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साधन से सफलता कैसे मिले? कर्म और भाग्य

 साधन से सफलता कैसे मिले?


जो लोग कहते हैं कि साधन में मन नहीं लगता , उनको समझना चाहिये कि हमने अपनी रुचि , विश्वास और योग्यता के अनुरूप साधन का निर्माण नहीं किया है । साधन का निर्माण हो जाने के बाद उसमें मन न लगे या उससे लक्ष्य की प्राप्ति न हो , यह कभी नहीं हो सकता। अतः साधक को चाहिये कि मैं साधन नहीं कर सकता या साधन में सफलता मिलना कठिन है, इस मान्यता को अपने जीवन से निकाल दे एवं यह निश्चय करे कि अब जैसी परिस्थिति प्राप्त है, उसीमें मैं साधन कर सकता हूँ और उससे मुझे अवश्य सफलता मिलेगी।

साधन नहीं हो सकता, इस बात को सर्वथा झूठी समझे । दूसरों की बराबरी न करे । विवेक के प्रकाश में रुचि, विश्वास और योग्यता के अनुसार साधन का निर्माण करके साधन में तत्पर हो जाय । जो साधन रुचिकर होता है, जिसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं होता , जिसमें यह विकल्परहित विश्वास होता है कि इससे मेरे समस्त अभाव मिटकर मुझे अपने साध्य की प्राप्ति हो जायगी, वह साधन साधक का जीवन बन जाता है । उसमें नित्य नया उत्साह और प्रेम बढ़ता रहता है । 

साधक को चाहिये कि बलका, सुखका, निर्बलताका, दुःखका सदुपयोग करे अर्थात् जिस समय जो कुछ प्राप्त है, उसीका सदुपयोग करे । बीती हुई बातों का चिन्तन और भविष्य की आशा न करे । यदि निर्बलता का अनुभव हो तो संसार से सर्वथा निराश होकर परमेश्वर पर विश्वास पूर्वक निर्भर हो जाय। शेखचिल्ली की भाँति मनोराज्य करने से कोई काम नहीं होता, प्रत्युत मनुष्य संकल्पों के जाल में फँस जाता है । अतः मनुष्य को चाहिये कि जो काम कर सके, उसे ही पूरा कर दे । जो न कर सके , उसे करने का संकल्प, छोड़ दे । 

सभी परिस्थितियाँ कभी किसी भी मनुष्य के अनुकूल नहीं हो सकतीं । वह जिसको अपना प्यारा मानता है, वही उसके मन की बात पूरी नहीं होने देता, उसके प्रतिकूल करने लग जाता है। राजा दशरथ सबसे अधिक कैकेयी से प्यार करते थे, वही उनके मनकी बात पूरी होने में बाधक हो गयी। अत: साधक को चाहिये कि दूसरों के मन की धर्मानुकूल बात को भगवान के नाते पूरी करें। अपने मन को बदल दे या उसका नाश कर दे। ऐसा करने में हरेक परिस्थिति में रास्ता मिल जायगा, कोई कठिनाई नहीं रहेगी। अत: साधक को अपने मन की बात पूरी करने में शक्ति नहीं लगानी चाहिये। जो कुछ होता है वह उस सर्वान्तर्यामी, सबके सुहृद् प्रभु की सत्ता से होता है । अतः जब अपने मन की इच्छा के विपरीत हो, तब साधक को समझना चाहिये कि अब प्रभु अपने मन की बात पूरी कर रहे हैं। अत: वे शीघ्र ही मुझे अपनाने वाले हैं, अपना प्रेम प्रदान करने वाले हैं । 

प्रत्येक परिस्थिति प्रभु का आदेश और सन्देश है। उसका सदुपयोग करने में और प्रभु के मन में अपना मन मिला देने में ही अपना सब प्रकार से हित भरा हुआ है । यह सोचकर साधक को कभी भी अनुकूलता की आशा नहीं करनी चाहिये और प्रतिकूलता से भय नहीं करना चाहिये । सदैव अपने प्रभु पर ही निर्भर रहना चाहिये । मानव-जीवन साधन के लिये ही मिला है। साधन करने में मनुष्य सदैव स्वाधीन है । ठीक साधन करने से सफलता अवश्य होती है। अतः साधक के जीवन में भगवान् पर अविचल विश्वास होना चाहिये एवं साधन में नित्य नव-प्रेम और उत्साह बढ़ते रहना चाहिये । हर समय प्रभु की कृपा का दर्शन करते हुए उनके प्रेम में विभोर रहना चाहिये।


कर्म और भाग्य

वैसे तो कुछ भी करने का नाम 'कर्म' है, परन्तु जो कुछ बुद्धिपूर्वक किया जाता है, वास्तव में कर्म उसी का नाम है। वैसे किसी भी हरकत का नाम क्रिया है । कर्म भी एक क्रिया रूप है, परन्तु जो क्रियाएँ उद्देश्य पूर्वक की जाती हैं या होती हैं, यही वास्तव में कर्म कहे जाते हैं ।



ये चार प्रकार के हैं !
शुक्ल
कृष्ण
शुक्ल - कृष्ण 
अशुक्ल - कृष्ण 
शुक्ल - जो संसारमें सुखको उत्पन्न करेंगे, वे पुण्यरूप शुक्ल, स्वच्छ या शुभ कर्म कहे जाते हैं । 

कृष्ण - जो दुःख देने वाले या दुःख को उत्पन्न करने वाले कर्म किये जाते हैं या होते हैं, वे सब पाप कर्मरूप कृष्ण कर्म कहे जाते हैं । 

शुक्ल - कृष्ण - जो मिश्रित कर्म पुण्य-पाप दोनों को करने वाले हैं, वह शुक्ल - कृष्ण कहे जाते हैं । कुछ तो इनमें से बहुतों के भले के लिये किये जाते हैं । उनमें सुख अधिक, दुःख कम होता है और जिसमें अपना स्वार्थ अधिक, परन्तु दूसरे की भलाई अल्प हो, इससे दुःख अधिक होता है, सुख कम । 

यह कर्म सब शुक्ल - कृष्ण कहे जाते हैं । ऐसे कर्मो में हिंसा असत्यादि यह पाप का अंश होता है । परन्तु दूसरे का हित भी इनसे होने के कारण पुण्यरूप भी हैं । बहुत से लोगों के हित किसी ने दुष्ट जीव को दण्ड दिया । इससे बहुत से जनों को सुख हुआ । इस प्रकार पुण्यरूप और हिंसा से मिश्रित होनेके कारण पापरूप होने से यही मिश्रित कर्म शुक्ल कृष्ण होते हैं । 
अशुक्ल कृष्ण - यह वे कर्म हैं, जो मोक्ष को देने वाले हैं । वैराग्य , क्षमा , शील , सन्तोष , त्याग , तप इत्यादि - इत्यादि और भी मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा, क्षमा, शील, दान, ध्यान, समाधि एवं प्रज्ञा आदि गुणों को उपजाना - ये सब अशुक्ल - कृष्ण कर्म हैं । बिना बाह्य उद्देश्य के स्वार्थ को त्याग कर निष्काम भाव से जो भी कर्म किये जायेंगे, वे चाहे शरीर से हों या इन्द्रियों से, सब अशुक्ल-कृष्ण नाम से मोक्ष शास्त्र में बतलाये गये हैं । 

न अधिक दुःख में रहना और न अधिक सुख में, युक्ति-युक्त मध्यमार्ग की चर्चा भी सब इसी श्रेणी का पुण्य कर्म है। ये सब प्रकार के कर्म तीन रूपों में मनुष्य के अन्त: करण में बैठे रहते हैं । संचित, आगामी और प्रारब्ध रूप से क्रमश: ये तीन प्रकार के होते हैं । जो इनमें से इस कायाको आरम्भ मान करके सुख-दुःख रूप फल देने को प्रस्तुत होते हैं, यही प्रारब्ध कर्म कहे जाते हैं और जो अभी होते जा रहे हैं और आगे फल देंगे, वह आगामी कहे जाते हैं । 

जो शेष पड़े हुए मन में संचित - रूप से एकत्र हुए हैं भोग ने में अभी नहीं आये और न कोई शीघ्र आगे भोगने में आने का अवकाश ही है । वह सब अनन्त समय से एकत्र हुए- हुए संचितरूप कर्मों की कक्षा में पड़े रहते हैं । यही सब संचित कर्म कहे जाते हैं । यह भी अपने-आप पड़े हुए कभी भी नष्ट नहीं होते, केवल ज्ञान की अग्नि से ही दग्ध हो जाते हैं, जो कि आत्म साक्षात्कार रूप है । यह साक्षात्कार सब बन्धनों (अविद्या । आदि १० बन्धनों) के पूर्णतया नष्ट होनेपर ही होता है और उससे सब कर्म जलकर भस्म हो जाते हैं । 

वर्तमान दुःख - सुख के भोग से तो केवल प्रारब्ध ही समाप्त होता है और शेष कर्मजाल तो उस ज्ञानाग्नि से ही समाप्त होता है, हो सकता है कोई एक जन इतना परिश्रम इसी संसार में रहकर कर सके कि जिससे उसके सूक्ष्म क्लेश भी मैत्री आदि बलों की प्रबल भावना से नष्ट हो जायँ और प्रतिप्रसव (क्लेशों के विपरीत उत्तम गुण उपजाने से ) द्वारा उसके मैत्री आदि से ही नवीन पुण्य उदय हो जायँ और प्रथम का भाग्य भी क्षीण होकर उसकी ऐच्छिक चर्या अर्थात् इच्छानुसार शुद्ध जीवन की विभूति पाना-रूप फल की प्राप्ति कर दे और वह पूर्णकाम-रूप से जब तक चाहे इस संसार में विहार करे और अपने में देहत्याग पर्यन्त पूर्ण सामर्थ्य को रखे और उसी के साथ रहे और कुछ भी विपरीत न पड़ने दे । 

परन्तु ऐसा व्यक्ति पुनः पुन: अवतार रूप से ही आदृत हो जाता है । यदि वह जगत् में प्रकट हुआ तो, यदि प्रकट न हुआ तो, सिद्धरूप से सिद्ध काया में गुप्त भले रहे । सब में उसका प्रकट होना अतीव कठिन होता है । अस्तु ! मनुष्य को इतना इस ऊपर कही स्थितिके लिये लालायित तो नहीं होना चाहिये, परन्तु मोक्ष का साधन करते-करते सारा जीवन धर्म से ही व्यतीत करना उचित है । जो भाग्य से आन पडे, उस में विवेक को जाग्रत् रखे तथा स्मृति और मन की उपस्थिति रखे । विपरीत कुछ न होने दे ! भाग्य क्षीण हो या नहीं, इस चक्र में न पडे । मोक्ष प्राप्ति तो अपने साधन से अवश्य हो ही जायगी ।



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