🚩‼️ओ३म्‼️🚩
🕉️🙏नमस्ते जी🙏
दिनांक - - ०८ जनवरी २०२५ ईस्वी
दिन - - बुधवार
🌓 तिथि -- नवमी ( १४:२५ तक तत्पश्चात दशमी
🪐 नक्षत्र - - अश्विनी ( १६:२९ तक तत्पश्चात भरणी )
पक्ष - - शुक्ल
मास - - पौष
ऋतु - - हेमन्त
सूर्य - - उत्तरायण
🌞 सूर्योदय - - प्रातः ७:१५ पर दिल्ली में
🌞 सूर्यास्त - - सायं १७:४१ पर
🌓 चन्द्रोदय -- १२:४१ पर
🌓चन्द्रास्त २६:३० पर
सृष्टि संवत् - - १,९६,०८,५३,१२५
कलयुगाब्द - - ५१२५
विक्रम संवत् - -२०८१
शक संवत् - - १९४६
दयानंदाब्द - - २००
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🚩‼️ओ३म्‼️🚩
🔥 योग मै आने वाले ( विध्न/ उपविध्न
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व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्ध
भूमिकत्वानवस्थित्वानि चित्तविक्षेपास्तेSन्तरायाः ।।
[व्याधि-स्त्यान-संशय-प्रमाद-आलस्य-अविरति-भ्रान्तिदर्शन-अलब्ध-भूमिकत्व-अनवस्थित्वानि]
ये नौ [चित्तविक्षेपाः] चित्त की एकाग्रता को भंग करने वाले हैं [ते] वे [अन्तरायाः] (योग के) बाधक शत्रु) हैं |
१•.व्याधि - धातुओं (पित्त आदि) की विषमता से शरीर में ज्वरादि पीड़ा का होना |
२•.स्त्यान - सन्ध्या-उपासना आदि शुभ कर्मों से जी चुराना जान बूझकर न करना) |
३•.संशय - किसी वस्तु के बारे में दो प्रकार का ज्ञान होना, अर्थात् अमुक वस्तु ऐसी है, अथवा ऐसी नहीं है | जैसे आत्मा अमर है, अथवा मर जाता है |
४.प्रमाद - समाधि के साधनों यम-नियम आदि) को भूल जाना या लापरवाही करना |
५•.आलस्य - शरीर तथा मन के भारी होने से योग साधना में पुरुषार्थ न कर सकना ।
६•.अविरति - मन में रूप, रस आदि विषयों को भोगने की इच्छा का बना रहना ।
७.भ्रान्तिदर्शन - उल्टाज्ञान होना, यथा जड़ को चेतन, चेतन को जड़ मानना ।
८.अलब्धभूमिकत्व - समाधि की प्राप्ति न होना ।
९.अनवस्थितत्व - समाधि प्राप्त होने पर पुनः छूट जाना समाधि में चित्त को स्थिर न कर पाना |)ये उपर्युक्त योग के विघ्न हैं अर्थात् चित्त की एकाग्रता को भंग करने वाले शत्रु हैं ।
दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः ||३१||
[दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासा:] दुख, दौर्मनस्य, अङ्ग्मेजयत्व, श्वास तथा प्रश्वास (ये) [विक्षेपसहभुवः] पूर्वोक्त चित्त के विक्षेपों के साथ रहते हैं ।
१•. दुःख - तीन प्रकार के दुःख है १• आध्यात्मिक, २• आधिभौतिक और ३•आधिदैविक ।)
२•. दौर्मनस्य - इच्छा की पूर्ति न होने पर मन का खिन्न हो जाना ।
३. अङ्गमेजयत्व - शरीर के अङ्गों का कांपना ।
४. श्वासप्रवास - श्वासप्रश्वास का अनियंत्रित रूप से चलना |
उपर्युक्त पाँचों योग के उपविघ्न हैं । विघ्नों के उपस्थित होने पर ये भी उपस्थित हो जाते हैं
तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाSभ्यासः ३२।।
[तत्प्रतिषेधार्थम्] उन विघ्नों को हटाने या रोकने के लिए [एकतत्त्वाSभ्यासः] एक तत्व =वस्तु ईश्वर) का ध्यान करना चाहिए |उपर्युक्त योग के विघ्नों के विनाश के लिए एक पदार्थ (=ईश्वर) का अभ्यास (=उपासना या ध्यान) करना चाहिए| वही उन विघ्नों के नाश के लिए वज्ररूप शस्त्र है ।
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां
भावनातश्चित्तप्रसादनम् ।।
[मैत्री-करुणा-मुदिता-उपेक्षाणाम्] मित्रता, दया, हर्ष और उपेक्षा की [सुख-दुःख-पुण्य-अपुण्यविषयाणाम्] सुखी, दुखी, पुण्यात्मा तथा पापात्मा पुरुष विषयक (क्रमशः) [भावनातः] भावना (व्यवहार करने) से [चित्तप्रसादनम्] मन की प्रसन्नता होती है ।
सुखी (=साधन सम्पन्न) व्यक्तियों के साथ मित्रता, दुःखी लोगों के प्रति दया, पुण्यात्माओं (धार्मिक, विद्वान, परोपकारी लोगों) को देखकर प्रसन्न होना और पापियों के प्रति उपेक्षा (न राग, न द्वेष) की भावना व्यवहार) करने से योगाभ्यासी का मन प्रसन्न रहता है और प्रसन्न मन एकाग्रता = स्थिरता को प्राप्त होता है ।
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🕉️🚩 आज का वेद मंत्र 🚩🕉️
🔥ओ३म् तरणिरित्सिषासति वाजं पुरंध्या युजा। आ व इन्द्रं पुरुहूतं नमे गिरा नेमिं तष्टेव सुद्र्वम्॥ ऋग्वेद( ७|३२|२० )
💐अर्थ ;- एक व्यक्ति अपने सत्य कर्म और उपासना से ज्ञान और स्थिर मन प्राप्त करने के लिए दयालु परमात्मा को अपनी तरफ झुका लेता है। जैसे बढ़ई सख्त लकड़ी को मोड़ कर पहिए का निर्माण कर लेता है। फिर वह व्यक्ति उस ज्ञान को उनको भी वितरित करता है जो उसके लिए योग्य है।
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🔥विश्व के एकमात्र वैदिक पञ्चाङ्ग के अनुसार👇
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🙏 🕉🚩आज का संकल्प पाठ 🕉🚩🙏
(सृष्ट्यादिसंवत्-संवत्सर-अयन-ऋतु-मास-तिथि -नक्षत्र-लग्न-मुहूर्त) 🔮🚨💧🚨 🔮
ओ३म् तत्सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीये प्रहरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे 【एकवृन्द-षण्णवतिकोटि-अष्टलक्ष-त्रिपञ्चाशत्सहस्र- पञ्चर्विंशत्युत्तरशततमे ( १,९६,०८,५३,१२५ ) सृष्ट्यब्दे】【 एकाशीत्युत्तर-द्विसहस्रतमे ( २०८१) वैक्रमाब्दे 】 【 द्विशतीतमे ( २००) दयानन्दाब्दे, काल -संवत्सरे, रवि- उत्तरायणे , हेमन्त -ऋतौ, पौष - मासे, शुक्ल पक्षे, नवम्यां
तिथौ,
अश्विनी नक्षत्रे, बुधवासरे
, शिव -मुहूर्ते, भूर्लोके जम्बू द्वीपे, आर्यावर्त देशान्तर्गते गते, भरत खंडे...प्रदेशे.... जनपदे...नगरे... गोत्रोत्पन्न....श्रीमान .( पितामह)... (पिता)...पुत्रोऽहम् ( स्वयं का नाम)...अद्य प्रातः कालीन वेलायाम् सुख शांति समृद्धि हितार्थ, आत्मकल्याणार्थ,रोग,शोक,निवारणार्थ च यज्ञ कर्मकरणाय भवन्तम् वृणे
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