॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
शीलेन हि त्रयो लोकाः शक्या जेतुं न संशयः ।
सत् स्वभाव से तीनों लोकों को जीता जा सकता है, इसमें सन्देह नहीं ।
न बान्धवा न च वित्तं न कौल्यं न च श्रुतं न च मन्त्रा न वीर्यम् ।
दुःखात् त्रातुं सर्व एवोत्सहन्ते परत्र शीलेन तु यान्ति शान्तिम् ।। महाभारतम् - शान्तिपर्व - २८६ । १५॥
न बन्धु, न धन, न कुलीनता, न विद्या, न मन्त्र और न अपना सामर्थ्यं मनुष्य को दुःख से बचा सकता है । शील ही से परलोक में शान्ति को प्राप्त होते हैं ।
सर्वे च वेदाः सह षड्भिरङ्गः साङ ख्यं पुराणं च कुले च जन्म ।
नैतानि सर्वाणि गतिर्भवन्ति शीलव्यपेतस्य नृप द्विजस्य ।महाभारतम् - अनुशासनपर्व - २२।१२।
छह अंगों सहित चारों वेद, साङ्ख्य दर्शन तथा पुराण - ये सभी शील- भ्रष्ट पुरुष की रक्षा नहीं करते ।
आर्यरूपसमाचारं चरन्तं कृतके पथि ।
सुवर्णमन्यवर्णं वा सुशीलं शास्ति निश्चये । महाभारतम् - अनुशासनपर्व - ४८।४५ ॥
आर्यों के वेष और आचार का पालन करने वाला तथा कृतकमार्ग पर चलने वाला उत्तमवर्ण का है या अधम वर्ण का यह कार्य की समाप्ति पर शील ही बतलाता है ।
आचारः परमो धर्म:, श्रुत्युक्तः स्मार्त्त एव च ।
तस्मादस्मिन् सदा युक्तो, नित्यं स्यादात्मवान् द्विजः ।। (मनुस्मृतिः - १.१०८)
वेदों में प्रोक्त और स्मृति-ग्रन्थों में निर्दिष्ट आचार (आचरण) ही परम धर्म है । अतः प्रत्येक द्विज सदा इस आचार में लीन रहता हुआ नित्य आत्मकल्याण का साधन करे।
एवमाचारतो दृष्ट्वा, धर्मस्य मुनयो गतिम् ।
सर्वस्य तपसो मूलमाचारं जगृहुः परम् ।। (मनुस्मृतिः - १.११०)
इस प्रकार मुनियों ने सदाचार की दृष्टि से धर्म की गति का अवलोकन करके, सम्पूर्ण तपस्या के परम आधार रूप इस सदााचर को ही अपनाया ।
आचाराद्धनमक्षय्यमाचारो हन्त्यलक्षणम् ।। (मनुस्मृतिः - ४.१५६)
सदाचार से मनुष्य दीर्घ आयु को पाता है, सदाचार से मनचाही प्रजा को प्राप्त करता है और सदाचार से अक्षय धन को पाता है । सदाचार सब प्रकार की अयोग्यता तथा कुरूपता आदि को निष्प्रभावी कर देता है ।
आचाराद्विच्युतो विप्रो, न वेदफलमश्नुते ।
आचारेण तु संयुक्तः, सम्पूर्णफलभाग् भवेत् ।। (मनुस्मृतिः - १.१०९)
सदाचार से हीन विद्वान् वेदाध्ययन के फल को नहीं पाता है, किन्तु जो सदाचार से सम्पन्न होता है, वह सम्पूर्ण फल को प्राप्त कर लेता है ।
श्रुतिस्मृत्युदितं सम्यङ्, निबद्धं स्वेषु कर्मसु ।
धर्ममूलं निषेवेत, सदाचारमतन्द्रितः ।। (मनुस्मृतिः - ४.१५५)
मनुष्य वेदों और स्मृतिग्रन्थों में निर्दिष्ट तथा अपने अपने कर्मों में निर्धारित और धर्म के आधार रूप सदाचार का निरालस्य होकर सेवन करे ।
सर्वलक्षणहीनोऽपि, यः सदाचारवान्नरः ।
श्रद्दधानोऽनसूयश्च, शतं वर्षाणि जीवति ।। (मनुस्मृतिः - ४.१५८)
सब प्रकार के उत्तम चिह्नों और योग्यताओं से रहित होता हुआ भी जो मनुष्य सदाचारी श्रद्धालु और गुणों में दोषारोपण न करने वाला होता है, वह सौ वर्ष तक जीता है ।
तृणानि भूमिरुदक वाक्चतुर्थी च सूनृता ।
सतामेतानि गेहेषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन ।। महाभारतम् - वनपर्व - २।५६।
कुशा तृण आदि का आसन, बैठने का स्थान, (हाथ-पैर धोने और पीने का) जल, प्रिय-सत्य बाणी - इनका सत्पुरुषों के घरों में कभी भी अभाव नहीं होता ॥
चक्षु दद्यान्मनो दद्याद् वाचं दद्याच्च सूनृताम् ।
उत्थाय चासनं दद्यादेष धर्मः सनातनः ॥ महाभारतम् - वनपर्व - २।२४।
(प्रत्युत्थाय चाभिगमनं कुर्यान्न्यायेन चार्चनम्)
घर आये हुए अतिथि को) प्रेम-भरी दृष्टि से देखे, उसकी ओर ध्यान दे, उससे मीठे वचन कहे, उसे उठकर आसन दे, यह सनातन धर्म है । (अपने स्थान से उठकर उस की ओर बढ़े और विधिपूर्वक सत्कार करे) ॥
न पापे प्रतिपापः स्यात्साधुरेव सदा भवेत् ।
आत्मनैव हतः पापो यः पापं कर्तुमिच्छति ॥ महाभारतम् - वनपर्व - २०७।४५।
दुष्ट के प्रति दुष्टता का व्यवहार न करे, सज्जनता से ही सदा बर्ते । (कारण कि) जो पापी पाप करना चाहता है, वह अपने पाप से पहले ही मरा हुआ है ।
अन्धस्य पन्था बधिरस्य पन्था स्त्रियाः पन्था भारवाहस्य पन्थाः ।
राज्ञः पन्था समेत्य ब्राह्मणेनासमेत्य तु ब्राह्मणस्यैव पन्थाः ॥ महाभारतम् - वनपर्व - १३३।१।
अन्धे के लिये मार्ग छोड़े, बहिरे के लिये मार्ग छोड़े, नारी के लिये मार्ग छोड़े, बोझा उठाये हुए के लिये मार्ग छोड़, ब्राह्मण के साथ मेल न होने पर राजा के लिए मार्ग छोड़े, पर ब्राह्मण के साथ मेल होने पर (राजा को मार्ग न देकर पहले) ब्राह्मण को ही मार्ग दे ।
दुविनीताः श्रियं प्राप्य विद्यामैश्वर्यमेव च ।
तिष्ठन्ति न चिरम्....। महाभारतम् - वनपर्व - २४९।१८।
विनय से रहित (शिष्टाचार - हीन) पुरुष लक्ष्मी, विद्या और प्रभुत्व को प्राप्त करके भी चिर तक नहीं ठहरते ।
देवतातिथिभृत्यानां पितॄणामात्मनश्च यः ।
न निर्वपति पञ्चानामुच्छ्वसन्न स जीवति ॥ महाभारतम् - वनपर्व - ३१३।५८।
जो देवता, अतिथि, नौकर, पिता तथा आत्मीय जनों के लिये भाग निकाले बिना भोजन करता है, वह साँस लेता हुआ भी वस्तुतः जीता नहीं ।
तदेवासनमन्विच्छेद्यत्र नाभिपतेत्परः । महाभारतम् - विराटपर्व - ४।१३।
उस आसन पर बैठने की इच्छा न करे जिस पर कोई दूसरा आने को है ।
नहि कश्चिन्नापनयते पुमानन्यत्र भार्गवात् । महाभारतम् - उद्योगपर्व - ३९।३०।
भार्गव (भृगुगोत्रीय शुक्राचार्य) को छोड़कर कोई विरला ही नीतिविरुद्ध आचरण नहीं करता ।
रिक्तपाणिर्न पश्येत राजानं ब्राह्मणं स्त्रियम् । महाभारतम् - द्रोणपर्व - १७४।४३।
राजा, ब्राह्मण व स्त्री को खाली हाथ मिलने न जाये ।
नापत्रपेत प्रश्नेषु नाविभाव्यां गिरे सजेत । महाभारतम् - शान्तिपर्व - ९३।१०।
प्रश्नों के उत्तर देने में लज्जाये नहीं ।
यदन्येषां हितं न स्यादात्मनः कर्म पौरुषम् ।
अपत्रपेत वा येन न तत्कुर्यात्कथंचन ।। महाभारतम् - शान्तिपर्व - १२४।६७।
जिस प्रयत्न- पूर्वक किये अपने कर्म से दूसरों का हित न हो, अथवा जिस से स्वयं लजाये उसे कभी न करें ।
अरावप्युचितं कार्यमातिथ्यं गृहमागते ।
छेत्तुमप्यागते छायां नोपसंहरते द्रुमः ।। महाभारतम् - शान्तिपर्व - १८६।५।
घर पर आये हुए शत्रु का भी उचित अतिथि सत्कार करें । वृक्ष अपने को काटने के लिये आये हुए पुरुष से अपनी छाया नहीं हटाता ॥
नित्योच्छिष्टः संकुसको नेहायुविन्दते महत् । महाभारतम् - शान्तिपर्व - १९३।१३।
नित्य जूठन छोड़ने वाला, किसी एक स्थान में न ठहरने वाला लम्बी आयु को प्राप्त नहीं होता ।
प्रत्यादित्यं न मेहेत न पश्येदात्मनः शकृत् । महाभारतम् - शान्तिपर्व - १९३।२४।
सूर्य की ओर मुंह करके पेशाब न करें, अपनी विष्ठा को न देखे ।
त्वंकारं नामधेयं च ज्येष्ठानां परिवर्जयेत् । महाभारतम् - शान्तिपर्व - १९३।२५।
अपने से बड़ों को तू करके न पुकारे और उनका नाम न ले ।
कर्मातिरेकेण गुरावध्येतव्यं बुभूषता ।
दक्षिणोऽनपवादी स्यादाहूतो गुरुमाश्रयेत् ॥ महाभारतम् - शान्तिपर्व - २४२।१९।
बढ़ना चाहता हुआ शिष्य गुरु सेवा से बचे हुए समय में गुरु से पढ़े । मधुर भाषी अनिन्दक होकर गुरु से बुलाये जाने पर पढ़ने के लिए जाये ।
यदन्यविहितं नेच्छेदात्मनः कर्म पूरुषः ।
न तत् परेषु कुर्वीत जानन्नप्रियमात्मनः ॥ महाभारतम् - शान्तिपर्व - २५१।२०।
जिस व्यवहार को पुरुष चाहता है कि दूसरे उसके प्रति न करें, उसे अपने प्रति अप्रिय जानता हुआ दूसरों के प्रति च करे ।
अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरे पदे ।
अन्ये कलियुगे धर्मा यथाशक्ति कृता इव ।। महाभारतम् - शान्तिपर्व - २६०।८।
धर्मो आचारों का यथा शक्ति पालन होता रहता है कृत, त्रेता, द्वापर युगों में आचार बदलते रहते हैं । सर्व के लिये एक समान हितकारीको आचार नहीं होता ।
नापृष्टः कस्यचिद् ब्रूयान्न चान्यायेन पृच्छतः ।
जानन्नपि मेधावी जडवल्लोक आचरेत् ।। महाभारतम् - शान्तिपर्व - २८७।३५।
बिना पूछे किसी से न कहै, बेढ़गे तौर से पूछने पर भी उत्तर न दे । जानता हुआ भी बुद्धिमान् मूर्ख (अनजान) का सा व्यवहार करे ।
सन्ध्यायां न स्वपेद्राजन् विद्यां न च समाचरेत् ।
न भुञ्जीत च मेधावी तथायुविन्दते महत् ।। महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १०४।१९।
सन्ध्या-समय में न सोए और न विद्याभ्यास करे और नहीं भोजन करे ऐसा (निषिद्ध आचरण न करता हुआ) लम्बे जीवन को प्राप्त होता है ।
पन्था देयो ब्राह्मणाय गोभ्यो राजभ्य एव च ।
वृद्धाय भारतप्ताय गर्भिण्यै दुर्बलाय च ॥ महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १०४।२५।
ब्राह्मण को गौओ को, राजाओं को, बूढ़े को, बोझ से तपे हुए को, गर्भवती स्त्री को तथा दुर्बल (कमजोर) को मार्ग दे ॥
उदक् शिरा न स्वपेत तथा प्रत्यशिरा न च । महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १०४।४८।
उत्तर की ओर सिर करके न सोएं, तथा पश्चिम की ओर सिर करके न सोएं ।
ऊर्ध्वं प्राणा ह्युत्क्रामन्ति यूनः स्थविर आयति ।
प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान् प्रतिपद्यते ॥ महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १०४।६४।
वृद्ध के आते ही युवा पुरुष के प्राण (स्वभावतः) ऊपर की ओर उठते हैं । सत्कारार्थ (अपने आसन से) उठने से तथा नमस्कार करने से वे (प्राण) पहली स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं ।
न संहृताभ्यां पाणिभ्यां कण्डूयेज्जातु वै शिरः । महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १०४।६९।
दोनों हाथों से एक साथ सिर को न खुजलें ।
प्रत्यादित्यं प्रत्यवलं प्रति गां च प्रति द्विजान् ।
ये मेहन्ति च पन्थानं ते भवन्ति गतायुषः ॥ महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १०४।७५।
जो सूर्य, अग्नि, गौ, ब्राह्मण की ओर मुंह करके तथा रास्ते में पेशाब करते हैं उनकी आयु क्षीण हो जाती है ।
अर्चेद् देवानदम्मेन सेवेतामायया गुरून् ।
निधि निदध्यात् पारत्र्यं यात्रार्थं दानशब्दितम् ॥ महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १६२।६३।
देवताओं का बिना दिखावा किये पूजन करे, गुरुओं की छल-रहित होकर सेवा करे और परलोक के लिये दान नामक निधि को जोड़े ।
दुराचारो हि पुरुषो, लोके भवति निन्दितः ।
दुःखभागी च सततं, व्याधितोऽल्पायुरेव च ।। (मनुस्मृतिः - ४.१५७)
दुराचारी मनुष्य संसार में निन्दा को प्राप्त करता है, निरन्तर दुःख भोगता है, रुग्ण रहता है और अल्प आयु वाला होता है ।
ऐश्वर्यस्य विभूषणं सुजनता, धैर्यस्य वाक्संयमो, ज्ञानस्योपशमः श्रुतस्य विनयो, वित्तस्य पात्रे व्ययः ।
अक्रोधस्तपसः क्षमा प्रभवितुर्धर्मस्य निर्व्याजता, सर्वेषामपि सर्वकारणमिदं शीलं परं भूषणम् ।। (नीतिशतकम् -८३)
ऐश्वर्य का आभूषण सौजन्य है, धैर्य का आभूषण वाणी पर सयम, ज्ञान का आभूषण शान्ति, शास्त्रज्ञान का आभूषण नम्रता, धन का आभूषण सत्पात्र में दान, तपस्या का आभूषण क्रोध का अभाव, समर्थ का आभूषण क्षमा और धर्म का आभूषण निश्छलता है । किन्तु यह सदाचार तो सबका ही सब दृष्टि से परम आभूषण है ।
वरं तुङ्गाच्छृङ्गाद्, गुरुशिखरिणः क्वापि विषमे, पतित्वाऽयं कायः, कठिनदृषदन्ते विदलितः ।
वरं न्यस्तो हस्तः, फणिपतिमुखे तीव्रदशने, वरं वह्नी पातस्तदपि न कृतः शीलविलयः ।। (नीतिशतकम् -१२४)
किसी बड़े पर्वत के ऊँचे शिखर से किसी कठोर चट्टान पर गिरकर इस शरीर का टुकड़े-टुकड़े हो जाना अच्छा है, हमारे हाथ का किसी भयङ्कर सर्प के विषैले दांतों वाले मुख पर रखा जाना भी अच्छा है और अग्नि में गिर जाना भी अच्छा है, किन्तु सदाचार का लोप करना अच्छा नहीं है - सह्य नहीं है ।
न कुलं वृत्तहीनस्य, प्रमाणमिति मे मतिः ।
अन्तेष्वपि हि जातानां, वृत्तमेव विशिष्यते ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - -३४.४१)
सदाचार से हीन व्यक्ति का (ऊँचा) कुल भी प्रामाणिक नहीं है, ऐसा मेरा विचार है । नीच कुलों में उत्पन्न व्यक्तियों की भी सदाचार के कारण विशेषता होती है ।
जिता सभा वस्त्रवता, मिष्टाशा गोमता जिता ।
अध्वा जितो यानवता, सर्वं शीलवता जितम् ।।
उत्तम वस्त्र धारण किये हुए व्यक्ति के द्वारा सभा जीत ली जाती है, गौओं वाले व्यक्ति के द्वारा मीठे पदार्थ की इच्छा जीत ली जाती है और वाहन वाले मनुष्य के द्वारा मार्ग पर विजय पा ली जाती है, किन्तु सदाचारी के द्वारा तो सब कुछ जीत लिया जाता है ।
शीलं प्रधानं पुरुषे, तद् यस्येह प्रणश्यति ।
न तस्य जीवितेनार्थो, न धनेन न बन्धुभिः ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - -३४.४७,४८)
सदाचार ही मनुष्य में मुख्य गुण है । जिसका यह सदाचार नष्ट हो जाता है, उसके धनवान् होने से, बन्धु सम्पन्न होने से अथवा लम्बे जीवन से भी क्या लाभ है ?
कुलानि समुपेतानि, गोभिः पुरुषतोऽर्थतः ।
कुलसङ्ख्यां न गच्छन्ति, यानि हीनानि वृत्ततः ।।
वे कुल (परिवार) जो गौओं, अनेक मनुष्यों और धनों से सम्पन्न हों, किन्तु सदाचार से हीन हों, वे उत्तम कुलों की गणना में नहीं आते हैं ।
वृत्ततस्त्वविहीनानि, कुलान्यल्पधनान्यपि ।
कुलसङ्ख्यां च गच्छन्ति, कर्षन्ति च महद् यशः ।।
जो परिवार सदाचार से हीन नहीं हैं, वे कम धनवाले होते हुए भी उत्तम कुलों की गणना में आते हैं और महान् यश को अर्जित करते हैं ।
वृत्तं यत्नेन संरक्षेद्, वित्तमेति च याति च ।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो, वृत्ततस्तु हतो हतः ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - ३६.२८-३०)
सदाचार की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करे, धन तो आता और जाता है । जो धन से हीन है वह वास्तव में हीन नहीं है, किन्तु जो सदाचार से हीन है, उसे तो सर्वथा ही नष्ट भ्रष्ट समझना चाहिये ।
धर्मः सत्यं तथा वृत्तं, बलं लक्ष्मीस्तथैव च ।
शीलमूला महाप्राज्ञ, सदा नास्त्यत्र संशयः ।।
हे महाबुद्धिमान् ! धर्म, सत्य, सद्व्यवहार, बल और लक्ष्मी ये सब शील (सदाचार) पर आधारित हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।
यद्यप्यशीला नृपते, प्राप्नुवन्ति श्रियं क्वचित् ।
न भुञ्जते चिरं, तात, समूलाश्च न सन्ति ते ।। (महाभा.शा. १२४.६२,६९)
हे राजन् ! यद्यपि कहीं कहीं सदाचार-विहीन लोग भी सम्पत्ति प्राप्त कर लेते हैं, किन्तु वे देर तक उसका उचित उपभोग नहीं कर पाते और उनके जीवन का आधार भी स्थायी नहीं रहता ।
॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know