॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद् धनैरपि ।
आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि ।। महाभारतम् - आदिनपर्व - १५८।२७।
आपत्ति के लिये धन की रक्षा करे (बचाए रखे) । धन के द्वारा (धन चाहे जाये) गृहिणी की रक्षा करे । अपने आप की तो गृहिणी तथा धन के चले जाने पर भी रक्षा करे ॥
न ह्यात्मपरिभूतस्य भूतिर्भवति शोभना । महाभारतम् - वनपर्व - ३२।५८।
अपने आप का अनादर करने वाले का (= अपने आप को तुच्छ समझने वाले का) अभ्युदय (= वृद्धि, उन्नति) नहीं होता ।
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव आत्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ महाभारतम् - भीष्मपर्व - ३०।५।
अपने यत्न से अपने आप का उद्धार करे, अपने आप को गिराये नहीं (हतोत्साह न हो) । आत्मा ही आत्मा का बन्धु है (दूसरा नहीं) और आत्मा ही शत्रु है ।
सर्वो हि मन्यते लोक आत्मानं बुद्धिमत्तरम् ।
सर्वस्यात्मा बहुमतः सर्वात्मानं प्रशंसति ॥ महाभारतम् - सौप्तिकपर्व - ३।४।
सब कोई अपने आप को अधिक बुद्धिमान् समझता है । सब को अपने प्रति आदर का भाव है । सब कोई अपने आप की प्रशंसा करता है ॥
किंते धनैर्बन्धिवैर्वापि किं ते किं ते दारैर्ब्रह्मण यो मरिष्यति ।
आत्मानमन्विच्छ गुहां प्रविष्टं पितामहास्ते क्व गताः पिता च ॥ महाभारतम् - शान्तिपर्व - १५७।३८।
हे ब्राह्मण ! तुझे धन से क्या काम ? बन्धुओं और स्त्री से भी क्या काम, जब तुझे मृत्यु से छुटकारा नहीं । आत्मा की खोज कर जो गुफा में छिपा है । तेरे पितामह कहां गये और पिता कहाँ ॥
किमात्मना यो न जितेन्द्रियो वशी । महाभारतम् - शान्तिपर्व - ३२१।९३।
अपने आप से क्या लाभ जब इन्द्रियों और मन पर वश नहीं ।
ओ३म् वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम् ।
ओ३म् क्रतो ! स्मर, क्लिवे स्मर, कृतं स्मर ।। (यजुर्वेदसंहिता - ४०.१५)
वह (वायु) गतिशील जीवात्मा अभौतिक है, अतएव कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता और यह भौतिक शरीर तो अन्त में भस्मरूप में परिणत होने वाला है । हे कर्मशील जीवात्मन् ! तू सर्वरक्षक ईश्वर को स्मरण रख, सामर्थ्य-प्राप्ति के लिये उसका स्मरण किया कर और अपने कर्मों का निरीक्षण किया कर ।
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः ।
तांस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ।। (यजुर्वेदसंहिता - ४०.३)
जो आत्मा को अवनति (पतन) की ओर ले जाने वाले हैं, वे जीते जी दुःख पाते हैं और मृत्यु के बाद केवल प्राणपोषण में तत्पर उन पशु आदि की योनियों में पहुँचते हैं, जो अज्ञान रूपी अन्धकार से पूर्ण होती हैं ।
बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च ।
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ।। (श्वेता.५.९)
केश के अग्र भाग के सौ टुकड़े किये जायें और उनमें से एक के फिर सौ टुकड़े किये जायें अर्थात् केश के सूक्ष्म अग्रभाग के दस हजारवें भाग के समान सूक्ष्म जीवात्मा है, परन्तु वह सामर्थ्य में प्रबल है ।
न जायते म्रियते वा कदाचिन्, नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।। (महाभा.भी. २६.२०)
यह जीवात्मा कभी न तो उत्पन्न होता है और न मरता है और ऐसा भी नहीं है कि यह होकर फिर नहीं होगा। यह जन्मरहित, नित्य, सनातन और प्राचीन है । शरीर के मारे जाने पर, यह नहीं मारा जाता ।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। (महाभा.भी. २६.२२)
जैसे मनुष्य फटे हुए वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्र धारण कर लेता है, वैसे ही यह जीवात्मा जीर्ण शरीरों को त्यागकर दूसरे नवीन शरीर प्राप्त कर लेता है ।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ।। (महाभा.भी. २६.२३)
इस आत्मा को न तो शस्त्र काट सकते हैं, न इसे अग्नि जला सकता है । न इसको जल गीला कर सकता है और न वायु सुखा सकता है ।
अच्छेद्यो ऽयमदाह्यो ऽयमक्लेद्यो ऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।।(महाभा.भी. २६.२४)
अतः यह आत्मा काटे जाने, जलाये जाने, भिगोये जाने तथा सुखाये जाने के अयोग्य है । यह नित्य, सब प्राणियों के शरीरों में स्थित, स्थिर, नियमित और सनातन है ।
अन्तवन्त इमे देहा, नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य, तस्माद् युध्यस्व भारत ।। (महाभा.भी. २६.१८)
इस नित्य, अविनाशी और स्थूल-परिमाणरहित आत्मा के शरीरों को अन्तवाला (अनित्य) कहा गया है । इसलिये हे अर्जुन ! तू युद्ध कर ।
न प्रणाशोऽस्ति जीवस्य, दत्तस्य च कृतस्य च ।
याति देहान्तरं प्राणी, शरीरं तु विशीर्यते ।। (महाभा.शा. १८७.१)
जीवात्मा का, दिये हुए दान का और किये गये कर्म का कभी नाश नहीं होता । यथासमय जीवात्मा दूसरे देह को प्राप्त करता है और पूर्व शरीर नष्ट हो जाता है ।
न जीवनाशोऽस्ति हि देहभेदे, मिथ्यैतदाहुर्मूत इत्यबुद्धाः ।
जीवस्तु देहान्तरितः प्रयाति, दशार्धतैवास्य शरीरभेदः ।। (महाभा.शा. १८७.२)
शरीरपात होने पर जीवात्मा का नाश नहीं होता, अज्ञानियों का यह कहना मिथ्या है कि वह मर गया । जीवात्मा तो दूसरे शरीर में स्थानान्तरित हो जाता है । इसके शरीर का पात तो पञ्चतत्त्वों का अपने-अपने कारण में मिल जाना है ।
कामं क्रोधं लोभं मोहं, त्यक्त्वाऽऽत्मानं भावय कोऽहम् ।
आत्मज्ञानविहीना मूढ़ास्, ते पच्यन्ते नरकनिगूढ़ाः ।। (मोहमुद्गरः - ५)
हे मनुष्य ! काम, क्रोध, लोभ और मोह को त्यागकर अपनी आत्मा के विषय में चिन्तन कर कि मैं कौन हूँ। जो आत्मज्ञान-रहित हैं, वे मूर्ख नरक में पड़कर दुःख रूपी फल पाते हैं ।
न पञ्चसाधारणमत्र किञ्चिच्छरीरमेको वहतेऽन्तरात्मा ।
स वेत्ति गन्धांश्च रसान् श्रुतीश्च, स्पर्शञ्च रूपञ्च गुणाश्च येऽन्ये ।।
इस आत्मतत्त्व में पांच भौतिक तत्त्व मिश्रित नहीं है । एक अन्तरात्मा ही इस शरीर का वहन करता है । वही जीवात्मा गन्ध, रस, शब्द, स्पर्श और रूप को तथा अन्य गुणों को अनुभव करता है ।
यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं, यावच्च दूरे जरा, यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता, यावत् क्षयो नायुषः ।।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा, कार्य: प्रयत्नो महान् प्रोद्दीप्ते भवने तु कूपखननं, प्रत्युद्यमः कीदृशः ? ।। (वैराग्यशतकम् -८२)
जब तक यह शरीर स्वस्थ है-नीरोग है और जब तक बुढापा दूर है, जब तक इन्द्रियों का सामर्थ्य कम नहीं होता और जब तक आयु क्षीण नहीं होती; तब तक ही विद्वान् मनुष्य को आत्मकल्याण के विषय में महान् प्रयत्न करना चाहिये । बुढ़ापा आदि आ जाने पर आत्मकल्याणार्थ प्रयत्न करना तो ऐसा ही है, जैसा घर में अग्नि लग जाने पर उसे बुझाने हेतु कूप खोदना ।
न शरीराश्रितो जीवस्तस्मिन्त्रष्टे प्रणश्यति ।
समिधामिव दग्धानां, यथाग्निर्दृश्यते तथा ।।
समिधामुपयोगान्ते यथाग्निर्मोपलभ्यते आकाशानुगतत्वाद्धि, दुर्गाह्यो हि निराश्रयः ।।
तथा शरीरसंत्यागे, जीवो ह्याकाशवत् स्थितः ।
न गृह्यते तु सूक्ष्मत्वाद्, यथा ज्योतिर्न संशयः ।।
शरीर में रहने वाला जीवात्मा शरीर के नष्ट हो जाने पर भी नष्ट नहीं होता, अपितु वैसे ही वर्तमान रहता है, जैसे समिधाओं के पूर्णतया जल जाने पर भी अग्रि वर्तमान रहता है । जैसे समिधाओं के पूर्णतया भस्म हो जाने पर अग्नि इसलिये दृष्टिगत नहीं होता क्योंकि, आकाशवत् सूक्ष्म होने के कारण वह तत्त्व आश्रयरहित हो जाने से ग्रहण योग्य नहीं रहता, वैसे ही शरीर को त्याग देने के पश्चात् जीवात्मा भी आकाश के समान वर्तमान रहता है, किन्तु वह सूक्ष्म होने के कारण चक्षु आदि के द्वारा ज्योति के समान ग्रहण नहीं किया जा सकता ।
तत्त्वावबोधो हर्षणानामुत्कृष्टतमम् ।। (चरक. सू.३०.१५)
आत्मतत्त्व का ज्ञान हर्षित करने वाले कारणों में सबसे श्रेष्ठ है ।
प्राप्ता जरा यौवनमप्यतीतं, बुधा यतध्वं परमार्थसिद्धये ।
आयुर्गतप्रायमिदं यतोऽसौ, विश्रम्य विश्रम्य न याति कालः ।।
बुढ़ापा आ गया है, यौवन बीत गया है । हे बुद्धिमान् लोगो ! परमार्थ (आध्यात्मिक उन्नति) की सिद्धि के लिये शीघ्र प्रयत्न करो । यह आयु लगभग समाप्त होने वाली है, याद रखना, यह काल विश्राम करता हुआ नहीं चलता, अपितु झपाटे से चलता जाता है ।
तं दुर्दर्श गूढमनु प्रविष्टं, गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम् ।
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं, मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति ।। (कठोपनिषद् - १.२.१२)
उस कठिनाई से अनुभव करने योग्य, गुप्त, अन्तः प्रविष्ट, बुद्धिरूपी गुफा में गहरे में स्थित और प्राचीन दिव्यगुणयुक्त आत्मा को धैर्यशाली पुरुष जानकर हर्षशोक से परे हो जाता है ।
यच्छेद् वाङ् मनसि प्राज्ञस्, तद् यच्छेज् ज्ञान आत्मनि ।
ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्, तद् यच्छेच्छान्त आत्मनि ।। (कठोपनिषद् - १.३.१३)
बुद्धिमान् मनुष्य अपनी वाणी आदि इन्द्रियों को मन में लीन करे, मन को बुद्धि में लीन करे, बुद्धि को महत्तत्त्व में लीन करे और महत्तत्त्व को शान्त आत्मा में लीन करे ।
पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूस्, तस्मात् पराङ् पश्यति नान्तरात्मन् ।
कश्चिद् धीरः प्रत्यगात्मानमै क्ष-, दावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ।। (कठोपनिषद् -२.१.१)
परमात्मा ने इन्द्रियों को बहिर्मुख बनाया है, अतः इन्द्रियाधीन जीवात्मा बाहर की ओर ही प्रवृत्त होता है अन्तरात्मा की ओर नहीं। कोई विरला ही धीर पुरुष मुक्ति की कामना करता हुआ चक्षु आदि इन्द्रियों को रोककर, अपनी अन्तरात्मा की ओर अभिमुख होता है ।
सत्येन लभ्यस्तपसा होष आत्मा, सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् ।
अन्तः शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो, यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः ।। (मुण्डकोपनिषद् - ३.१.५)
यह आत्मा सत्य, तप, सम्यग्ज्ञान और सतत ब्रह्मचर्य से प्राप्त किया जा सकता है । यह आत्मा शरीर के अन्दर ज्योतिर्मय तथा विशुद्ध रूप में स्थित है, जिसे सर्व दोषों से रहित संन्यासी (अथवा संयमी) लोग ही साक्षात् करते हैं ।
॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
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