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विज्ञापन भी थे जिंदगी का हिस्सा

 तब विज्ञापन भी थे जिंदगी का हिस्सा



आज इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी और एआई यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का दौर है। उत्पाद निर्माताओं के पास अपने विज्ञापन दिखाने के लिए टेलीविजन व सिनेमा के अलावा सोशल मीडिया, ओटीटी प्लेटफॉम्र्स जैसे कई माध्यम हैं। लेकिन 1980 और 90 के दशक में ऐसा नहीं था। प्रोडक्ट्स मैन्युफेक्चरर कंपनी को ऑडियो/विजुअल विज्ञापन के लिए दूरदर्शन पर ही निर्भर रहना पड़ता था। उस दौर में ऐसे कई घरेलू सामान के विज्ञापन आते थे, जिनका आज की पीढ़ी अंदाजा भी नहीं लगा सकती है। वो विज्ञापन इतने आकर्षक होते थे कि लोग उनसे सीधा जुड़ाव महसूस करते और उनके टीवी पर आते ही देखने वाले भी उनके जिंगल्स गाने या बोल बोलने लग जाते थे। सालों बाद अब भी उन विज्ञापनों का जादू इस कदर सिर चढक़र बोलता है कि धुन सुनाई दे जाती है तो गुनगुनाने लगते हैं। आज झलक में ताजा करते हैं 80 और 90 के दशक में आने वाले कुछ मशहूर व मनोरंजक विज्ञापनों की यादें...


-अरे दीपिका जी! आइए-आइए, लीजिए, आपका सब सामान तैयार है।

-ये नहीं, वो! निरमा सुपर नीली डिटर्जेंट टिकिया।

-पर आप तो वो हमेशा महंगी वाली टिकिया...

-लेती थी, जब वही महंगे दामों वाली क्वालिटी, वही सफेदी, वही झाग; कम दामों में मिले तो ये क्यूं लेंं? वो न लें?

-मान गए

-किसे ?

-आप की पारखी नजर और निरमा सुपर। दोनों को

‘निरमा सुपर- धुलाई का सुपर दम; दाम फिर भी कम।’


-नमस्कार।

-बारात ठीक 8 बजे पहुंच जाएगी। पर हम आपसे एक बात कहना तो भूल ही गए।

-क्या?

-घबराइये नहीं, हमें कुछ नहीं चाहिए। हम बस इतना चाहते हैंं कि आप बारातियों का स्वागत पान पराग से कीजिएगा।

-ओ पान पराग! हमेंं क्या मालूम आप भी पान पराग के शौकीन हैं। ये लीजिए पान पराग।

‘पान पराग’

पान पराग पान मसाला... पान पराग।


ये पंक्तियां हैं ‘निरमा वॉशिंग पाउडर’ और ‘पान पराग’ के विज्ञापन की। पढक़र 1980-90 के दशक में टेलीविजन देखने वाले लोग एकबार तो फिर से उस समय में जरूर लौट गए होंगे। यू-ट्यूब पर आज भी उस दौर के कुछ विज्ञापन जिंगल्स की धुन सुनाई दे तो दिमाग में घंटी जरूर बजती होगी, खासतौर पर उस दौर में स्कूल जाने वाली पीढ़ी के या यूं कह लीजिए उस दौर के बच्चों के। हमारी पीढ़ी में सभी ने वो दौर जिया है जब टीवी पर फिल्म या सीरियल से ज्यादा विज्ञापन आने का इंतजार रहता था और ब्रेक आते ही शुरू हो जाते थे गुनगुनाना या बोलना- ‘वॉशिंग पाउडर निरमा...’, ‘विक्स की गोली लो, खिच-खिच दूर करो...’, ‘हमारा बजाज..’, ‘स्वाद-स्वाद में लिज्जत-लिज्जत पापड़...’, ‘हॉकिन्स की सीटी बजी, खुशबू ही खुशबू उड़ी...’ या ‘जब मैं छोटा बच्चा था, बड़ी शरारत करता था...’ और ऐसे ही न जाने क्या-क्या। अभी पढ़ते हुए भी होंठों पर एक हल्की सी मुस्कान तो जरूर आई होगी। कुछ वन लाइनर जो आज भी उतने ही मशहूर हैं और लोग अकसर वो पंच लाइन दोहराते हुए नजर आते हैं। फेविकोल का एक विज्ञापन जो काफी चर्चा में रहा था, उसकी पंच लाइन थी ‘फेविकोल का मजबूत जोड़।’ पान पराग वाला एड जिसकी पंच लाइन थी- ‘बारातियों का स्वागत पान पराग से कीजिए’ भी काफी मशहूर हुआ था। ’हेमा, रेखा, जया और सुषमा, सबकी पसंद निरमा’ जिंगल भी अब तक गुनगुनाया जाता है। लोकप्रिय विज्ञापनों की बात हो और ‘लाइफ ब्वॉय’ को भूल जाएं, ये हो ही नहीं सकता। ‘लाइफब्वॉय है जहां, तंदरुस्ती है वहां...’ की टैग लाइन ने ब्रांड को इतना मशहूर कर दिया था कि साबुन का मतलब ही लाइफब्वॉय हो गया था। यानी लोग दुकान पर कोई भी साबुन खरीदने जाते परंतु कहते एक ही बात- ‘लाइफब्वॉय देना...।’ विज्ञापनों का ही असर था कि टूथपेस्ट का मतलब ‘कोलगेट’ हो गया था, क्योंकि कोटगेट की टैगलाइन- ‘80त्न से अधिक दंत चिकित्सक कोलगेट की सलाह देते हैं’ लोगों ने कोलगेट के प्रति लोगों में एक विश्वास पैदा कर दिया था। ग्रामीण क्षेत्रों में तो लोग आज भी ‘टूथब्रश’ या ‘टूथपेस्ट’ नहीं ‘कोलगेट’ करते हैं। उधर सर्फ वाली ‘ललिता जी’ जो चमचमाती सफेद साड़ी पहने हुए और माथे पर बड़ी सी बिंदी लगाए अपना सिर थपथपाती, मुस्कुराती और कहती- ‘सर्फ की खरीदारी में समझदारी ही है।’ ‘ललिता जी’ की बात पर लोगों ने इस कदर भरोसा किया कि महंगा सर्फ सस्ते निरमा को पछाडक़र भारत का न सिर्फ नंबर वन डिटर्जेंट बना, बल्कि वह डिटर्जेंट पाउडर का पर्याय ही बन गया। लोग डिटर्जेंट का मतलब सर्फ समझने लगे और जादू ऐसा चढ़ा कि निरमा खरीदने के लिए भी लोग दुकानदारों से ‘निरमा सर्फ’ मांगते थे।

आज टीवी हमारे लिविंग रूम से बेडरूम का हिस्सा बन चुका है। टीवी के साथ-साथ मोबाइल के विभिन्न ऐप्स पर तरह-तरह के हाईटेक विज्ञापन देखने को मिल जाते हैं। लेकिन 1980-90 के दशक के टीवी विज्ञापन हमारी घरेलू दुनिया का आईना हुआ करते थे। उस दौर के विज्ञापनों में मासूमियत और घरेलू अंदाज हुआ करता था। शालीनता में लिपटे ये विज्ञापन हमारे घर के अपने ही लगते थे। जो लोग उस दौर में टेलीविजन देख चुके हैं वो इन विज्ञापनों से जुड़ी अपनी भावनाओं को समझ सकते हैं। उस दौर के विज्ञापनों के हर पल से वो खुद को रिलेट कर सकते हैं। हर विज्ञापन में परिवार और अपनेपन की झलक हुआ करती थी। साबुन के विज्ञापन भी ऐसे हुआ करते थे जिसे देखते हुए नजरें चुराने की जरूरत नहीं पड़ती थी। उन सभी विज्ञापनों को फैमिली शो का सटीक उदाहरण कहा जा सकता है। फैमिली शो यानी एक ऐसा शो जिसे घर में माता-पिता, पति-पत्नी और बच्चे साथ में बैठकर देख सकें। किसी को भी चैनल चेंज करने या नजरें फेरने की जरूरत न पड़े।

इन विज्ञापनों में न सिर्फ फैमिली इमोशन्स हुआ करते थे, बल्कि हल्की-फुल्की हंसी और चेहरे पर मुस्कान ले आते थे।

पारिवारिक भावनात्मक पहलू का ध्यान रखते हुए ही ये विज्ञापन बनाए जाते थे। इन विज्ञापनों को देखने में फिल्मों से ज्यादा मजा आता था, लोग विज्ञापन से प्रभावित होकर वही प्रोडक्ट भी घर लाते थे। साबुन, टूथपेस्ट, पाउडर के विज्ञापन में फैमिली के इमोशन्स को भी कनेक्ट किया जाता था। आज फास्ट टेक्नोलॉजी के दौर में विज्ञापन की स्पीड और फ्लेवर भी बदल गया है, लेकिन उस दौर में दूरदर्शन पर आने वाले विज्ञापन लोगों को बांधकर रखते थे। स्क्रीन पर विज्ञापन आता था तो चैनल नहीं बदलता था, न ही लोग काम के लिए उठते थे। बल्कि विज्ञापन भी उतनी ही दिलचस्पी के साथ देखा करते थे।

लिरिल साबुन- गर्मियों के दिन आते ही टीवी पर आने वाली एक धुन कानों में गूंजने लगती थी, इसके दृश्य में एक लडक़ी झरने में नहा रही होती है। ये लिरिल साबुन का विज्ञापन इतना पॉपुलर था कि लोग इस धुन को आज तक गुनगुनाते हैं। विज्ञापन देखने पर भी गर्मी में शीतल अनुभव होता था।

हमारा बजाज- अगर बात 80-90 के दशक के मशहूर और सुपरहिट विज्ञापनों की हो रही है और बजाज स्कूटर के एड का जिक्र न किया जाए, तो यह बिलकुल गलत होगा। एक मिडल क्लास फैमिली की जरूरतों को दर्शाता यह एड उस दौरान लोगों के लिए बीच काफी मशहूर हुआ था। ये जमीं ये आसमां, हमारा कल हमारा आज बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर हमारा बजाज। बजाज स्कूटर का यह गीत और दृश्य भी सभी को याद है। ये वो दौर था जब बजाज का स्कूटर हर घर में हुआ करता था। यह स्कूटर बेहद लोकप्रिय हुआ, विज्ञापन तो खैर था ही लोकप्रिय। आज बेशक बजाज स्कूटर बनना बंद हो गया है, लेकिन इस विज्ञापन की धुन आज भी जेहन में गूंजती है।

लिज्जत पापड़- भारत में पापड़ बहुत पसंद किए जाते हैं, ऐसे में लिज्जत पापड़ की बात न हो ये मुमकिन नहीं। ‘जब जी चाहे शौक से खाएं कुर्रम-कुर्रम, चाय-कॉफी के संग भाए कुर्रम-कुर्रम, मजेदार लिज्जतदार, स्वाद-स्वाद में लिज्जत लिज्जत पापड़...लिज्जत पापड़’। इस विज्ञापन में पूरा परिवार दिखाया जाता था, घर का नौकर भी पूरे मन से सभी को पापड़ खिलाता था। इस विज्ञापन की याद आज भी जेहन में ताजा है। इसमें शामिल कार्टून भी काफी पॉपुलर हुआ था।

आप भी पान पराग के शौकीन हैं- पान पराग के विज्ञापन के डायलॉग तो हर जगह उपयोग किए जाने लगे थे। इस विज्ञापन में शम्मी कपूर और अशोक कुमार जैसे कलाकारों ने काम किया था। रिश्ते की बात होती है तो शम्मी कपूर कहते हैं कि हम एक बात तो कहना भूल ही गए। यह सुनते ही लडक़ी के परिवार के लोग सकते में आ जाते हैं। लेकिन शम्मी कपूर कहते हैं कि हम बस इतना चाहते हैं कि बारातियों का स्वागत पान पराग से किया जाए। जवाब में अशोक कुमार कहते हैं- ओ पान पराग! हमेंं क्या मालूम आप भी पान पराग के शौकीन हैं। ये लीजिए पान पराग।

गले में खिच-खिच, विक्स लो- ‘गले में खिच-खिच... विक्स की गोली लो, खिच-खिच दूर करो।’ एक छोटी सी विक्स की गोली का विज्ञापन किसे याद नहीं होगा। एक पिता अपनी बेटी को कहानी सुनाता है और उसके गले में खराश होने लगती है। तभी विक्स की गोली का महत्व बताया जाता है। यह भी काफी फेमस हुआ था।

बस दो मिनट- एक पूरी पीढ़ी है जो मैगी खाकर बड़ी हुई है। मैगी का विज्ञापन सबसे लोकप्रिय विज्ञापनों में से एक था। दो बच्चे, एक भाई और एक बहन, स्कूल बस से उतरते हैं, घर का गेट खोलते हैं और तुरंत रसोई में घुस जाते हैं। वे एकसाथ चिल्लाते हैं- ‘मम्मी भूख लगी है।’ मां मुस्कुराती है और कहती है- ‘बस दो मिनट।’ जिंगल की पंक्तियां कुछ इस प्रकार थीं-

स्कूल से आते धूम मचाते, एक ही बात हैं दोहराते... मैगी मैगी मैगी। ये जिंगल बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ़ गया था और इस विज्ञापन ने दो मिनट में भूख मिटाने का कॉन्सेप्ट दिया। उसके बाद नूडल्स को जो बाजार मिला, आज हम सभी जानते हैं।

हाजमोला सर- एक हॉस्टल में बच्चे हाजमोला की बोतल लुढक़ाकर एक-दूसरे को देते हैं और उसमें से गोलियां खाते हैं। ठीक उसी वक्त हॉस्टल का वार्डन आ जाता है और कडक़कर पूछता है क्या हो रहा है? एक बच्चा जिसके हाथ में हाजमोला की बोतल होती है, वो कहता है- हाजमोला सर। बच्चे की मासूमियत सभी को खूब भाती थी।

आई लव यू रसना- बच्चों में बेहद लोकप्रिय थी ये लाइन- आई लव यू रसना। एक छोटी सी बच्ची गिलास में रसना घोलकर पीती है और कहती है- आई लव यू रसना। यह विज्ञापन बच्चों में काफी लोकप्रिय हुआ और रसना भी गर्मियों में जमकर पिया गया। एक रुपये या अठन्नी में मिरिंडा का स्वाद देने वाला रसना। जिस उम्र में बच्चे एबीसीडी लिखना सीख रहे थे, उसी उम्र में वो बच्चे आई लव यू रसना कहना नहीं भूलते थे।    

जोर लगा के हइशा- राजू हिरानी को जब कम ही लोग जानते थे, तब वो फेविकॉल के एक एड में दिखाई दिए। एड के बोल इतने दिलचस्प थे कि लगभग हर उम्र के लोगों के बीच ब्रांड ने बहुत तेजी से अपनी जगह बना ली। बच्चे स्कूल, गली-मोहल्ले में खेलते समय कहने लगे थे- जोर लगा के हइशा।

आई एम ए कॉम्प्लान ब्वॉय- छुटपन में मां-बाप के अलावा हम किसी और के भी ब्वॉय या गर्ल होते थे और वो था कॉम्प्लान। इस एड की पंचलाइन ऐसी थी कि स्कूल में पढऩे वाले लडक़े/लड़कियां आपस में कहते थे- आई एम ए कॉम्प्लान ब्वॉय/आई एम ए कॉम्प्लान गर्ल।

एक्शन का स्कूल टाइम- जूतों के इस ब्रांड को मार्केट में अपनी पहचान बनाने में इस विज्ञापन से बहुत मदद मिली थी। ये एड फिल्म न सिर्फ बड़ों को बल्कि बच्चों को भी मुंह जुबानी याद होता था। जिस उम्र में हमें जूते के फीते भी बांधने नहीं आते थे, उस उम्र में खूबसूरत से बच्चे को देखकर तमन्ना उठती थी कि हम भी पॉलिश किए हुए चमचमाते जूते पहनकर स्कूल जाएं।

जलेबी : धारा-धारा, शुद्ध धारा- घर छोडक़र जाने का इरादा लिए एक बच्चा। स्टेशन में मिले दादा जी और बस एक शब्द- जलेबी। इतना सुनते ही बच्चा घर वापस जाने का फैसला कर लेता है। विज्ञापन था रिफाइंड धारा ऑयल का। विज्ञापन में बच्चे की क्यूटनेस आज भी लोगों को याद है।

ये विज्ञापन भी करते थे फैमिली से कनेक्ट

इनके अलावा नेरोलैक पेंट्स का ‘जब घर की रौनक बढ़ानी हो...’, झंडू बाम-झंडू बाम पीड़ाहारी बाम...’, ‘विक्को टर्मेरिक नहीं कॉस्मैटिक...’, ‘आया नया उजाला, चार बूंदों वाला...’, ‘तुम हुस्न परी तुम जान-ए-जहां, सौंदर्य साबुन निरमा...’, ‘क्या आप क्लोजअप करते हैं...’, ‘खाओ गगन रहो मगन...’, ‘टूटी-फ्रूटी, फ्रेश एंड जूसी...’, ‘ग्लूकॉन डी, ये जान में जान डाल दे पीते ही...’, ‘प्रेस्टीज प्रेशर कुकर- फेंक दो ये कढ़ाई ये देगची...’, ‘हॉकिंस की सीटी बजी, खुशबू ही खुशबू उड़ी...’, ‘ईसीई बल्ब और ईसीई ट्यूब...’, ‘सिल्वेनिया लक्ष्मण बल्ब- पूरे घर के बदल डालूंगा...’, ‘डिटॉल साबुन- मैल में छिपे कीटाणुओं को धो डालता है...’, ‘मच्छरों को जिससे लगता है डर, वो है कैस्पर...’, ‘जिंग-थिंग- गोल्ड स्पॉट’, ‘एक बेचारा काम के बोझ का मारा- इसे चाहिए हमदर्द का टॉनिक सिंकारा’, ‘कोल्डरिन- कुछ लेते क्यों नहीं...’, ‘बजाज बल्ब- जब मैं छोटा बच्चा था...’ जैसे विज्ञापनों की टैगलाइंस भी जुबान पर खूब चढ़ीं और गाहे-बगाहे हम आज भी इनका इस्तेमाल कर लेते हैं।

दुनिया का पहला टीवी एड प्रसारण

दुनिया के पहले टीवी एड का प्रसारण 1 जुलाई, 1941 को अमेरिका में किया गया था। यह एड घड़ी बनाने वाली कंपनी बुलोवा (Bulova) ने बनाया था। एड का प्रसारण दिन के 2:29 बजे डोजर्स और फिलाडेल्फिया फिलिज के बीच एक बेसबाल गेम से पहले डब्ल्यूएनबीटी चैनल पर दिखाया गया था। 10 सेकंड के इस विज्ञापन के लिए कंपनी ने 9 डॉलर का भुगतान किया था। इस एड में बुलोवा कंपनी की एक घड़ी को यूएस के मैप पर रखा दिखाया गया था। मैप पर रखी इस दीवार घड़ी की तस्वीर के साथ कंपनी के स्लोगन- ‘अमेरिका रन्स ऑन बुलोवा टाइम’ का वॉयस ओवर दिया गया था।

भारत में पहला टीवी एड प्रसारण

भारत में टेलीविजन वर्ष 1959 में पेश किया गया था, लेकिन भारत को अपना पहला टेलीविजन विज्ञापन प्रसारित करने से पहले पूरे 19 साल तक इंतजार करना पड़ा। पहला भारतीय टेलीविजन विज्ञापन वर्ष 1978 में चलाया गया और यह ग्वालियर सूटिंग्स नामक कंपनी के लिए था। भारत में पहला रंगीन टेलीविजन विज्ञापन इसके पांच साल बाद आया। यह कमर्शियल, बॉम्बे डाइंग के लिए था और पूरे 100 सेकंड लंबा था।

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