असली
श्राद्ध
काशी नगर में कृकल नामक वैश्य रहते थे। वे और उनकी पत्नी सुकला - दोनों परम
धर्मात्मा और परोपकारी थे । एक बार कृकल की इच्छा हुई कि तीर्थस्थलों पर जाकर
धार्मिक अनुष्ठान , जप-दान आदि
किए जाएँ । उनकी पत्नी भी तीर्थयात्रा पर जाना चाहती थी , किंतु इस आशंका से कि कहीं वह इतनी दूर चलकर
बीमार न हो जाए, कृकल उसे
अपने साथ नहीं ले जाना चाहते थे, इसलिए वे चुपचाप अकेले चले गए । पितृपक्ष के दौरान उन्होंने एक नदी के पावन
तट पर विधि -विधान से अपने माता-पिता और अन्य पूर्वजों का श्राद्ध किया । वे घर
लौटने लगे । उन्हें यह विश्वास था कि श्राद्ध करने के कारण उनके पितर संतुष्ट होकर
स्वर्गलोक चले गए होंगे । अचानक उन्हें लगा कि कोई दिव्य पुरुष उनके पितरों को
बंधन में बांधे खड़ा है । कृकल ने यह देखा, तो दुःखी होकर पूछा कि जब उन्होंने विधिवत् इनका श्राद्ध कर
दिया है , तो इन्हें
बंधन में क्यों बाँधा गया है ?
दिव्य पुरुष ने कहा, तुमने पत्नी को साथ बिठाए बिना श्राद्ध किया था । धर्मशास्त्रों का विधान है
कि प्रत्येक शुभ कार्य में पत्नी को साथ रखना चाहिए । तुमने पत्नी को सोते हुए
छोड़कर तीर्थयात्रा पर आकर धर्म विरुद्ध कार्य किया है । बिना पत्नी को बगल में
बिठाए पितरों का श्राद्धकिया, इससे तुम्हारे पितर भी संतुष्ट नहीं हुए और बंधन में जकड़े रहे । अब तुम घर
लौटकर पत्नी के साथ मिलकर दोबारा श्राद्ध करो, तभी इनकी मुक्ति होगी ।
उन्होंने ऐसा ही किया , तभी उनके पितरों को तृप्ति मिली ।
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