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अथ सुभाषितसंग्रहः ॥ ईश्वरः

 


॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

ईश्वरः

अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ।

ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा नरकमेव वा ।। महाभारतम् - वनपर्व - ३०।२८।

जीव अज्ञ (अबोध) है । सुख दु:ख इसके अधीन नहीं हैं ईश्वर की प्रेरणा से ही यह स्वर्ग अथवा नरक को प्राप्त होता है ।

 

उत बालाय पाण्डित्यं पण्डितायोत बालताम् ।

ददाति सर्वमीशानः पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरन् । महाभारतम् - उद्योगपर्व - ३१।२।

पूर्व-जन्म कृत कर्म को जगाता हुआ (फलोन्मुख करता हुआ) ईश्वर ही किसी मूर्ख को पण्डित बना दे और पण्डित को मूर्ख ॥

 

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्वेोऽर्जुन तिष्ठति ।

भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूनि मायया ॥ महाभारतम् - भीष्मपर्व - ४५।६१।

हे अर्जुन ! सब प्राणियों के हृदय में वर्तमान ईश्वर अपनी शक्ति से यन्त्र पर चढे हुए चक्र समान सबप्राणियो को घूमा रहा है ॥

 

ओ३म् य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः ।

यस्य च्छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ।। (ऋग्वेदसंहिता - १०.१२१.२)

    जो आत्मा को शरीर में स्थापित करने वाला और बल-प्रदाता है; जिसकी सब विद्वान् लोग उपासना करते हैं और जिसके अनुशासन को मानते हैं । जिसकी शरण ही मोक्ष है और जिसकी भक्ति न करना ही मृत्यु है; उस सुखस्वरूप दाता ईश्वर की हम प्रेम से भक्ति करें ।

 

येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढां येन स्वः स्तभितं येन नाकः ।

यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ।। (ऋग्वेदसंहिता - १०.१२१.५)

    जिसने उग्रस्वरूप वाले सूर्यादि को और भूमि को धारण किया है, जिसने सुख को और मोक्ष को व्यवस्थित किया है । जो आकाश में सब लोकों को विशिष्ट उचित दूरी पर नियमित करने वाला है, उस सुखस्वरूप दाता ईश्वर की हम प्रेम से भक्ति करें ।

 

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम् ।

कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ।। (यजुर्वेदसंहिता - ४०.८)

    वह ईश्वर सर्वव्यापक, शीघ्रकारी शक्तिमान्, शरीर-रहित, छिद्रादि-रहित, नसनाड़ी  आदि रहित, शुद्ध और निष्पाप है । वहे सर्वज्ञ, सब के मन का ज्ञाता, सर्वव्यापक और स्वयंसिद्ध है । वहीं अपनी सनातन प्रजा के लिये सभी पदार्थों की यथार्थरूप से रचना और व्यवस्था करता है ।

 

इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् ।

एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ।। (ऋग्वेदसंहिता -१.१६४.४६)

    उस एक अग्नि (अग्रणी ईश्वर) को ही ज्ञानी लोग अनेक नामों से पुकारते हैं । उसे ही इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, दिव्य, सुपर्ण, गरुत्मान्, यम और मातरिश्वा भी कहते हैं ।

 

सोऽर्थमा स वरुणः स रुद्रः स महादेवः ।

रश्मिभिर्नभ आभृतं महेन्द्र एत्यावृतः ।। (अथर्ववेदसंहिता - १३.४.४)

    वह सर्वोत्पादक ईश्वर ही अर्यमा, वरुण, रुद्र और महादेव है । वह महान् इन्द्र ईश्वर किरणों से परिपूर्ण इस आकाश को तथा ज्ञानरश्मियों से पूर्ण हृदयाकाश को सब ओर से व्याप्त करके इसको निरन्तर जानता है ।

 

प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि ।

रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम् ।। (मनुस्मृतिः -१२.१२२)

    उस परम पुरुष परमात्मा को सबका प्रशासक, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, प्रीतिदायक प्रकाशवाला और समाधि-प्रज्ञा से अनुभव करने योग्य समझना चाहिये ।

 

एतमेके वदन्त्यग्निं मनुमन्ये प्रजापतिम् ।

इन्द्रमेके परे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतम् ।। (मनुस्मृतिः -१२.१२३)

    उस परमात्मा को कोई अग्नि और मनु कहते हैं, दूसरे उसे प्रजापति कहते हैं तथा अन्य लोग उसे इन्द्र, प्राण और सनातन ब्रह्म भी कहते हैं ।

 

अनन्तनामधेयाय सर्वाकारविधायिने ।

समस्तमन्त्रवाच्याय विश्वैकपतये नमः ।।

    अनन्त नामधारी, जगत् के सब पदार्थों को आकृति प्रदान करने वाले और सम्पूर्ण मन्त्रों के मुख्य विषय, उस संसार के स्वामी ईश्वर को हमारा नमस्कार है ।

 

ओ३म् अहमिन्द्रो न पराजिग्य इद्धनं न मृत्यवेऽवतस्थे कदाचन ।

सोममिन्मा सुन्वन्तो याचता वसु न मे पूरवः सख्ये रिषाथन ।। (ऋग्वेदसंहिता - १०.४८.५)

    मैं ईश्वर ही ऐश्वर्यशाली (इन्द्र) हूँ । मैं अपने ऐश्वर्य को किसी अन्य से पराभूत नहीं होने देता हूँ । मैं कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता । हे मनुष्यो ! रचनात्मक कार्य करते हुए ही, मुझसे ऐश्वर्य मांगो । मेरी मित्रता में रहते हुए तुम कभी दुःखी नहीं होओगे ।

 

स्तविष्यामि त्वामहं विश्वस्यामृत भोजन ।

अग्ने त्रातारममृतं मियेध्य यजिष्ठं हव्यवाहन ।। (ऋग्वेदसंहिता - १.४४.५)

    हे सम्पूर्ण विश्व के अविनाशी, पालक, दुःखों के निवारक तथा हव्य पदार्थों के प्राप्त कराने वाले ज्ञानमय परमेश्वर ! मैं रक्षक, अमृतमय और सर्वदाता तुम्हारी सदा स्तुति करूंगा ।

 

नकिरिन्द्र त्वदुत्तरो न ज्यायाँ अस्ति वृत्रहन् ।

न किरेवा यथा त्वम् ।। (ऋग्वेदसंहिता - ४.३०.१)

    हे वृत्रों (दुर्गुणों और दुष्टों के) नाशक ईश्वर ! संसार में कोई भी न तो तुमसे बढ़कर है, न तुमसे बड़ा है और न तुम्हारे समान है ।

 

अभ्यूर्णोति यन्नग्नं भिषक्ति विश्वं यत्तुरम् ।

प्रेमन्धः ख्यन् निः श्रोणो भूत् ।। (ऋग्वेदसंहिता -८.७९.२)

    जो सोम (सर्वोत्पादक प्रेरक) ईश्वर नग्न को ढकता है और सम्पूर्ण रोगियों को स्वस्थ करता है, उसी की कृपा से अन्धा भी देखने लगता है और लंगड़ा भी चलने लगता है ।

 

वेनस्तत्पश्यन् निहितं गुहा सद् यत्र विश्वं भवत्येकनीडम् ।

तस्मिन्निदं सं च वि चैति सर्वं स ओतः प्रोतश्च विभूः प्रजासु ।। (यजुर्वेदसंहिता - ३२.८)

    जो ईश्वर सम्पूर्ण विश्व के लिये एक समान आश्रयस्थल है, बुद्धिरूपी गुफा में स्थित उस परमेश्वर को ज्ञानवान् ही साक्षात् अनुभव करता है । उसी ईश्वर में यह सूक्ष्म-स्थूल जगत् संयोग और वियोग को प्राप्त होता है । वह सर्वव्यापी ईश्वर समस्त जड़ चेतन प्रजाओं में ओतप्रोत है ।

 

एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते ।

दृश्यते त्वग्रयया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ।। (कठोपनिषद् -१.३.१२)

    यह सब पदार्थों में गुप्त रूप से स्थित परमात्मा स्थूल रूप में कभी प्रकाशित नहीं होता । यह तो सूक्ष्म ज्ञान वाले साधकों द्वारा, अत्युत्तम सूक्ष्म स्वगुणरूप बुद्धि के द्वारा ही साक्षात् अनुभव किया जाता है ।

 

एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति ।

तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ।। (कठोपनिषद् - २.२.१२)

    जो एक समान रूप वाली प्रकृति को अनेक रूपादिगुण वाले पदार्थों के रूप में परिवर्त्तित करता है वह ईश्वर एक है, सर्वजगत् को वश में रखने वाला है और सब पदार्थों में स्थित है । जो धीर लोग स्वात्मा में स्थित उस ईश्वर का साक्षात्कार करते हैं, उन्हीं को सनातन सुख मिलता है, अन्यों को नहीं ।

न सन्दृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् ।

हृदा हृदिस्थं मनसा य एनमेवं विदुरमृतास्ते भवन्ति ।। (श्वेताश्वतरोपनिषद् - ४.२०)

    ईश्वर का स्वरूप चर्मचक्षुओं के दर्शन में कभी नहीं आता, क्योंकि ईश्वर को कोई भी इन बाह्य चक्षुओं के द्वारा नहीं देख सकता । जो लोग हृदय में स्थित इस ईश्वर को शुद्ध स्वगुण रूप अन्तःकरण से साक्षात् करते हैं, वे अमर हो जाते हैं ।

 

सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे सर्पिरिवार्पितम् ।

आत्मविद्यातपोमूलं तद् ब्रह्मोपनिषत् परम् ।। (श्वेताश्वतरोपनिषद् -१.१६)

    जैसे दूध में घृत व्यापक होता है उसी प्रकार परमात्मा को जगत् में व्यापक समझना चाहिये । उसकी प्राप्ति आत्मविद्या और तपस्या से सुलभ है । वह ईश्वर महान्, सर्वान्तर्यामी और सर्वोत्कृष्ट है ।

 

सापेक्षत्वादनादित्वाद् वैचित्र्याद् विश्ववृत्तितः ।

प्रत्यात्मनियमाद् भुक्तेरस्ति हेतुरलौकिकः ।। (न्यायकुसुमाञ्जलिः - १.४)

    कार्य के सापेक्ष होने से, कार्यकारण व्यवस्था के अनादि होने से, जल आदि कार्यों के विचित्र रूप वाले होने से, लोगों की शुभकर्मों में प्रवृत्ति होने से और सुख-दुःख रूप भोगों के प्रत्येक प्राणी में अलग अलग व्यवस्थित होने से, निश्चित है कि इन सबका नियामक कोई अदृष्ट हेतु है और वह ईश्वर है ।

 

प्रमायाः परतन्त्रत्वात् सर्गप्रलयसम्भवात् ।

तदन्यस्मिन्नविश्वासान्न विधान्तरसम्भवः ।। (न्यायकुसुमाञ्जलिः -२.१)

    प्रमा (ज्ञान) के पराधीन (वक्ता के अधीन) होने से, सृष्टि के प्रलय होने से और ज्ञानियों के उस सर्वज्ञ ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य में विश्वास न होने से; शुभकर्मों के अनुष्ठान तथा सुखादि के लिये ईश्वर को मानने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग सम्भव नहीं है ।

 

कार्यायोजनधृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः ।

वाक्यात् सङ्ख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्ययः ।। (न्यायकुसुमाञ्जलिः -५.१)

    कार्य पदार्थों के देखने से, आयोजन (व्यवस्थादि कर्म) से, लोकों के धारण करने से, पदव्यवहार से, प्रामाण्य से अर्थात् वेदरूप प्रामाण्य का कोई कर्त्ता (वक्ता) होना चाहिये इस हेतु से, वेद की साक्षी होने से, वेदवाक्यों का रचयिता होने से और दूयणुकादि की सङ्ख्या का प्रयोजक होने से इन आठ हेतुओं से वह सर्वज्ञ कूटस्थ ईश्वर सिद्ध होता है ।

 

स्वाध्यायाद् योगमासीत योगात् स्वाध्यायमामनेत् ।

स्वाध्याययोगसम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते ।। (योगदर्शनम् -व्यासभाष्यम् १.२८)

    स्वाध्याय से योग को सिद्ध करे और योग से स्वाध्याय का अभ्यास करे । इस प्रकार स्वाध्याय और योग रूपी सम्पत्ति से परमात्मा का साक्षात्कार होता है ।

 

कारं कारमलौकिकाद्भुतमयं मायावशात् संहरन्, हारं हारमपीन्द्रजालमिव यः कुर्वन् जगत् क्रीडति ।

तं देवं निरवग्रहस्फुरदभि ध्यानानुभावं भुवं, विश्वासैकभुवं शिवं प्रतिनमन् भूयासमन्तेष्वपि ।। (न्यायकुसुमाञ्जलिः -२.४)

    जो ईश्वर अपनी माया (विचित्र ज्ञानलीला) से इस अलौकिक और अद्भुत पदार्थों से युक्त जगत् को जादू के समान बारम्बार बना बनाकर बिगाड़ता हुआ और बिगाड़ - बिगाड़कर बनाता हुआ मानो क्रीड़ा करता है । जिसके ईक्षण का प्रभाव यथार्थ रूप से प्रकट हो रहा है उस आकार-रहित, केवल ध्यानगम्य, श्रद्धेय और विश्वसनीय, कल्याणकारी, जगदुत्पादक परमात्मा को मैं प्राणान्तकाल में भी नमस्कार करता रहूँ ।

 

प्रत्यक्षादिभिरेभिरेवमधरो दूरे विरो धोदयः, प्रायो यन्मुखवीक्षणैकविधुरैरात्माऽपि नासाद्यते ।

तं सर्वानुविधेयमेकमसमस्वच्छन्द-लीलोत्सवं, देवानामपि देवमुद्भवदतिश्रद्धाः प्रपद्यामहे ।। (न्यायकुसुमाञ्जलिः -३.२३)

    प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के साथ ही पराजित हुए ईश्वर-विरोध के उदित होने की बात तो दूर, जिस ईश्वर की सत्ता को स्वीकारे बिना प्रत्यक्ष आदि प्रमाण अपनी सत्ता को भी नहीं बचा सकते, उस समस्त विश्व के वशीकर्ता, अद्वितीय, सृष्टि-रचना आदि कर्म जिसकी स्वाभाविक लीलाएँ हैं और जो देवों का भी देव है, उस परमात्मा को हम अत्यन्त श्रद्धा के साथ प्राप्त करते हैं । 

 

यस्माद् विश्वमुदेति यत्र रमते, यस्मिन् पुनर्लीयते, भासा यस्य जगद् विभाति सहजानन्दोज्ज्वलं यन्महः ।

शान्तं शाश्वतमस्पृहं यमपुनर्भावाय भूतेश्वरं, द्वैतध्वान्तमपास्य यान्ति कृतिनः प्रस्तौमि तं पूरुषम् ।। (प्रबोधचन्द्रोदयम् (नाटकम्) - ६.१४)

    जिससे (जिसके निमित्त से) इस विश्व की उत्पत्ति होती है, जिसमें यह विश्व स्थित रहता है और (प्रलयावस्था में) फिर जिसमें लीन हो जाता है; जिसके प्रकाश से सारा जगत् प्रकाशित हो रहा है और जिसका तेज स्वाभाविक आनन्द से सन्दीप्त है । जो शान्त, सनातन तथा कामना रहित है और पुण्य कर्मों वाले लोग मुक्ति के लिये अनेकेश्वरवाद रूपी अन्धकार को दूर करके प्राणिमात्र के प्रशासक जिस ईश्वर को प्राप्त करते हैं, उस परम पुरुष ईश्वर की मैं विशेष स्तुति करता हूँ ।

 

शान्तं शुद्धं पुराणं, त्रिभुवन-भवनं, भावि भूतं भवच्च, नित्यं बुद्धं प्रभूतं, सकलमतवरं, भव्यमेकं प्रसिद्धम् ।

पूर्ण विष्वक्प्रकाशं, शरणमनुपमं, ब्रह्म यन्निर्विकारं, रुद्रं सन्तुष्टमद्धा, करणविषयता-शून्यमुद्भाति शश्वत् ।।

    जो ब्रह्म (सर्वमहान् ईश्वर) शान्त, शुद्ध, प्राचीन, तीनों लोकों का रचयिता, भविष्यत्-भूत-वर्त्तमान में सदा रहने वाला, नित्य, ज्ञानवान्, अतिविस्तृत, समस्त ज्ञानियों द्वारा अभिमत, भव्य, एकमात्र, प्रसिद्ध, परिपूर्ण, सर्वत्र ज्योति वाला, अद्वितीय आश्रय, विकाररहित, दुष्टों को रुलाने वाला, स्वतः सदा सन्तुष्ट, इन्द्रियों के विषयोंसे रहित और सनातन है, वह ईश्वर सदा प्रकाशित रहता है ।

 

केचिद् वदन्ति धनहीनजनो जघन्यः, केचिद् वदन्ति गुणहीन-जनो जघन्यः ।

व्यासो वदत्यखिलशास्त्रविदां वरेण्यो, नारायण-स्मरणहीन-जनो जघन्यः ।।

    कुछ लोग कहते हैं कि धनविहीन व्यक्ति नीच है और कुछ कहते हैं कि गुणहीन जन नीच है । किन्तु समस्त शास्त्रज्ञों से श्रेष्ठ व्यासजी कहते हैं, कि जो मनुष्य ईश्वर का स्मरण नहीं करता वही नीच है ।

 

नमस्ते सते ते जगत्कारणाय, नमस्ते चिते सर्वलोकाश्रयाय ।

नमोऽद्वैततत्त्वाय मुक्तिप्रदाय, नमो ब्रह्मणे व्यापिने शाश्वताय ।।

    हे जगत् के निमित्त कारण ईश्वर ! तुम्हें हमारा नमस्कार है । चेतन स्वरूप, सब लोकों के आधार रूप तुम्हारे लिये हमारा नमन है । एकमात्र परमतत्त्व और मुक्तिप्रदाता, सर्वव्यापक और सनातन तुझ ब्रह्म के लिये हमारा नमस्कार है ।

त्वमेकं शरण्यं त्वमेकं वरेण्यं, त्वमेकं जगत्कारणं विश्वरूपम् ।

त्वमेकं जगत्कर्तृपातृप्रहर्तृ, त्वमेकं परं निश्चलं निर्विकल्पम् ।।

    हे ईश्वर ! तुम ही एकमात्र शरणस्थल हो, तुम ही एकमात्र श्रेष्ठतम हो, तुम ही इस विश्व के निमित्त कारण और सब पदार्थों के रूप-प्रदाता हो । तुम ही एकमात्र जगत् के रचयिता, पालक और प्रलयकर्त्ता हो, तुम ही परम शान्त-स्वरूप और निर्धान्त ज्ञान वाले हो ।

 

भयानां भयं भीषणं भीषणानां, गतिः प्राणिनां पावनं पावनानाम् ।

महोच्चैः पदानां नियन्तृ त्वमेकं, परेषां परं रक्षकं रक्षकाणाम् ।।

    हे ईश्वर ! तुम पापियों के लिये परम भयदाता, और दुष्टों के लिये परम भीषण हो । तुम ही प्राणियों की अन्तिम गति हो और परम पावन हो । महान् प्रतिष्ठा वालों के भी तुम ही नियन्त्रक हो, श्रेष्ठों में भी परम श्रेष्ठ और रक्षकों में परमरक्षक हो ।

 

वयं त्वां स्मरामो वयं त्वां भजामो, वयं त्वां जगत्साक्षिरूपं नमामः ।

सदेकं निधानं निरालम्बमीशं, भवाम्भाधिपोतं शरण्यं व्रजामः ।।

    हे ईश्वर ! हम तुम्हें स्मरण करते हैं, तुम्हारी भक्ति करते हैं और जगत् के साक्षी तुम्हारे प्रति नमन करते हैं । परम सत्ता वाले, एकमात्र, सबके आश्रय, पर स्वयं आश्रय रहित, सबके प्रशासक, भवसागर में नौकास्वरूप और शरण देने वाले तुमको हम प्राप्त करते हैं ।

 

दिक्कालाद्यनवच्छिन्नानन्तचिन्मात्रमूर्त्तये ।

स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे ।। (नीतिशतकमम् -१)

    दिशाकाल आदि की सीमाओं से परे वर्तमान, अनन्त स्वरूप, मात्र चेतन तत्त्व, और साधकों की स्वानुभूति ही जिसकी सत्ता का उत्तम प्रमाण है, उस शान्त तेज:स्वरूप परमात्मा को हमारा नमस्कार है ।

 

इत्येवं श्रुतिनीतिसम्प्लवजलैर्, भूयोभिराक्षालिते, येषां नास्पदमादधासि हृदये, ते शैलसाराशयाः ।

किन्तु प्रस्तुतविप्रतीपविधयो ऽप्युच्चैर्भवच्चिन्तकाः, काले कारुणिक ! त्वया हि कृपया, ते तारणीया नराः ।।

    इस प्रकार वेद और न्याय (तर्क) रूपी पुष्कल जल से धो दिये जाने पर भी (वेद - वचनों और तर्कों से शङ्काओं के निरस्त कर देने पर भी जिनके हृदय में, हे परमेश्वर ! आप प्रतिष्ठित नहीं हो पाते हो, वे निश्चय ही पाषाण-हृदय हैं । किन्तु ऐसे विपरीत विचारों वाले (नास्तिक) जनों को भी हे करुणा-निधान ईश्वर ! अवसर आने पर आप उन्हें अवश्य तार देना, क्योंकि (विपरीत रूप से ही सही) वे आपका चिन्तन तो करते हैं ।

 

अस्माकं तु निसर्गसुन्दर ! चिराच्, चेतो निमग्नं त्वयी - त्यद्धाऽऽनन्दनिधौ तथाऽपि तरलं, नाद्यापि सन्तृप्यते ।

तन्नाथ ! त्वरितं विधेहि करुणां येन त्वदेकाग्रतां, याते चेतसि नाप्नुयाम शतशो, याम्याः पुनर्यातनाः ।। (न्यायकुसुमाञ्जलिः -५.१७-१८)

    हे सहज सौन्दर्य से परिपूर्ण प्रभो ! हम भक्तों का चित्त तो बहुत समय से आनन्द - सरोवर आप में ही निमग्न है, किन्तु अपनी चपलता के कारण वह अभी पूरा तृप्त नहीं हुआ है । तो हे नाथ ! शीघ्र ही आप ऐसी दया कीजिये कि, हमारा चित्त आपके ही ध्यान में पूर्णरूप से तल्लीन हो जाये, जिससे हम बार-बार (यमयातनाएँ) जन्म मरण के दुःखों को न भोगें ।

 

सर्वात्मा सच्चिदानन्दो, विश्वादिर्विश्वकृट् विभुः ।

भूयात्तमां सहायो नः, सर्वेशो न्यायकृच्छुचिः ।। (संस्कारविधिः - १)

    वह सबका अन्तर्यामी, सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप, इस सृष्टि से भी पूर्व वर्तमान, संसार का रचयिता, सर्वव्यापक, सबका शासक, न्यायकारी और शुद्ध परमेश्वर हमारा सदा सहायक हो ।

 

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