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मुझे आर्यसमाज से चिढ़ क्यों है?*

*मुझे आर्यसमाज से चिढ़ क्यों है?* 

मैं लगभग 11 साल की थी जब मेरा पहली बार आर्य समाज से परिचय हुआ। उससे पहले भी मैं एक संवेदनशील और प्रतिक्रियाशील लड़की थी। बचपन कहानियों में बीता, जिस कारण जिज्ञासा और ऊहा शुरू से ही व्यवहार का भाग रहे, जोकि आर्य समाज के संपर्क में आने के बाद ही सही मायने में प्रयोग किए जाने लगे। उस समय आज की तरह सोशल मीडिया पर ज्ञान की सुनामी नहीं आई थी और ना ही इतनी संख्या में आचार्य और विद्वान वेल्ले घूम रहे थे कि हमारी हर जिज्ञासा का समाधान चुटकियों में मिल जाता। इसलिए हमें मस्तिष्क में उठने वाले हर प्रश्न का उत्तर जानने के लिए महीनो स्वाध्याय करना पड़ता था, एक पुस्तक से दूसरी पुस्तक का, दूसरी से तीसरी का, तीसरी से चौथी का और यह क्रम तब तक चलता रहता था जब तक कि वास्तव में जिज्ञासा शांत ना हो जाए। कई बार तो अंत में हम पाते थे कि हमारी जिज्ञासा में कुछ प्रश्न ही अनुचित है और बहुत बार इस क्रम में हमें अपना पूर्व पक्ष ही फिजूल सिद्ध होता मिलता था। अच्छा! इसमें हमें आर्य समाज के जिन आचार्य जी का सहयोग और सानिध्य मिला उनकी भूमिका खास रही, क्योंकि वह समय देने के लिए या बात करने के लिए सदैव उपलब्ध नहीं होते थे, उनकी बहुत सी व्यस्तताएं होती थी क्योंकि वह वास्तव में काम कर रहे होते थे। जब कभी दो-चार महीने बाद भी 10-15 मिनट के लिए उनसे बात होती थी तो इतने समय में तो मेरे प्रश्न ही पूरे होते थे। समाधान देने के लिए उनके पास समय ही नहीं बचता था क्योंकि उनकी भाषा में मैं "प्रश्नों का पिटारा" थी। अब वह क्या करते थे कि मेरे एक-एक प्रश्न पर मुझे समाधान ना दे करके मुझे ऐसा साहित्य पढ़ने के लिए सुझा देते थे जहां से मुझे मेरे प्रश्नों का उत्तर भी मिल जाता था और अनावश्यक व अति प्रश्नों का निराकरण भी हो जाता था आसानी से। 
किशोरावस्था तक मेरा आर्य समाज मेरे यह एक आचार्य जी ही थे क्योंकि और किसी की आवश्यकता ही नहीं पड़ी, और मेरी ज्ञान  यात्रा स्वाभाविक और स्वस्थ रूप से आगे बढ़ती रही। यह बात अलग है कि हर समाधान के बाद मेरे मन से भाव निकलते थे *"धन्य है ऋषि परंपरा और आर्य समाज के ऐसे आचार्य  जिन्होंने यदि मेरे 30 सेकंड में किए हुए प्रश्न का उत्तर 1 मिनट में दे दिया होता तो मैंने क्या कुछ खो दिया होता!"*
 कुल मिलाकर बात यह कि ,एक सच्चे आर्य आचार्य ने ही मुझे सिखाया समस्याओं का सही समाधान खोजने का सही तरीका। *फिर भी आज मुझे आर्य समाजियों से चिढ़ क्यों है।*

इसके कुछ कारण नीचे लिख रही हूं। जिनकी बुद्धि पर ताला जड़ा है या जिनका स्वार्थ इस मानसिक जड़ता से ही सिद्ध होता है उन्हें यह सब पढ़कर विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा यह मैं जानती हूं पर जो मुझे वैदिक, अवैदिक,आर्य अनार्य या पौराणिक किसी एक श्रेणी में  रखना चाह रहे हैं उन्हें सहयोग अवश्य होगा। साथ ही कुछ लोग संभवतः आर्यसमाज व आर्यसमाजियों  को भी समझ पाएंगे ।
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१- आर्य समाज वर्तमान में आयसमाज मात्र बनकर रह गए हैं। आर्य समाज के 10 नियमों अथवा ऋषि द्वारा प्रदत्त सिद्धांतों के मायने अब आर्य समाज के पदाधिकारी गण अपनी रुचि व अरुचि और अपने दानदाताओं की रुचि और प्रसन्नताओं को आधार बनाकर ही तय करते हैं। समाज की स्थिति, समस्याएं धर्म की हानि- लाभ, हमारे चारित्रिक व सामाजिक पतन को रोकना वह सब एक ओर रख के उपरोक्त नियमों और सिद्धांतों का सही स्वरूप अपने हिसाब से खूब तोड़ा मरोड़ा जाता है। 

२- आर्यसमाज के साप्ताहिक सत्संगों में अथवा अन्य कार्यक्रमों में प्रवचन कर्ता आचार्य व विद्वानगण एक सिलेक्टेड कैसेट की तरह से प्ले किए जाते हैं। उनके लिए विषय निर्धारण, विषय सीमा का निर्धारण, यहां तक की अपने उद्बोधन में किस-किस श्रोता या व्यवस्थापक या दानदाता के प्रति किन शब्दों में विशेष सम्मान प्रकट करना है वह भी प्रवचन कर्ता विद्वान को संस्था के पदाधिकारी गण बताते हैं। यदि विद्वान ने एक भी शब्द ऐसा बोल दिया जो सर्वथा उचित होते हुए भी प्रधान जी, मंत्री जी या उनके किसी प्रिया दानदाता को पसंद नहीं आया तो विद्वान का सदैव के लिए पत्ता कट! सीधे शब्दों में *"प्रवचन कर्ता विद्वान आचार्य को विद्वान की तरह नहीं दिहाड़ी पर बुलाए गए मजदूर से भी बुरी तरह ट्रीट किया जाता है"* और दक्षिणा के लिए, परिवार का पोषण करने के लिए, इस फील्ड में करियर बनाने के लिए, विद्वान इन सब व्यवस्थाओं या अव्यवस्थाओं को स्वीकार करता है, या कहें कि उसे स्वीकार करना पड़ता है।

३- वास्तव में जिन उद्देश्यों के लिए आर्य समाज बनाया गया था वैसा सब कुछ तो छोड़िए कुछ कुछ भी आर्य समाज में नहीं हो रहा है। क्या आर्य समाज के भवनों के निर्माण का उद्देश्य वैवाहिक कार्यक्रम करवाना, निकाह पढवाना, पार्टी हॉल की तरह प्रयोग किया जाना या उठाला करने के लिए स्थान उपलब्ध करवाना मात्र था। अभी महीने भर पहले हमारे एक परिचित आर्य समाज के पदाधिकारी हमें फोन करके कहते हैं कि उन्होंने उपरोक्त उद्देश्यों (पार्टी हॉल और उठाला आदि) को ध्यान रखते हुए अपने आर्य समाज में सत्संग भवन का निर्माण करवाया है, जिसका उद्घाटन वे आचार्य देवव्रत जी और स्वामी रामदेव जी के हाथों से करवाना चाहते हैं। और वो हमसे चाहते थे कि हम इस कार्य के लिए रामदेव जी को कन्वेंस करें। दो-तीन वार्ताओं तक लगातार उनको टालने के बाद फाइनली उनसे टकराव हो ही गया क्योंकि हमें यह सब नौटंकी सूट नहीं करती। बड़े-बड़े मंदिरों को लेकर प्रश्न किया जाता है कि वह दान और चढ़ावे के धन से मंदिर के साथ गुरुकुल क्यों नहीं चलाते? पहले यह भी तो बताया जाए कि कितने आर्य समाज और समाज के पदाधिकारी गण अपने इन भवनों में जिन्हें वे पार्टी हॉल बनाएं बैठे हैं वहां 10-5 विद्यार्थियों और एक दो आचार्यों को रखकर लघु गुरुकुल चला रहे हैं। आर्य समाज के साथ ईसा कुल (स्कूल) तो खोले आर्य समाज और गुरुकुल चलाएं मंदिर ! अजब दोगलापंथी है।

४- प्रवचन के और प्रचार के विषयों का चुनाव कई बार कुछ आचार्य या विद्वान अथवा पदाधिकारी गण केवल खोखला प्रभाव स्थापित करने के लिए अथवा विद्वत्ता दिखाने मात्रा के लिए करते हैं। सर्वसाधारण श्रोता की योग्यता, पात्रता, उपयोगिता का ध्यान रखें बिना, ऐसे- ऐसे क्लिष्ट और परिश्रम साध्य और कभी-कभी तो विवादास्पद विषयों को साधारण प्रवचनों में रखा जाता है, जो बिना पूर्व विषय का गंभीरता से ज्ञान हुए केवल लोगों को हठ और दुराग्रह से युक्त करने का ही कार्य करते हैं । *उदाहरण के लिए आत्मा साकर या निराकार, महर्षि दयानंद जी को मुक्ति मिली या नहीं मिली, आकाश नित्य है या अनित्य है, कृष्ण, शंकर और राम आदि केवल साधारण महापुरुष हैं या उससे कुछ भिन्न।* जबकि इन विषयों का जनसाधारण के हितों, उनकी समस्याओं या उनके उत्थान और पतन से सीधे कोई संबंध नहीं होता। और सदैव प्रवचन कर्ता इन विषयों पर स्वतंत्रता से अपनी मान्यता भी नहीं रख पाता। पर करें क्या संस्था के अन्य सदस्यों की मान्यता के विरोध में बोल नहीं सकता वरना दक्षिणा और कैरियर दोनों गए हाथ से। *एक सत्य घटित प्रकरण है -मोक्ष विषय पर प्रवचन करने के बाद दो आर्यसमाजी आचार्य विद्वान आचार्य कक्ष में चर्चा कर रहे हैं, जिनमें एक कहता है कि *"मैं अपने अध्ययन और चिंतन के आधार पर अब तक यह समझ पाया हूं कि दयानंद सरस्वती जी ऋषि नहीं थे और उनके द्वारा कही गई प्रत्येक बात को प्रमाण की तरह नहीं देखा जा सकता, कई जगह गतिरोध होता है।"* और इसी प्रवचन को सुनकर बाहर गया व्यक्ति तीसरे पड़ोसी के साथ सींग फसाएं खड़ा है यह आग्रह लेकर कि महर्षि दयानंद सरस्वती जी देहत्याग के पश्चात डायरेक्ट मोक्ष में ही गए हैं।

५-आर्य समाज के *कुछ आचार्य विद्वान अपने को ऑलराउंडर सिद्ध करने के चक्कर में हर विषय पर सदा बोलने के लिए तैयार रहते हैं। ऑफलाइन, ऑनलाइन कैसे भी हो पर इन्हें हमेशा टीआरपी में रहना है।* ईश्वर, योग,कर्मफल सिद्धांत, प्रकृति, सृष्टिक्रम, व्याकरण, निरुक्त, आयुर्वेद ,समाज, राष्ट्र, गृहस्थ या मनोविज्ञान, पठन-पाठन सब विषयों पर बस बोलना है। प्रत्यक्षात्मक, अप्रत्यक्षात्मक, सही ,गलत, व्यावहारिक और अव्यावहारिक चाहे जैसे बस बोलना है। कोई विषय इनसे छूटना नहीं चाहिए। बस इस बोलते रहने के प्रयास में ये कहां-कहां कैसी-कैसी उलझन उत्पन्न कर देते हैं, इसका भान संभवतः स्वयं इन्हें भी नहीं होता। हां कुछ विद्वान है जिनके विषय ही उनकी पहचान है। उस विषय का प्रश्न या समस्या आते ही उन्हीं विद्वान का स्मरण आता है, जैसे:- स्वामी सच्चिदानंद जी राष्ट्रवाद पर जिस प्रकार से बोलते हैं। आचार्य आशीष जी शिक्षा शास्त्र और बाल मनोविज्ञान के ऊपर जितनी गंभीरता से बात करते हैं, दर्शन विद्या पर आचार्य सत्यजित जी जैसे पकड़ रखते हैं, आचार्य वागीश जी आदि। लेकिन एक बहुत बड़ी संख्या उन विद्वानों की भी है जो स्वयं को सभी विषयों के ज्ञाता सिद्ध करने के चक्कर में सब तरफ हाथ मारते हैं और प्रायः अर्थ का अनर्थ किया करते हैं। अच्छा यही आचार्य लोग कई बार पुस्तकों और प्रवचनों में केवल अपनी विद्वत्ता दिखाने के लिए सामान्य सिद्धांतों या ऐसे विषयों को भी जो कि मूल रूप से एकदम सीधे और स्पष्ट होते हैं, उन्हें केवल अपनी विद्वत्ता दिखाने के लिए खूब क्लिष्ट बना कर लोगों को परोसते हैं जिससे सामान्य बुद्धि के लोग मूल बात को ना समझ कर व्यर्थ आग्रह से युक्त हो आपस में लड़ा करते हैं।

६- ऋषि दयानंद सरस्वती ने केवल वेद और वेदानुकूल ऋषिकृत ग्रंथों को ही प्रमाण श्रेणी में स्वीकार किया है साथ यह भी कि *"यदि कोई ऋषिकृत ग्रंथ भी वेद के विरुद्ध जाता प्रतीत हो तो वेद को ही अंतिम प्रमाण माना जाना चाहिए। ऋषिकृत ग्रंथ के वाक्य को नहीं।* किंतु लगता है जैसे इस बात को आर्य समाजियों ने ऐसा समझ रखा है "कि *वेद वाक्य भी यदि सत्यार्थ प्रकाश या  ऋषिकृत (महर्षि दयानन्द सरस्वती जी)अन्य किसी ग्रंथ अथवा ऋषि के किसी आचरण अथवा व्यवहार से अलग दिखे तो उसे भी अवैदिक और प्रक्षिप्त मान या कथन कर हेय कोटि में डाल देना चाहिए।"* कितने ही आर्ष ग्रन्थों के कितने ही वैदिक विषय जो कि प्रमाणों के सही प्रयोग से सिद्ध होते हैं उन्हें खुद को ऋषि का अनुयाई बताने वाले आचार्य विद्वान प्रक्षिप्त बता कर मनमाना अर्थ बताते हैं या तो कभी-कभी बिल्कुल ही पढ़ने पढ़ाने का निषेध तक किया करते हैं।

७-  स्वयं को ऋषि का अनुयाई घोषित करने वाले आचार्य और पदाधिकारी चरित्रवान और संयमित समाज के निर्माण का शोर तो मचाते हैं, पर उसके लिए प्रयत्न न के बराबर करते हैं। उल्टे बिगाड़ को ही बढ़ावा देते हैं। कैसे - *स्वगोत्र में विवाह का खंडन करके गोत्र संकरता से तो बचाने का दावा करते हैं उसके तो नुकसान बताते हैं। जात्यांतर वर्णांतर विवाह संबंधों के द्वारा समाज को एकजुट करने का नारा तो देते हैं किंतु स्वस्थ क्षेत्रीय परंपराओं और स्वस्थ क्षेत्रवाद को बचाए बनाए रखने में पूरी तरह से फेल रहे हैं।* स्वस्थ क्षेत्रवाद में गांव की हर बहन बेटी गांव की ही नहीं अपितु आसपास के गांव के बालकों के द्वारा भी बहन का ही सम्मान पाती थी, बेटी की तरह ही देखी जाती थी। अलग से युवाओं और किशोरों को नहीं रटवाया जाता था कि हर युवती में बहन और स्त्री में माता देखो और यह होता भी था हमने स्वयं इसको न केवल अनुभव किया है अपितु  जीया भी है, पर वर्तमान में आर्य समाजी ही अपनी संतानों में भी यह भाव भरने में फेल है। कैसे कहे कि मोहल्ले, कॉलोनी या गांव की बेटी हमारी बेटी या बहन है वह कैसे सिखाएं अपने बेटों को कि आसपास की हर लड़की उसकी बहन और स्त्री माता है। बेटियों को कैसे सिखाएं की मोहल्ले के हर लड़के को भाई और पुरुष को पिता तुल्य समझना है। जबकि उसके खुदके जीजा और साले दोनों उसी की गली में रहते हैं। *आर्यसमाजी घर में चाचा खुद ही तीसरे पड़ोसी के घर से चाची ला रखे हैं। ऐसे में बालक कैसे सब में बहन भाई देख पाएगा।* पहले एक ही गांव के सब बच्चे आपस में बहन भाई का व्यवहार रखते थे बड़ों का भी भाषण और आचरण यथावत ही होता था। *अब एक ही गांव के दो लड़के अपने ही गांव की तीसरी लड़की को एक दूसरे की भाभी बनाने की होड़ में लगे हैं, और जिसका मौका लग जाए वह लड़की को आर्य समाज मंदिर ले जाकर दूसरे की भाभी बना भी देता है वह भी पुरोहित जी के आशीर्वाद सहित। साथ में सत्यार्थ प्रकाश भी मिलेगा वेडिंग प्रेजेंट के रूप में, बस  आपकी ओर से दक्षिणा में कंजूसी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि  वहां पुरोहित जी को केवल आपके बालिग होने या ना होने और माता-पिता एक गोत्र के होने या ना होने से प्रभाव पड़ता है बाकी आप पड़ोसी गांव के हो, एक ही गांव के हो या एक ही मोहल्ले के हो ऐसी किसी दूसरी बात पर ध्यान नहीं दिया जाता।*

८-मूर्ति पूजा का विरोध करते-करते आर्य समाज ने पूर्वज महापुरुषों के स्वरूप को साधारण मनुष्य से भी गया बीता सिद्ध करने की होड़ पकड़ ली है। शास्त्रों से समाधान तो निकालना नहीं क्योंकि उन्हें तो पहले ही प्रक्षिप्त कहकर कचरे के ढेर में डाल चुके! बस या तो ब्रह्म है या तो महापुरुष इन दोनों के मध्य में भी कोई कैटेगरी है ये उन्हें विचारने या खोजने की आवश्यकता ही नहीं। और जिन्हें यह महापुरुष मानते भी हैं, वह चाहे कोई भी हो ऋषि दयानंद से तो निम्न कोटि का ही स्वीकार किया जाएगा, क्योंकि राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा आदि महापुरुष मात्र रहे हैं, जबकि ऋषि तो महर्षि है। *(हालांकि ऋषि स्वयं कहते हैं कि उनसे पूर्व काल में हो चुके ऋषियों और महापुरुषों के सम्मुख वह एक सेवक मात्र की योग्यता  रखते)* इन सब पूर्वजों के आचरणों  को भला ऋषि के समान सार्थक कैसे स्वीकार किया जा सकता हैं! आर्य समाज में ही एक पक्ष तो ऐसा है कि दुर्गा, काली,उमा आदि पूर्वजाओं के अस्तित्व को ही नकार देता है और उन्हें काल्पनिक करार दे देता है।

९-जब हठयोग, प्राण साधना, विभिन्न आसनों और प्राणायामों को लेकर व्यक्तिगत प्रश्न किया जाता है तो आर्य जगत के उच्च योग्यता वाले आचार्यों, विद्वानों का कहना होता है कि - *"हां ऐसा होता है और होगा भी। यदि आपके साथ हो रहा है तो गलत नहीं है, आप उसका लाभ लें । किंतु शोर न मचाएं , क्योंकि इस विषय को लेकर कुछ भी यदि हम कहते हैं तो विवाद बढ़ेगा और संस्था की मर्यादा में रहकर ही हमारे द्वारा कुछ कहा जाना उचित है ।* दूसरी ओर  सामान्य व्यक्ति ऋषि द्वारा निर्देशित चार प्राणायामों के अतिरिक्त पांचवें को प्राणायाम ही मानने को तैयार नहीं है। *उल्टे कुछ धूर्त और पाखंडी अन्य उपयोगी प्राण क्रियाओं पर आरोप लगाकर उन्हें गलत ढंग से प्रचारित प्रसारित करते हैं। कहते हैं कि 'कपालभाति करने से आंतें फट जाती हैं ! अनुलोम- विलोम करने से मानसिक रोग उत्पन्न हो जाते हैं।* इस प्रकार का दुष्प्रचार निरंतर बढ़ रहा है। इन विषयों पर आर्य विद्वानों और आचार्यों का स्पष्ट समाधान क्यों नहीं मिल पा रहा।

१०- व्यक्तिगत परिचय के कारण मैं नाम नहीं ले रही हूं, पर एक आर्य समाजी विचारक और समाज में अति सम्मानित और प्रामाणिक कहे जाने वाले साधक ने व्यक्तिगत चर्चा में मुझसे कहा कि, *"संप्रदाय विशेष की प्रार्थना के शब्दों पर जब उन्होंने ध्यान लगाने का प्रयास किया तो ध्यान बहुत अच्छा लगा।पर यह बात वह किसी अन्य आर्य समाजी को कभी नहीं बोल सकते वरना उन्हें गालियां पड़ेंगी।"* और दूसरा एक ऐसा भी पक्ष है आर्य समाज में जिनका आर्यत्व अभिवादन में नमस्ते की जगह राम-राम कहने मात्र से ही खंडित हो जाता है। इतनी सी बात पर वह लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं कि हमने उनको राम-राम क्यों बोला नमस्ते क्यों नहीं बोला।

११- लगभग सभी आर्य समाजो पर रिटायर्ड पेंशन जीवियों का एकाधिकार स्थापित है। जान जाए तो जाए, सिद्धांत जाए, धर्म रसातल में जाए, सामाजिक व्यवस्था कुआं में जाए, पर प्रधान जी की कुर्सी पर आंच ना आए। युवाओं को ऐसे ट्रीट किया जाता है, उनके कार्यक्रमों और साप्ताहिक सत्संग में, जैसे कोई घुसपैठिया हो और किशोरों को तो मानो दरी-कुर्सी बिछाने के लिए और डब्बा लेकर एक-एक व्यक्ति के पास जाकर दान मांगने के लिए ही जैसे वहां पकड़ कर लाया जाता है। *हां यदि आप किसी पुराने आर्य समाजी या दानदाता के पुत्र- पुत्रवधू या बेटी दामाद हो तो आपको स्पेशल ट्रीटमेंट दिया जाएगा। चाहे दुनिया भर के सारे दोष आपके भीतर क्यों ना हो वहां बिल्कुल आपको श्वेतात्मा समझ कर व्यवहार होगा। आपको बाल-गोपाल बनाकर पूरे कार्यक्रम का सेंटर आफ अट्रैक्शन एंड अफेक्शन आपको  ही अनुभव करवाया जाएगा। एक बार को तो इन्हें भी  फील आता है कि आज पेरेंट्स के साथ हुए अब तक के सभी मतभेदों  और झगड़ों का प्रभाव धुल गया हो ।* जबकि नए समर्पित युवा के साथ सामान्य व्यवहार करना भी पुराने लोग अपनी शान में गुस्ताखी समझते हैं। युवा पुरोहितों की स्थिति तो दिहाड़ी मजदूर से भी बदतर करके रखते हैं।कहां आएगा, कहां जाएगा से लेकर उसकी दक्षिणा तक में भी उसे परसेंटेज के हिसाब से भुगतान किया जाता है। और कार्य पुरोहित का, लाइब्रेरियन का, सहायक का, व्यवस्थापक का सारा करवाया जाता है। इतना होने पर भी या तो वह बेचारा पुरोहित स्वयं हाथ खड़े कर भाग जाता है या तो पदाधिकारीगण उसका किसी भी कारण से जब चाहे तब टर्मिनेशन कर देते हैं। क्योंकि वह अधिकारी हैं, ऐसा कर सकते हैं, उन्हें ऐसा करने की आदत है, वे ऐसा करते रहे हैं पहले भी अपने प्रोफेशनल जीवन में इसीलिए वह किसी एक व्यक्ति के साथ लंबे समय तक कार्य करने के आदी नहीं होते।


क्रम बहुत लंबा हो जाएगा, यदि सब कुछ लिखने का प्रयत्न किया जाए तो। *कुछ महाविद्वान मुझसे पूछ रहे थे कि मैं मंदिरों और मठों या गुरु घंटालों के द्वारा फैलाए जा रहे पाखंड पर आपत्ति क्यों नहीं जताती आर्य समाज और आर्य समाजियों पर ही क्यों प्रश्न उठा रही हूं?* तो सुनिए श्रीमान पौराणिकों ,*अन्य संप्रदाय वालों या गुरु घंटालों के प्रवचनों को  ना मैंने कभी सुना है और ना कभी गुना है। मेरा प्रारंभ और विकास मेरे घर "आर्य समाज" में हुआ है ।और आज मेरे इस घर की दीवारें कुछ निकृष्ट स्वार्थ से युक्त दोहरे चरित्र के अभिनय कर्ता खोखली कर रहे हैं। जिससे मुझे बहुत कष्ट होता है। अपने घरों की यह दुर्दशा देखकर, वहां आने वाले अतिथियों और शरणागतों का अपमान देखकर, इस आर्य समाज रूपी भवन के निर्माण की नींव रखने वाले पितामह ऋषि दयानंद जी  की शिक्षाओं और सिद्धांतों का मजाक बनते देखकर मुझे बहुत पीड़ा होती है। मंदिर या बाबाओ के पंडालों में मेरा कौन बैठा है जिससे मैं प्रश्न करूं या जिससे नाराजगी जताऊं। सुधार मुझे वहां करना है जहां मुझे रहना है ना कि वहां जहां मेरा कोई मतलब ही नहीं। यदि मैं अपना घर सुंदर व सुगंधित बना पाई तो बाकी सब स्वत: ही खिचें चले आएंगे पाखंडी बाबाओं और गुरु घंटालों को छोड़कर मेरे घर आर्य समाज के आश्रय में।* हमारे मार्गदर्शक ऋषि ने भी इसी का उपदेश और आचरण किया था। पहले वहां की गंदगी साफ करो जहां आप रहते हो क्योंकि वही आपको सबसे पहले और सबसे अधिक प्रभावित करती है, और दिखती भी सबसे पहले वही है। मैं अभी भी आशान्वित हूं कि कुछ सुधार होगा और मुझे मेरे ऋषि द्वारा स्थापित सुंदर उपवन से पृथक जाकर अपने ढाई चावल अलग से पकाने को विवश न होना पड़ेगा, जैसा कि बहुत से विचारवान साथी पहले ही कर चुके हैं। पर धीरे-धीरे मेरी आशा निराशा में बदलती जा रही है जिसकी मुझे अत्यधिक पीड़ा है।


दीक्षा राजन आर्य

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