॥ वेद ॥
ईशा वास्यमिद सर्वं यत्किं च जगत्यां जगत्.
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम् .. (१)
इस जड़चेतन जगत् में जो कुछ भी है, वह ईश्वर की कृपा से है. उस ईश्वर के द्वारा त्यागे गए का भोग कीजिए. बहुत ज्यादा लालच मत करो. यह धनादि सब किसका है ? ( अर्थात् ईश्वर के अलावा किसी का नहीं ). ( १ )
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः.
एवं त्वयि नान्यथेोस्ति न कर्म लिप्यते नरे.. (२)
हे ईश्वर! हम कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करें. इस के अलावा कल्याण का कोई अन्य मार्ग नहीं है, कर्म मनुष्य को लिप्त नहीं करते. (२)
असुर्या नाम ते लोका ऽ अन्धेन तमसावृताः.
ताँस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः.. (३)
जो गहन अंधकार से घिरे रहते हैं, वे लोग असूर्य कहलाते हैं. जो आत्मा का हनन करने वाले हैं, वे लोग प्रेत रूप में वैसे ही लोकों को प्राप्त होते हैं. (३)
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा ऽ आप्नुवन् पूर्वमर्शत्.
तद्भावतोन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति.. (४)
अजन्मा ईश्वर एक है. वह मन से भी ज्यादा गतिवान और फुरतीला है. देवगण भी इसे प्राप्त नहीं कर पाते हैं. स्थिर रह कर भी वह दौड़ता हुआ गतिशीलों को पछाड़ देता है. वह जल में रहता है. वायु को धारण करता है. ( ४ )
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके.
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः.. (५)
वह (परम तत्त्व ) गतिशील है और स्थिर भी है. वह दूर भी है और निकट भी है वह जड़ और चेतन दोनों के भीतर भी है और बाहर भी है. (५)
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेवानुपश्यति.
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न वि चिकित्सति.. (६)
जो सभी प्राणियों (जड़चेतन) में अपने को (आत्मतत्त्व को ) देखता है तथा उस का अनुभव करता है, उसे कभी भी कोई भ्रम नहीं होता. (६)
यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः.
तत्र को मोहः कः शोक ऽ एकत्वमनुपश्यतः.. (७)
जिस (स्थिति) में मनुष्य यह जान लेता है कि सभी भूतों में एक ही आत्मतत्त्व है, तब क्या मोह ? क्या शोक ? उसे सर्वत्र एक जैसी स्थिति दिखाई देती है. (७)
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरथं शुद्धमपापविद्धम्.
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः.. (८)
वह परमपिता सर्वव्यापक, चमकीला, (दीप्तिमान), काया रहित, नाड़ियों से रहित है. वह घावों से रहित, पवित्र, पाप रहित, विद्वान्, मननशील, सर्वव्यापक व स्वयंभू (स्वयं उत्पन्न होने वाला) है. उस ने सृष्टि के आरंभ से ही सब के लिए यथायोग्य साधन सुविधाओं की व्यवस्था की है. ( ८ )
अन्धं तमः प्रविशन्ति ये संभूतिमुपासते.
ततो भूय इव ते तमो य ऽ उ सम्भूत्या रता:.. (९)
जो व्यक्ति विनाश की उपासना करते हैं, वे घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं. जो संभूति (सृजन) के उपासक हैं, वे भी वैसे ही अंधकार में प्रवेश करते हैं. (९)
अन्य देवाहुः सम्भवादन्यदाहुरसम्भवात्.
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे.. (१०)
अन्य देवों ने संभव से असंभव के बारे में विशेष रूप से कहा है. हम ने उन धीर पुरुषों से जाना है कि संभव से असंभव का प्रभाव उस से अलग है. (१०)
सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयसह.
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुते.. (११)
सृजन और विनाश इन दोनों को साथसाथ ही समझिए. विनाश से मृत्यु तैरकर और सृजन से अमृत की प्राप्ति की जाती है. ( ११ )
अन्धं तमः प्र विशन्ति येविद्यामुपासते.
ततो भूय इव ते तमो यऽ उ विद्याया ९ रताः.. (१२)
जो अज्ञान की उपासना करते हैं, वे गहरे अंधकार में प्रवेश करते हैं. जो ज्ञान की उपासना करते हैं, वे भी फिर वैसे ही गहरे अंधकार में प्रवेश करते हैं. (१२)
अन्य देवाहुर्विद्याया अन्यदाहुरविद्यायाः.
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे.. (१३)
हम ने धीर पुरुषों से विशेष रूप से जाना है कि विद्या का प्रभाव कुछ और होता है. अविद्या का प्रभाव कुछ और होता है. (१३)
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभय सह.
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते .. (१४)
विद्या और अविद्या दोनों को ही साथसाथ समझिए. अविद्या से मृत्यु को पार किया जाता है. विद्या से अमृत तत्त्व को पाया जाता है. (१४)
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त शरीरम्.
ओ३म् क्रतो स्मर. क्लिबे स्मर.
कृतस्मर.. (१५)
यह शरीर वायु, अमृत आदि से बना हुआ है. शरीर नाशवान है. हे यजमान ! आप ओम् तथा अपनी क्षमता और किए गए कर्मों का स्मरण करो. (१५)
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्. युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नमऽ उक्तिं विधेम.. (१६)
हे अग्नि ! आप हमें श्रेष्ठ मार्ग पर ले जाइए. आप हमें ऐसे ही मार्ग से धन दिलाइए. हे विश्व ! आप विद्वान् हैं. हम बारबार आप को नमन करते हैं. हम बारबार आप से अनुरोध करते हैं. आप हमें पापों से बचाने की कृपा करें. (१६)
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्.
योसावादित्ये पुरुषः सोसावहम्.
ॐ खं बह्म.. (१७)
सत्य का मुंह स्वर्णमय पात्र से ढका हुआ है. वह जो आदित्य पुरुष है, आकाश में ओम् रूप में ब्रह्म ही व्याप्त है. ( १७ )
॥ वेद ॥
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