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अन्नविज्ञान और उसके चमत्कार


अन्नविज्ञान और उसके चमत्कार


ओ३म् इषेत्वर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वन्याऽइन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्षमा मा वस्तेनऽईशत माघँसो ध्रुवाऽअस्मिन गोपतऔ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून्पाहि।।


इषे अन्न आदि उत्तम उत्तम पदार्थ अर्थात विज्ञान विशेष ज्ञान विर्य विज्ञान का कारणउर्जे- उत्तम रस से प्राप्त शक्ति पराक्रमत्वा- जिसमें यह सब गुण विद्यमान हैवायव- वायु के संयोग से चलने वाले प्राण इन्द्रिया और शरीर के साथ इसका अन्तःकरणस्थः इनके संयोग से हैंदेवः- सब गुणों के देने और सब प्रकार की विद्यायों को जगत में प्रसिद्ध करने वाले परमेश्वर के अतुल्य विद्वान जोव- तुम हम और अपने मित्रों के जोसविता- सब जगत की उत्पत्ती करने वाले सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त जन प्रार्पयतु- उनसे अच्छी प्रकार से अपना संबंध बना कर अर्थात उनके मार्ग का अनुसरण करके हम लोगश्रेष्ठतमाय अत्युत्तमकर्मणे- करने योग्य कर्म जिससे सब प्राणियों का कल्याण सिद्ध होता है, अर्थात यज्ञादिआप्यायध्वम्- उन्नती को प्राप्त होते हैं,  तथा हम भी हों हे भगवन जगदिश्वर हम लोगो के जोअध्न्याः- जो जो गौ आदि पशु अथवा उन्नती करने योग्य उनको सदैवइन्द्राय- परम ऐश्वर्य की प्राप्ती के लिएभागमं- सेवा करने योग्य धन और ज्ञान से भरे हुए,
प्रजावती- जिनके बहुत संतानो के समान प्रिय सहयोगी प्रजा है, तथा जोअनमिवा- व्याधि औरअयक्ष्मा- जिनमें राज यक्ष्मा आदि रोग नहीं है वहमा स्तनः- चोर डाकु कभी ना उत्पन्नन करे
इशत- तथा आप इसअघशंस- पापी अथवा पापाचरण में लीप्त पुरुष कोध्रुवा- निश्चित रूप सेअस्मिन- धार्मिक पुरुष से दूर रखें जिससे यहगोपतौ- पृथ्वी आदि पदार्थों की रक्षा करने वाले सज्जन मनुष्ययज्ञमानस्य- परमेश्वर और सर्वोपकारक सब के कल्याण के निहित करने वाले पवित्र कर्म वाला मनुष्य केपशुन- गौ घोड़े और हाथी आदि तथा लक्ष्मी औऱ प्रजा कीपाहि- रक्षा हो सके,
           

            मंत्र का प्रारंभ ही अन्न के विशेष विज्ञान से हो रहा है, अर्थात- अन्न का मतलब सिधा सा है, किसी वस्तु का जो बीज है, जैसे हम किसी वट वृक्ष को जानना चाहते हैं, तो हमे उस वट के बीज का अध्ययन करना होगा, जब हमारा सारा ध्यान बीज पर होगा, तो हम कुछ समय में विस्तार से उस बीज के यौगीक अर्थात उसकी (प्रापर्टी) को समझ सकते है। जिससे हमे यह ज्ञान अच्छी प्रकार से हो जायेगा, की वट वृक्ष सच में किन किन तत्वों से मिल कर बना है? इस प्रकार से हम यह जान सकते हैं, की किन पदार्थों के संयोग से वट का बीज तैयार होता है। और किन पदार्थों के वियोग से उसका नाश होता है? अर्थात किसी वस्तु के बीज ज्ञान होने से हमे दो प्रकार की घटना का ज्ञान होता है, पहला उसके इस संसार में उत्पन्न होने का कौन सा पदार्थ कारण? और दूसरा उसका इस संसार से लुप्त होने का कौन सा पदार्थ कारण? यहीं बात मनुष्य के उपर भी लागू होती है। क्योंकि यह विज्ञान का सिद्धांत मनुष्य के बीज या किसी वृक्ष अथवा किसी और प्राणी के बीज पर भी लागू होता है। अन्न का प्रारंभ कहां से हुआ? इसके बारें में किसी को कुछ भी नहीं पता है, यह भी निश्चित रूप से पता नहीं है की मनुष्य कब और कैसे पैदा हुआ? लेकिन एक बात निश्चित है अन्न मनुष्य से पहले यहां पृथ्वी पर था, अर्थात मनुष्य को जन्म लेने से पहले, मनुष्य के खाने की व्यवस्था यहां पृथ्वी पर की गई थी। जिसको खाकर सभी प्राणी अपने जीवन को आगे बढ़ाने मे समर्थ हुए। अन्न अथवा बीज सर्व प्रथम थे, इस तरह से यह बात सिद्ध होती है की इस जगत में जितने पक्षि है, जितने, पशु है, जितने वृक्ष हैं, जितने फल हैं, और भी जितनी वस्तुएँ है जो बीज से उत्पन्न होती है। उनका बीज उनसे पहले यहां विद्यमान था। यह एक रहस्य और आश्चर्य पूर्ण तथ्य है। जिस पर बहुत ही कम लोग चिंतन करते हैं। यद्यपि यजुर्वेद का प्रारंभ इसी विषय से पहले ही होता है, इसका प्रथम मंत्र इसी रहस्य से प्रारंभ होता है।      
     
            सर्वप्रथम अन्न कहा से उत्पन्न हुआ? अर्थात किसी वस्तु का बीज सर्व प्रथम कहां से आया? इसके बारें में हमें आज तक कुछ नहीं पता है। और इसका पता भी कैसे चल सकता है? क्योंकि सभी जानने वाले इसके बाद उत्पन्न हुए हैं। इसलिए हमें यह मानना होगा कि कोई हमारे उत्पन्न होने से पहले था। जो हम सब के साथ इस संसार में उपस्थित प्रत्येक वस्तु के बारे में वह बहुत अच्छी तरह से जानता था। जिसके कारण ही उसने हम सब के जीवन का जो साधन हवा, पानी, अग्नि, और हमारे खाने का बंदोबस्त करने के बाद ही, हम सब प्राणियों को इस जगत अर्थात इस पृथ्वी पर उत्पन्न किया। इसमें यह भी निश्चित है की वह मनुष्य के समान बिल्कुल नहीं है, क्योंकि मनुष्य इतने सालो में अपने जरूरत की वस्तुओं का पूर्ण आविष्कार नहीं कर सका है। आज भी मानव लाचार और बेवश हैं, उदाहरण के लिए मनुष्य के सामने एक कोरोना वायरस नामक बीमारी फैल गई है, जिसका इलाज इसके पास नहीं है। जिससे आज संपूर्ण विश्व त्रस्त हो चुका है। इस तरह से हम यह कह सकते हैं, कि हमसे पहले हमें बनाने वाला था, जिसने हमारे बीज को उत्पन्न किया। यह तो एक बात हो गई। दूसरी बात है की शायद यह सब कुछ अनंत काल से ऐसा ही चल रहा है, इसका कभी प्रारंभ हीन हीं होता है, और ना ही अंत होता है। कितना भी अनंत हो कहीं ना कहीं से प्रारंभ तो होता ही है। वेदों में इसी प्रकार के प्रश्नों के उत्तर विद्यमान है, वह कहते हैं, कि इस जगत का प्रारंभ होता है, और इसका अंत भी होता है। विज्ञान कहता है, की किसी भी पदार्थ की ना जन्म होता है, और ना ही अंत होता है। वह मात्र अपने रूप को बदल लेता है। जिस प्रकार से पानी को जलायेंगे तो वह वास्प बन जायेगा। और पानी को ठंडा करने  पर तो वह बर्फ में तब्दील हो जायेगा। इस प्रकार से इस बीज का कभी पूर्णरूप से नाश नहीं होता है। ना ही प्रारंभ ही होता है। यह अनादि का से विद्यमान है। जिसको यहां यजुर्वेद के प्रथम मंत्र में अन्न कहते है, आगे इसका विस्तार करते हुए कहा है। कि यह उर्जा को उत्पन्न करने वाला हैं, जिसको शक्ति और पराक्रम के रूप में परीभाशित किया जाता है। विद्यूत एक उर्जा है, जिससे संसार का सारा मशीनी कार्य चल रहा है, परमाणु में भी उर्जा है, जिससे बहुत सारे कार्य सिद्ध किये जा रहें हैं, इस परमाणु रूपी उर्जा का दो प्रयोग है, एक सकारात्मक दूसरा नकारात्मक, अर्थात एक प्रकार से परमाणु उर्जा का उपयोग करके संपूर्ण संसार का कल्याण किया जा सकता है। दूसरा इसका गलत उपयोग कर के इस संसार का नाश भी किया जा सकता है। हमारी पृथ्वी को सबसे अधिक उर्जा सूर्य से मिलती है, और पृथ्वी पर लगभग सभी जीवित प्राणी के लिए सूर्य का प्रकाश अति आवश्यक है, लेकिन इसके लिये पृथ्वी वासियों को यहां पर स्वयं के कर्मों पर नियंत्रण करना होगा, अंयथा जो सूर्य पृथ्वी के लिए परम आवश्यक है, वह भयानक नुकसान दायक भी सिद्ध हो सकता है। जैसा की हम ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से लगभग सभी परिचित ही है।
           
   इस प्रकार से हम इस नतीजे पर पहुंचे की अन्न अर्थात जो उर्जा का श्रोत है, और यह अन्न ही सभी का जन्म दाता है, जिसको हम सब ईश्वर भी कहते हैं, उर्जा एक शक्ति है जिसका प्रयोग एक चेतन सत्ता करती है। जैसा की हम सबने जाना परमाणु का सद्प्रयोग और दूर प्रयोग के बारे में, जिस प्रकार से सूर्य पृथ्वी के जीवन का मुख्य श्रोत है, यह इस पृथ्वी के जीवन का मृत्यु का भी श्रोत बन सकता है। जब इस पृथ्वी का चेतन प्राणियों में सबसे श्रेष्ठ मनुष्यों के द्वारा दूर प्रयोग होगा। परमेश्वर अन्न अर्थात बीज स्वरूप हैं जिसका ना जन्म होता है ना ही उसका अंत ही होता है। और उसी ईश्वर रूपी बीज से जगत की सभी वस्तु उत्पन्न हो रहा है, जैसा की यजुर्वेद के अंतिम चालीस अध्याय का प्रथम मंत्र यही कहता है की इशा वास्य मिदंसर्वं, अर्थात ईश्वर हर कण में विद्यमान है, किञ्चीत मात्र ऐसा कोई तत्व नहीं जिसमें वह विद्यमान ना हो। जो इस दृश्यमय जगत में दिखाई दे रहे हैं। इसी बात को तैत्तिरियोपनिषद बहुत स्पष्ट करते हुए कहता है।

   अहम् अन्नम् अहम् अन्नम् अहम् अन्नम् अहम् अन्नादः अहम् अन्नादः अहम् अन्नादः अहं श्लोककृत् अहं श्लोककृत् अहम् ऋतस्य प्रथमजाः देवेभ्यः पूर्वम् अमृतस्य ना भायि च अस्मि यः मा ददाति सः इत् एव मा अवाः। अहम् अन्नम् अन्नम् अदन्तम् अद्मि। अहं विश्वं भुवनम् अभ्यभवाम् अहं सुवर न ज्योतीः। यः एवं वेद सः उक्तं फलं अश्नुते इति उपनिषत्।

            मैं अन्न हूँ! मैं अन्न हूँ! मैं अन्न अन्नभोक्ता हूँ! मैं अन्नभोक्ता हूँ! मैं अन्नभोक्ता हूँ! मैं 'श्लोककृत्' (श्रुतिकार हूँ! मैं श्लोककृत् हूँ! मैं श्लोककृत हूँ! मैं 'ऋत' से प्रथमजात हूँ; देवो के भी पूर्व अमृत के हृदय (केन्द्र) में मैं हूँ। जो मुझे देता है, वस्तुतः वही मेरी रक्षा करता है क्योंकि मैं ही अन्न हूँ, अतः जो मेरा भक्षण करता है मैं उसी का भक्षण करता हूँ। मैंने इस सम्पूर्ण विश्व को विजित कर लिया है तथा इसे अपने अधीन कर लिया है, सूर्य के ज्योतिर्मय रूप के समान है मेरा प्रकाश।" जो यह जानता है वह इसी प्रकार गान करता है। वस्तुतः यही है उपनिषद् यही है वेद का रहस्य।
            वह हम दोनों की एक साथ रक्षा करे, वह हम दोनों को एक साथ अपने अधीन कर ले, हम दोनों एक साथ शक्ति एवं वीर्य अर्जित करें। हमारा अध्ययन हम दोनों के लिए तेजस्वी हो, प्रकाश एवं शक्ति से परिपूर्ण हो। हम कदापि विद्वेष न करें।
       अन्न से भोजन बनता है और इसके पचने से हमारे शरीर में रस बनता है, इसको बहुत सारगर्भित रूप से वैदिक विद्वान बता रहें हैं। वीर्य शरीर की बहुत मूल्यवान धातु है। भोजन से वीर्य बनने की प्रक्रिया बड़ी लंबी है। श्री सुश्रुताचार्य ने लिखा हैः
रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रजायते।
मेदस्यास्थिः ततो मज्जा मज्जायाः शुक्र संभवः।।
            जो भोजन पचता है, उसका पहले रस बनता है। पाँच दिन तक उसका पाचन होकर रक्त बनता है। पाँच दिन बाद रक्त से माँस, उसमें से 5-5 दिन के अंतर से मेद, मेद से हड्डी, हड्डी से मज्जा और मज्जा से अंत में वीर्य बनता है। स्त्री में जो यह धातु बनती है उसे 'रज' कहते हैं। इस प्रकार वीर्य बनने में करीब 30 दिन व 4 घण्टे लग जाते हैं। वैज्ञानिक बताते हैं कि 32 किलो भोजन से 800 ग्राम रक्त बनता है और 800 ग्राम रक्त से लगभग 20 ग्राम वीर्य बनता है।

            आकर्षक व्यक्तित्व का कारण
            वीर्य के संयम से शरीर में अदभुत आकर्षक शक्ति उत्पन्न होती है, जिसे प्राचीन वैद्य धन्वंतरि ने' ओज' कहा है। यही ओज मनुष्य को परम लाभ-आत्मदर्शन कराने में सहायक बनता है। आप जहाँ-जहाँ भी किसी के जीवन में कुछ विशेषता, चेहरे पर तेज, वाणी में बल, कार्य में उत्साह पायेंगे, वहाँ समझो वीर्यरक्षण का ही चमत्कार है।
            एक स्वस्थ मनुष्य एक दिन में 800 ग्राम भोजन के हिसाब से 40 दिन में 32 किलो भोजन करे तो उसकी कमाई लगभग 20 ग्राम वीर्य होगी। महीने कि करीब 15 ग्राम हुई और 15 ग्राम या इससे कुछ अधिक वीर्य एक बार के मैथुन में खर्च होता है।
माली की कहानी
            एक माली ने अपना तन मन धन लगाकर कई दिनों तक परिश्रम करके एक सुंदर बगीचा तैयार किया, जिसमें भाँति-भाँति के मधुर सुगंध युक्त पुष्प खिले। उन पुष्पों से उसने बढ़िया इत्र तैयार किया। फिर उसने क्या किया, जानते हो ? उस इत्र को एक गंदी नाली (मोरी) में बहा दिया। अरे ! इतने दिनों के परिश्रम से तैयार किये गये इत्र को, जिसकी सुगंध से उसका घर महकने वाला था, उसने नाली में बहा दिया ! आप कहेंगे कि 'वह माली बड़ा मूर्ख था, पागल था.....' मगर अपने-आप में ही झाँककर देखें, उस माली को कहीं और ढूंढने की जरूरत नहीं है, हममें से कई लोग ऐसे ही माली हैं।
            वीर्य बचपन से लेकर आज तक, यानी 15-20 वर्षों में तैयार होकर ओजरूप में शरीर में विद्यमान रहकर तेज, बल और स्फूर्ति देता रहा। अभी भी जो करीब 30 दिन के परिश्रम की कमाई थी, उसे यों ही सामान्य आवेग में आकर अविवेकपूर्वक खर्च कर देना कहाँ की बुद्धिमानी है ! क्या यह उस माली जैसा ही कर्म नहीं है ? वह माली तो दो-चार बार यह भूल करने के बाद किसी के समझाने पर संभल भी गया होगा, फिर वही की वही भूल नहीं दोहरायी होगी परंतु आज तो कई लोग वही भूल दोहराते रहते हैं। अंत में पश्चाताप ही हाथ लगता है। क्षणिक सुख के लिए व्यक्ति कामांध होकर बड़े उत्साह से इस मैथुनरूपी कृत्य में पड़ता है परंतु कृत्य पूरा होते ही वह मुर्दे जैसा हो जाता है। होगा ही, उसे पता ही नहीं कि सुख तो नहीं मिला केवल सुखाभास हुआ परंतु उसमें उसने 30-40 दिन की अपनी कमाई खो दी।
            युवावस्था आने तक वीर्य संचय होता है। वह शरीर में ओज के रूप में स्थित रहता है। वीर्य क्षय से वह तो नष्ट होता ही है, साथ ही अति मैथुन से हड्डियों में से भी कुछ सफेद अंश निकलने लगता है, जिससे युवक अत्यधिक कमजोर होकर नपुंसक भी बन जाते हैं। फिर वे किसी के सम्मुख आँख उठाकर भी नहीं देख पाते। उनका जीवन नारकीय बन जाता है। वीर्यरक्षण का इतना महत्त्व होने के कारण ही कब मैथुन करना, किससे करना, जीवन में कितनी बार करना आदि निर्देश हमारे ऋषि-मुनियों ने शास्त्रों में दे रखे हैं।

            सृष्टि क्रम के लिए मैथुनः एक प्राकृतिक व्यवस्था
            शरीर से वीर्य-व्यय यह कोई क्षणिक सुख के लिए प्रकृति की व्यवस्था नहीं है। संतानोत्पत्ति के लिए इसका वास्तविक उपयोग है। यह सृष्टि चलती रहे इसके लिए संतानोत्पत्ति जरूरी है। प्रकृति में हर प्रकार की वनस्पति व प्राणि वर्ग में यह काम-प्रवृत्ति स्वभावतः पायी जाती है। इसके वशीभूत होकर हर प्राणी मैथुन करता है व उसका सुख भी उसे मिलता है किंतु इस प्राकृतिक व्यवस्था को ही बार-बार क्षणिक सुख का आधार बना लेना कहाँ की बुद्धिमानी है ! पशु भी अपनी ऋतु के अनुसार ही कामवृत्ति में प्रवृत्त होते हैं और स्वस्थ रहते हैं तो क्या मनुष्य पशु वर्ग से भी गया बीता है ? पशुओं में तो बुद्धितत्त्व विकसित नहीं होता पर मनुष्य में तो उसका पूर्ण विकास होता है।

            आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्।
            भोजन करना, भयभीत होना, मैथुन करना और सो जाना ये तो पशु भी करते है। पशु-शरीर में रहकर हम यह सब करते आये हैं। अब मनुष्य-शरीर मिला है, अब भी यदि बुद्धि विवेक पूर्वक अपने जीवन को नहीं चलाया व क्षणिक सुखों के पीछे ही दौड़ते रहे तो अपने मूल लक्ष्य पर हम कैसे पहुँच पायेंगे ?

            इस मंत्र में यहीं उपदेश किया गया है, हम सब को बनाने वाले ने हम सब को हमारी भाषा में समझाया है, उर्जा का प्रयोग और उर्जा का दूर प्रयोग हम किस प्रकार से करते हैं। उस ईश्वर रूपी उर्जा के अंदर वह सब गुण विद्यमान है, जो मानव का भी निर्माण करता है, अर्थात मनुष्य शरीर और उसका प्रत्येक अंग का, क्योंकि इसी परमेश्वर रूपी उर्जा से वह उत्पन्न होता है, जिससे मानव के अंदर भी ईश्वर के सभी गुण विद्यमान है। और मानव इसके संयोग से ही अपने सभी कार्य को सिद्ध करने में समर्थ होता है। इस संसार में, इसको इस संसार के सभी विद्वानों ने अपने अनुभव और ज्ञान से जाना समझा है। इसलिए उन्होंने अपने जीवन का मुख्य कार्य इस ईश्वर के कार्य में सहयोग किया है। और उसके ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान को हर स्थित में विस्तार करते हैं, और अपने जीवन को दाव को लगा कर इसका संरक्षण किया करते हैं। जो कार्य इन दिव्य पुरुषों अर्थात विद्वानों और देवताओं ने इस कार्य से अर्थात अपने अस्तित्व की हर प्रकार से रक्षा की है, और इससे संबंधित ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान का विस्तार अर्थात प्रचार प्रसार करके और लोगों को इसके लिए जागरुक किया है, हमें भी यह करना चाहिए, यह हमारा प्रथम धर्म है। यह स्वयं मंत्र ही कह रहा है। इस परमेश्वर रूपी अन्न अर्थात जो उर्जा रूप में है। वही संपूर्ण जगत को उत्पन्न करता है और वही संपूर्ण जगत के ऐश्वर्य का स्वामी है जिसके सानिध्य से हम सब भी इस जगत के निर्माण में अपना सहयोग करके अपने जीवन में ऐश्वर्य को उपलब्ध कर सकते है। इसके लिए जो सबसे बड़ी सर्त है वह यह है, कि श्रेष्ठ कर्म करना होगा। जिससे सभी प्राणियों के कल्याण के साथ अपना कल्याण होता है। क्योंकि ईश्वर के सद कार्यो से सभी प्राणियों का कल्याण ही होता है। वह जैसा भी कर्म करता है उसका परिणाम उसको प्राप्त होता है। परमेश्वर सिर्फ श्रेष्ठ कार्यों को सिद्ध करता है। इसलिये वह अतुलनीय और सभी से श्रेष्ठ माना जाता है। ऐसा हम भी कर के स्वयं को और दूसरे मानव से श्रेष्ठ बन सकते हैं।
 
            आगे मंत्र कहता है की सिर्फ श्रेष्ठ और पवित्र कर्म करना है, तो यहा प्रश्न उठता है। श्रेष्ठ कर्म क्या है? जिसके उत्तर को भी मंत्र कहता है। यज्ञ करना है, यज्ञ का एक वैज्ञानिक पक्ष है, जैसे सूर्य, पृथ्वी और इस पर विद्यमान प्रत्येक वस्तु चाहे वह जड़ हो या चेतन हो, जैसे नदी का कार्य, सब प्राणियों का कल्याण करती है। वृक्ष, पौधे, गाय, आदि कार्य जगत के कल्याण के लिए ही होता है। मानव शरीर भी यहीं मुख्य प्रयोजन है। कि उसके द्वार उसकी आत्मा का उद्धार हो, और उसके बाद उस समाज का भी उद्धार या कल्याण हो। जिसने उसको तैयार किया है। जो ऐसा कार्य करते हैं, वह लोग या ऐसे व्यक्ति जिस समाज में परिवार या देश में होते हैं, वह सब हमेशा उन्नती को करते हैं। और जो इसके विपरीत आचरण करने वाले लोग है, उनका समाज परिवार और उनका देश अवनती को प्राप्त करता है। यही बात संपूर्ण विश्व पर लागू होती है। यदि विश्व की उन्नती हो रही है, तो सभी मानव सामुहिक रूप उन्नती को प्राप्त करने के लिए कर्म कर रहें हैं। इस प्रकार से विश्व के ज्यादातर लोग यज्ञ रूप पवित्र कर्मो को कर रहें हैं। लेकिन यह सत्य नहीं है, इस संसार पर वृहंगम दृष्टि डालने से पता चलता है, कि निकृष्ट कर्म अधिक कर रहें हैं। जिसके कारण आज संपूर्ण पर संकट के कई बादल मडरा रहें है। कितनी बड़ी बड़ी आपदाओं और महामारीयों का आक्रमण इस संसार में हो रहा है। यह प्रमाण है जो प्रकृति से हम सब को मिल रहा है, अर्थात जिससे यह जगत बन रहा है, उसको दूषित किया जा जा रहा है। इसका बहुत सरल मतलब हुआ, कि जिस अन्न को हम सब पृथ्वी वासी ग्रहण कर रहें हैं, वह विशाक्त हो चुका है, क्योंकि मानव अपने लोभ के कारण ज्यादा अन्न की पैदावार करने के लिए पृथ्वी में ज़हरीली रसायनों का प्रयोग अंधा धुन कर रहा है। जिसके परिणाम स्वरूप जो अन्न उत्पन्न हो रहा है, वह सभी प्राणीयों के अस्तित्व के लिए एक भयंकर खतरा उत्पन्न कर दिया है। इस अन्न को ग्रहण करने के बाद लोगों की रोग प्रतीरोधी क्षमता बहुत तेजी से कम हो रही है। और वह अकाल मृत्यु शिकार हो रहे है, इससे उनका जिस कारण के निवारण के लिए उत्पन्न किया गया था। उस कारण का निराकरण नहीं हो पाता है। जिसके कारण इस पृथ्वी पर अव्यवस्था का साम्राज्य स्थापित हो रहा है। यह संपूर्ण मानव जाती के साथ सभी प्राणियों के लिए बहुत भयंकर और संकट की स्थिती को उत्पन्न कर रहा है।
            इसी विषय को यहां मंत्र कहा जा रहा है, जिसको अध्न्याः कहा गया है, मनुष्य के अतिरिक्त जो दूसरे प्राणी है जो मानव किसी ना किसी प्रकार से परोपकार करते हैं, और उनका एक विशेष कार्य है, जो यहां वह पशु इस पृथ्वी पर करते हैं, जिस कारण से मानव को वह कार्य नहीं करना पड़ता है, और मानव इनके सहयोग से ही अपने आप को पहचाने में समर्थ होता है। अर्थात परमेश्वर के साक्षात्कार करने में सफल हो जाता है। और जब यह सभी प्राणी यहां हमारे समाज में हमारी पृथ्वी पर नहीं बचते है, तो इन पशुओं के कार्य को मानव अनजाने में करने लगता है। और वह पशुओं के समान अपने जीवन का निर्वाह करता है। जिसके कारण इसके अंदर पशुओं के संस्कार जागृत हो जाते हैं, जिनके अंदर ना वीद्या होती है, ना तप होता, ना दान होता है, ना ज्ञान होता है, ना ही दया या शील होता है। इनके अंदर इस जगत को सुचारु रूप से चलाने के लिए जो सद्गुण चाहिए, अर्थात धर्म या सद्गूण किसी प्रकार का नहीं होता है। यह सब लोग इस संसार अर्थात मृत्यु लोक में जहां हर समय सब कुछ बदल रहा है, इस पृथ्वी पर भार के समान होते है। जिसके भार से पृथ्वी पर भयंकर संकट और आपदाये आती है जैसा की हमारे वर्तमान समय में इस पृथ्वी पर हो रहा है।
            इसके विपरीत है परम ऐश्वर्य प्राप्त करने का मार्ग है, जिसके लिए हम सभी मनुष्यों को अपनी इन्द्रियों को अपने बश में करना होगा, अपने स्थान पर स्थित होना होगा। अर्थात वह मानव इन्द्र कहलाने के योग्य है, जिसने अपने ज्ञान और कर्म इन्द्रि को अपने नियंत्रण में कर लिया है, और वही सच्चा मानव है, और उसी से ही इस पृथ्वी के सभी प्राणियों का उद्धार और इस जगत अर्थात इस पृथ्वी का भी उद्धार होता है। जिससे यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड पवित्र शक्ति को प्राप्त करता है, और अपने अपने कार्यों को सुचारु रूप से संपन्न करने में समर्थ होते है। जड़ और चेतन का आपस में संबंध है। यह एक दूसरे के पूरक हैं, जड़ वस्तु चेतन वस्तु को प्रभावित कर रही है। और चेतन वस्तु जड़ को प्रभावित कर रही है। जैसा कि मैंने पहले बताया कि मानव पृथ्वी पर रहता है। वह इसके वातावरण को खराब करता है, तो सूर्य इससे प्रभावित होता है जिसके कारण वह जो एक पृथ्वी के मित्र की तरह से कार्य करता है, वह शत्रु के तरह से कार्य भी करने लगता है। जितनी अधिक पृथ्वी पर गर्मी बढ़ेगी, उसके प्रभाव से पृथ्वी के वायुमंडल भी गर्म होगा। जिसके कारण वायुमंडल का भार या दबाव पृथ्वी पर जो चारो तरफ से पड़ रहा है, वह कम भी हो जायेगा। समय के साथ पृथ्वी भार हीन होने लगेगी। इसका गुरुत्वाकर्षण बल कम हो जायेगा। जिस प्रकार से चाँद की सतह पर वायुमंडल नहीं है, जिसके कारण वहां पर किसी प्रकार के जीवन का पनपना संभव नहीं है, और उसकी सतह पर गुरुत्वाकर्षण बल पृथ्वी की तुलना में बहुत कम है। ऐसा इस पृथ्वी पर भी भविष्य में संभव होगा। चाँद पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी का चक्कर लगाता है। और जब पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल कम होगा तो, चाँद इसका चक्कर लगाना बंद कर के, वह किसी दूसरे ग्रह के गुरुत्वाकर्षण बल प्रभाव में आ जायेगा, जो उसके समिप होगा। और ऐसा सिर्फ चांद के साथ नहीं होगा। ऐसा पृथ्वी के साथ भी होगा। पृथ्वी अपने इसी सामर्थ के कारण अपने आक्षांस पर गति करती है, वह ऐसा नहीं कर पायेगी, जिसके कारण यह अपना मार्ग भटक जायेगी। और किसी दूसरे ग्रह जो हमारे सौर्यमंडल में हैं, उनसे इसका टकराना संभव है। इस दुर्घटना के कारण से सौर्य मंडल की चाल को प्रभावित करेगा। जिससे हमारा सूर्य भी अछूता नहीं रह पायेगा, जो अपने साथ सभी ग्रहों और उप ग्रहों के साथ अर्थात सौर्य मंडल के साथ सूर्य आकाशगंगा का चक्कर लगाता है। यह सूर्य आकाश गंगा के सुचारु रूप से चलने वाले कार्य में व्यवधान उपस्थित करेगा। जिससे ब्रह्माण्ड के लिए खतरा उपस्थित हो जायेगा। अर्थात प्रलय समय से पहले हो जायेगा। अर्थात जब इस ब्रह्माण्ड का नाश होता है। इस तरह से यह बात सिद्ध होती है की मनुष्य का कार्य सिर्फ उसको या उसके परिवार या उसके समाज या सिर्फ विश्व को प्रभावित नहीं करता है। यद्यपि यह संपूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड के लिए उत्तरदाई है।
            जैसा की मंत्र आगे कह रहा है (भागंम) अर्थात इस विश्व ब्रह्माण्ड में हमारा भी सहयोग हिस्सा है, हम सब सूक्ष्म ब्रह्माण्ड ही है, इस विश्व ब्रह्माण्ड से हम सबका बहुत गहरा संबंध है। हम सब इसके सृजन कर्ता और संहारक भी बन सकते हैं, इस जगत का साक्षात्कार करने से यही सिद्ध होता है, की हम सब संहारक की भूमिका को अदा कर रहें है, अर्थात सामूहिक रूप से एक साथ आत्महत्या करने की तरफ अग्रसर होर रहे हैं।
            अगली बात मंत्र कहता है, प्रजावती अर्थात जो प्रजाओं के स्वामी है जिनको अधिकार में बहुत बड़ी शक्ति है, जो इस संपूर्ण मानव समाज को दिशा निर्देशित करते हैं अर्थात अपनी स्वेच्छा से इसको चलाते हैं। जैसे अमेरिका के राष्ट्रपति, भारत के प्रधानमंत्री, अथवा सभी देशों के प्रधान मंत्री और राष्ट्रपति हैं। इनके पास बहुत बड़ी प्रजा है, जिसके कारण यह प्रजावती कहे जा सकते हैं। अर्थात जो इस पृथ्वी के स्वास्थ्य का ध्यान रखने में समर्थ हैं। वह ऐसा कार्य करा सकते हैं जिससे पृथ्वी के अस्तित्व के लिये जो संकट है उसको दूर कर सकते हैं। इसके पीछे सर्त एक है वह की इन सब को ईमानदारी के साथ सदभावना के साथ सभी के कल्याण के लिये कार्य को करना होगा। यदि यह सब ऐसा नहीं करते है। तो यह इसके शत्रु है, अभी तक तो ऐसा कार्य नहीं किया है, या फिर करने की इच्छा नहीं है, जिसके कारण ही पृथ्वी के संपूर्ण प्राणियों के साथ इस पृथ्वी के लिए संकट उपस्थित हो गया है। जैसा की मंत्र कह रहा है की इन को यज्ञ के समान कर्म करना चाहिए जिससे सभी का संकट और सभी के जीवन से आपदा का अंत संभव हो।
            इसके लिए मंत्र दिशा निर्देश देता है किस किस को विषय या व्यक्ति को नियंत्रित करना है, सबसे पहले उन कारणों पर विचार करें जो (अनमिवा) अर्थात व्याधि बीमारी को सृजन करती है, किसी बीमारी के होने के कारण को ही समाप्त कर देंगे, तो वह बीमारी उत्पन्न ही नहीं हो सकती है। अर्थात जो बीमारी गंदगी के कारण से उत्पन्न होती है, यदि सफाई का विशेष ध्यान रखा जायेगा। तो गंदगी की बीमारी नहीं होगी, सरल सी बात है, इसके आगे मंत्र कहता है की बीमारी से ग्रसित और बीमारी को फैलने से रोकने के लिये, इनको जो बीमार संक्रमित नहीं है। उनसे दूर रखा जायें। और जो व्यक्ति बीमार नहीं है अर्थात जो पूर्ण रूप से स्वस्थ है अर्थात जो स्वयं में स्थित है, स्वयं के स्वामी जिन्होंने मन वचन कर्म पर अपना नियंत्रण कर लिया है। इनकी दुष्ट व्यक्तियों से और उनके दुष्ट आचरण से चोरी डकैती, व्यभिचार आदि से संरक्षण दिया जाये। जिससे यह अपने इस पवित्र कार्य को बिना किसी व्यवधान के निश्चल भाव से करते रहें। आगे इन सज्जन पुरषो के कार्यों को बताया गया है। सर्व प्रथम एक विश्व एक धर्म अर्थात एक सत्य सिद्धांत को जानने, जनाने, के साथ उसका निरंतर संरक्षण करने कार्य करे, और आगे आने वाली पिढ़ी के लिये, जो पृथ्वी की गर्भ में से प्राप्त होने वाले संसाधन है उसका संरक्षण करें और सिमित मात्रा में दोहन करना, जब यह अनियंत्रीत दोहन होगा। तो आगे आने वाली पिढ़ियों को भयंकर संकटों का सामने करना होगा। अर्थात भविष्य में समस्या ना उपलब्ध हो उसके लिये वर्तमान में ही समाधान कर लेना होगा। सत्य को जानने वालों के लिए विशेष व्यवस्था करनी होगी, और दूष्टो उनकी दुष्ट प्रकृति के स्वभाव को नियंत्रित करना होगा, पृथ्वी और इस पर विद्मान सज्जन के साथ इसको पदार्थों को भी इन दुष्टों की पहुंच से दूर रखना होगा, और श्रेष्ठ पुरुषों को इसका सभी मनुष्य समेत सभी प्राणियों के लिए उपयोग करना होगा ना कि सिर्फ अपने लिए, जनता की शक्ति का सही उपयोग, पशु पक्षियों के साथ इस पृथ्वी के धन संपदा का सब जरुरत मंदो आवश्यक वस्तु सहजता से सुलभ करना होगा। और इस मार्ग का अनुसरण करके ही हम सब अपना, अपने परिवार, अपने समाज, अपने देश की रक्षा कर सकते हैं, इसके शिवाय दूसरा कोई मार्ग नहीं है। जो ऐसा नहीं किया जाता है। तो सिर्फ इसके नाश का ही मार्ग बचता है, और ऐसी सामर्थ सभी उन श्रेष्ठ पुरुषों को प्राप्त हो जिससे वह अपने दाइत्वों का उपयुक्त रूप से पालन कर सके जिसके लिए सभी उस परमेश्वर की प्रार्थना करनी चाहिए, यह भी एक सशक्त साधन है स्वयं को अपने लक्ष्य से नहीं भटकने देना और परमेश्वर के सानिध्य के साथ यह सभी महाकठीन कार्य भी सहजता से सिद्ध हो जाते हैं।

यज्ञमानस्य- परमेश्वर और सर्वोपकारक सब के कल्याण के निहित करने वाले पवित्र कर्म वाला मनुष्य के
पशुन- गौ घोड़े और हाथी आदि तथा लक्ष्मी औऱ प्रजा की
पाहि- रक्षा हो सके,                       
                                                                                                लेखक- मनोज पाण्डेय त्रीकालदर्शी

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