मदालसा का अपने पुत्र को ब्रह्मज्ञान का उपदेश
शुद्धो sसिं रे तात न तेsस्ति नाम
कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव ।
पंचात्मकम देहमिदं न तेsस्ति
नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतो: ॥
हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है?
न वा भवान् रोदिति वै स्वजन्मा
शब्दोsयमासाद्य महीश सूनुम् ।
विकल्प्यमाना विविधा गुणास्ते-
sगुणाश्च भौता: सकलेन्द्रियेषु ॥
अथवा तू नहीं रोता है, यह शब्द तो राजकुमार के पास पहुँचकर अपने आप ही प्रकट होता है। तेरी संपूर्ण इन्द्रियों में जो भाँति भाँति के गुण-अवगुणों की कल्पना होती है, वे भी पाञ्चभौतिक ही है?
भूतानि भूतै: परि दुर्बलानि
वृद्धिम समायान्ति यथेह पुंस: ।
अन्नाम्बुदानादिभिरेव कस्य
न तेsस्ति वृद्धिर्न च तेsस्ति हानि: ॥
जैसे इस जगत में अत्यंत दुर्बल भूत अन्य भूतों के सहयोग से वृद्धि को प्राप्त होते है, उसी प्रकार अन्न और जल आदि भौतिक पदार्थों को देने से पुरुष के पाञ्चभौतिक शरीर की ही पुष्टि होती है । इससे तुझ शुद्ध आत्मा को न तो वृद्धि होती है और न हानि ही होती है।
त्वं कञ्चुके शीर्यमाणे निजेsस्मिं-
स्तस्मिश्च देहे मूढ़तां मा व्रजेथा: ॥
शुभाशुभै: कर्मभिर्दहमेत-
न्मदादि मूढै: कंचुकस्ते पिनद्ध: ॥
तू अपने उस चोले तथा इस देहरुपि चोले के जीर्ण शीर्ण होने पर मोह न करना। शुभाशुभ कर्मो के अनुसार यह देह प्राप्त हुआ है। तेरा यह चोला मद आदि से बंधा हुआ है (तू तो सर्वथा इससे मुक्त है) ।
तातेति किंचित् तनयेति किंचि-
दम्बेती किंचिद्दवितेति किंचित्
ममेति किंचिन्न ममेति किंचित्
त्वं भूतसंग बहु मानयेथा: ॥
कोई जीव पिता के रूप में प्रसिद्ध है, कोई पुत्र कहलाता है, किसी को माता और किसी को प्यारी स्त्री कहते है, कोई ‘यह मेरा है’ कहकर अपनाया जाता है और कोई ‘मेरा नहीं है’ इस भाव से पराया माना जाता है। इस प्रकार ये भूतसमुदाय के ही नाना रूप है, ऐसा तुझे मानना चाहिये ।
दु:खानि दु:खापगमाय भोगान्
सुखाय जानाति विमूढ़चेता: ।
तान्येव दु:खानि पुन: सुखानि
जानाति विद्वानविमूढ़चेता: ॥
यद्यपि समस्त भोग दु:खरूप है तथापि मूढ़चित्तमानव उन्हे दु:ख दूर करने वाला तथा सुख की प्राप्ति करानेवाला समझता है, किन्तु जो विद्वान है, जिनका चित्त मोह से आच्छन्न नहीं हुआ है, वे उन भोगजनित सुखों को भी दु:ख ही मानते है।
हासोsस्थिर्सदर्शनमक्षि युग्म-
मत्युज्ज्वलं यत्कलुषम वसाया: ।
कुचादि पीनं पिशितं पनं तत्
स्थानं रते: किं नरकं न योषित् ॥
स्त्रियों की हँसी क्या है, हड्डियों का प्रदर्शन । जिसे हम अत्यंत सुंदर नेत्र कहते है, वह मज्जा की कलुषता है और मोटे मोटे कुच आदि घने मांस की ग्रंथियाँ है, अतः पुरुष जिस पर अनुराग करता है, वह युवती स्त्री क्या नरक की जीती जागती मूर्ति नहीं है?
यानं क्षितौ यानगतश्च देहो
देहेsपि चान्य: पुरुषो निविष्ट: ।
ममत्वमुर्व्यां न तथा यथा स्वे
देहेsतिमात्रं च विमूढ़तैषा ॥
पृथ्वी पर सवारी चलती है, सवारी पर यह शरीर रहता है और इस शरीर में भी एक दूसरा पुरुष बैठा रहता है, किन्तु पृथ्वी और सवारी में वैसी अधिक ममता नहीं देखी जाती, जैसी कि अपने देह में दृष्टिगोचर होती है। यही मूर्खता है ।
धन्योs सि रे यो वसुधामशत्रु-
रेकश्चिरम पालयितासि पुत्र ।
तत्पालनादस्तु सुखोपभोगों
धर्मात फलं प्राप्स्यसि चामरत्वम ॥
धरामरान पर्वसु तर्पयेथा:
समीहितम बंधुषु पूरयेथा: ।
हितं परस्मै हृदि चिन्तयेथा
मनः परस्त्रीषु निवर्तयेथा: ॥
सदा मुरारिम हृदि चिन्तयेथा-
स्तद्धयानतोs न्त:षडरीञ्जयेथा: ॥
मायां प्रबोधेन निवारयेथा
ह्यनित्यतामेव विचिंतयेथा: ॥
अर्थागमाय क्षितिपाञ्जयेथा
यशोsर्जनायार्थमपि व्ययेथा:।
परापवादश्रवणाद्विभीथा
विपत्समुद्राज्जनमुध्दरेथाः॥
बेटा ! तू धन्य है, जो शत्रुरहित होकर अकेला ही चिरकाल तक इस पृथ्वी का पालन करता रहेगा। पृथ्वी के पालन से तुझे सुखभोगकी प्राप्ति हो और धर्म के फलस्वरूप तुझे अमरत्व मिले। पर्वों के दिन ब्राह्मणों को भोजन द्वारा तृप्त करना, बंधु-बांधवों की इच्छा पूर्ण करना, अपने हृदय में दूसरों की भलाई का ध्यान रखना और परायी स्त्रियों की ओर कभी मन को न जाने देना । अपने मन में सदा श्रीविष्णुभगवान का चिंतन करना, उनके ध्यान से अंतःकरण के काम-क्रोध आदि छहों शत्रुओं को जीतना, ज्ञान के द्वारा माया का निवारण करना और जगत की अनित्यता का विचार करते रहना । धन की आय के लिए राजाओं पर विजय प्राप्त करना, यश के लिए धन का सद्व्यय करना, परायी निंदा सुनने से डरते रहना तथा विपत्ति के समुद्र में पड़े हुए लोगों का उद्धार करना ।
वे पाप जो प्रायश्चितरहित हैं
धर्मराज (मृत्यु के अधिष्ठाता देव) राजा भगीरथ से कहते हैं- "भूपाल ! जो स्नान अथवा पूजन के लिए जाते हुए लोगों के कार्य में विघ्न डालता है, उसे ब्रह्मघाती कहते हैं। जो परायी निंदा और अपनी प्रशंसा में लगा रहता है तथा जो असत्य भाषण में रत रहता है, वह ब्रह्महत्यारा कहा गया है।
जो अधर्म का अनुमोदन करता है उसे ब्रह्मघात का पाप लगता है। जो दूसरों को उद्वेग में डालता है, चुगली करता है और दिखावे में तत्पर रहता है, उसे ब्रह्महत्यारा कहते हैं।
भूपते ! जो पाप प्रायश्चितरहित हैं, उनका वर्णन सुनो। वे पाप समस्त पापों से बड़े तथा भारी नरक देने वाले हैं। ब्रह्महत्या आदि पापों के निवारण का उपाय तो किसी प्रकार हो सकता है परंतु जो ब्राह्मण अर्थात् जिसने ब्रह्म को जान लिया है ऐसे महापुरुष से द्वेष करता है, उसका पाप से कभी भी निस्तार नहीं होता।
नरेश्वर ! जो विश्वासघाती तथा कृतघ्न हैं उनका उद्धार कभी नहीं होता। जिनका चित्त वेदों की निंदा में ही रत है और जो भगत्कथावार्ता आदि की निंदा करते हैं, उनका इहलोक तथा परलोक में कहीं भी उद्धार नहीं होता।
भूपते ! जो महापुरुषों की निंदा को आदरपूर्वक सुनते हैं, ऐसे लोगों के कानों में तपाये हुए लोहे की बहुत सी कीलें ठोक दी जाती है। तत्पश्चात कानों के उन छिद्रों में अत्यंत गरम किया हुआ तेल भर दिया जाता है। फिर ये कुंभीपाक नरक में पड़ते हैं।
जो दूसरों के दोष बताते या चुगली करते हैं, उन्हें एक सहस्र युग तक तपाये हुए लोहे का पिण्ड भक्षण करना पड़ता है। अत्यंत भयानक सँडसो से उनकी जीभ को पीड़ा दी जाती है और वे अत्यंत घोर निरुच्छवास नामक नरक में आधे कल्प तक निवास करते हैं।
श्रद्धा का त्याग, धर्म कार्य का लोप, इन्द्रियसंयमी पुरुषों की और शास्त्र की निंदा करना महापातक बताया गया है।
जो परायी निंदा में तत्पर, कटुभाषी और दान में विघ्न डालने वाले होते हैं वे महापातकी बताये गये हैं। ऐसे महापातकी लोग प्रत्येक नरक में एक-एक युग रहते हैं और अंत में इस पृथ्वी पर आकर वे सात जन्मों तक गधा होते हैं। तदनंतर वे पापी दस जन्मों तक घाव से भरे शरीर वाले कुत्ते होते हैं, फिर सौ वर्षों तक उन्हें विष्ठा का कीड़ा होना पड़ता है। तदनंतर बारह जन्मों तक वे सर्प होते हैं। राजन ! इसके बाद एक हजार जन्मों तक वे मृग आदि पशु होते हैं। फिर सौ वर्षों तक स्थावर (वृक्ष) आदि योनियों में जन्म लेते हैं। तत्पश्चात् उन्हें गोधा (गोह) का शरीर प्राप्त होता है। फिर सात जन्मों तक वे पापाचारी चाण्डाल होते हैं। इसके बाद सोलह जन्मों तक उनकी दुर्गति होती है। फिर दो जन्मों तक वे दरिद्र, रोगपीड़ित तथा सदा प्रतिग्रह लेने वाले होते हैं। इससे उन्हें फिर नरकगामी होना पड़ता है।
राजन् ! जो झूठी गवाही देता है, उसके पाप का फल सुनो। वह जब तक चौदह इंद्रों का राज्य समाप्त होता है, तब तक सम्पूर्ण यातनाओं को भोगता रहता है। इस लोक में उसके पुत्र-पौत्र भी नष्ट हो जाते हैं और परलोक में वह रौरव तथा अन्य नरकों को क्रमश भोगता है।"
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