकार के भोजन की अपेक्षा नहीं होती।
मधुछन्दा, काण्व, अग्नि भृग वषीष्ठ, वसुक, व्यास, पैल, सुमन्तु, विरजानन्द, दयानन्द आदि आदि ऐसे कुशल दोग्धाओं ने दोहने वालों ने अपने अपने समय पर इस धेनु को दोहा है, किन्तु किसी ने यह कहने साहस नहीं किया कि वह सारा का सारा दूध उसका दोह सका। ये दोग्धा अत्यन्त प्रवीण थे, इनके पात्र विशाल थे तब भी यह सब उसे पूर्ण रूप से दोह नहीं सके, तो तुम नगण्य की क्या गणना, जिनका पात्र भी छोटा-बहुत छोटा, दोहने की अटकल भी नहीं है।
मन्त्रानुसार आचरण
ओ३म् नकिर्देवा मिनीमसि नकिरा योपयामसि मन्त्रश्रुत्य चरामसि । पक्षेभिरपि कक्षेभिः स रभामहे ।।१०।१४३।७।
हे (देवाः) दिव्यगुणसपन्न महात्माओं! (नकिः) न तो हम (मिनीमसि) हिंसा करते हैं, घातपात करते हैं और (नकिः) न ही (आ-योपयामसी) फूट डालते हैं, वरन् (मन्त्रश्रुत्यम ) मन्त्र के श्रवणानुसार (चरामसि) आचरण करते हैं, चलते हैं (कक्षेभिः) तिनकों के समान तुच्छ (पक्षेभिः) साथियों के साथ भी (सम्) एक होकर, एक्मत होकर, मिल कर (रभामहे) वेग पूर्वक कार्य करते हैं।
वेद हिंसा, घातपात का अत्यन्त विरोधी है । साधारण जीवन में हिंसा वेद को अभिमत नहीं है। वास्तव में हिंसा प्रायः सपूर्ण दुगुणों का निदान है। इस वास्ते ऋषियों ने यमों में हिंसा को प्रथम स्थान दिया है। योगियों का सिद्धान्त है कि सत्य, अस्तेष, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह अहिंसा को ही उज्जवल और परिष्कृत करने के लिए है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसे अपनी जीवन-यात्रा चलाने के लिये समाज बना कर रहना होता है। समाज निर्माणा का प्रयोजन मनुष्य का सर्वविध विकास है। उसके लिये कुछ नियम विधान बनाने पड़ते है ताकि समाज का संचालन भली भांति होता रहे। "विचित्ररूपाः खलु चित्तवृत्तयः' मनुष्य के मन के स्वभाव अद्भुत होते हैं के अनुसार कई कुटिल-प्रकृति मनुष्य अपनी कुटिलता के कारण समाज में गड़बड़ उत्पन्न कर देते हैं, उससे समाज में फूट पड़ जाती है। इस भेद के कारण समाज की शक्ति क्षीण हो जाती हैं। वैदिक लोग कहत हैं, नकिर्देवा मिनीमसि नकिरा योपयामसि हम घातपात करते हैं और न ही फूट डालते हैं। ठीक है, निक्रिष्ट कामों से बचना निस्सन्देद उत्तम है। किन्तु मनुष्य का हित तो विहित कर्म्मों में है, जिसके लिए कहा है- मन्त्रश्रुत्य चरामसि के मंत्राश्रवणानुसार हम चलते हैं। अर्थात् इस मन्त्र में-वेद में-विदित, मनुष्यमात्र मी ऐसा आचरण बनाना चाहिये भगवान् ने मानव के कल्याण के लिये ही वेदवाणी का विधान किया है। वेद में मन्त्र को विद को गुरु कहा गया है मन्त्री गुरुः पुनरस्तु (ऋ० १।१४७।४) मंत्र ही फिर गुरु होवे। अर्थात् जहां कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध न हो, वहां वेद मन्त्र की शरण लेनी चाहिये। मन्त्र का एक अर्थ विचार भी होता है। अर्थात् बिना विचारे कुछ नहीं करना चाहिये। वेद की शिक्षा का एक छोटा सा नमूना इसी मन्त्र में दे दिया है पक्षेभिरपि कक्षेभि स रभामह तिनकों के समान तुच्छ साथियों के साथ एक होकर हम वेगपूर्वक कार्य करते हैं।
अर्थात् किमी को भी निचा या तुच्छता की दृष्टि से नहीं देखना चाहिये। तुच्छ से तुच्छ पदार्थ भी अपना उपयोग रखता है । समझदार मनुष्य उससे भी अपनी कार्यसिद्धि कर लेते हैं।
संकेत से यह मन्त्र उच्चनीच भाव को समाज के लिए घातक मान उसके त्यागने की प्रेरणा कर रहा है।
गुरुमन्त्र
ओ३म् । भूर्भुवः स्व' । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो न प्रचोदयात् ॥ य० २६३ ..
हे (भूः) सत्यस्वरूप प्राण । सब जगत् के जीवनाधार | प्राण से भी प्रिय | स्वयंभु। (भुवः) सर्वज्ञ । अपान । सब दुःखों से रहित । जीवों के दुःख दूर करने वाले। (स्व) आनन्द । व्यान ! नानाविध जगत् में व्यापक हो कर सब को धारण करने वाले, सब की आनन्दसाधन एव आनन्द देने वाले परमेश्वर ! (सवित) सर्व जगत के उत्पादक, सर्वैश्वर्य प्रदाता, सकल संसार के शासक, सब शुभ प्रेरणा देने वाले (देवस्य) सर्व सुख-प्रदाता, कमनीय, दिव्यगुणयुक्त आप प्रभु के (वरेण्यम् ) स्वीकार करने योग्य प्रति मेध (तत्) उस जगप्रसिद्ध (भर्गे') शुद्धस्वरूप, पवित्रकारक, चैतन्यमय, पापनाशक नेज को (धीमहि) हम धारण करें तथा ध्यान करें, (य) जो (ना) हमारी (धियः) बुद्धियों को (प्रचोदयात) शुभ प्रेरणा करे, अर्थात बुरे कर्मों से छुड़ा कर अच्छे कामों में प्रवृत्त को।
हे परमेश्वर । हे सच्चिदानन्दानन्दस्वरूप हे नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-स्वभाव । हे अज। निरंजन । निर्विकार । हे सर्वान्तर्यामीन ! हे सर्वाधार जगत्पते । सकल जगत के उत्पादक! अनादे। विश्वम्भर । सर्वव्यापिन् । हे करुणवरुणालय । हे निराकार । सर्वशक्तिमान् । न्यायकारी । समस्त संसार की सत्ता के आदिमुल । चेतनों के चेनन । सर्वज्ञ । आनन्दघन भगवन क्लेशापरामृष्ठ। कमनीय । प्रभो। जहां आप ना जाज्वल्यमान तेज पापियों को रूलाता है, वहां आप के भक्तों, आराधना करने वाले, उपासकों के लिये वह आनन्दप्रदाता है, उन के लिये वही एक पाप्त करने की वस्तु है, उन के ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान धारणा 'ध्यान समाधि की बुद्धि कर के उन के सब पाप सन्ताप का नाश कर देता है। परमाराध्य परमगुरो। तू सदा पवित्र और उन्नतिकारक प्रेरणा दिया करता है, 'हम तेरी शरण आये हैं, हमें भी पवित्र प्रेरणा दे। तू ही सब को सुमार्ग दिखाता है, हमें भी सुमार्ग दिखला । हमे ऐसी प्रेरणा कर कि जिससे हम कुमार्ग से हटकर सुमार्ग पर आरुढ़ हो, कुमार्ग से निवृत हो कर सुकाम में प्रयत्न हों, कुव्यसनों में विरक्त सत्य कार्याों में युक्त हो, सांसारिक कामनाओं को चित्त से हटा कर तेरे तेज को धारण करें, उसका ध्यान करे, ताकि हमारे सारे पापताप नष्ट हो जाएं, आवरण जल जाए, मल धुल जाये, विक्षेप का संक्षेप होते- होते सर्वथा प्रक्षेप हो जाए।
हे सकल-शुभ-विधाता । करुणानिधान । कृपालो । दयालो । हम पर ऐसी दया अनुकंपा कीजिए, कि हमें सदा तेरी प्रेरणा मिलती रहे, ताकि तेरी उस प्रेरणा स प्रेरित हुए सदा तेरी आज्ञा का पालन करते हुए नर पुत्र बन सके। प्रभो! मनोमय तुझसे यहीं प्रार्थना है।
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