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ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/१९. पुनर्जन्मविषयः

 


अथ पुनर्जन्मविषयः संक्षेपतः

असुनीते पुनरस्मासु चक्षुः


पुनः प्राणमिह नो धेहि भोगम्।


ज्योक् पश्येम सूर्य्यमुच्चरन्त-


मनुमते मृळया नः स्वस्ति॥1॥


पुनर्नो असुं पृथिवी ददातु


पुनर्द्यौर्देवी पुनरन्तरिक्षम्।


पुनर्नः सोमस्तन्वं ददातु


पुनः पूषा पथ्यां या स्वस्तिः॥2॥


-ऋ॰ अ॰ 8। अ॰ 1। व॰ 23। मं॰ 6, 7॥


भाष्यम् - एतेषामभि॰- एतदादिमन्त्रेष्वत्र पूर्वजन्मानि पुनर्जन्मानि च प्रकाश्यन्त इति।


(असुनीते॰) असवः प्राणा नीयन्ते येन सोऽसुनीतिस्तत्सम्बुद्धौ हे असुनीते ईश्वर! मरणानन्तरं द्वितीयशरीरधारणे वयं सदा सुखिनो भवेम (पुनरस्मा॰) अर्थाद्यदा वयं पूर्वं शरीरं त्यक्त्वा द्वितीयशरीरधारणं कुर्मस्तदा (चक्षुः) चक्षुरित्युपलक्षणमिन्द्रियाणाम् , पुनर्जन्मनि सर्वाणीन्द्रियाण्यस्मासु धेहि (पुनः प्राणमि॰) प्राणमिति वायोरन्तःकरणस्योपलक्षणम्। पुनर्द्वितीयजन्मनि प्राणमन्तःकरणं च धेहि। एवं हे भगवन्! पुनर्जन्मसु (नः) अस्माकं (भोगं) भोगपदार्थान् (ज्योक्) निरन्तरमस्मासु धेहि। यतो वयं सर्वेषु जन्मसु (उच्चरन्तं सूर्य्यं) श्वासप्रश्वासात्मकं प्राणं प्रकाशमयं सूर्य्यलोकं च निरन्तरं पश्येम (अनुमते) हे अनुमन्तः परमेश्वर! (नः) अस्मान् सर्वेषु जन्मसु (मृडय) सुखय। भवत्कृपया पुनर्जन्मसु (स्वस्ति) सुखमेव भवेदिति प्रार्थ्यते॥1॥


(पुनर्नो॰) हे भगवन्! भवदनुग्रहेण (नः) अस्मभ्यम् (असुं) प्राणमन्नमयं बलं च (पृथिवी पुनर्ददातु) तथा (पुनर्द्यौः॰) पुनर्जन्मनि द्यौर्देवी द्योतमाना सूर्य्यज्योतिरसुं ददातु (पुनरन्तरिक्षम्) तथान्तरिक्षं पुनर्जन्मन्यसुं जीवनं ददातु (पुनर्नः सोमस्त॰) तथा सोम ओषधिसमूहजन्यो रसः पुनर्जन्मनि तन्वं शरीरं ददातु (पुनः पूषा॰) हे परमेश्वर! पुष्टिकर्त्ता भवान् (पथ्यां) पुनर्जन्मनि धर्ममार्गं ददातु तथा सर्वेषु जन्मसु (या स्वस्तिः) सा भवत्कृपया नोऽस्मभ्यं सदैव भवत्विति प्रार्थ्यते भवान्॥2॥


भाषार्थ - (असुनीते) हे सुखदायक परमेश्वर! आप (पुनरस्मासु चक्षुः) कृपा करके पुनर्जन्म में हमारे बीच में उत्तम नेत्र आदि सब इन्द्रियां स्थापन कीजिए। तथा (पुनः प्राणं) प्राण अर्थात् मन बुद्धि, चित्त, अहङ्कार, बल, पराक्रम आदि युक्त शरीर पुनर्जन्म में कीजिये। (इह नो धेहि भोगं) हे जगदीश्वर! इस संसार अर्थात् इस जन्म और परजन्म में हम लोग उत्तम उत्तम भोगों को प्राप्त हों तथा (ज्योक् पश्येम सूर्य्यमुच्चरन्तम्) हे भगवन्! आपकी कृपा से सूर्य्यलोक, प्राण और आपको विज्ञान तथा प्रेम से सदा देखते रहें। (अनुमते मृडया नः स्वस्ति) हे अनुमते = सब को मान देनेहारे! सब जन्मों में हम लोगों को मृडय = सुखी रखिये, जिस से हम लोगों को स्वस्ति अर्थात् कल्याण हो॥1॥


(पुनर्नो असुं पृथिवी ददातु पु॰) हे सर्वशक्तिमन्! आपके अनुग्रह से हमारे लिये वारंवार पृथिवी प्राण को, प्रकाश चक्षु को, और अन्तरिक्ष स्थानादि अवकाशों को देते रहें। (पुनर्नः सोमस्तन्वं ददातु) पुनर्जन्म में सोम अर्थात् ओषधियों का रस हम को उत्तम शरीर देने में अनुकूल रहे। तथा (पूषा॰) पुष्टि करनेवाला परमेश्वर कृपा करके सब जन्मों में हम को सब दुःख निवारण करनेवाली पथ्यरूप स्वस्ति को देवे॥2॥


पुनर्मनः पुनरायुर्म आगन्


पुनः प्राणः पुनरात्मा म आगन्


पुनश्चक्षुः पुनः श्रोत्रं म आगन्।


वैश्वानरो अदब्धस्तनूपा


अग्निर्नः पातु दुरितादवद्यात्॥3॥


-यजु॰ अ॰ 4। मं॰ 15॥


पुनर्मैत्विन्द्रियं पुनरात्मा द्रविणं ब्राह्मणं च।


पुनरग्नयो धिष्ण्या यथास्थाम कल्पयन्तामि हैव॥4॥


-अथर्व॰ कां॰ 7। अनु॰ 6। व॰ 67। मं॰ 1॥


आ यो धर्माणि प्रथमः ससाद


ततो वपूंषि कृणुषे पुरूणि।


धास्युर्योनिं प्रथमः आ विवेशा


यो वाचमनुदितां चिकेत॥5॥


-अथर्व॰ कां॰ 5। अनु॰ 1। व॰ 1। मं॰ 2॥


भाष्यम् - ( पुनर्मनः पु॰) हे जगदीश्वर! भवदनुग्रहेण विद्यादि - श्रेष्ठगुणयुक्तं मन आयुश्च (मे) मह्यमागन् पुनः पुनर्जन्मसु प्राप्नुयात् (पुनरात्मा॰) पुनर्जन्मनि मदात्मा विचारः शुद्धः सन् प्राप्नुयात् (पुनश्चक्षुः॰) चक्षुः श्रोत्रं च मह्यं प्राप्नुयात् (वैश्वानरः) य सकलस्य जगतो नयनकर्ता (अदब्धः) दम्भादिदोषरहितः (तनूपाः) शरीरादिरक्षकः (अग्निः) विज्ञानानन्दस्वरूपः परमेश्वरः (पातु दुरि॰) जन्मजन्मान्तरे दुष्टकर्मभ्योऽस्मान् पृथक्कृत्य पातु रक्षतु , येन वयं निष्पापा भूत्वा सर्वेषु जन्मसु सुखिनो भवेम॥3॥


(पुनर्मै॰) हे भगवन्! पुनर्जन्मनीन्द्रियमर्थात् सर्वाणीन्द्रियाणि , आत्मा प्राणधारको बलाख्यः , ( द्रविणं) विद्यादिश्रेष्ठधनम् , ( ब्राह्मणं च) ब्रह्मनिष्ठात्वम् , ( पुनरग्नयः) मनुष्यशरीरं धारयित्वाऽऽहवनीयाद्यग्न्याधान-करणम् , ( मैतु) पुनः पुनर्जन्मस्वेतानि मामाप्नुवन्तु। (धिष्ण्या यथा स्थाम) हे जगदीश्वर! वयं यथा येन प्रकारेण पूर्वेषु जन्मसु धिष्ण्या धारणावत्या धिया सोत्तम - शरीरेन्द्रिया आस्थाम , तथैवेहास्मिन् संसारे पुनर्जन्मनि बुद्ध्या स्वस्वकार्य्यकरणे समर्था भवेम। येन वयं केनापि करणेन न कदाचिद्विकला भवेम॥4॥


(आ यो ध॰) यो जीवः (प्रथमः) पूर्वजन्मनि , धर्म्माणि यादृशानि धर्मकार्य्याणि , ( आससाद) कृतवानस्ति , स (ततो वपूंषि॰) तस्माद् धर्मकरणाद् बहून्युत्तमानि शरीराणि पुनर्जन्मनि कृणुषे धारयति। एवं यश्चाधर्मकृत्यानि चकार स नैव पुनः पुनर्मनुष्य - शरीराणि प्राप्नोति , किन्तु पश्वादीनि हि शरीराणि धारयित्वा दुःखानि भुङ्क्ते। इदमेव मन्त्रार्धेनेश्वरो ज्ञापयति (धास्युर्योनिं॰) धास्यतीति धास्युरर्थात् पूर्वजन्मकृत - पापपुण्यफल - भोगशीलो जीवात्मा , (प्रथमः) पूर्वं देहं त्यक्त्वा , वायुजलौषध्यादि - पदार्थान् (आविवेश) प्रविश्य , पुनः कृतपापपुण्यानुसारिणीं योनिमाविवेश प्रविशतीत्यर्थः (यो वाचम॰) यो जीवोऽमुदितामीश्वरोक्तां वेदवाणीं आ समन्ताद् विदित्वा धर्ममाचरति , स पूर्ववद्विद्वच्छरीरं धृत्वा सुखमेव भुङ्क्ते। तद्विपरीताचरणस्तिर्य्यग्देहं धृत्वा दुःखभागी भवतीति विज्ञेयम्॥5॥


भाषार्थ - (पुनर्मनः पुनरात्मा॰) हे सर्वज्ञ ईश्वर! जब जब हम जन्म लेवें, तब तब हम को शुद्ध मन, पूर्ण आयु, आरोग्यता, प्राण कुशलतायुक्त जीवात्मा, उत्तम चक्षु और श्रोत्र प्राप्त हों। (वैश्वानरोऽदब्धः) जो विश्व में विराजमान ईश्वर है, वह सब जन्मों में हमारे शरीरों का पालन करे। (अग्निर्नः) सब पापों के नाश करनेवाले आप हम को (पातु दुरितादवद्यात्) बुरे कामों और सब दुःखों से पुनर्जन्म में अलग रखें॥3॥


(पुनर्मैत्विन्द्रियम्) हे जगदीश्वर! आप की कृपा से पुनर्जन्म में मन आदि ग्यारह इन्द्रिय मुझ को प्राप्त हों अर्थात् सर्वदा मनुष्य देह ही प्राप्त होता रहे। (पुनरात्मा) अर्थात् प्राणों को धारण करने-हारा सामर्थ्य मुझ को प्राप्त होता रहे। जिस से दूसरे जन्म में भी हम लोग सौ वर्ष वा अच्छे आचरण से अधिक भी जीवें। (द्रविणं) तथा सत्यविद्यादि श्रेष्ठ धन भी पुनर्जन्म में प्राप्त होते रहें। (ब्राह्मणं च) और सदा के लिए ब्रह्म जो वेद है, उस का व्याख्यानसहित विज्ञान तथा आप ही में हमारी निष्ठा बनी रहे। (पुनरग्नयः) तथा सब जगत् के उपकार के अर्थ हम लोग अग्निहोत्रादि यज्ञ को करते रहें। (धिष्ण्या यथास्थाम) हे जगदीश्वर! हम लोग जैसे पूर्वजन्मों में शुभ गुण धारण करनेवाली बुद्धि से उत्तम शरीर और इन्द्रियसहित थे, वैसे ही इस संसार में पुनर्जन्म में भी बुद्धि के साथ मनुष्यदेह के कृत्य करने में समर्थ हों। ये सब शुद्धबुद्धि के साथ (मैतु) मुझ को यथावत् प्राप्त हों। (इहैव) जिन से हम लोग इस संसार में मनुष्यजन्म को धारण करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सदा सिद्ध करें और इस सामग्री से आप की भक्ति को प्रेम से सदा किया करें। जिस करके किसी जन्म में हम को कभी दुःख प्राप्त न हो॥4॥


(आ यो धर्माणि॰) जो मनुष्य पूर्वजन्म में धर्माचरण करता है, (ततो वपूंषि कृणुषे पुरूणि) उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों को धारण करता, और अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर को प्राप्त होता है। (धास्युर्योनिं॰) जो पूर्वजन्म में किए हुए पाप पुण्य के फलों को भोग करने के स्वभावयुक्त जीवात्मा है, वह पूर्व शरीर को छोड़ के वायु के साथ रहता है , पुनः जल ओषधि वा प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य में प्रवेश करता है , तदनन्तर योनि अर्थात् गर्भाशय में स्थिर होके पुनः जन्म लेता है। (यो वाचमनुदितां चिकेत) जो जीव अनुदित वाणी अर्थात् जैसी ईश्वर ने वेदों में सत्यभाषण करने की आज्ञा दी है वैसा ही (आचिकेत) यथावत् जान के बोलता है और धर्म ही में (ससाद) यथावत् स्थित रहता है, वह मनुष्ययोनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है। और जो अधर्माचरण करता है, वह अनेक नीच शरीर अर्थात् कीट पतंग पशु आदि के शरीर को धारण करके अनेक दुःखों को भोगता है॥5॥


द्वे सृती अशृणवं पितॄणामहं


देवानामुत मर्त्त्यानाम्।


ताभ्यामिदं विश्वमेजत्


समेति यदन्तरा पितरं मातरं च॥6॥


-य॰ अ॰ 19। मं॰ 47


मृतश्चाहं पुनर्जातो जातश्चाहं पुनर्मृतः।


नानायोनिसहस्राणि मयोषितानि यानि वै॥1॥


आहारा विविधा भुक्ताः पीता नानाविधाः स्तनाः।


मातरो विविधा दृष्टाः पितरः सुहृदस्तथा॥2॥


अवाङ्मुखः पीड्यमानो जन्तुश्चैव समन्वितः॥7॥


-निरु॰ अ॰ 13। खं॰ 19॥


भाष्यम् - ( द्वे सृती॰) अस्मिन् संसारे पापपुण्यफलभोगाय द्वौ मार्गौ स्तः। एकः पितॄणां ज्ञानिनां देवानां विदुषां च , द्वितीयः (मर्त्त्यानां) विद्याविज्ञान-रहितानां मनुष्याणाम्। तयोरेकः पितृयानो द्वितीयः देवयानश्चेति। यत्र जीवो मातापितृभ्यां देहं धृत्वा पापपुण्यफले सुखदुःखे पुनः पुनर्भुङ्क्ते अर्थात् पूर्वापरजन्मानि च धारयति , सा पितृयानाख्या सृतिरस्ति। तथा यत्र मोक्षाख्यं पदं लब्ध्वा जन्ममरणाख्यात् संसाराद्विमुच्यते सा द्वितीया सृतिर्भवति। तत्र प्रथमायां सृतौ पुण्यसञ्चयफलं भुक्त्वा पुनर्जायते म्रियते च। द्वितीयायां च सृतौ पुनर्न जायते न म्रियते चेति। अहमेवम्भूते द्वे सृती (अशृणवं) श्रुतवानस्मि। (ताभ्यामिदं विश्वं) पूर्वोक्ताभ्यां द्वाभ्यां मार्गाभ्यां सर्वं जगत् (एजत्समेति) कम्पमानं गमनागमने समेति। सम्यक् प्राप्नोति। (यदन्तरा पितरं मातरं च) यदा जीवः पूर्वं शरीरं त्यक्त्वा वायुजलौषध्यादिषु भ्रमित्वा पितृशरीरं मातृशरीरं वा प्रविश्य पुनर्जन्म प्राप्नोति , तदा स सशरीरो जीवो भवतीति विज्ञेयम्॥6॥


अत्र ' मृतश्चाहं पुनर्जात ' इत्यादि निरुक्तकारैरपि पुनर्जन्मधारणमुक्तमिति बोध्यम्॥7॥


स्वरसवाही विदुषोऽपि तथाऽभिरूढोऽभिनिवेशः॥8॥


-पात॰ यो॰ 1। पा॰ 2। सू॰ 9॥


पुनरुत्पत्तिः प्रेत्यभावः॥9॥


-न्या॰ अ॰ 1। आ॰ 1। सू॰ 19॥


(स्वरस॰) योगशास्त्रे पतञ्जलिमहामुनिना तदुपरि भाष्यकर्त्रा वेदव्यासेन च पुनर्जन्मसद्भावः प्रतिपादितः। या सर्वेषु प्राणिषु जन्मारभ्य मरणत्रासाख्या प्रवृत्तिर्दृश्यते तया पूर्वापरजन्मानि भवन्तीति विज्ञायते। कुतः ? जातमात्रकृमिरपि मरणत्रासमनुभवति। तथा विदुषोऽप्यनुभवो भवतीत्यतः जीवेनानेकानि शरीराणि धार्य्यन्ते। यदि पूर्वजन्मनि मरणानुभवो न भवेच्चेत्तर्हि तत्संस्कारोऽपि न स्यान्नैव संस्कारेण विना स्मृतिर्भवति , स्मृत्या विना मरणत्रासः कथं जायेत ? कुतः ? प्राणिमात्रस्य मरणभयदर्शनात् पूर्वापरजन्मानि भवन्तीति वेदितव्यम्॥8॥


(पुनरु॰) तथा महाविदुषा गोतमेनर्षिणा न्यायदर्शने तद्भाष्यकर्त्रा वात्स्यायनेनापि पुनर्जन्मभावो मतः। यत्पूर्वशरीरं त्यक्त्वा पुनर्द्वितीयशरीरधारणं भवति तत्प्रेत्यभावाख्यः पदार्थो भवतीति विज्ञेयम्। प्रेत्यार्थान्मरणं प्राप्य भावोऽर्थात् पुनर्जन्म धृत्वा जीवो देहवान् भवतीत्यर्थः॥9॥


भाषार्थ - (द्वे सृती) इस संसार में हम दो प्रकार के जन्मों को (अशृणवम्) सुनते हैं। एक मनुष्यशरीर का धारण करना और दूसरा नीच गति से पशु, पक्षी, कीट, पतङ्ग, वृक्ष आदि का होना। इन में मनुष्यशरीर के तीन भेद हैं- एक पितृ अर्थात् ज्ञानी होना, दूसरा देव अर्थात् सब विद्याओं को पढ़के विद्वान् होना, तीसरा मर्त्य अर्थात् साधारण मनुष्यशरीर का धारण करना। इन में प्रथम गति अर्थात् मनुष्यशरीर पुण्यात्माओं और पुण्यपाप तुल्य वालों को होता है और दूसरा जो जीव अधिक पाप करते हैं उन के लिये है। (ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति॰) इन्हीं भेदों से सब जगत् के जीव अपने अपने पुण्य और पापों के फल भोग रहे हैं। (यदन्तरा पितरं मातरं च) जीवों को माता और पिता के शरीर में प्रवेश करके जन्म-धारण करना, पुनः शरीर का छोड़ना, फिर जन्म को प्राप्त होना, वारंवार होता है।


जैसा वेदों में पूर्वापरजन्म के धारण करने का विधान किया है, वैसा ही निरुक्तकार ने भी प्रतिपादन किया है-


जब मनुष्य को ज्ञान होता है तब वह ठीक ठीक जानता है कि (मृतश्चाहं पु॰) मैंने अनेक वार जन्ममरण को प्राप्त होकर नाना प्रकार के हजारह गर्भाशयों का सेवन किया॥1॥ (आहारा वि॰) अनेक प्रकार के भोजन किये, अनेक माताओं के स्तनों का दुग्ध पिया, अनेक माता-पिता और सुहृदों को देखा॥2॥ (अवाङ्मुखः) मैंने गर्भ में नीचे मुख ऊपर पग इत्यादि नाना प्रकार की पीड़ाओं से युक्त होके अनेक जन्म धारण किये। परन्तु अब इन महादुःखों से तभी छूटूंगा कि जब परमेश्वर में पूर्ण प्रेम और उस की आज्ञा का पालन करूंगा, नहीं तो इस जन्ममरणरूप दुःखसागर के पार जाना कभी नहीं हो सकता।


तथा योगशास्त्र में भी पुनर्जन्म का विधान किया है- (स्वरस॰)। (सर्वस्य प्रा॰) हर एक प्राणियों की यह इच्छा नित्य देखने में आती है कि (भूयासमिति) अर्थात् मैं सदैव सुखी बना रहूं। मरूं नहीं। यह इच्छा कोई भी नहीं करता कि (मा न भूवं) अर्थात् मैं न होऊं। ऐसी इच्छा पूर्वजन्म के अभाव से कभी नहीं हो सकती। यह 'अभिनिवेश' क्लेश कहलाता है, जो कि कृमिपर्य्यन्त को भी मरण का भय बराबर होता है। यह व्यवहार पूर्वजन्म की सिद्धि को जनाता है॥8॥


तथा न्यायदर्शन के (पुनरु॰) सूत्र, और उसी के वात्स्यायन भाष्य में भी कहा है कि जो उत्पन्न अर्थात् किसी शरीर को धारण करता है, वह मरण अर्थात् शरीर को छोड़ के, पुनरुत्पन्न दूसरे शरीर को भी अवश्य प्राप्त होता है। इस प्रकार मर के पुनर्जन्म लेने को 'प्रेत्यभाव' कहते हैं।


अत्र केचिदेकजन्मवादिनो वदन्ति - यदि पूर्वजन्मासीत्तर्हि तत्स्मरणं कुतो न भवतीति ?


अत्र ब्रूमः - भोः! ज्ञाननेत्रमुद्घाट्य द्रष्टव्यमस्मिन्नेव शरीरे जन्मतः पञ्चवर्षपर्य्यन्तं यद्यत्सुखं दुःखं च भवति , यच्च जागरितावस्थास्थानां सर्वव्यवहाराणां सुषुप्त्यवस्थायां च , तदनुभूतस्मरणं न भवति , पूर्वजन्मवृत्तस्मरणस्य तु का कथा!


(प्रश्नः) यदि पूर्वजन्मकृतयोः पापपुण्ययोः सुखदुःखफले हीश्वरोऽस्मिन् जन्मनि ददाति , तयोश्चास्माकं साक्षात्काराभावात् सोऽन्यायकारी भवति , नातोऽस्माकं शुद्धिश्चेति ?


अत्र ब्रूमः - द्विविधं ज्ञानं भवत्येकं प्रत्यक्षं , द्वितीयमानुमानिकं च। यथा कस्यचिद्वैद्यस्यावैद्यस्य


च शरीरे ज्वरावेशो भवेत्तत्र खलु वैद्यस्तु विद्यया कार्य्यकारणसङ्गत्यनुमानतो ज्वरनिदानं जानाति नापरश्च परन्तु वैद्यकविद्यारहितस्यापि ज्वरस्य प्रत्यक्षत्वात् किमपि मया कुपथ्यं पूर्वं कृतमिति जानाति , विना कारणेन कार्य्यं नैव भवतीति दर्शनात्। तथैव न्यायकारीश्वरोऽपि विना पापपुण्याभ्यां न कस्मैचित् सुखं दुःखं च दातुं शक्नोति। संसारे नीचोच्चसुखिदुःखिदर्शनाद् विज्ञायते पूर्वजन्मकृते पापपुण्ये बभूवतुरिति।


अत्रैकजन्मवादिनामन्येऽपीदृशाः प्रश्नाः सन्ति , तेषां विचारेणोत्तराणि देयानि। किञ्च , न बुद्धिमतः प्रत्यखिललेखनं योग्यं भवति , ते ह्युद्देश्यमात्रेणाधिकं जानन्ति। ग्रन्थोऽपि भूयान्न भवेदिति मत्वाऽत्राधिकं नोल्लिख्यते।


भाषार्थ - इस में अनेक मनुष्य ऐसा प्रश्न करते हैं कि जो पूर्वजन्म होता है, तो हम को उस का ज्ञान इस जन्म में क्यों नहीं होता?


(उत्तर) आंख खोल के देखो कि जब इसी जन्म में जो सुख दुःख तुम ने बाल्यावस्था में अर्थात् जन्म से पांच वर्ष पर्य्यन्त पाये हैं, उन का ज्ञान नहीं रहता, अथवा जो कि नित्य पठन-पाठन और व्यवहार करते हैं, उन में से भी कितनी ही बातें भूल जाते हैं, तथा निद्रा में भी यही हाल हो जाता है कि अब के किये का भी ज्ञान नहीं रहता। जब इस जन्म के व्यवहारों को इसी शरीर में भूल जाते हैं, तो पूर्व शरीर के व्यवहारों का कब ज्ञान रह सकता है?


तथा ऐसा भी प्रश्न करते हैं कि जब हम को पूर्वजन्म के पापपुण्य का ज्ञान नहीं होता और ईश्वर उन का फल सुख वा दुःख देता है, इस से ईश्वर का न्याय वा जीवों का सुधार कभी नहीं हो सकता।


(उत्तर) ज्ञान दो प्रकार का होता है-एक प्रत्यक्ष, दूसरा अनुमानादि से। जैसे एक वैद्य और दूसरा अवैद्य, इन दोनों को ज्वर आने से वैद्य तो इस का पूर्व निदान जान लेता है और दूसरा नहीं जान सकता। परन्तु उस पूर्व कुपथ्य का कार्य्य जो ज्वर है, वह दोनों को प्रत्यक्ष होने से वे जान लेते हैं कि किसी कुपथ्य से ही यह ज्वर हुआ है, अन्यथा नहीं। इस में इतना विशेष है कि विद्वान् ठीक ठीक रोग के कारण और कार्य्य को निश्चय करके जानता है और वह अविद्वान् कार्य को तो ठीक ठीक जानता है, परन्तु कारण में उस को यथावत् निश्चय नहीं होता। वैसे ही ईश्वर न्यायकारी होने से किसी को विना कारण से सुख वा दुःख कभी नहीं देता। जब हम को पुण्य पाप का कार्य सुख और दुःख प्रत्यक्ष है, तब हम को ठीक निश्चय होता है कि पूर्वजन्म के पाप पुण्यों के विना उत्तम मध्यम और नीच शरीर तथा बुद्ध्यादि पदार्थ कभी नहीं मिल सकते। इस से हम लोग निश्चय करके जानते हैं कि ईश्वर का न्याय और हमारा सुधार ये दोनों काम यथावत् बनते हैं।


इत्यादि प्रश्नोत्तर बुद्धिमान् लोग अपने विचार से यथावत् जान लेवें। मैं यहां इस विषय के बढ़ाने की आवश्यकता नहीं देखता।


॥इति पुनर्जन्मविषयः संक्षेपतः॥19॥

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