इ॒मं दे॑वाऽअस॒पत्नꣳ सु॑वध्वं मह॒ते
क्ष॒त्राय॑ मह॒ते ज्यैष्ठ्या॑य मह॒ते जान॑राज्या॒येन्द्र॑स्येन्द्रि॒याय॑।
इ॒मम॒मुष्य॑ पु॒त्रम॒मुष्यै॑ पु॒त्रम॒स्यै वि॒शऽए॒ष वो॑ऽमी॒ राजा॒ सोमो॒ऽस्माकं॑
ब्राह्म॒णाना॒ᳬ राजा॑॥४०॥
दुनीया पर एक राजा के राज्य को स्थापित करने के लिए यह
यजुर्वेद का मंत्र उपदेश करता है, इस एक मंत्र में ही बहुत सी बातों को स्पष्ट कर
दिया गया है, पहली बात जो कह रहा है, कि (इ॒मं
दे॑वाऽअस॒पत्नꣳ) इस राजा का चुनाव एक मत से सभी लोग करते
हैं, क्योंकि यह सबके कल्याण सबकी रक्षा और सबका पालन पोषण करने वाला होता है। (सु॑वध्वं मह॒ते क्ष॒त्राय॑) आगे कहते हैं, कि यह महान
सुन्दर रूप से अपने बुद्धि के बल से अपने समग्र जगत की भूमि अर्थात जिस प्रकार से
आकाश संपूर्ण जगत को आच्छादित करके जगत की रक्षा ऋतुओं के आधार पर करता है अर्थात
शाश्वत नियम का पालन करने में सक्षम होता है, उसी प्रकार से यह राजा भी होता है,
क्योंकि इसके पास ज्ञान बल बुद्धि बल शरीर बल आत्मा बल धन बल योग बल होता है। (मह॒ते ज्यैष्ठ्या॑य मह॒ते) प्रजा के लिये इसी पुरुष को (महते) बड़े (ज्यैष्ठ्याय)
प्रशंसा के योग्य (महते) बड़े (जानराज्याय) धार्मिक जनों के राज्य करने (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्ययुक्त (इन्द्रियाय)
धन के वास्ते, इ॒मम॒मुष्य॑ पु॒त्रम॒मुष्यै॑ पु॒त्रम॒स्यै
वि॒शऽए॒ष यह राजा उत्तम स्त्री पुरुष का पुत्र होता है, और शत्रु का विनाश
करने वाला होता है, यही प्रजा के कल्याण और उद्धार के लिए परम साधन की तरह कार्य
करता है, वो॑ऽमी॒ राजा॒ सोमो॒ऽस्माकं॑ ब्राह्म॒णाना॒ᳬ
राजा॑॥४०॥ वह राजा हम सब ब्राह्मणों के मध्य में एक ही होता है। अर्थात
संसार पर राज्य करने वाला श्रेष्ठ राजा ब्राह्मण ही होता है।
किस-किस प्रयोजन के लिये कैसे राजा का स्वीकार करें, इस
विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ- हे प्रजास्थ (देवाः) विद्वान् लोगो! तुम जो
(एषः) यह (सोमः) चन्द्रमा के समान प्रजा में प्रियरूप (वः) तुम क्षत्रियादि और हम
ब्राह्मणादि और जो (अमी) परोक्ष में वर्त्तमान हैं,
उन सब का राजा है, उस
(इमम्) इस (अमुष्य) उस उत्तम पुरुष का (पुत्रम्) पुत्र (अमुष्यै) उस विद्यादि
गुणों से श्रेष्ठ धर्मात्मा विद्वान् स्त्री के पुत्र को (अस्यै) इस (विशे) प्रजा
के लिये इसी पुरुष को (महते) बड़े (ज्यैष्ठ्याय) प्रशंसा के योग्य (महते) बड़े
(जानराज्याय) धार्मिक जनों के राज्य करने (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्ययुक्त
(इन्द्रियाय) धन के वास्ते (असपत्नम्) शत्रु रहित (सुवध्वम्) कीजिये॥४०॥
भावार्थ- हे राजा और प्रजा के मनुष्यो! तुम जो विद्वान्
माता और पिता से अच्छे प्रकार सुशिक्षित,
कुलीन, बड़े
उत्तम-उत्तम गुण, कर्म और स्वभावयुक्त जितेन्द्रियादि गुणयुक्त, ४८
अड़तालीस वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य्य से पूर्ण विद्या से सुशील, शरीर
और आत्मा के पूर्ण बलयुक्त, धर्म से प्रजा का पालक, प्रेमी, विद्वान्
हो, उसको सभापति राजा मान कर चक्रवर्त्तिराज्य का सेवन
करो॥४०॥
पुरोहित चुनाव के समय एकत्र विद्वानों से कहता है कि १.
हे ( देवाः ) = ज्ञान से दीप्त प्रजा के प्रतिनिधियो! ( इमम् ) = इस निर्दिश्यमान
व्यक्ति को ( असपत्नम् ) = ऐकमत्य से,
बिना किसी सपत्न rival के
( सुवध्वम् ) = चुनो। ऐकमत्य से चुना गया राजा ही सारी प्रजा की शक्ति को अपने में
केन्द्रित कर पाता है। वही कुछ कार्य कर पाएगा।
२. इसे चुनो ( महते क्षत्राय ) = क्षतों से त्राणरूप
महान् कार्य के लिए। यह राजा राष्ट्र को सब प्रकार के आघातों से बचाएगा।
३. ( महते ज्यैष्ठ्याय ) = महान् बड़प्पन के लिए। यह राजा
राष्ट्र को संसार में उच्च स्थान प्राप्त कराएगा।
४. ( महते जानराज्याय ) = महान् जनराज्य के लिए। यह राजा
जनहित के दृष्टिकोण से ही राज्य करेगा।
५. ( इन्द्रस्य इन्द्रियाय ) = इन्द्र के वीर्य के लिए।
इस राजा ने स्वयं जितेन्द्रिय बनकर शक्ति का सम्पादन किया है। यह राष्ट्र में ऐसा
ही वातावरण उत्पन्न करने का ध्यान करेगा कि लोग जितेन्द्रिय बनकर शक्तिशाली बनें।
एवं, यह राजा आपसे चुना जाकर [ क ] राष्ट्र को आघातों से
बचाएगा। [ ख ] ज्येष्ठता प्राप्त कराएगा। [ ग ] शासन में लोकहित के दृष्टिकोण को
अपनाएगा। [ घ ] और यह प्रयत्न करेगा कि लोग जितेन्द्रिय बनकर शक्तिशाली बनें।
६. अतः आप सब ( इमम् ) = इसे [ इस नामवाले को ] (
अमुष्यपुत्रम् ) = अमुक पिता के पुत्र को ( अमुष्यै पुत्रम् ) = अमुक माता के
पुत्र को ( अस्यै विशे ) = इस प्रजा के हित के लिए चुनो।
७. ( एषः ) = आपसे चुना जाकर ( अमी ) = हे प्रजाओ! यह (
वः ) = आपका ( राजा ) = राजा है। आपने इसके आदेशों के अनुसार चलना है। ( अस्माकं
ब्राह्मणानाम् ) = हम ब्राह्मणों का ( राजा ) = नियन्ता तो ( सोमः ) = वह सर्वज्ञ
शान्त प्रभु ही है। राजा इन ब्रह्मनिष्ठ लोगों के निर्देशानुसार शासन करने का
प्रयत्न करता है।
भावार्थ —
राजा का चुनाव सर्वसम्मति
से हो तो अच्छा है। वह राष्ट्र को आघातों से बचाये,
ज्येष्ठ बनाये, लोकहित
के दृष्टिकोण से राज्य करे और प्रयत्न करे कि लोग इन्द्रियों के दास न होकर
शक्ति-सम्पन्न बनें। ब्रह्मनिष्ठ व्यक्तियों के कथनानुसार चलें।
विषय- राजा या इन्द्र आदि उच्च पदों पर स्थापना और
सिंहासनारोहण।
भावार्थ-
( महते क्षत्राय ) बड़े
भारी क्षात्रबल के लिये ( महते ज्यैष्ठ्याय ) बड़े भारी सर्वश्रेष्ठ राजपद के लिये
( महते जानराज्याय ) बड़े भारी जनों के ऊपर राजा होजाने के लिये और ( इन्द्रस्य )
परम ऐश्वर्यवान् राजा के ( इन्द्रियाय ) ऐश्वर्यप्राप्ति के लिये ( देवाः ) विजयी
वीरगण और विद्वान् शासक पुरुष ( असपत्नम् ) शत्रुओं से रहित (इमम् ) इस वीर विजयी, योग्य
पुरुष को ( सुवध्वम् ) अभिषिक्त करें। (इमम् ) इस ( अमुष्य पुत्रम् ) अमुक पिता के
पुत्र, ( अमुष्यै पुत्रम् ) अमुक माता के पुत्र को ( अस्यै विशे )
इस प्रजा के लिये राज्याभिषिक्त किया जाता है । हे ( अमी) अमुक २ प्रजाओ ! ( वः
एषः राजा ) आप लोगों का यह राजा ( सोमः ) सोम चन्द्र के समान आह्लादक और सोमलता के
समान आनन्द, तृप्ति और हर्षजनक और प्रवर्त्तक है। वह ( अस्माकम् ) हम
( ब्राह्मणानाम् ) वेद-ज्ञान के विद्वान् ब्राह्मणों का भी ( राजा ) राजा है ।
हमारे बीच में भी शोभायमान हो ॥ शत० २। ३ । ३ । १२ ॥
टिप्पणी
४०
- ० महते ज्यैष्ठ्याय इमममु०, ० अमुष्याः पुत्र० । एष वः कुरवो राजैष वः
पञ्चालानांराजासोमो ०' इति काण्व० ।
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