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उपनिषद सूची एवं परिचय

 

उपनिषद

 

 


 

उपनिषदः उप (व्यवधानरहित) नि (सम्पूर्ण) षद् (ज्ञान) अर्थात् व्यवधान रहित सम्पूर्ण ज्ञान का साधन उपनिषदों में है, जिससे ब्रह्म का साक्षात्कार किया जा सके। इसीलिए कहा गया है- उपनिषद्यते-प्राप्यते ब्रह्मात्मभावोऽनया इति उपनिषद्।

 

उपनिषद् हिन्दू धर्म के महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ हैं। ये वैदिक वाङ्मय के अभिन्न भाग हैं। इनमें परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन दिया गया है। ब्रह्म, जीव और जगत्‌ का ज्ञान पाना उपनिषदों की मूल शिक्षा है। भगवद्गीता तथा ब्रह्मसूत्र उपनिषदों के साथ मिलकर वेदान्त की 'प्रस्थानत्रयी' कहलाते हैं। उपनिषद ही समस्त भारतीय दर्शनों के मूल स्रोत हैं, चाहे वो वेदान्त हो या सांख्य या जैन धर्म या बौद्ध धर्म।

 

108 उपनिषदों की सूचीः

 

ईश (उपनिषद्) ।

 

ईशोपनिषद् शुक्ल यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद् अपने नन्हें कलेवर के कारण अन्य उपनिषदों के बीच बेहद महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसमें कोई कथा-कहानी नहीं है केवल आत्म वर्णन है। इस उपनिषद् के पहले मंत्र ‘‘ईशावास्यमिदंसर्वंयत्किंच जगत्यां-जगत…’’ से लेकर अठारहवें मंत्र ‘‘अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विध्वानि देव वयुनानि विद्वान्…’’ तक शब्द-शब्द में मानों ब्रह्म-वर्णन, उपासना, प्रार्थना आदि झंकृत है। एक ही स्वर है ब्रह्म का, ज्ञान का, आत्म-ज्ञान का।

 

परिचय

अद्भुत कलेवर वाले इस उपनिषद् में ईश्वर के सर्वनिर्माता होने की बात है सारे ब्रह्मांड के मालिक को इंगित किया गया है, सात्विक जीवनशैली की बात कही गई है कि दूसरे के धन पर दृष्टि मत डालो।

 

इस जगत् में रहते हुए निःसंङगभाव से जीवनयापन करने को बताया गया है। इसमें असुर्यानामक लोक की बात आती है असुर्या मतलब कि सूर्य से रहित लोक। वह लोक जहाँ सूर्य नहीं पहुँच पाता, घने, काले अंधकार से भरा हुआ अन्चतम लोक, अर्थात् गर्भलोक कहा गया है कि जो लोग आत्म को, अपने स्वको नहीं पहचानते हैं, आत्मा को झुठला देते हैं, नकार देते हैं और इसी अस्वीकार तले पूरा जीवन बिताते हैं उन्हें मृत्यु के पश्चात् उसी अन्धतम लोक यानि कि असुर्या नामक लोक में जाना पड़ता है अर्थात् गर्भवास करना पड़ता है, फिर से जन्म लेना पड़ता है।

 

इस प्रकार इस उपनिषद् में एक ओर ईश्वर को सर्वनिर्माता मानकर स्वयं को निमित्त मात्र बनकर जीवन जीने का इशारा करता है, जो दूसरी ओर आत्म को न भूलने की इंगित करता है।

 

इसके बाद आत्म को निरुपित करने का तथ्य आता है कि वहअचल है साथ ही मन से भी ज्यादा तीव्रगामी है। यह आत्म (ब्रह्म) सभी इंद्रियों से तेज भागने वाला है।

 

इस उपनिषद् में आत्म/ब्रह्म को 'मातरिज्वा' नाम से इंगित किया गया है, जो कि सभी कार्यकलापों को वहन करने वाला, उन्हें सम्बल देने वाला है।

 

आत्मके ब्रह्म के गुणों को बताने के क्रम में यहाँ यह बताया गया है कि वह एक साथ, एक ही समय में भ्रमणशील है, साथ ही अभ्रमणशील भी। वह पास है और दूर भी। यहाँ उसे कई विशेंषणों द्वारा इंगित किया गया है कि वह सर्वव्यापी, अशरीरी, सर्वज्ञ, स्वजन्मा और मन का शासक है।

 

इस उपनिषद् में विद्या एवं अविद्या दोनों की बात की गई है उनके अलग-अलग किस्म के गुणों को बताया गया है साथ ही विद्या एवं अविद्या दोनों की उपासना को वर्जित किया गया है यहाँ यह साफ-साफ कहा गया है कि विद्या एवं अविद्या दोनों की (या एक की मा) उपासना करने वाले घने अंधकार में जाकर गिरते हैं साकार की प्रकृति की उपासना को भी यहाँ वर्जित माना गया है लेकिन हाँ विद्या एवं अविद्या को एक साथ जान लेने वाला, अविद्या को समझकर विद्या द्वारा अनुष्ठानित होकर मृत्यु को पार कर लेता है, वह मृत्यु को जीतकर अमृतत्व का उपभोग करता है यह स्वीकारोक्ति यहाँ है।

 

इसमें सम्भूति एवं नाशवान् दोनों को भलीभाँति समझ कर अविनाशी तत्व प्राप्ति एवं अमृत तत्व के उपभोग की बात कही गई है। इस उपनिषद् के अंतिम श्लोकों में बड़े ही सुंदर उपमान आते हैं ब्रह्म के मुख को सुवर्ण पात्र से टंके होने की बात साथ ही सूर्य से पोषण करने वाले से प्रार्थना की। सुवर्णपात्र से टंके हुए उस आत्म के मुख को अनावृत कर दिया जाए ताकि उपासक समझ सके, महसूस कर सके कि वह स्वयं ही ब्रह्मरूप है और अंतिम श्लोकों में किए गए सभी कर्मों को मन के द्वारा याद किए जाने की बात आती है और अग्नि से प्रार्थना कि पंञचभौतिक शरीर के राख में परिवर्तित हो जाने पर वह उसे दिव्य पथ से चरम गंतव्य की ओर उन्मुख कर दे।

 

केन (उपनिषद्) ।

 

केन उपनिषद का क्या महत्व

 

आचार्य प्रशांत:

केन उपनिषद है हमारे सामने। सबसे पहले तो केनऔर उपनिषद’, इसी में बहुत कुछ छिपा हुआ है। केनशब्द का अर्थ क्या हुआ? केन शब्द का क्या अर्थ है?

 

किसके द्वारा किया गया है ये सब?” किसके द्वारा? किसके द्वारा? ये उसी अर्थ में हैं जैसे हम कहते हैं हस्तेण, कि हाथ के द्वारा कुछ उठाया। किसके द्वारा? किसके द्वारा किया गया है ये सब? तो सवाल है। उपनिषद भी आ सके, उससे पहले क्या आया है? सवाल। सवाल न हो, तो उपनिषद का भी कोई सवाल ही नहीं उठता। आज भी हम यहाँ पर बैठे हैं तो क्यों बैठे हैं? किसी के मन में सवाल उठा। ठीक है? एक आदमी की जिज्ञासा थी, उसके फलस्वरूप अभी यहाँ पर पाँच-छह लोग बैठे हुए हैं। वो जिज्ञासा, सवाल, वो मूल में है, परमावश्यक। उसके बिना नहीं हो पाएगा। श्रद्धा नहीं है, विश्वास नहीं है, जिज्ञासा है, जानना है। उत्तर बाद में आते हैं, कई बार नहीं भी आते हैं, कई बार सिर्फ़ इशारे रहते हैं, लेकिन सवाल बड़ा स्पष्ट है, बिल्कुल स्पष्ट है। पहला ही सूत्र लेंगे, उसमें कितने सवाल हैं, उन्हें गिनेंगे। सिर्फ़ गिनती बता देगी कि सवाल साफ़ है, तीखे हैं, पूर्णतया केंद्रित हैं और जानने की पूरी कोशिश है। एकदम आतुर आदमी है कि जानना है। जब ये स्थिति होती है, तब उपनिषद का जन्म हो सकता है।

 

जब ये स्थिति होती है, जहाँ पर आप सवाल पूछने के लिए बेताब हैं, सिर्फ़ तभी उपनिषद का जन्म हो सकता है। उपनिषद शब्द में इतना तो छुपा हुआ है कि भई! साथ बैठे और साथ बैठने के फलस्वरूप एक प्रक्रिया घटी। उप-साथ, निषद-बैठे और साथ बैठने के फलस्वरूप एक प्रक्रिया घटी, उसी प्रक्रिया का नाम है उपनिषद। लेकिन कोई साथ बैठे ही क्यों अगर जिज्ञासा न हो? तो उपनिषद से पहले आती है-जिज्ञासा और शायद ये कहा जा सकता है कि अगर जिज्ञासा होगी, तो उपनिषद पैदा हो ही जाएगा, किसी भी तरीके से। अगर जिज्ञासा होगी तो उपनिषद का पैदा होना पक्का है। इधर नहीं तो उधर, किसी न किसी तरीके से, कोई मिल ही जाएगा, कोई स्थिति पैदा हो ही जाएगी। तो केनहै, वो शिष्य जो अब तैयार है, और उपनिषद है वो घटना जो उस तैयारी के फलस्वरूप घट रही है। ठीक है?

 

ॐ केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः।

 

केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षु: श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति।।

 

(केनोपनिषद, खण्ड १, श्लोक १)

 

हिंदी अनुवाद: किसके द्वारा प्रेरित किया हुआ यह मन अपने विषयों तक पहुँचता है? किसके द्वारा नियोजित किया हुआ यह श्रेष्ठ प्राण चलता है? किसके द्वारा प्रेरित की हुई वाणी को मनुष्य बोलते हैं? कौन सा अव्यक देव हमारे नेत्रों और कानों को कार्य में नियुक्त करता है?

 

अचार्य: किसने भेजा है मन को? मन बहुत सारे चक्कर चला रहा है। मन की दुनिया है, मन के रंग हैं, चारों तरफ मन ही मन का विस्तार दिख रहा है। पर मन का विस्तार किसने किया है? संसार, मन में समा जाता है ठीक है! समझने वाले इतना आसानी से समझ सकते हैं कि, इस पूरे संसार का जो फैलाव है, वह क्या है? मन है, और मन का जो फैलाव है वो क्या है? वो कहाँ से आया? मन कहाँ से आ गया? संसार तो मन है, और मन क्या है?

 

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, वैसे तो मन तो मन का ही प्रक्षेपण है।

 

आचार्य: और वो प्रक्षेपण कहाँ से आ रहा है?

 

प्र: यह शरीर स्वयं की कल्पना कर रहा है और वो कल्पना कुछ भी हो सकती है।

 

आचार्य: और शरीर स्वयं की कल्पना क्यों कर रहा है?

 

प्र: कल्पना के माध्यम से वो ख़ुद को परिभाषित कर रहा है।

 

आचार्य: कल्पना स्वयं की कल्पना कर रही है, क्यों? और कौन ये सब देख रहा है? उस कल्पना का स्रोत क्या है? स्वप्न नकली हो सकता है, स्वप्न देखने वाला भी नकली होगा क्या? तो शरीर काल्पनिक हो सकता है और मन काल्पनिक हो सकता है, पर इनके पीछे कुछ तो असली होना चाहिए। कुछ तो असली होना चाहिए। पहला सवाल यही है- ये मन कहाँ से आ गया? नहीं पूछ रहा वो कि ये संसार कहाँ से आ गया। क्योंकि ये बात तो स्पष्ट है कि संसार कहाँ से आता है?

 

प्र: मन से आता है।

 

आचार्य: थोड़ा एक कदम आगे जाकर पूछ रहा है कि मन कहाँ से आ गया? ये मन कहाँ से आ गया? इसका स्रोत क्या है? जो ये सवाल न पूछे उसके लिए ये उपनिषद वैसे भी फ़ालतू ही हैं। जिसके मन में ये उत्सुकता हीं न उठती हो कि ये सब माज़रा क्या है? ये जो चारों तरफ गोल-गोल घूम रहा है मेरे, ये पूरा संसार, ये आ कहाँ से रहा है? ये सब है ही क्यों? उपनिषद उसके लिए है ही नहीं।

 

उपनिषद तो उसी के लिए है, जो गहराई से जानने में उत्सुक हो कि, अगर जी रहा हूँ तो इस जीने का मतलब क्या है? सत्य क्या है? एक बड़ी गहरी उत्सुकता हो, जो कि किसी बहुत पढ़े-लिखे आदमी में हो, ये आवश्यक नहीं है। एक बच्चा भी ये सवाल पूछ सकता है। मुझे लगता है बच्चे ही ज़्यादा पूछते होंगे, कि ये सब आया कहाँ से? बड़े पूछना भूल जाते हैं। सवाल साधारण है, मन का स्रोत क्या है? अच्छा ठीक है, ये जो पूरा त्रिआयामी संसार है, ये मन ने खड़ा कर दिया। स्थान और समय और मन। समय भी मन है, ठीक? मन को किसने खड़ा कर दिया? आप कहें, “नहीं! संसार मन है, मन संसार है।तो बच्चा पलट कर पूछेगा, अच्छा दोनों को किसने खड़ा कर दिया? ये गोल-माल जवाब नहीं चलेंगे।

 

प्र: बल्कि इसका तो मैंने सामना किया है, घर में जो मेरा भतीजा है, वो पूछ रहा था कि भगवान बादल के पार रहते हैं? तो रॉकेट बादल के पार जाता होगा तो भगवान से मिलता होगा? अब जब सब लोगों ने पहले ही जो पूरा-पूरा ढाँचा ही है, वो नकली बना रखा है तो उत्तर कहाँ से असली मिल सकता है? और अब तो मैंने ये ध्यान देना शुरू कर दिया है, 3 साल की उम्र में, जब शब्द बहुत आ जाते हैं मन में, तो ऐसे प्रश्न फूटते हैं, और ये करीब 67 साल तक प्रक्रिया चलती रहती है, जिसके बाद संस्कारों के द्वारा बिल्कुल समाप्त कर दी जाती है।

 

आचार्य: है ही, ऐसा ही है! मान लो! मान लो!

 

प्र: प्रश्न तो मेरे पास ऐसे आते हैं कि समाधान ही नहीं मिलता। बंदर गिर कैसे गया? अब कैसे गिरा, कैसे समझाऊँ?

 

आचार्य: कोई बड़ी बात नहीं हो, जिसने ये लिखा है वो बिल्कुल बाल-वृत्ति ही हो, होना ही पड़ेगा उसको। ये जो सुलझे हुए, समझदार लोग होते हैं, वो ये पूछ ही नहीं पाएंगे, क्यों पूछेंगे? आगे तो और ख़तरनाक सवाल हैं- ज़बान की ज़बान क्या है? आँख की आँख क्या है? बड़े लोग, थोड़े ही पूछेंगे ये सवाल। जीवन है, ठीक है? जीवन क्यों बढ़ रहा है आगे? समय क्या है? प्राण क्या है? क्या है प्राण? आप कह सकते हैं कि तुम में प्राण आया, तुम्हारे पूर्वजों द्वारा, उनमें आया उनके माँ-बाप द्वारा। इस पहले वाले में कहाँ से आया?

 

प्र: ओशो समझाते हैं कि, एक बच्चा जब पूछता है कि पेड़ हरा क्यों है? इसका उत्तर यही है कि मुझे नहीं पता और मैं ख़ुद असमंजस में हूँ कि पेड़ हरा क्यों है? आपके उत्तर, प्रश्न को एक स्तर पीछे भले ही ले जाएँ कि पेड़ हरा है, क्योंकि उसमें क्लोरोफिल है। लेकिन बच्चा अब यह पूछ सकता है कि ये क्लोरोफिल ही क्यों आया? अब क्लोरोफिल को कैसे पता चल जाता है कि ये पेड़ है और मुझे इसमें आना है?

 

आचार्य: और क्लोरोफिल क्यों हरा है? अब ये भी बता दो

 

केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः

 

प्रथम का मतलब हुआ स्रोत। सबकुछ कहाँ से निकल पड़ा? कहीं से तो निकलना चहिये, कुछ तो स्रोत होगा, कहाँ से आ रहा है ये सबकुछ? ठीक है चारों तरफ अब हज़ारों तरीके की जैव-विविधता दिखती है, इतने सारे अलग-अलग तरीके के प्राणी हैं। प्राणी तो हैं, प्राण कहाँ से आता है? उसका उद्गम बताओ? हम नहीं पूछते।

 

प्र: बचपन में पूछा किसी का जवाब नहीं आया।

 

आचार्य: खरगोश-खरगोश क्यों है? चींटा-चींटा क्यों है? पारस-पारस क्यों है? कोई नहीं पूछता। अब ये कोई बहुत पंडिताई की बात है, जो लिखी हुई है? और ये केन उपनिषद है। मुक्तिका, जो 108 उपनिषदों की वरीयता बनाती है, उसमें नम्बर दो का है ये। जो आपके मुख्य उपनिषद हैं, उन मुख्य उपनिषदों में भी मुख्य उपनिषद है ये और सवाल क्या पूछ रहा है? मौलिक, और यही इसको मुख्य बनाता है कि ये बिल्कुल साधारण प्रश्न पूछ रहा है, यही इसको मुख्य बनाता है

 

केनेषितां वाचमिमां वदन्ति

 

ये शब्द मुँह से निकल रहा है, कहाँ से आ रहा है? ये भी कहाँ से आ रहा है? स्रोत क्या है? वही प्रथम तक जाने की आकांक्षा। उससे पहले रुकना नहीं है और प्रथम को नहीं जाना तो कोई फ़ायदा नहीं है। ये इतनी गहरी जिज्ञासा तब तक मन में उठ नहीं सकती, जब तक ये भाव न निकल जाए कि ऐसा तो होता ही है।जो आदमी ज़िंदगी को बिल्कुल ढर्रे पर चला रहा हो, लिखकर दे सकता हूँ, उसको ये सवाल उठेंगें नहीं, और अगर उठ भी गए, तो उसको लगेगा कि व्यर्थ हैं। आप उसे यहाँ बैठा दोगे, वो कहेगा यार! कुछ मुद्दे की बात करो न, ये क्या फ़ालतू के सवाल उठाते हो कि ये कहाँ से आता है? वो कहाँ से आता है?” ये सवाल उसी मन में उठ सकते हैं, जिसको पता होने का भाव न हो, जो बिल्कुल ही ख़प न गया हो दुनिया में, जिसकी दुनियादारी बहुत गहरी न हो गयी हो।

 

प्र: आजकल एक और चलन-सा चला है एक्सेप्टेन्सको लेकर के, हर चीज़ स्वीकार कर लो। तो ये मैंने सुना है कुछ लोगों से कि तुम किसी चीज़ को आराम से क्यों नहीं ले सकते हो- जैसा है वैसे ही लो। तुम क्यों नहीं उसको वैसे ही लेते हो जैसा वो है? तुम्हें क्यों हर चीज़ को लेकर के प्रश्न करना है?”

 

आचार्य: बड़ा ख़तरनाक शब्द है ये एक्सेप्टेन्स’, बहुत ख़तरनाक शब्द। इसका अर्थ कुछ और है, और उस एक्सेप्टेंस को बना दिया गया है जड़ता, कि जड़ हो जाओ। सवाल मत पूछो, जानने की कोशिश नहीं, ज़िंदगी अनुभव के आधार पर नहीं। जो है उसको मान लो, स्वीकार कर लो, और एक्सेप्टेंस का ये अर्थ बिल्कुल भी नहीं है, एक्सेप्टेंस बिल्कुल कोई दूसरी बात है, एक्सेप्टेंस, जब कोई कहे- एक्सेप्ट इट, तो पूछो क्या स्वीकार करूँ? दो बातें हैं जो स्वीकार की जा सकती हैं।

 

हर परिस्थिति में दो ही चीज़ें होती हैं- या तो सत्य या असत्य। या तो मैं ये स्वीकार कर लूँ, कि मेरा मूल स्वभाव आनंद है, प्रेम है या मैं ये स्वीकार कर लूँ कि बड़ी घृणा है चारों तरफ़, और घृणा तो है ही। क्या स्वीकार करूँ? जो है उसी को तो स्वीकार किया जाएगा न? और जो है, उसे जानना पड़ेगा स्वीकार करने से पहले। आपने एक बार ये स्वीकार कर लिया, कि मन तो भौतिक प्रक्रिया का उत्पाद है, तो फ़िर केन उपनिषद कहाँ से आ जाएगा? फ़िर कोई क्यों पूछेगा कि मन कहाँ से आता है?

 

एक्सेप्टेंस तो इसे ख़त्म कर देगी, ये बचेगा ही नहीं, ये स्वीकार का उपनिषद है? ये सवाल पूछा जा रहा है। न स्वीकार किया जा रहा है न अस्वीकार किया जा रहा है, जानने की कोशिश की जा रही है। जानूँगा और उसी आधार पर जियूँगा, और बिना जाने जियूँगा नहीं। कुछ भी मान नहीं लूँगा कि ऐसा ही होता है!बिल्कुल कुछ नहीं मान लूँगा कि ऐसा ही होता है, कि ऐसा तो होना ही चाहिए।

 

मैं फ़िर कह रहा हूँ, बात इसमें भले ही दूर की हो रही हो, कि किस देवता ने आँख को ज्योति और कान को सामर्थ्य दे दिया? लेकिन ये दूर की बातें उठेंगी उसी के मन में, जो ज़िंदगी बड़े साफ़-सुथरे, सरल तरीके से बिता रहा है, वर्ना ये बातें उठेंगी ही नहीं, किसी हालत में नहीं उठ सकतीं। जिसने ये मान ही रखा है कि इतनी उम्र में ऐसा होना चाहिए, उसके बाद ऐसा होना चाहिए और फ़िर ऐसा होना चाहिए और ऐसा होना चाहिए, इन लोगों से ऐसे संबंध रखो, ऐसी समाजिकता निभाओ, इस तरीके से जियो, इस तरीके से पैसे इकट्ठा करो, फ़िर ये करो, फ़िर वो करो। जिसने मान ही रखा है कि जीवन का ये अर्थ है उसको ये सवाल नहीं उठ सकता, ये सवाल उस आदमी का उठाया हुआ सवाल नहीं है।

 

जो सड़क पर आम आदमी चल रहा है, जिसने ज़िंदगी को पहले से ही बने बनाए रंग दे रखे हैं, केन उपनिषद उसका नहीं है। देखिए! केन उपनिषद पर चर्चा करना तो बहुत आसान है, करोड़ों लोग बैठ कर चर्चा कर चुके होंगे, और बड़े-बड़े पंडित हुए हैं जिन्होंने इसपर अपनी टीकाएँ, व्याख्याएँ लिखी हैं, कोई फर्क नहीं पड़ गया उससे। जब तक आप इस काबिल नहीं हो जाते कि ये केन उपनिषद आप ख़ुद कह सको, जब तक ये सवाल आपके अपने सवाल नहीं बन जाते, तब तक किसी और के दिए उपनिषद से हमें कोई विशेष फ़ायदा होगा नहीं।

 

जीवन ऐसा हो, कि वो इस उपनिषद को जिए, जीवन ऐसा हो जिसमें इतनी जिज्ञासा हो, जानने की एक प्रबल उत्कंठा कि मुझे पता होना चाहिए, कि नहीं क्यों? जीवन ऐसा हो जो पलट-पलट कर बार-बार पूछे कि नहीं क्यों? नहीं क्यों? तब तो केन उपनिषद सार्थक हुआ, नहीं तो बैठकर पढ़ते रहिये, उससे कुछ हो नहीं जाएगा। हिंदुओं का एक प्रमुख शास्त्र है ये, वास्तव में करोड़ों लोग पढ़ चुके होंगे इसे अब तक, क्या हो गया उससे? उपनिषद पढा नहीं जाता, उपनिषद हुआ जाता है, होना पड़ेगा, ज़िंदगी ऐसी बितानी पड़ेगी। उसके बाद कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप इन्हीं शब्दों में ये सवाल पूछ रहे हैं कि नहीं पूछ रहे हैं कोई फर्क नहीं पड़ता, सवाल होना चाहिए।

 

शब्द आपके अलग हो सकते हैं, भाषा अलग हो सकती है, होनी ही चाहिये। ये किसी और समय में लिखा गया था, आज का समय अलग है, भाषा अलग होनी ही चाहिए, लेकिन सवाल तो हो, और ऐसा ही बचकाना सवाल, बिल्कुल बचकाना ही, बच्चे से आता हुआ। तब तो कुछ बात है वर्ना नहीं। और आगे भी सब वही है, इसको पढ़कर कुछ पा नहीं सकते हैं, ये उपनिषद आपको कुछ दे नहीं पाएगा, हाँ! आप में ये कुछ जगा ज़रूर सकता है। आप में ये यह जगा सकता है, कि ये सवाल पूछे जा सकते हैं, ऐसा जीवन भी संभव है, एक संभावना जग सकती है भीतर, कि यार अगर कुछ लोगों ने पूछा, मैं क्यों नहीं पूछ सकता।

 

प्र: आचार्य जी, बहुत सारे सवाल होते हैं, अब आदत ऐसी बन चुकी है कि या तो उन्हें टाल देते हैं या ध्यान ही नहीं देते, हम ख़ुद ही मार देते हैं उस प्रश्न को। इस चर्चा के बाद, यदि सवाल मन में आएगा तो उसे मरने तो नहीं देंगे कम से कम।

 

आचार्य: और यह याद रखना कि हमारे मन में जो सवाल आ रहा है, वो इससे ज़्यादा तो बचकाना नहीं हो सकता। कतई बचकाना सवाल है ये। मन कहाँ से आ रहा है? वाणी के पीछे कौन बैठा हुआ है? आँख का प्रोजेक्टर कौन चला रहा है? कान की मशीन कौन ऑपरेट कर रहा है, ये इस तरीके के सवाल हैं। और ख़बरदार अगर किसी बच्चे को डाँटा ये सवाल पूछने पर, इससे बड़ा पाप नहीं हो सकता। समझ में आ रही है बात?

 

यही प्रमुख सवाल है, और कोई प्रमुख सवाल नहीं है, बाकि सवाल तो दो कौड़ी के हैं, बाकी जितने भी सवाल हैं, वह दो कौड़ी के हैं, यह मौलिक सवाल है, स्रोत पर बैठे हुए हैं। कुछ भी नहीं है जो मान ही लेना है। कृष्णमूर्ति जो बोल गए, “ट्रुथ इज़ अ पाथलेस लैंड।इसका अर्थ समझिए- कोई रास्ता नहीं है जिस पर चलना आवश्यक है, पाथलेस, कोई रास्ता नहीं है जिस पर चलना आवश्यक है।

 

प्र: और चल पाओगे भी नहीं कोई रास्ता ढूंढ़कर।

 

आचार्य: सारे रास्ते कल्पनाएँ हैं, डर के प्रतीक हैं बस, कि इसपर-इसपर चले चलो, वास्तव में हैं भी नहीं वो।

 

प्र: ये तो कुछ ऐसा है, जिसको बोल नहीं सकते हैं, जो है, बस इतनी-सी बात है, तो उसको हम रास्ता थोड़े ही दिखाएँगे।

 

आचार्य: पर रास्ते तो चारों तरफ हैं कि नहीं हैं? वो पंक्तियाँ हैं मुक्तिबोधकी कि अब तो रस्ते ही रस्ते हैं मुक्ति के राजदूत सस्ते हैं। मुक्ति चाहिए? ये रहा रास्ता। रस्ते ही रस्ते हैं, रस्तों पे चल के ये सवाल नहीं पूछे जाते। अगर इस प्रश्नकर्ता को इतने रास्ते दिखाई देंगे, तो ये क्या पूछेगा? कि सारे रास्तों के स्रोत क्या है? ये कहाँ से आ गए सब? और हम उसपर भड़क कर आगे बढ़ जाएंगे, “ऐसा तो होता ही है! ऐसा तो होना ही चाहिये!

 

प्र: ये किसने बताया?

 

आचार्य: बहुत पंगे मत लो! परेशान मत करो देखो! जो कहा जा रहा है चुपचाप मान लो!(कटाक्ष करते हुए)

 

प्र: आज समझ आता है, भौतिकी कितनी पास है, क्यों वह और जानने की कोशिश कर रही है बिग-बैंग थ्योरी, पॉज़िट्रॉन, और अंदर घुसने की कोशिश कर रही है, कहीं रुकती नहीं है।

 

आचार्य: कहीं रूकती ही नहीं, बच्चे का ही मन है बिल्कुल, नहीं ये क्यों? तो ये क्यों? और तुम इसे देखोगे ध्यान से, अंततः इसमें जो जवाब भी आ रहे हैं, वो कोई आखिरी जवाब नहीं हैं, वो जवाब हैं ही नहीं, कुछ इशारे दे करके बात ख़त्म कर दी गई है। उपनिषद उत्तर नहीं दे रहा है। येनउपनिषद इसका नाम नहीं है, केन उपनिषद नाम है इसका। सवाल! जवाब उपनिषद नाम नहीं है इसका, एक और उपनिषद है उसका तो नाम ही है प्रश्नोपनिषद। उत्तरोपनिषद जैसा कुछ भी नहीं है कहीं, आजतक नहीं लिखा गया, उत्तर की कोई कीमत ही नहीं है। मैं फ़िर कहूँगा इन शब्दों की कोई कीमत नहीं है, उस मन की कीमत है जहाँ से ये सवाल पूछे जा रहे हैं।

 

अगर हम वो मन बन सकें तब तो इसको पढ़ना सार्थक है, वर्ना इसमें कोई विशेष बात है नहीं, इसको पढ़कर आपको कोई ज्ञान ऐसा नहीं मिल जाना है जो बड़े काम का हो। आप दिन-रात इसे मंत्र की तरह उच्चारित कीजिए कुछ नहीं मिल जाएगा, कुछ भी नहीं है इसमें। अगर ऐसा बन सकें तब तो कुछ है, ये हममें कुछ जगा सके, इसको पढ़ के कुछ प्रतिध्वनित हो हमारे भीतर। वही जो बच्चा(मन) सो गया है बिल्कुल, वो बच्चा अगर जग सके, तब तो इस केन उपनिषद की कीमत है।

 

जैसे होता है न कि एक बच्चा घर में बिल्कुल उदास पड़ा हुआ है, और बाहर चार-पाँच खेलना शुरू कर दें, और उनकी आवाजें आने लगे भीतर, तो जो ये भीतर वाला क्या करता है, ये भी ऐसे जाएगा और खिड़की से देखेगा ये क्या हो रहा है, और अंदर तूफान मचाएगा कि मुझे भी खेलना है। अगर वो प्रक्रिया हो सके, तब तो इसको पढ़ने की कोई कीमत हुई। इसने पूछा, ये पूछ सकता है, ये मुझे याद दिला दे कि मुझ में भी सामर्थ्य है पूछने की, वो याद अगर आ सके, वो प्रतिध्वनि अगर पैदा हो सके, नकल करने की बात नहीं कर रहा हूँ कि यह जैसे पूछे रहा है, मैं भी वैसे ही नकल कर लूँगा, मैं आह्वाहन की बात कर रहा हूँ।

 

मुझे भी मेरी स्मृति आ सके, ये ताकत तो मुझ में भी है, जो चेतना यह सवाल पूछ रही है, वो चेतना तो मैं भी हूँ। यहाँ पूछा जा सकता है, यहाँ ज़िंदगी इतनी सरल तरीके से जी जा सकती है तो मैं क्यों नहीं जी सकता? ये हो सके, तब तो समझना कि कुछ हुआ नहीं तो फ़ालतू ही समय ख़राब किया।

 

श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राणः।

 

चक्षुषश्चक्षुरतिमुच्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥२॥

 

(केनोपनिषद, खण्ड १, श्लोक २)

 

हिंदी अनुवाद: जो (परमात्मतत्व) कर्णेन्द्रिय का श्रोत्र (श्रवण शक्ति) है, मन का मन (मनन क्षमता) है, वागिन्द्रिय की वाणी (वाक् शक्ति), प्राण का प्राण (संचालक) है, चक्षु का चक्षु (दर्शन क्षमता) है, अर्थात् जो इन सबका कारणभूत तत्त्व है, (उसे जानने वाले) धीर पुरुष (जो चक्षु, श्रोत्र, मन आदि के आवेगों से उद्वेलित नहीं होते) इस लोक से जाते हुए (अथवा जीवन मुक्त होकर) अमर हो जाते हैं ॥२॥

 

आचार्य: श्रोत्रस्य श्रोत्रं- कान का कान, बात विरोधी है, बच्चा है, जो यह कह रहा है, साथ चल सको तभी मजा आएगा। मनसो मनो- मन का मन, यद वाचो ह वाचं- वाणी की भी वाणी, स उ प्राणस्य प्राणः बड़ा पोयटिक बच्चा है, जान की जान, आँखों की आँख, और फ़िर एक वक्तव्य आ गया है जिसका कोई कारण नहीं दिया गया है, क्या है वक्तव्य?

 

धीरपुरुष (ज्ञानी जन) अतिमुक्त होकर इस लोक से जाने पर अमृतस्वरूप हो जाते हैं।

 

आचार्य: क्या है जो मर सकता है?

 

प्र: ये शरीर मर सकता है, मन मर सकता है, और जो नहीं मर सकता वो जो साक्षी है, जिसकी हम बात करते हैं।

 

आचार्य: पानी ख़त्म हो जाएगा झरने का, और होता ही रहता है लगातार, बहना शुरू करा नहीं कि उसके ख़त्म होने की यात्रा भी आ गयी। कुछ इधर छिटकेगा, कुछ भाप बन जाएगा, कुछ जा करके समुद्र में मिल जाएगा, जो स्रोत है वो भी ख़त्म होता रहता है क्या? बहना किसका स्वभाव है? पानी का, या स्रोत का भी है? स्रोत भी बहता रहता है पानी के साथ? अभी आ रहे हो टाइगर फॉल से, क्या बह रहा था वहाँ पर? पानी। या उद्गगम भी बह रहा था? जब हम कहते हैं कि हम मर जाएंगे तो उसका अर्थ बस यही होता है कि मैं ये शरीर हूँ और यह शरीर ख़त्म हो जाएगा, और अगर मैं उद्गगम हूँ तब?

 

प्र: तब तो ख़त्म होने की बात ही नहीं है, और शब्दों को भी हम पकड़ें तो कहते हैं कि देहांत हो गया।

 

आचार्य: बहुत बढ़िया, तो देहांत तो हो सकता है, पर स्रोत का भी कोई अंत होता है? अब देह के अंत को अपना अंत मान लेना आपका फैसला है, माने रहो। देहांत होता है, निश्चित रूप से होता है और वह प्रतिक्षण हो रहा है। अभी हम बैठे भी हैं तो भी देह में कितनी ही कोशिकाएँ हैं जो ख़त्म हो रही हैं। वैसे न देखो तो ऐसे देख लो कि प्रतिक्षण मौत की तरफ ही बढ़ रहे हैं, हमने अभी जब 10 मिनट पहले बात करना शुरू किया था तब हम मौत के जितने करीब थे, अब हम मौत के 10 मिनट ज़्यादा करीब हैं।

 

तो मौत तो प्रतिक्षण घट रही है देह की, देहांत होगा पक्का होगा, देहांत को अपना अंत मानना है तो मान लो। धीर शब्द प्रयोग किया है बुद्धिमान के लिए, धीर पुरूष मृत्यु के पार चले जाते हैं, अर्थ समझिएगा इसका। धीर शब्द का इस्तेमाल किया गया है, धर उसका स्रोत है। रुट- धर”, धर मतलब जो बेस है, जो धर्ता है, जो धारण करता है, जो मौलिक है। तो कौन है बुद्धिमान? जो स्रोत पर पहुँच गया है, जो मूल पर पहुँच गया है। मूल की कभी मृत्यु नहीं होती, स्रोत की कभी मृत्यु नहीं होती।

 

प्र: दिस वर्ल्डजो है, मन की दुनिया है या अभी जो भी हमारे आँखों के सामने घट रहा है वही है? दिस वर्ल्ड का मतलब बताइए।

 

आचार्य: दिस वर्ल्ड एक ही वर्ल्ड है, यही। यह संसार।

 

प्र: आचार्य जी इसको ऐसे भी सम्बंधित कर सकते हैं, हम जानते हैं इस बात को कि एक तारे का भी अंश हमारे अंदर है, यानी कि जो पहला इंसान हुआ होगा, उसका भी अंश हमारे अंदर है, हमारे शरीर में कहीं न कहीं अंश है, तो इसे ऐसे भी देखा जा सकता है कि मरना तो है ही नहीं, मरती तो सिर्फ़ देह ही है।

 

आचार्य: देखो देह का अर्थ यही है कि ये व्यवस्था बनी रहे, बाकी तो हमें पता है, पदार्थ नष्ट नहीं हो सकता। तो जला भी दिए जाओगे तो गैस-वैस बन जाओगे, राख बन जाओगे, यही होगा, पर फ़िर भी मृत्यु तो घटित होगी, क्योंकि व्यवस्था टूट गयी।

 

प्र: पर आचार्य जी, मृत्यु भी किसकी होती है, जो इस समय चल रहा है मन, अगर ध्यान दिया जाए तो एक जिंदा शरीर और मृत शरीर में अंतर ही क्या है? जिंदा शरीर सोचता है, मृत शरीर सोचता नहीं है।

 

आचार्य: तो ये लेकिन सबसे पहले बिल्कुल गहराई से मान लेना होगा कि शरीर और मन, ये तो ख़त्म होने ही होने हैं। ये फैसला मेरा है कि मुझे उनके साथ अपनेआप को जोड़कर देखना है कि नहीं है। भई! मैं ये कर सकता हूँ, कि मैं ये दीवार हूँ, और जिस दिन ये दीवार टूटे मैं क्या घोषणा कर दूँ? मैं मर गया। दीवार टूटेगी, ये फैसला मुझे करना है कि मुझे अपनेआप को इस दीवार के साथ जोड़कर देखना है कि नहीं देखना है। इंद्रियों को पकड़ लिया है इस आदमी ने, इंद्रियों को इस पूछने वाले ने पकड़ लिया है, शरारती है ये बहुत, कोई उत्तर नहीं देना चाहता लेकिन कह रहा है कि आँख वहाँ नहीं जाएगी, वाणी वहाँ नहीं जाएगी, मन वहाँ नहीं जाएगा। और तुम्हें कैसे पता नहीं जाएगा? कोई जवाब नहीं दे रहा।

 

न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो

 

न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्या

 

दन्यदेव तद्विदितादयो अविदितादधि।

 

इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद्वयाचचक्षिरे॥३॥

 

(केनोपनिषद, खण्ड १, श्लोक ३)

 

हिंदी अनुवाद: वहाँ (परब्रह्म परमात्मा तक) चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों, वाक् आदि कर्मेन्द्रियों तथा मन की भी पहुंच नहीं है। उसे जानने की बुद्धि हममें नहीं है, न ही किसी अन्य की व्याख्या से यह संभव हो सकता है, क्योंकि वह ज्ञात और अज्ञात सभी तत्त्वों से सर्वथा परे है- ऐसा हमने अपने पूर्वाचार्यों के मुख से सुना है, जिन्होंने हमें उस ब्रह्म के विषय में भली-भाँति व्याख्या करके समझाया है।

 

आचार्य: तीसरा सूत्र है, आँख वहाँ नहीं जाएगी, वाणी वहाँ नहीं जाएगी और मन वहाँ नहीं जाएगा, कहाँ नहीं जाएगा? यह भी नहीं बता रहा, बस कह रहा है वहाँ जाएगा नहीं, इशारा डाल दिया है। बिल्कुल शरारत!

 

न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनः।

 

तत्र माने कहाँ? नहीं बताया।

 

प्र: सोचते रहो, सोचने के लिए भी मन को भी ख़त्म कर दिया है न, सोचते रहो, सोचने से पहुँच नहीं पाओगे।

 

आचार्य: सोचते रहो, सोचकर पहुँच नहीं पाओगे।

 

सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार।।

 

चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिव तार।।

 

कौन हैं ये? गुरु नानक, जे सोची लख वार। सोच-सोच कर तो नहीं पहुँच पाओगे, पर यह पक्का पता है कि तत्रजैसा कुछ है ज़रूर, एक जगह है ज़रूर, अगर नकली है तो असली है ज़रूर, अगर झरना है तो उसका उदगम है ज़रूर, ये पक्का है, छाया हैं तो कोई असली चीज़ है ज़रूर। न जाना जा सकता है, न जनाया जा सकता है। तो ये उन्हीं के लिए है उपनिषद, जिनको पहले ही ऐसी प्रतीतियाँ हो रही हों, बाकियों के लिए तो यह बड़ी एक खाली पहेली बन जाएगी, जो उन्हें सिर्फ़ चिढ़ा सकती है। न जाना जा सकता है, न जनाया जा सकता है।

 

न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात्

 

यह नाम देना भी गलत होगा कि अंजानाहै, न जाना है, न अनजाना है। क्योंकि मन ने अगर यह भी कह दिया कि अगर अंजाना है, तो मन के भीतर हो गया, मन के क्षेत्र में आ गया, लेबल लग गया, नाम हो गया। न जाना है न अनजाना है, कौन-सी प्रक्रिया चल रही है ये? “नेति-नेति

 

जब मन के पार है तो आप नेति-नेति के अलावा और कुछ कर भी नहीं सकते, ऐसा हमसे कहा है उन्होंने जिन्होंने जाना है। कहा तो बहुतों से गया है, पर कोई ही है जो उस कहने को जी पाया है। मैं बार-बार इसी पर वापस आऊँगा, कि इन शब्दों का कोई मोल नहीं है, कि आँख की आँख, ज़बान की ज़बान, जाने से परे और अनजाने से परे, इन बातों का कोई मोल नहीं है, ये करीब-करीब ज़ेन-क़्वान ही हैं, ये करीब-करीब क़्वान हैं, जो अपनेआप में कोई विशेष महत्व नहीं रखते, महत्व उनका इसमें होता है कि वह आपके भीतर क्या जगा रहे हैं? इशारा किधर को कर रहे हैं? आपको क्या बना दे रहे हैं?

 

अब अगले जो कुछ सूत्र आएँगे, उनकी जो दूसरी पंक्ति है वो सब में समान है, और बड़े काम की है उसपर ध्यान दीजिएगा। जो पहली पंक्ति होगी वो फ़िर से एक साधारण सी बात कह रही होगी, दूसरी पंक्ति दोहराई जाएगी, और जो दोहराया जा रहा है, कोई कारण है कि इसको दोहराया जा रहा है कहने वाले ने ज़रूरत समझी है, कि बात महत्वपूर्ण है इसे बार-बार कहा जाए, इसीलिए उसको दोहरा रहा है।

 

यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते

 

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥४॥

 

(केनोपनिषद, खण्ड १, श्लोक ४)

 

हिंदी अनुवाद: जो वाणी के द्वारा वर्णित नहीं किया जा सकता; अपितु वाणी ही जिसकी महिमा से प्रकट होती है, उसे ही तुम ब्रह्म समझो। वाणी द्वारा निरूपित जिस तत्त्व की लोग उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है।

 

आचार्य: क्या दोहराया जा रहा है?

 

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥

 

हमने पहली पंक्ति पढ़ी भी नहीं है, दूसरी पर आ रहे हैं, मैं समझ रहा हूँ दूसरी का ही महत्व ज़्यादा है, और देखिए कितनी बार जो दूसरी पंक्ति का दोहराव हुआ है? गिनिए। कोई वजह है, कोई कारण है, उसको समझना पड़ेगा, अर्थ क्या है इस पंक्ति का?

 

उसको ही तुम ब्रह्म जानो, न कि उसको जिसकी वह सब पूजा कर रहे हैं। निश्चित रूप से कल्पनाएँ और अंधविश्वास हर समय में फैले होते हैं, निश्चित रूप से उस समय भी बहुत लोग थे, जो अपने ही मन के आकारों की पूजा कर रहे थे, उसे ब्रह्म जानकर, सत्य जानकर। जो छायाओं की पूजा कर रहे थे, उसे मूर्त जानकर, एक और छाया न पैदा कर दे, एक और भ्रम न पैदा कर दे, शायद इसीलिए सिर्फ़ इशारे किये गए हैं। जो पहली पंक्ति है वह क्या बोलती है?

 

यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते।

 

वह, शब्द जिसे पकड़ नहीं सकता, पर वह जिसके द्वारा, जिसके सामर्थ्य से, जिसकी वजह से शब्द उच्चारित होता है, उसको ही तुम ब्रह्म जानो न कि उसको, न कि किसको जिसकी ये चारों तरफ उपासना चल रही है। जगराते आज ही नहीं चालू हुए हैं।

 

प्र: यज्ञ तो तब भी होते ही थे सूर्यदेव हैं, सबको देव बना ही दिया था।

 

आचार्य: तब भी मूढ़ों की कमी नहीं थी, जो सत्य को अलग-अलग तरह की कल्पनाओं में बांधने की कोशिश में लगे थे।

 

प्र: इशारे को ही पकड़ के उसकी पूजा करते रहते थे। इशारे की ओर नहीं जाते थे।

 

आचार्य: जब भी किसी को सत्य के बारे में बड़ी ठसक के साथ बोलते हुए देखिए, पॉजिटिव अफर्मेशन (सकारात्मक पुष्टि) के तौर पे, तो समझ जाइए कि यह आदमी कल्पनाओं में खोया हुआ है, और यह मुझे भी लेकर डूबेगा।

 

देख रहे हो कितने आदर के साथ, कितनी सूक्ष्मता से ब्रह्म की ओर बड़ा एक हल्का इशारा भर किया जा रहा है, ये धृष्टता की ही नहीं जा रही कि मैं बहुत ज़्यादा बोलूँ। बस इतना बोल दिया गया कि वाणी जिसे बोल नहीं सकती, पर जो वाणी के पीछे की शक्ति है वही ब्रह्म है।

 

प्र: पांडित्य बखारने का प्रयोजन नहीं है।

 

आचार्य: कोशिश ही नहीं की गई है कि ब्रह्म की बड़ी व्याख्या कर दी जाए। ब्रह्म माने सिर्फ़ रियलिटी, सत्य। यह कोशिश ही नहीं की गई है कि बहुत ज़्यादा कुछ बोला जाए, बड़ी विनम्रता है, गहरी विनम्रता है, ये दम्भ है ही नहीं कि मैंने सच को मुट्ठी में पकड़ लिया है। मज़ेदार बात है, जो पकड़ लेता है उसको फ़िर बड़ा आनंद आता है दूसरों को परोसने में भी, ये तुम देख रहे हो ये आदमी कितना विनीत है?

 

प्र: सच सीधा-सीधा अगर बोल दिया जाएगा, फ़िर वही बात है न कि लेबलिंग कर दी, उसको बोल ही नहीं सकते।

 

आचार्य: मगर कहकर भी ध्यान से देखो तो कुछ कहा नहीं है, इतना ही कहा है- शब्द जिसकी ओर नहीं जा सकते, पर जो सब शब्दों का आधार है उसी को ब्रह्म जानो। कुछ भी नहीं कहा है, ये आदमी असली है, ये कोई दावे कर ही नहीं रहा, इसने कहने को कह दिया है पर देखो ध्यान से कि क्या कुछ भी कहा है? कुछ भी नहीं कहा है, असल में यह वही कह रहा है जो लाओत्ज़ु कहता है।

 

पहली बात, सत्य के बारे में कुछ भी कहा तो नहीं जा सकता, पर कुछ तो कहना ही है, तो एक हल्का-सा इशारा डाल दिया है बस, और ऐसे ही आदमी को सच्चा जानना। जो तुमसे मिलकर कहे कि मेरी दुकान पर सच बिकता है, वहाँ समझ जाना कि बस समोसे से ही होंगे सच नहीं हो सकता। समोसे बेचे जा सकते हैं, सच नहीं बेचा जा सकता, न परोसा जा जा सकता है, न मुफ़्त हीं दिया जा सकता है, जिया जा सकता है। आगे भी ऐसा ही है, कुछ कह ही नहीं रहा, कहने वाला आपको भ्रम में डाल रहा है कि कुछ कह रहा है, कह कुछ रहा ही नहीं है।

 

प्र: ये ब्रह्म और भ्रम, इसमें बड़ा अंतर हैं, ब्रह्म, भ्रम से नहीं निकलता है, मतलब हम जो देख रहे हैं वो डर है।

 

आचार्य: हम जो देख रहे हैं वह भ्रम है, फ़िर वही कहा है-

 

यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्।

 

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥५॥

 

(केनोपनिषद, खण्ड १, श्लोक ५)

 

हिंदी अनुवाद: मन से जिसका मन नहीं किया जा सकता; अपितु मन जिसकी महत्ता से मनन करता है, उसी को ब्रह्म समझो। मन द्वारा मनन किए हुए जिसकी लोग उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है। आचार्य प्रशांत: वह जिसे मन सोच नहीं सकता, पर जिसके द्वारा मन सोच में प्रविष्ट होता है, बस उसी को ब्रह्म जानो। बस पहेली है- तुम उसे देख नहीं सकते पर तुम्हारे देखने के पीछे वही बैठा है तुम उसे ही ब्रह्म जानो।

 

प्र: सोच में प्रवेश करना क्या है?

 

आचार्य: सोचना, सोचना, बस सीधे-सीधे सोचना

 

प्र: अगर सोचने से प्राप्त नहीं हो सकता है, तो फ़िर वह क्यों सोचने के लिए कह रहा है?

 

आचार्य: हम उसे नहीं सोच पाते, पर हमारे सोचने की ताकत वही है। सोच उसे सकते नहीं, पर उसके बिना सोचा जा सकता नहीं। आप उसे नहीं सोच सकते पर उसके बिना सोचना संभव नहीं है।

 

प्र: आचार्य जी, ब्रह्म रचनाकार ही तो हैं न?

 

आचार्य: ब्रह्मकी बात हो रही है, ‘ब्रह्माकी नहीं बात हो रही है यहाँ पर।

 

प्र: जो सत्य है, ये ब्रह्मयही है, और जो ब्रह्माहै, वो?

 

आचार्य: वो कुछ नहीं है, खिलौना है।

 

प्र: एक कहानी है कि, एक रहस्य है, बच्चे को कहानी कही जा रही है कि 14 लोग हैं, उसमें 3 आदमी हैं राजा था, उसने 3 शरीर धारण किये थे- एक पीला, एक सफेद और एक काला रंग था, तो ये बने ब्रह्म-विष्णु-महेश। तो ये जो आध्यात्मिक ग्रंथ हैं, बस समझने के लिए एक इशारा किया है, क्योंकि मन तो मन है।

 

आचार्य: ये कुछ भी नहीं है देखिए, ये कुछ भी नहीं है और इसे आध्यात्मिक साहित्य कहना भी नहीं चाहिए, ये वही हैं, खिलौने।

 

प्र: मन को शांत करने के लिए ये कहा गया है।

 

आचार्य: कोई शांत नहीं होता, इनको सुन के कोई शांत नहीं हो जाता, आपके पुराण जो हैं, उनका सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है इस वक्त मन को अशांत करने में। मन कहानियों से नहीं शांत होता, मन अपने ही द्वारा रची गयी कल्पनाओं से सिर्फ़ संस्कारित ही हो सकता है, यह सारी बातें इधर-उधर की उनसे नहीं हो जाता है मन शांत।

 

प्र: ये सब उस मन का काम है, जो उत्तर खोजते है, केन उपनिषद तक नहीं पहुँच सकते हैं।

 

आचार्य: मिल गया उत्तर। अब क्या करना है- जगत कहाँ से आया? ब्रह्मा ने बनाया, ख़त्म प्रश्न। अब क्या करना है केन उपनिषद का?

 

यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षुःषि पश्यति।

 

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥

 

(केनोपनिषद, खण्ड १, श्लोक ६)

 

हिंदी अनुवाद: जिसे चक्षु के द्वारा नहीं देखा जा सकता; अपितु चक्षु जिसकी महिमा से देखने में सक्षम होता है, उसे ही तुम ब्रह्म जानो। चक्षु के द्वारा द्रष्टव्य जिस तत्त्व की लोग उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है।

 

आचार्य: आँख नहीं देख पाएगी, पर जिसके बिना आँख बेकार है। जैसे मुर्दे की आँख कि होते हुए भी नहीं देख सकती। आँख होती है न मुर्दे के पास भी? और उसकी आँख और हमारी आँख में कोई अंतर नहीं है, सच तो यह है, कि ताज़ा मुर्दे की आँख अगर निकाल लो और असली आदमी के लगा दो, तो काम आ जाती है, कोई दिक्कत नहीं होती। मुर्दे की आँख और जिंदा व्यक्ति की आँख में कोई अंतर नहीं है, सिवाय इसके कि अब वो स्रोत से कट गयी है, प्राण नहीं रहा, और उस प्राण को पकड़ा नहीं जा सकता, जाना नहीं जा सकता।

 

प्र: आप कितनी भी कोशिश कर लीजिए पर आप ये नहीं बता सकते किसी भी इलेक्ट्रिकल इंस्टूमेंट से कि इलेक्ट्रिसिटी आखिर होती क्या है? और उसके बिना सब बेकार है।

 

आचार्य: अगले दो श्लोक भी यही कह रहे हैं, कान जिसे सुन नहीं पाएगा पर जिसके द्वारा कान सुनने की शक्ति पाता है उसी को ब्रह्म जानो, उसको नहीं जिसकी उपासना हो रही है चारों तरफ।

 

3. कठ (उपनिषद्) ।

4. प्रश्न (उपनिषद्) ।

5. मुण्डक (उपनिषद्) ।

6. माण्डुक्य (उपनिषद्) ।

7. तैत्तिरीय (उपनिषद्) ।

8. ऐतरेय (उपनिषद्) ।

9. छान्दोग्य (उपनिषद्) ।

10. बृहदारण्यक (उपनिषद्) ।

 

11. ब्रह्म (उपनिषद्) ।

12. कैवल्य (उपनिषद्) ।

13. जाबाल (उपनिषद्) ।

14. श्वेताश्वतर (उपनिषद्) ।

15. हंस (उपनिषद्) ।

16. आरुणेय (उपनिषद्) ।

17. गर्भ (उपनिषद्) ।

18. नारायण (उपनिषद्) ।

19. रमहंस (उपनिषद्) ।

20. अमृत-बिन्दु (उपनिषद्) ।

 

21. अमृत-नाद (उपनिषद्) ।

22. अथर्व-शिर (उपनिषद्) ।

23. अथर्व-शिख (उपनिषद्) ।

24. मैत्रायणि (उपनिषद्) ।

25. कौषीताकि (उपनिषद्) ।

26. बृहज्जाबाल (उपनिषद्) ।

27. नृसिंहतापनी (उपनिषद्) ।

28. कालाग्निरुद्र (उपनिषद्) ।

29. मैत्रेयि (उपनिषद्) ।

30. सुबाल (उपनिषद्) ।

 

31. क्षुरिक (उपनिषद्) ।

32. मन्त्रिक (उपनिषद्) ।

33. सर्व-सार (उपनिषद्) ।

34. निरालम्ब (उपनिषद्) ।

35. शुक-रहस्य (उपनिषद्) ।

36. वज्र-सूचिक (उपनिषद्) ।

37. तेजो-बिन्दु (उपनिषद्) ।

38. नाद-बिन्दु (उपनिषद्) ।

39. ध्यानबिन्दु (उपनिषद्) ।

40. ब्रह्मविद्या (उपनिषद्) ।

 

41. योगतत्त्व (उपनिषद्) ।

42. आत्मबोध (उपनिषद्) ।

43. परिव्रात् (उपनिषद्) ।

44. त्रि-षिखि (उपनिषद्) ।

45. सीतोपनिषद् (उपनिषद्) ।

46. योगचूडामणि (उपनिषद्) ।

47. निर्वाण (उपनिषद्) ।

48. मण्डलब्राह्मण (उपनिषद्) ।

49. दक्षिणामूर्ति (उपनिषद्) ।

50. शरभ (उपनिषद्) ।

 

51. स्कन्द (उपनिषद्) ।

52. महानारायण (उपनिषद्) ।

53. अद्वयतारक (उपनिषद्) ।

54. रामरहस्य (उपनिषद्) ।

55. रामतापणि (उपनिषद्) ।

56. वासुदेव (उपनिषद्) ।

57. मुद्गल (उपनिषद्) ।

58. शाण्डिल्य (उपनिषद्) ।

59. पैंगल (उपनिषद्) ।

60. भिक्षु (उपनिषद्) ।

 

61. महत् (उपनिषद्) ।

62. शारीरक (उपनिषद्) ।

63. योगशिखा (उपनिषद्) ।

64. तुरीयातीत (उपनिषद्) ।

65. संन्यास (उपनिषद्) ।

66. परमहंस-परिव्राजक (उपनिषद्) ।

67. अक्षमालिक (उपनिषद्) ।

68.अव्यक्त (उपनिषद्) ।

69. एकाक्षर (उपनिषद्) ।

70. अन्नपूर्ण (उपनिषद्) ।

 

71. सूर्य (उपनिषद्) ।

72. अक्षि (उपनिषद्) ।

73. अध्यात्मा (उपनिषद्) ।

74. कुण्डिकोपनिषद् (उपनिषद्) ।

75. सावित्रि (उपनिषद्) ।

76. आत्मा (उपनिषद्) ।

77. पाशुपत (उपनिषद्) ।

78. परब्रह्म (उपनिषद्) ।

79. अवधूत (उपनिषद्) ।

80. त्रिपुरातपनोपनिषद् (उपनिषद्) ।

 

81. देवि (उपनिषद्) ।

82. त्रिपुर (उपनिषद्) ।

83. कर (उपनिषद्) ।

84. भावन (उपनिषद्) ।

85. रुद्र-हृदय (उपनिषद्) ।

86. योग-कुण्डलिनि (उपनिषद्) ।

87. भस्मोपनिषद् (उपनिषद्) ।

88. रुद्राक्ष (उपनिषद्) ।

89. गणपति (उपनिषद्) ।

90. दर्शन (उपनिषद्) ।

 

91. तारसार (उपनिषद्) ।

92. महावाक्य (उपनिषद्) ।

93. पञ्च-ब्रह्म (उपनिषद्) ।

94. प्राणाग्नि-होत्र (उपनिषद्) ।

95. गोपाल-तपणि (उपनिषद्) ।

96. कृष्ण (उपनिषद्) ।

97. याज्ञवल्क्य (उपनिषद्) ।

98. वराह (उपनिषद्) ।

99. शात्यायनि (उपनिषद्) ।

100. हयग्रीव (उपनिषद्) ।

 

101. दत्तात्रेय (उपनिषद्) ।

102. गारुड (उपनिषद्) ।

103. कलि-सण्टारण (उपनिषद्) ।

104. जाबाल(सामवेद) (उपनिषद्) ।

105. सौभाग्य (उपनिषद्) ।

106. सरस्वती-रहस्य (उपनिषद्) ।

107. बह्वृच (उपनिषद्) ।

108. मुक्तिक (उपनिषद्) ।

 

108 उपिनषदों की यह सूची मुक्तिक उपनिषद में 1:30-31 में दी गयी है:

ईश = शुक्ल यजुर्वेद, मुख्य उपिनषद्

केन = सामवेद, मुख्य उपिनषद्

कठ उपनिषद् = कृष्ण यजुर्वेद, मुख्य उपिनषद्

प्रश्न = अथर्व वेद, मुख्य उपिनषद्

मुण्डक = अथर्व वेद, मुख्य उपिनषद्

माण्डुक्य = अथर्व वेद, मुख्य उपिनषद्

तैतरीय = कृष्ण यजुर्वेद, मुख्य उपिनषद्

ऐतरेय = ऋग् वेद, मुख्य उपिनषद्

छान्दोग्य = साम वेद, मुख्य उपिनषद्

बृहदारण्यक उपनिषद (10) = शुक्ल यजुर्वेद, मुख्य उपिनषद्

ब्रह्म = कृष्ण यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्

कैवल्य = कृष्ण यजुर्वेद, शैव उपिनषद्

जाबाल (यजुर्वेद) = शुक्ल यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्

श्वेताश्वतर = कृष्ण यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्

हंस = शुक्ल यजुर्वेद, योग उपिनषद्

आरुणेय = साम वेद, संन्यास उपिनषद्

गर्भ = कृष्ण यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्

नारायण = कृष्ण यजुर्वेद, वैष्णव उपिनषद्

परमहंस = शुक्ल यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्

अमृत-बिन्दु (20) = कृष्ण यजुर्वेद, योग उपिनषद्

अमृत-नाद = कृष्ण यजुर्वेद, योग उपिनषद्

अथर्व-शिर = अथर्व वेद, शैव उपिनषद्

अथर्व-शिख = अथर्व वेद, शैव उपिनषद्

मैत्रायिण = साम वेद, सामान्य उपिनषद्

कौषीताक = ऋग् वेद, सामान्य उपिनषद्

बृहज्जाबाल = अथर्व वेद, शैव उपिनषद्

नृसिंहतापनी = अथर्व वेद, वैष्णव उपिनषद्

कालाग्निरुद्र = कृष्ण यजुर्वेद, शैव उपिनषद्

मैत्रेय = साम वेद, संन्यास उपिनषद्

सुबाल (30) = शुक्ल यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्

क्षुरिक = कृष्ण यजुर्वेद, योग उपिनषद्

मान्त्रिक = शुक्ल यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्

सर्व-सार = कृष्ण यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्

निरालम्ब = शुक्ल यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्

शुक-रहस्य = कृष्ण यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्

वज्र-सिूच = साम वेद, सामान्य उपिनषद्

तेजो-बिन्दु = कृष्ण यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्

नाद-बिन्दु = ऋग् वेद, योग उपिनषद्

ध्यानिबन्दु = कृष्ण यजुर्वेद, योग उपिनषद्

ब्रह्मिवद्या (40) = कृष्ण यजुर्वेद, योग उपिनषद्

योगतत्त्व = कृष्ण यजुर्वेद, योग उपिनषद्

आत्मबोध = ऋग् वेद, सामान्य उपिनषद्

परिव्रात् (नारदपरिव्राजक) = अथर्व वेद, संन्यास उपिनषद्

त्रि-षिख = शुक्ल यजुर्वेद, योग उपिनषद्

सीता = अथर्व वेद, शाक्त उपिनषद्

योगचूडामिण = साम वेद, योग उपिनषद्

निर्वाण = ऋग् वेद, संन्यास उपिनषद्

मण्डलब्राह्मण = शुक्ल यजुर्वेद, उपिनषद्

दकि्षणामूर्ति = कृष्ण यजुर्वेद, शैव उपिनषद्

शरभ (50) = अथर्व वेद, शैव उपिनषद्

स्कन्द (त्रिपांड्विभूत) = कृष्ण यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्

महानारायण = अथर्व वेद, वैष्णव उपिनषद्

अद्वयतारक = शुक्ल यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्

रामरहस्य = अथर्व वेद, वैष्णव उपिनषद्

रामतापिण = अथर्व वेद, वैष्णव उपिनषद्

वासुदेव = साम वेद, वैष्णव उपिनषद्

मुद्गल = ऋग् वेद, सामान्य उपिनषद्

शाणि्डल्य = अथर्व वेद, योग उपिनषद्

पैंगल = शुक्ल यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्

भिक्षुक (60) = शुक्ल यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्

महत् = साम वेद, सामान्य उपिनषद्

शारीरक = कृष्ण यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्

योगिशखा = कृष्ण यजुर्वेद, योग उपिनषद्

तुरीयातीत = शुक्ल यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्

संन्यास = साम वेद, संन्यास उपिनषद्

परमहंस-परिव्राजक = अथर्व वेद, संन्यास उपिनषद्

अक्षमालिक = ऋग् वेद, शैव उपिनषद्

अव्यक्त = साम वेद, वैष्णव उपिनषद्

एकाक्षर = कृष्ण यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्

अन्नपूर्ण (70) = अथर्व वेद, शाक्त उपिनषद्

सूर्य = अथर्व वेद, सामान्य उपिनषद्

अक्षि = कृष्ण यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्

अध्यात्मा = शुक्ल यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्

कुण्डिक = साम वेद, संन्यास उपिनषद्

सावित्री = साम वेद, सामान्य उपिनषद्

आत्मा = अथर्व वेद, सामान्य उपिनषद्

पाशुपत = अथर्व वेद, योग उपिनषद्

परब्रह्म = अथर्व वेद, संन्यास उपिनषद्

अवधूत = कृष्ण यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्

त्रिपुरातपिन (80) = अथर्व वेद, शाक्त उपिनषद्

देवि = अथर्व वेद, शाक्त उपिनषद्

त्रिपुर = ऋग् वेद, शाक्त उपिनषद्

कठरुद्र = कृष्ण यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्

भावन = अथर्व वेद, शाक्त उपिनषद्

रुद्र-हृदय = कृष्ण यजुर्वेद, शैव उपिनषद्

योग-कुण्डिलिन = कृष्ण यजुर्वेद, योग उपिनषद्

भस्म = अथर्व वेद, शैव उपिनषद्

रुद्राक्ष = साम वेद, शैव उपिनषद्

गणपित = अथर्व वेद, शैव उपिनषद्

दर्शन (90) = साम वेद, योग उपिनषद्

तारसार = शुक्ल यजुर्वेद, वैष्णव उपिनषद्

महावाक्य = अथर्व वेद, योग उपिनषद्

पंच-ब्रह्म = कृष्ण यजुर्वेद, शैव उपिनषद्

प्राणाग्नि-होत्र = कृष्ण यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्

गोपाल-तपिण = अथर्व वेद, वैष्णव उपिनषद्

कृष्ण = अथर्व वेद, वैष्णव उपिनषद्

याज्ञवल्क्य = शुक्ल यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्

वराह = कृष्ण यजुर्वेद, संन्यास उपिनषद्

शात्यायिन = शुक्ल यजुर्वेद, संन्यास उपनिषद्

हयग्रीव (100) = अथर्व वेद, वैष्णव उपिनषद्

दत्तात्रेय = अथर्व वेद, वैष्णव उपिनषद्

गारुड = अथर्व वेद, वैष्णव उपिनषद्

किल-सण्टारण = कृष्ण यजुर्वेद, वैष्णव उपिनषद्

जाबाल (सामवेद) = साम वेद, शैव उपिनषद्

सौभाग्य = ऋग् वेद, शाक्त उपिनषद्

सरस्वती-रहस्य = कृष्ण यजुर्वेद, शाक्त उपिनषद्

बह्वृच = ऋग् वेद, शाक्त उपिनषद्

मुक्तिक (108) = शुक्ल यजुर्वेद, सामान्य उपिनषद्

 

नोटः

19 उपिनषद् शुक्ल यजुर्वेद से हैं और उनका शान्तिपाठ पूर्णमदः से आरम्भ होता है।

32 उपिनषद कृष्ण यजुर्वेद से हैं और उनका शान्तिपाठ सहनाववतु से आरम्भ होता है।

16 उपिनषद् सामवेद से हैं और उनका शान्तिपाठ आप्यायन्तु से आरम्भ होता है।

31 उपिनषद् अथर्ववेद से हैं और उनका शान्तिपाठ भद्रं कर्णेभिः से आरम्भ होता है।

10 उपिनषद् ऋग्वेद से हैं और उनका शान्तिपाठ वण्मे मनिस से आरम्भ होता है।

 

कुल ज्ञात उपनिषदः

१-ईशावास्योपनिषद् (शुक्लयजर्वेदीय)

२-अक्षिमालिकौपनिषद् (ऋग्वेदीय)

३-अथर्वशिखोपनिषद् (सामवेद)

४-अथर्वशिर उपनिषद् (सामवेद)

५-अद्वयतारकोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)

६-अद्वैतोपनिषद्

७-अद्वैतभावनोपनिषद्

८-अध्यात्मोपनिषद् (शुक्लयजर्वेदीय)

९-अनुभवसारोपनिषद्

१०-अन्नपुर्णोंपनिषद् (सामवेद)

११-अमनस्कोपनिषद्

१२-अमृतनादोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

१३-अमृतबिन्दूपनिषद् (ब्रह्मबिन्दूपनिषद्) (कृष्णयजुर्वेदीय)

१४-अरुणोपनिषद्

१५अल्लोपनिषद्

१६-अवधूतोपनिषद् (वाक्यात्मक एवं पद्यात्मक) (कृष्णयजुर्वेदीय)

१७-अवधूतोपनिषद् (पद्यात्मक)

१८-अव्यक्तोपनिषद् (सामवेद)

१९-आचमनोपनिषद्

२०-आत्मपूजोपनिषद्

 

२१-आत्मप्रबोधनोपनिषद् (आत्मबोधोपनिषद्) (ऋग्वेदीय)

२२-आत्मोपनिषद् (वाक्यात्मक) (सामवेद)

२३-आत्मोपनिषद् (पद्यात्मक)

२४-आथर्वणद्वितीयोपनिषद्

२५-आयुर्वेदोपनिषद्

२६-आरुणिकोपनिषद् (आरुणेय्युपनिषद्) (सामवेद)

२७-आर्षेयोपनिषद्

२८-आश्रमोपनिषद्

२९-इतिहासोपनिषद् (वाक्यात्मक एवं पद्यात्मक)

३०-ईसावास्योपनिषद

उपनषत्स्तुति (शिव रहस्यान्तर्गत, अभी तक अनुपलब्ध है।)

३१-ऊध्वर्पण्ड्रोपनिषद् (वाक्यात्मक एवं पद्यात्मक)

३२-एकाक्षरोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

३३-ऐतेरेयोपनिषद् (अध्यायात्मक) (ऋग्वेदीय)

३४-ऐतेरेयोपनिषद् (खन्ड़ात्मक)

३५-ऐतेरेयोपनिषद् (अध्यायात्मक)

३६-कठरुद्रोपनिषद् (कण्ठोपनिषद्) (कृष्णयजुर्वेदीय)

३७-कठोपनिषद्

३८-कठश्रुत्युपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

३९-कलिसन्तरणोपनिषद् (हरिनामोपनिषद्) (कृष्णयजुर्वेदीय)

४०-कात्यायनोपनिषद्

 

४१-कामराजकीलितोद्धारोपनिषद्

४२-कालाग्निरुद्रोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

४३-कालिकोपनिषद्

४४-कालिमेधादीक्षितोपनिषद्

४५-कुण्डिकोपनिषद् (सामवेद)

४६-कृष्णोपनिषद् (सामवेद)

४७-केनोपनिषद् (सामवेद)

४८-कैवल्योपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

४९-कौलोपनिषद्

५०-कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद् (ऋग्वेदीय)

५१-क्षुरिकोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

५२-गणपत्यथर्वशीर्षोपनिषद् (सामवेद)

५३-गणेशपूर्वतापिन्युपनिषद् (वरदपूर्वतापिन्युपनिषद्)

५४-गणेशोत्तरतापिन्युपनिषद् (वरदोत्तरतापिन्युपनिषद्)

५५-गर्भोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

५६-गान्धर्वोपनिषद्

५७-गायत्र्युपनिषद्

५८-गायत्रीरहस्योपनिषद्

५९-गारुड़ोपनिषद् (वाक्यात्मक एवं मन्त्रात्मक) (सामवेद)

६०-गुह्यकाल्युपनिषद्

 

६१-गुह्यषोढ़ान्यासोपनिषद्

६२-गोपालपूर्वतापिन्युपनिषद् (सामवेद)

६३-गोपालोत्तरतापिन्युपनिषद्

६४-गोपीचन्दनोपनिषद्

६५-चतुर्वेदोपनिषद्

६६-चाक्षुषोपनिषद् (चक्षरुपनिषद्, चक्षुरोगोपनिषद्, नेत्रोपनिषद्)

६७-चित्त्युपनिषद्

६८-छागलेयोपनिषद्

६९-छान्दोग्योपनिषद् (सामवेद)

७०जाबालदर्शनोपनिषद् (सामवेद)

७१-जाबालोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)

७२-जाबाल्युपनिषद् (सामवेद)

७३-तारसारोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)

७४-तारोपनिषद्

७५-तुरीयातीतोपनिषद् (तीतावधूतो०) (शुक्लयजुर्वेदीय)

७६-तुरीयोपनिषद्

७७-तुलस्युपनिषद्

७८-तेजोबिन्दुपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

७९-तैत्तरीयोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

८०-त्रिपादविभूतिमहानारायणोपनिषद् (सामवेद)

 

८१-त्रिपुरातापिन्युपनिषद् (सामवेद)

८२-त्रिपुरोपनिषद् (ऋग्वेदीय)

८३-त्रिपुरामहोपनिषद्

८४-त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)

८५-त्रिसुपर्णोपनिषद्

८६-दक्षिणामूर्त्युपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

८७-दत्तात्रेयोपनिषद् (सामवेद)

८८-दत्तोपनिषद्

८९-दुर्वासोपनिषद्

९०- (१) देव्युपनिषद् (पद्यात्मक एवं मन्त्रात्मक) (सामवेद) * (२) देव्युपनिषद् (शिवरहस्यान्तर्गत-अनुपलब्ध)

९१-द्वयोपनिषद्

९२-ध्यानबिन्दुपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

९३-नादबिन्दुपनिषद् (ऋग्वेदीय)

९४-नारदपरिब्राजकोपनिषद् (सामवेद)

९५-नारदोपनिषद्

९६-नारायणपूर्वतापिन्युपनिषद्

९७-नारायणोत्तरतापिन्युपनिषद्

९८-नारायणोपनिषद् (नारायणाथर्वशीर्ष) (कृष्णयजुर्वेदीय)

९९-निरालम्बोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)

१००-निरुक्तोपनिषद्

 

१०१-निर्वाणोपनिषद् (ऋग्वेदीय)

१०२-नीलरुद्रोपनिषद्

१०३-नृसिंहपूर्वतापिन्युपनिषद्

१०४-नृसिंहषटचक्रोपनिषद्

१०५-नृसिंहोत्तरतापिन्युपनिषद् (सामवेद)

१०६-पंचब्रह्मोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

१०७-परब्रह्मोपनिषद् (सामवेद)

१०८-परमहंसपरिब्राजकोपनिषद् (सामवेद)

१०९-परमहंसोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)

११०-पारमात्मिकोपनिषद्

१११-पारायणोपनिषद्

११२-पाशुपतब्राह्मोपनिषद् (सामवेद)

११३-पिण्डोपनिषद्

११४-पीताम्बरोपनिषद्

११५-पुरुषसूक्तोपनिषद्

११६-पैंगलोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)

११७-प्रणवोपनिषद् (पद्यात्मक)

११८-प्रणवोपनिषद् (वाक्यात्मक

११९-प्रश्नोपनिषद् (सामवेद)

१२०-प्राणाग्निहोत्रोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

 

१२१-बटुकोपनिषद (बटुकोपनिषध)

१२२-ब्रह्वृचोपोपनिषद् (ऋग्वेदीय)

१२३-बाष्कलमन्त्रोपनिषद्

१२४-बिल्वोपनिषद् (पद्यात्मक)

१२५-बिल्वोपनिषद् (वाक्यात्मक)

१२६-बृहज्जाबालोपनिषद् (सामवेद)

१२७-बृहदारण्यकोपनिषद् (शुक्लयजर्वेदीय)

१२८-ब्रह्मविद्योपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

१२९-ब्रह्मोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

१३०-भगवद्गीतोपनिषद्

१३१-भवसंतरणोपनिषद्

१३२-भस्मजाबालोपनिषद् (सामवेद)

१३३-भावनोपनिषद् (कापिलोपनिषद्) (सामवेद)

१३४-भिक्षुकोपनिष (शुक्लयजुर्वेदीय)

१३५-मठाम्नयोपनिषद्

१३६-मण्डलब्राह्मणोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)

१३७-मन्त्रिकोपनिषद् (चूलिकोपनिषद्) (शुक्लयजुर्वेदीय)

१३८-मल्लायुपनिषद्

१३९-महानारायणोपनिषद् (बृहन्नारायणोपनिषद्, उत्तरनारायणोपनिषद्)

१४०-महावाक्योपनिषद्

 

१४१-महोपनिषद् (सामवेद)

१४२-माण्डूक्योपनिषद् (सामवेद)

१४३-माण्डुक्योपनिषत्कारिका

(क)-आगम

(ख)-अलातशान्ति

(ग)-वैतथ्य

(घ)-अद्वैत

१४४-मुक्तिकोपनिषद् (शुक्लयजर्वेदीय)

१४५-मुण्डकोपनिषद् (सामवेद)

१४६-मुद्गलोपनिषद् (ऋग्वेदीय)

१४७-मृत्युलांगूलोपनिषद्

१४८-मैत्रायण्युपनिषद् (सामवेद)

१४९-मैत्रेव्युपनिषद् (सामवेद)

१५०-यज्ञोपवीतोपनिषद्

१५१-याज्ञवल्क्योपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)

१५२-योगकुण्डल्युपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

१५३-योगचूडामण्युपनिषद् (सामवेद)

१५४-(१) योगतत्त्वोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

१५५-(२) योगतत्त्वोपनिषद्

१५६-योगराजोपनिषद्

१५७-योगशिखोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

१५८-योगोपनिषद्

१५९-राजश्यामलारहस्योपनिषद्

१६०-राधोकोपनिषद् (वाक्यात्मक)

 

१६१-राधोकोपनिषद् (प्रपठात्मक)

१६२-रामपूर्वतापिन्युपनिषद् (सामवेद)

१६३-रामरहस्योपनिषद् (सामवेद)

१६४-रामोत्तरतापिन्युपनिषद्

१६५-रुद्रहृदयोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

१६६-रुद्राक्षजाबालोपनिषद् (सामवेद)

१६७-रुद्रोपनिषद्

१६८-लक्ष्म्युपनिषद्

१६९-लांगूलोपनिषद्

१७०-लिंगोपनिषद्

१७१-बज्रपंजरोपनिषद्

१७२-बज्रसूचिकोपनिषद् (सामवेद)

१७३-बनदुर्गोपनिषद्

१७४-वराहोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

१७५-वासुदेवोपनिषद् (सामवेद)

१७६-विश्रामोपनिषद्

१७७-विष्णुहृदयोपनिषद्

१७८-शरभोपनिषद् (सामवेद)

१७९-शाट्यायनीयोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)

१८०-शाण्डिल्योपनिषद् (सामवेद)

 

१८१-शारीरकोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

१८२-(१) शिवसंकल्पोपनिषद्

१८३-(२) शिवसंकल्पोपनिषद्

१८४-शिवोपनिषद्

१८५-शुकरहस्योपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

१८६-शौनकोपनिषद्

१८७-श्यामोपनिषद्

१८८-श्रीकृष्णपुरुषोत्तमसिद्धान्तोपनिषद्

१८९-श्रीचक्रोपनिषद्

१९०-श्रीविद्यात्तारकोपनिषद्

१९१-श्रीसूक्तम

१९२-श्वेताश्वतरोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

१९३-षोढोपनिषद्

१९४-संकर्षणोपनिषद्

१९५-सदानन्दोपनिषद्

१९६-संन्यासोपनिषद् (अध्यायात्मक) (सामवेद)

१९७-संन्यासोपनिषद् (वाक्यात्मक)

१९८-सरस्वतीरहस्योपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

२००-सर्वसारोपनिषद् (सर्वोप०) (कृष्णयजुर्वेदीय)

 

२०१-स ह वै उपनिषद्

२०२-संहितोपनिषद्

२०३-सामरहस्योपनिषद्

२०४-सावित्र्युपनिषद् (सामवेद)

२०५-सिद्धाँन्तविठ्ठलोपनिषद्

२०६-सिद्धान्तशिखोपनिषद्

२०७-सिद्धान्तसारोपनिषद्

२०८-सीतोपनिषद् (सामवेद)

२०९-सुदर्शनोपनिषद्

२१०-सुबालोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)

२११-सुमुख्युपनिषद्

२१२-सूर्यतापिन्युपनिषद्

२१३-सूर्योपनिषद् (सामवेद)

२१४-सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषद् (ऋग्वेदीय)

२१५-स्कन्दोपनिषद् (कृष्णयजुर्वेदीय)

२१६-स्वसंवेद्योपनिषद्

२१७-हयग्रीवोपनिषद् (सामवेद)

२१८-हंसषोढोपनिषद्

२१९-हंसोपनिषद् (शुक्लयजुर्वेदीय)

२२०-हेरम्बोपनिषद्

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