11 नवम्बर 1888 को पैदा हुए मक्का में, वालिद का नाम था " मोहम्मद खैरुद्दीन" और अम्मी मदीना (अरब) की थीं। नाना शेख मोहम्मद ज़ैर वत्री ,मदीना के बहुत बड़े विद्वान थे। मौलाना आज़ाद अफग़ान उलेमाओं के ख़ानदान से ताल्लुक रखते थे जो बाबर के समय हेरात से भारत आए थे। ये जब दो साल के थे तो इनके वालिद कलकत्ता आ गए। सब कुछ घर में पढ़ा और कभी स्कूल कॉलेज नहीं गए। बहुत ज़हीन मुसलमान थे। इतने ज़हीन कि इन्हे मृत्युपर्यन्त "भारत रत्न " से भी नवाज़ा गया। इतने काबिल कि कभी स्कूल कॉलेज का मुंह नहीं देखा और बना दिए गए भारत के पहले केंद्रीय शिक्षा मंत्री। इस शख्स का नाम था "मौलाना अबुल कलम आज़ाद "।
सही मायने में देखा जाये तो आजाद पूरे भारत को मुगलिस्तान के रूप में देखना चाहते थे।
उन्होंने एकबार भारत के इस्लामीकरण की वकालत करते हुए कहा था कि ' भारत जैसे देश को जो एक बार मुसलमानों के शासन में रहा चुका है ,कभी भी त्यागा नहीं जा सकता और प्रत्येक मुसलमान का कर्तव्य है कि उस खोई हुई मुस्लिम सत्ता को फिर प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करे ' (बी.आर.नन्दा , गांधी पैन इस्लामिज्म , इम्पीरियलिज्म एण्ड नेशनलिज्म, पृ. ११७)
आबादी का अदला-बदली प्रस्ताव को इन्होंने ही गांधी व नेहरू के द्वारा ठुकरवा दिया था। जिससे भारत को फिर इस्लामिक चंगुल में फंसाया जा सके।
अक्टूबर, 1947 में पाकिस्तान बनने की मांग पूरी होने पर जब हज़ारों की संख्या में दिल्ली के मुसलमान अपने इस्लामी मुल्क पाकिस्तान जा रहे थे तो जामा मस्जिद की प्राचीर से मौलाना ने उन्हें जाने से रोका और कहा-
"जामा मस्जिद की ऊंची मीनारें तुमसे पूछ रही हैं कि कहाँ जा रहे हो, तुमने भारत के बुलंद इस्लामी इतिहास के पन्नों को कहाँ खो दिया। कल तक तुम यमुना के तट पर वजू किया करते थे और आज तुम यहाँ रहने से डर रहे हो। याद रखो कि तुम्हारे ख़ून में दिल्ली बसी है। तुम समय के इस झटके से मत डरो।
उनकी और गांधी की अपीलों के कारण अलग मुल्क की हसरत रखने वाले लाखों मुसलमानों ने पाकिस्तान जाने का ख्याल छोड़ दिया और भविष्य में देश का एक और विभाजन होने की संभावना उसी समय से आरंभ हो गयी।
उनकी पत्रिका 'अंजमने-तारीकी-उर्दू' के सामने समस्या आई तो उन्होंने अपने कांग्रेसी शिक्षा मंत्रालय की ओर से अंजमन को 48,000 रूपए प्रति माह के अनुदान की मंजूरी दिलाई। परन्तु इस अनुदान का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया, और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वित्तीय संकट के समय में उनके मदद के लिए देते रहे।
उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'इंडिया विन्स फ्रीडम' में लिखा कि-
'लोगों को यह सलाह देना सबसे बड़े धोखों में से एक होगा कि भौगोलिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से भिन्न क्षेत्रों को धार्मिक संबंध कभी जोड़ भी सकते हैं।'
हमारे वामपंथी लेखक इन बड़ी चालाकी से इन वाक्यों को मौलाना के हिन्दू-मुस्लिम एकता की भावना से जोड़ कर लिखते हैं।
इन्होने इस बात का ध्यान रखा कि विद्यालय हो या विश्वविद्यालय कहीं भी इस्लामिक अत्याचार को ना पढ़ाया जाए. इन्होने भारत के इतिहास को ही नहीं अन्य पुस्तकों को भी इस तरह लिखवाया कि उनमे भारत के गौरवशाली अतीत की कोई बात ना आए. आज भी इतिहास का विद्यार्थी भारत के अतीत को गलत ढंग से समझता है.
हमारे विश्वविद्यालयों में - गुरु तेग बहादुर, गुरु गोबिंद सिंह, बन्दा बैरागी, हरी सिंह नलवा, राजा सुहेल देव पासी, दुर्गा दास राठौर के बारे में कुछ नहीं बताया जाता..
अबुल कलाम आजाद की जन्म जयन्ती की याद में ११ नवम्बर को “राष्ट्रीय शिक्षा दिवस” के रूप में मनाया जाता है। यद्यपी, ऐतिहासिक तथ्यों के आलोक में यह कितनी बडी हास्यास्पद बात है, यह अधिकांश लोग नहीं जानते। वास्तव में, नेहरू द्वारा मौलाना आजाद को स्वतन्त्र भारत का पहला शिक्षा मंत्री बनाना भी इस देश के लिए एक विडम्बना ही थी।
उनकी एक मात्र अंग्रेजी पुस्तक कुरान का अनुवाद है, जो शुद्ध मजहबी है। दूसरी “इन्डिया विन्स फ्रिडम” भी राजनीतिक है। यह किताब भी मौलाना आजाद ने अपने सहयोगी हुमायू कबीर को बताकर लिखवायी थी। वे बातें उर्दू में कही गई, जिसका अनुवाद कर कबीर ने अंग्रेजी में पुस्तक लिखी।
सन् 1920 में आजाद ने मुसलमानों के लिए ‘हिजरत’, यानी भारत छोडकर मुस्लिम देशों में प्रस्थान के लिए तैयार रहने का फतवा भी जारी किया था। यह भारत-भूमि से उनके भावनात्मक सम्बन्धों के अभाव का भी प्रमाण है। उन्होंने अंग्रेजों से लडाई को ‘जिहाद’ कहा था। निसन्देह, यह सब उन्होंने अंग्रेजों से लडने के लिए किया था, लेकिन उनकी लडाई में और राजनीति में हिन्दूओं का स्थान कहाँ था? था भी या नहीं?
आजाद ने किसी मदरसे या औपचारिक इस्लामी संस्थान में कभी पढाई नहीं की! यह भी आजाद के जीवन का एक विशिष्ट पहलु है कि उन्होंने अपने और अपने पूर्वजों के बडे आलिम होने की बात स्वयं और गलत प्रचारित की थी। इस हद तक की आजाद की मृत्यु के बाद स्वयं प्रधानमंत्री नेहरू को संसद में क्षमा मांगनी पडी थी कि “हमने गलती से कह दिया था कि मौलाना आजाद मिस्र के विश्व-प्रसिद्ध अल-अजहर विश्वविद्यालय में पढे थे। वस्तुतः वे वहां कभी नहीं पढे।” (‘नेहरुवाद की विरासत’, पृ. १६७)
वास्तविकता यह है कि उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई ‘इन्डिया विन्स फ्रिडम’ में आजाद ने लिखा है कि वे एक बार वहाँ घूमने गए थे!!
इस प्रकार, शिक्षा या राजनीति, किसी में भी ‘मौलाना’ आजाद की भूमिका आदर्श नहीं कही जा सकती। बहरहाल, यह व्यंग्य ही है कि इस्लाम-परस्त घोर मजहबी राजनीति करने वाले आजाद को “सेक्युलर” “शिक्षा दिवस” का प्रतिक माना जाए!
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