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वैदिक विचार धरा और विवेचना

ज्ञान विज्ञानं ब्रहमज्ञान 
आज का युग विज्ञान का युग है। विज्ञान ने मनुष्य का जीवन जहां आसान व सुविधाओं से पूर्ण बनाया है वहां अनेक समस्यायें एवं सामाजिक विषमतायें आदि भी उत्पन्न हुई हैं। विज्ञान व ज्ञान से युक्त मनुष्यों से अपेक्षा की जाती है कि वह जिस बात को जितना जाने उतना कहें और जहां उनकी पहुंच न हो तो उस पर मौन रहें। परन्तु हम देखते हैं कि सृष्टि का कर्त्ता ईश्वर और जीवात्मा के विषय में आधुनिक विज्ञान आज भी भ्रम की स्थिति में है। इन दोनों सत्ताओं ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व का सत्य ज्ञान व विज्ञान वैज्ञानिकों के पास नहीं है। बहुत से वैज्ञानिक ऐसे हैं जो ईश्वर व आत्मा की स्वतन्त्र, पृथक, अनादि व अमर सत्ता में विश्वास ही नहीं रखते। बहुत से वैज्ञानिक नहीं किन्तु कथाकथित बुद्धिजीवी ऐसे भी हैं जिनका अध्यात्म व विज्ञान से कोई वास्ता नहीं रहा है, वेद व वैदिक साहित्य उन्होंने देखा व पढ़ा ही नहीं, फिर भी वह अपने मिथ्याविश्वास, अविवेक व दम्भ के कारण ईश्वर व जीवात्मा को नहीं मानते। इसके विपरीत भारत और विश्व में भी बहुत से वैज्ञानिक ऐसे मिल जायेंगे जो अपने अपने मत-पन्थ-सम्प्रदाय के ईश्वर व जीवात्मा संबंधी विश्वासों, जो अधिकांशतः अन्धविश्वास की श्रेणी में हो सकते हैं, को मानते हैं और विज्ञान को भी। हम समझते हैं कि वर्तमान इक्कीसवीं शताब्दी में विज्ञान व वैज्ञानिकों को एक बार पुनः ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व के बारे में व्यापक रूप से पुनर्विचार कर निश्चित करना चाहिये कि क्या यह दोनों पदार्थ व सत्तायें वस्तुतः हैं भी या नहीं और क्या यह दोनों सत्तायें विज्ञान की सीमा में आती भी हैं या नहीं। ऐसा करने से पूर्व उन्हें वैदिक विचारधारा का भी व्यापक अध्ययन कर लेना चाहिये जिससे ईश्वर व जीवात्मा के विषयक में नया यथार्थ वैज्ञानिक दृष्टिकोण बनाने में उन्हें सहायता मिलेगी।

आईये, मनुष्य जीवन की चर्चा करते हैं। मनुष्य जीवन में एक चेतन अविनाशी तत्व जीवात्मा होता है और दूसरा जीवात्मा का भौतिक शरीर होता है। भौतिक शरीर प्राकृतिक पदार्थों से बना वा अन्नमय होने के कारण आंखों से दिखाई देता है। अतः इसके अस्तित्व में किसी को किंचित भी शंका नहीं होती। व्यवहार में भी सभी कहते हैं कि यह मेरा सिर है, मेरे पैर, मेरी भुजा, मेरा शरीर है, आदि आदि। न केवल हिन्दी भाषा में ऐसा प्रयोग होता है अपितु अंग्रेजी में भी यही कहेंगे कि दीज आर माई आईज, दीज आर माई हैण्ड्स, इट्स माई नैक आदि। अन्य भाषाओं में भी ऐसा ही प्रयोग होना सम्भव है। यह कोई नहीं कहता कि यह हाथ मेरे शरीर के नहीं मेरी जीवात्मा के अंग हैं तथा इनके बिना मैं व मेरी आत्मा अधूरी व अपूर्ण है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि मैं, अर्थात् जीवात्मा, कुछ और है और यह जो मेरे नाम से सम्बोधित किये जाते हैं वह मुझसे भिन्न हैं परन्तु यह सभी मेरे अपने हैं जिस प्रकार से मेरी पुस्तक, मेरा घर, मेरे गुरूजी, माता व पिता आदि होते हैं। वैज्ञानिक भी बोल चाल व लेखन में इसी प्रकार का प्रयोग करते हैं। इससे तो यही सिद्ध होता है कि शरीर व मैं अलग अलग हैं। जब कहीं किसी की मृत्यु होती है तो कहते हैं कि अमुक व्यक्ति नहीं रहा, मर गया, चल बसा। नहीं रहा का अर्थ है कुछ समय पूर्व तक शरीर में था परन्तु अब शरीर में नहीं रहा अथवा है। इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता की उस व्यक्ति का अस्तित्व भी पूरी तरह से समाप्त हो गया है अर्थात् उसका पूर्ण अभाव हो गया है। मर गया भी यह बताता है कि कोई व्यक्ति अब जीवित नहीं है, मर गया है, मरने से पहलेे वह जीवित था। मृत्यु होने से वह व्यक्ति शरीर में से कहीं चला गया है, इसलिए कहते हैं कि मर गया। यही स्थिति चल बसा शब्दों की भी है। चल गति को बता रहा है और बसा शरीर की क्रियाशून्यता को कि यह नहीं गया यह बसा अर्थात् यहीं है। ऐसे अनेक उदाहरण लिये जा सकते हैं जिससे शरीर में शरीर से पृथक एक चेतन तत्व के होने के संकेत मिलते है।

हम जिस सृष्टि या संसार में रहते हैं उसको बने व चलते हुए 1 अरब 96 करोड़ से अधिक वर्ष हो गये हैं। इस अवधि में मनुष्यों की लगभग 78 हजार पीढि़यां बीत गई हैं अर्थात् हमारे माता-पिता, उनके माता-पिता, फिर उनके और फिर उनके माता-पिता, इस प्रकार पीछे चलते जाये तो लगभग 78 हजार पूर्वज व उनके संबंधी बीत चुके हैं अर्थात् वह जन्में और मर गये। हमारे इन पूर्वजों ने अपनी बुद्धि, ज्ञान व अनुभव से अपने जीवन काल में आध्यात्मिक क्षेत्र में भी अनुसंधान कार्य किये और वैज्ञानिकों की तरह से अनेक शास्त्रों व ग्रन्थों की रचना की। मध्यकाल व उसके बाद विधर्मियों ने नालन्दा व तक्षशिला सहित अन्य अनेक हमारे बड़े बड़े पुस्तकालयों को अग्नि को समर्पित कर ज्ञान व विज्ञान की भारी हानि की। इस दुर्भाग्य में भी कुछ सौभाग्य शेष रहा और वह है कि वेद, दर्शन, उपनिषदें, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत, आयुर्वेद आदि अनेक ग्रन्थ जिनमें ईश्वर व जीवात्मा का हमारे पूर्वजों द्वारा अनुभूत ज्ञान भरा पड़ा है, सुरक्षित रहे। वह ज्ञान क्या कहता है, यह हमें देखना चाहिये। वस्तुतः महर्षि दयानन्द ने इन सभी ग्रन्थों को देखा, पढ़ा व समझा तथा इन ग्रन्थों की विज्ञान व ज्ञान तथा सांसारिक परिवेश एवं ऊहापोह कर इनकी परस्पर संगति लगाई और वेद, 6 दर्शन, 11 उपनिषद, प्रक्षेप रहित मनुस्मृति तथा अन्य अनेक ग्रन्थों की मान्यताओं को सत्य पाया। यह सभी ग्रन्थ एक स्वर से घोषणा करते हैं कि संसार में ईश्वर, जीव व प्रकृति अनादि, नित्य व अमर हैं।

इस संदर्भ में एक तथ्य यह भी है कि वैज्ञानिकों की दृष्टि में वेद वर्णित ईश्वर का वह स्वरूप स्पष्ट व सर्वांगपूर्ण रूप में सामने नहीं आया जिसका चित्रण दर्शनों, उपनिषदों व महर्षि दयानन्द के अनेक ग्रन्थों में हुआ है। इसके लिए वैज्ञानिकों ने न तो प्रयास किया और न इन मान्यताओं व विचारधारा के मानने वाले विद्वान उच्च व वरिष्ठ वैज्ञानिकों तक पहुंच सके। इस कारण ईश्वर का वेदवर्णित स्वरूप वैज्ञानिकों के सम्मुख नहीं आ सका। हमें लगता है कि संसार के प्रमुख वैज्ञानिकों के सम्मुख ईश्वर का जो स्वरूप आया, वह पूर्ण व आंशिक रूप से ईसाई मत की पुस्तक बाइबिल व संसार में प्रचलित अन्य मत-मतान्तरों में वर्णित ईश्वर के स्वरूप थे। यह स्वाभाविक है कि यदि कोई बाइबिल व अन्य मतों में वर्णित ईश्वर के स्वरूप पर विचार करे तो वह एकदेशी, अल्प ज्ञान व शक्तिवाला, मनुष्य शरीर के कुछ कुछ समान आदि है एवं इन मतों में वह सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वान्तर्यामी नहीं है। अतः यदि वैज्ञानिकों ने इस स्वरूप के आधार पर कहा कि ईश्वर नाम की सत्ता नहीं है, तो इसमें हमें कोई आश्चर्य नहीं होता। वह एक प्रकार से ठीक ही है। दूसरा कारण यह भी है कि ईश्वर अतिसूक्ष्म होने के कारण आंखों से दृष्टिगोचर नहीं होता। वैज्ञानिक स्थूल प्रकृति व कार्यसृष्टि के पदार्थों का अध्ययन कर अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं। प्रकृति संबंधी उनके निष्कर्ष प्रायः सत्य ही होते हैं व कुछ में समय के साथ साथ सुधार होता रहता है। वैज्ञानिकों के इन कार्यों से मानव जाति का अकथनीय उपकार भी हुआ है। परन्तु यथार्थ ईश्वर सृष्टि व पंचभूतों के समान कोई पदार्थ न होकर इनसे सर्वथा पृथक एक सर्वातिसूक्ष्म चेतन, सर्वव्यापक, निराकार, सर्वज्ञ, ज्ञान व विज्ञान से पूर्ण एवं संसार को रचने, पालन करने वाली सर्वशक्तिमान सत्ता है। इस ईश्वर की सत्ता को अन्य प्राकृतिक वा भौतिक पदार्थों की तरह परीक्षण कर प्रयोगशाला में जाना व सिद्ध नहीं किया जा सकता। यह भी कहा जा सकता है कि ईश्वर को भौतिक विज्ञान के तौर तरीकों से जाना व सिद्ध नहीं किया जा सकता अपितु यह पूरा का पूरा विषय योग विधि से शरीर में हृदय के भीतर स्थित जीवात्मा में ईश्वर के गुणों व उपकारों का वर्णन सहित ध्यान करने पर साक्षात व प्रत्यक्ष होता है। इसके लिए ध्यान करने वाले मनुष्य का भोजन व आचरण का शुद्ध व पवित्र होना भी आवश्यक है। वैज्ञानिकों को यदि ईश्वर को जानना है तो उन्हें इसी प्रक्रिया से गुजरना होगा अन्यथा उनके वा अन्य किसी के हाथ कुछ नहीं लगेगा।  इसका अर्थ यह हुआ कि संसार में जिस किसी को भी ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानने की इच्छा हो उसको वेद और वैदिक साहित्य के साथ महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों की सहायता लेनी होगी। यदि वह ऐसा करेंगे तो उनका ईश्वर जानने व प्राप्ति का रास्ता सरल हो जायेगा।

अब वेदादि शास्त्र वर्णित ईश्वर के स्वरूप पर एक दृष्टि डालकर उसे जान लेते हैं। ईश्वर कैसा है, कहां है क्या करता, उसकी उत्पत्ति कब व कैसे हुई, उसने यह संसार क्यों बनाया आदि अनेक प्रश्नों का उत्तर वैदिक साहित्य में उपलब्ध है। वैदिक साहित्य के अनुसार ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और स्वरूप सब सत्य ही हैं। वह केवल चेतन मात्र वस्तु है। वह अद्वितीय, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वत्र व्यापक, अनादि और अनन्त आदि सत्य गुणों वाला है। उसका स्वभाव अविनाशी, ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध न्यायकारी, दयालु और अजन्मा आदि है। उसका कर्म जगत् की उत्पत्ति और विनाश करना तथा सब जीवों को पाप-पुण्यों के फल ठीक ठीक पहुंचाना है। ऐसे गुण-कर्म-स्वभाव और स्वरूप वाला पदार्थ ही ईश्वर है। यह भौतिक पदार्थों की भांति विज्ञान की प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं किया जा सकता अपितु इसका अध्ययन, सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय, विचार, चिन्तन, ध्यान व उपासना आदि के करने से हृदय में इसका प्रत्यक्ष व साक्षात ज्ञान होता है। ईश्वर के बारे में कुछ और भी जान लेते हैं। ईश्वर के बिना न विद्या और न ही सुख की प्राप्ति हो सकती है। ईश्वर विद्वानों का संग, योगाभ्यास और धर्माचरण के द्वारा प्राप्त होता है। ऐसे ईश्वर की ही सब मनुष्यों को उपासना करनी चाहिये। यह उनका मुख्य कर्तव्य भी है कि वह सत्-चित्-आनन्दस्वरूप, नित्य ज्ञानी, नित्यमुक्त, अजन्मा, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, कृपालु, सब जगत् के जनक और धारण करनेहारे परमात्मा की ही सदा प्रातः व सायं उपासना करें कि जिससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जो मनुष्य देहरूप वृक्ष के चार फल हैं वे उसकी भक्ति और कृपा से सर्वदा सब मनुष्यों को प्राप्त हुआ करें। इस संसार को बनाने व संचालित करने वाला ईश्वर सब समर्थों में समर्थ, सच्चिदानन्दस्वरूप, नित्यशुद्ध, नित्यबुद्ध, नित्यमुक्त स्वभाववाला, कृपा सागर, ठीक-ठीक वा सत्य न्याय का करनेवाला, जन्म-मरण आदि क्लेश रहित, निराकार, सबके घट-घट का जाननेहारा, सबका धत्र्ता, पिता, उत्पादक, अन्नादि से विश्व का पालन-पोषण करनेहारा, सकल ऐश्वर्ययुक्त, जगत् का निर्माता, शुद्धस्वरूप और जो प्राप्ति की कामना करने योग्य है। उस परमात्मा का जो शुद्ध चेतनस्वरूप है उसी को हम धारण करें अर्थात् ईश्वर के स्वरूप को अपने जीवन में समाविष्ट कर उसके अनुरूप ही आचरण व सम्पूर्ण व्यवहार करें। ऐसा करने से वह परमेश्वर हमारी आत्मा और बुद्धि का अपने अन्तर्यामी स्वरूप से हमको दुष्टाचार अधर्मयुक्त मार्ग से हटा के श्रेष्ठाचार और सत्यमार्ग में चलाता है। उस प्रभु को छोड़़कर हम और किसी का ध्यान न करें, क्योंकि न कोई उसके तुल्य और न अधिक है। वही हमारा पिता, राजा, न्यायाधीश और सब सुखों का देनेवाला है। वह ईश्वर हम सबका उत्पन्न करनेवाला, पिता के तुल्य रक्षक, सूर्यादि प्रकाशों का भी प्रकाशक व सर्वत्र अभिव्याप्त है। हमारा ईश्वर सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्ययामी, अजर, अमर, अभय, नित्य पवित्र और सृष्टि का रचयिता व पालक है। ईश्वर को जानकर सभी मनुष्यों को उसका भजन करना चाहिये जिससे उसकी कृपा होकर हमें विज्ञान, दीर्घायु और जीवन के हर क्षेत्र में सफलता व विजय प्राप्त हो सके।

लेख को विराम देने से पूर्व हम संक्षेप में पुनः कहना चाहते हैं कि विज्ञान ने मानव जाति की उन्नति व सुविधा के लिए जो जो अनुसंधान आदि कार्य कर उनके अनुरूप पदार्थों का उत्पादन किया है, उसके लिए समूची मानव जाति उनकी ऋणी व कृतज्ञ है। इसके अतिरिक्त यह भी सत्य है कि विज्ञान व वैज्ञानिकों का ईश्वर का न मानना उनका एक भ्रम है जिसका कारण ईश्वर का प्राकृतिक पदार्थों से सर्वथा भिन्न होना है जिसका प्रयोगशाला में अनुसंधान नहीं किया जा सकता। हम यह भी अनुभव करते हैं कि संसार के यदि सभी वैज्ञानिक वेद और वैदिक साहित्य का निष्ठापूर्वक स्वाध्याय, चिन्तन, मनन, ऊहापोह, ईश्वर की गुण कीर्तन द्वारा उपासना आदि कार्य करें तो वह निश्चित ही ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को जानकर उसकी सत्ता को स्वीकार कर सकते हैं। इसमें समय लगेगा और भविष्य में कभी वह ईश्वर को अवश्य स्वीकार करेंगे क्योंकि महाभारत व उससे पूर्व के हमारे सभी ऋषि भी अधिकांशतः ईश्वर ज्ञानी, भक्त, उपासक, योगी व वैज्ञानिक थे। ईश्वर भक्त के साथ साथ वैज्ञानिक होना प्रशंसनीय एवं ज्ञान व विज्ञान के अनुकूल होता है। इसमें परस्पर कहीं कोई विरोधाभाष नहीं है। आशा करनी चाहिये कि वह दिन कुछ वर्षों व दशाब्दियों बाद अवश्य आयेगा जब सभी प्रमुख वैज्ञानिक भी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर वैदिक विधि से उपासक बनकर धर्म व विज्ञान की सेवा करेंगे।
सृष्टि का सर्वोत्कृष्ट प्राणी मानव है। मानव को अपनी इस स्थिति के विषय में कदाचित् अभिमान हो सकता है, पर अधिकाधिक उन्नति कर लेने पराी यह सृष्टि रचना में सर्वथा असमर्थ रहता है। इसका कारण है, मानव जब अपने रूप में प्रकट होता है, उससे बहुत पूर्व सृष्टि की रचना हो चुकी होती है, इसलिये यह प्रश्न ही नहीं उठता कि मानव सृष्टि रचना कर सकता है। तब यह समस्या सामने आती है कि इस दुनिया को किसने बनाया होगा?
भारतीय प्राचीन ऋषियों ने इस समस्या का समाधान किया है। जगत को बनाने वाली शक्ति का नाम ‘परमात्मा’ है, इसको ईश्वर, परमेश्वर, ब्रह्म आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। यह ठीक है कि परमात्मा इस पृथिवी, चाँद, सूरज आदि समस्त लोक-लोकान्तर रूप जगत् को बनाने वाला है, परन्तु जिस मूलतत्त्व से इस जगत् को बनाया जाता है, वह अलग है। उसका नाम प्रकृति है। प्रकृति त्रिगुणात्मक कही जाती है। वे तीन गुण हैं- सत्व, रजस् और तमस्। इन तीन प्रकार के मूल तत्त्वों के लिये ‘गुण’ पद का प्रयोग इसीलिये किया जाता है कि ये तत्त्व आपस में गुणित होकर, एक-दूसरे में मिथुनीभूत होकर, परस्पर गुँथकर ही जगद्रूप में परिणत होते हैं। जगत् की रचना पुण्यापुण्य, धर्माधर्म रूप शुभ-अशुभ कार्मों के करने और उनके फलों को भोगने के लिये की जाती है। इन कर्मों को करने और भोगने वाला एक और चेतन तत्त्व है, जिसको जीवात्मा कहा जाता है। ये तीनों पदार्थ अनादि हैं-ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति।
जगत उत्पन्न होता है या नहीं?
प्रश्न-यह जगत् कभी उत्पन्न नहीं होता, अनादि काल से ऐसा ही चला आता है और अनन्त काल तक ऐसा ही चला जायगा, ऐसा मान लेने पर इसके बनने-बनाने का प्रश्न ही नहीं उठता, तब इसको बनाने के लिए ईश्वर की कल्पना करना व्यर्थ है। यह चाहे प्रकृति का रूप हो या कोई रूप हो, अनादि होने से ईश्वर की कल्पना अनावश्यक है।
उत्तर-जगत् को जिस रूप में देखा जाता है, उससे इसका विकारी होना स्पष्ट होता है। यदि जगत् अनादि-अनन्त एक रूप हो, तो यह नित्य माना जाना चाहिये, नित्य पदार्थ अपने रूप में कभी परिणामी या विकारी नहीं होता, परन्तु जागतिक पदार्थों में प्रतिदिन परिणाम होते देखे जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि पृथिव्यादि लोक-लोकान्तरों की दृश्यमान स्थिति अपरिणामिनी अथवा अविकारिणी नहीं है। इसमें परिणाम का निश्चय होने पर यह मानना पड़ेगा कि यह बना हुआ पदार्थ है, तब इसके बनाने वाले को भी मानना होगा।
प्रश्न-पृथिव्यादि को विकारी मानने पर भी बनाने वाले की आवश्यकता न होगी। जिन मूलतत्त्वों से इनका परिणाम होना है, वे स्वतः इस रूप में परिणत होते रहते हैं। संसार में अनेक पदार्थ स्वतः होते देखे जाते हैं। अनेक स्वचालित यन्त्रों का आज निर्माण हो चुका है।
उत्तर-पृथिव्यादि समस्त जगत् जड़ पदार्थ है, चेतना-हीन। इसका मूल उपादान तत्त्व भी जड़ है। किसीाी जड़ पदार्थ में चेतन की प्रेरणा के बिना कोई क्रिया होना संभव नहीं। चेतना के सहयोग के बिना किसी जड़ पदार्थ में स्वतः प्रवृत्ति होती नहीं देखी जाती। इसके लिये न कोई युक्ति है, न दृष्टान्त। स्वचालित यन्त्रों के  विषय में जो कहा गया, उन यन्त्रों का निर्माण तो प्रत्यक्ष देखा जाता है। उनको बनाने वाला शिल्पी उसमें ऐसी व्यवस्था रखता है, जिसे स्वचालित कहा जाता है। यन्त्र अपने-आप नहीं बन गया है, उसको बनाने वाला एक चेतन शिल्पी है और उस यन्त्र की निगरानी व साज-सँवार बराबर करनी पड़ती है, यह सब चेतन- सहयोग-सापेक्ष है, इसलिये यह समझना कि पृथिव्यादि जगत् अपने मूल उपादान तत्त्वों से चेतन निरपेक्ष रहता हुआ स्वतः परिणत हो जाता है, विचार सही नहीं है। फलतः जगत् के बनाने वाले ईश्वर को मानना होगा।
प्रकृति की आवश्यकता?
प्रश्न – आपने यह स्पष्ट किया कि ईश्वर को मानना आवश्यक है। यदि ऐसा है, तो केवल ईश्वर को मानने से कार्य चल सकेगा। ईश्वर को सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् माना जाता है, वह अपनी शक्ति से जगत् को बना देगा, उसके अन्य कारण प्रकृ ति की क्या आवश्यकता है? कतिपय आचायरें ने इस विचार को मान्यता दी है।
उत्तर- ईश्वर जगत् को बनाने वाला अवश्य है, पर वह स्वयं जगत् के रू प में परिणत नहीं होता। ईश्वर चेतन तत्त्व है, जगत् जड़ पदार्थ है। चेतना का परिणाम जड़ अथवा जड़ का परिणाम चेतन होना संभव नहीं। चेतन स्वरूप से सर्वथा अपरिणामी तत्त्व है। यदि चेतन ईश्वर को ही जड़ जगत् के रूप में परिणत हुआ माना जाय तो यह उस अनात्मवादी की कोटि में आजाता है, जो चेतन की उत्पत्ति जड़ से मानता है। कारण यह है कि यदि चेतन जड़ बन सकता है, तो जड़ को भी चेतन बनने से कौन रोक सकता है? इसलिये चेतन से जड़ की उत्पत्ति अथवा जड़ से चेतन की उत्पत्ति मानने वाले दोनों वादी एक ही स्तर पर आ खड़े होते हैं। फलतः यह सिद्धान्त बुद्धिगय है कि न चेतन जड़ बनता है और न जड़ चेतन बनता है। चेतन सदा चेतन है, जड़ सदा जड़ है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जड़ जगत् जिस मूल तत्त्व का परिणाम है, वह जड़ होना चाहिये, इसलिये चेतन ईश्वर से अतिरिक्त मूल उपादान तत्त्व मानना होगा, उसी का नाम प्रकृति है।
जब यह कहा जाता है कि सर्वशक्तिमान् ईश्वर अपनी शक्ति से जगत् को उत्पन्न कर देगा, उस समय प्रकृति को ही उसकी शक्ति के रूप में कथन कर दिया जाता है। वैसे सर्वशक्तिमान् पद के अर्थ में यही भाव अन्तर्निहित है कि जगत् की रचना करने में ईश्वर को अन्य किसी कर्त्ता के सहयोग की अपेक्षा नहीं रहती। वह इस कार्य के लिये पूर्ण शक्त है, अप्रतिम समर्थ है। फलतः यह जगत् परिणाम प्रकृ ति का ही होता है, ईश्वर केवल इसका निमित्त, प्रेरयिता,नियन्ता व अधिष्ठाता है। यही सत्य  स्वरूप प्रकृति सब जगत् का मूल घर और स्थिति का स्थान है।
इस प्रसंग में सत्यार्थप्रकाश [स्थूलाक्षर, वेदानन्द संस्करण, पृ. 191, पंक्ति 10-12] के अन्दर एक वाक्य है, जिसे अस्पष्टार्थ कहा जाता है। वह वाक्य है – ‘यह सब जगत् सृष्टि के पूर्व असत् के सदृश और जीवात्मा, ब्रह्म और प्रकृति में लीन होकर वर्त्तमान था, अभाव न था- इस वाक्य के अभिमत अर्थ को स्पष्ट करने व समझने के लिये इसमें से दो अवान्तर वाक्यांशों का विभाजन करना होगा। इस वाक्य में से ‘और जीवात्मा ब्रह्म’ इन पदों को अलग करके रख लीजिये फिर शेष वाक्य को पढ़िये, वह इस प्रकार होगा- ‘यह सब जगत् सृष्टि के पूर्व असत् के सदृश और प्रकृति में लीन होकर वर्त्तमान था, आाव न था।’ इतना वाक्य एक पूरे अर्थ को व्यक्त करता है। जगत् जो अब हमारे सामने विद्यमान है, यह सृष्टि के पूर्व अर्थात् प्रलय अवस्था में असत् के सदृश था, सर्वथा असत् या तुच्छ न था, कारण यह है कि यह प्रकृति में लीन होकर वर्तमान था, तात्पर्य यह कि कारण-रूप से विद्यमान था, इससे प्रतीत होता है कि ऋषि ने कार्य-कारणभाव में सत्कार्य सिद्धान्त को स्वीकार किया है। प्रलय अवस्था में जगद्रूप कार्य कारण रूप से विद्यमान रहता है, उसका सर्वथा अभाव नहीं हो जाता।
जो पद हमने उक्त वाक्य में से अलग करके रक्खे हैं, वे दो अवान्तर वाक्यों को बनाते हैं -1-‘और जीवात्मा वर्त्तमान था’। 2- ‘ब्रह्म वर्त्तमान था’ तात्पर्य यह कि प्रलय अवस्था में प्रकृति के साथ जीवात्मा और ब्रह्म भी वर्तमान थे। इस प्रकार उक्त पंक्ति से ऋषि ने उस अवस्था में तीन अनादि पदार्थों की सत्ता को स्पष्ट किया है तथा इस मन्तव्य का एक प्रकार से प्रत्यायान किया है, जो उस अवस्था में एक मात्र ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार करते हैं, जीव तथा प्रकृति की स्थिति को नहीं मानते, इनका उद्भव ब्रह्म से ही मान लेते हैं।
तीन अनादि पदार्थों के मानने पर जगद्रचना की व्याया सर्वाधिक निर्दोष की जा सकती है। कारण यह है कि लोक में किसी रचना के हेतु तीन प्रकार के देखे जाते हैं। प्रत्येक कार्य का कोई बनाने वाला होता है, कुछ पदार्थ होते हैं, जिनसे वह कार्य बनाया जाता है, कुछ सहयोगी साधन होते हैं। पहला कारण निमित्त कहलाता है, दूसरा उपादान और तीसरा साधारण। संसार में कोई ऐसा कार्य संभव नहीं, जिसके ये तीन कारण नहीं है। जब दृश्यादृश्य जगत् को कार्य माना जाता है तो उसके तीनों कारणों का होना आवश्यक है। इसमें जगत् की रचना का निमित्त कारण ईश्वर, उपादान कारण प्रकृति तथा जीवों के कृत शुभाशुभ कर्म अथवा धर्माधर्म आदि साधारण कारण होते हैं, इसलिये इन तीनों पदार्थों को अनादि माने बिना सृष्टि की निर्दोष व्याया नहीं की जा सकती।
ब्रह्म से ही जगत्-उत्पत्ति नहीं?
प्रश्न-वेदान्त दर्शन पर विचार करने वाले तथाकथित नवीन आचार्यों की यह मान्यता है कि एक मात्र ब्रह्म को वास्तविक तत्त्व मानने पर सृष्टि की व्याया की जा सकती है। उनका कहना है कि जगत् के निमित्त और उपादान कारण को अलग मानना आनावश्यक है। एक मात्र ब्रह्म स्वयं अपने से जगत् को उत्पन्न कर देता है, उसे अन्य उपादान की अपेक्षा नहीं। लोक में ऐसे दृष्टान्त देखे जाते हैं। मकड़ी अपने आप से ही जाला बुन देती है, बाहर से उसे कोई साधन-सहयोग लेने की अपेक्षा नहीं होती, ऐसे ही जीवित पुरुष से केश-नख स्वतः उत्पन्न होते रहते हैं। इसी प्रकार ब्रह्म अपने से ही जगत् को उत्पन्न कर देता है।
उत्तर – यह बात पहले कही जा चुकी है कि यदि ब्रह्म अपने से जगत् को बनावे तो वह विकारी या परिणामी होना चाहिये। ब्रह्म चेतन तत्त्व है, चेतन कभी विकारी नहीं होता। इसके अतिरिक्त यह बात भी है कि चेतन ब्रह्म का परिणाम जगत् जड़ कैसे हो जाता? क्योंकि कारण के विशेष गुण कार्य में अवश्य आते हैं। या तो जगत् भी चेतन होता, या फिर कार्य जड़-जगत् के अनुसार उपादान कारण ईश्वर या ब्रह्म को भी जड़ मानना पड़ता, पर न जगत् चेतन है, और न ईश्वर जड़, इसलिये ईश्वर को जगत् का उपादान कारण नहीं माना जा सकता।
ब्रह्म उपादान से जगत् की उत्पत्ति में मकड़ी आदि के जो दृष्टान्त दिये जाते हैं, उनकी वास्तविकता की ओर किसी ब्रह्मोपादानवादी ने क्यों ध्यान नहीं दिया, यह आश्चर्य की बात है। ये दृष्टान्त उक्त मत के साधक न होकर केवल बाधक हैं। मकड़ी एक प्राणी है, जिसका शरीर भौतिक या प्राकृतिक है और उसमें एक चेतन जीवात्मा का निवास है। उस प्राणी द्वारा जो जाला बनाया जाता है, वह उस भौतिक शरीर का विकार या परिणाम है, चेतन जीवात्मा का नहीं। यहाी ध्यान देने की बात है कि शरीर से जाला उसी अवस्था में बन सकता है, जब शरीर का अधिष्ठाता चेतन जीवात्मा वहाँ विद्यमान रहता है। वह स्थिति इस बात को स्पष्ट करती है कि केवल जड़ तत्त्व चेतन के सहयोग के बिना स्वतः विकृत या परिणत नहीं होता। दृष्टान्त से स्पष्ट है कि जाला रूप जड़ विकार जड़ शरीर का है, चेतन जीवात्मा का नहीं। इस दृष्टान्त का उद्भावन करने वाले उपनिषद् (यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च) वाक्य में यही स्पष्ट किया है कि जैसे मकड़ी जाला बनाती और उसका संहार करती है, उसी प्रकार अविनाशी ब्रह्म से यह विश्व प्रादुर्भूत होता है।
उपनिषद् के उस वाक्य में ‘यथा’ और ‘तथा’ शद ध्यान देने योग्य हैं। जैसे मकड़ी जाला बनाती और उपसंहार करती है- ‘तथाऽक्षरात्संभवतीह विश्वम्’, वैसे अविनाशी ब्रह्म से यहाँ विश्व प्रादुर्भूत होता है। अब देखना यह है कि जाला मकड़ी के भौतिक शरीर से परिणत होता है और बनाने वाला अधिष्ठाता चेतन आत्मा वहाँ इस प्रवृति का प्रेरक है, चेतन स्वयं जाला नहीं बनता, ऐसे ही ब्रह्म अपने प्रकृति रूप देह से विश्व का प्रादुर्भव करता है। समस्त विश्व परिणाम प्रकृति का ही है, प्रकृति से होने वाली समस्त प्रवृत्तियों का प्रेरक व अधिष्ठाता परमात्मा रहता है। वह स्वयं विश्व के रूप में परिणत नहीं होता, इसलिए वह विश्व का केवल निमित्त कारण है, उपादान कारण नहीं हो सकता।
जगत् का निर्माण क्यों?
प्रश्न- यह ठीक है कि सृष्टिकर्त्ता ईश्वर है और वह प्रकृति मूल उपादान से जगत् की रचना करता है, परन्तु प्रश्न है, जगत् की रचना में उसका क्या प्रयोजन है? जगत् की रचना किस लक्ष्य को लेकर की जाती है? यदि इसका कोई प्रयोजन ही नहीं, तो रचना व्यर्थ है, उसने क्यों ऐसा किया? वह तो सर्वज्ञ है, फिर ऐसी निष्प्रयोजन रचना क्यों?
संसार की सभी भाषाओं की जननी तथा संस्कृति और सयता की संवाहिका देववाणी संस्कृत-भाषा के अदुत और विलक्षण गुणों पर आज सारा संसार मुग्ध है। यहाँ उसकी केवल एक ही विशेषता का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया जा रहा है। वह विशेषता है, उसके पदों की सुमहती सपदा और उनकी यौगिकता।
संस्कृतपदों को दृष्टव्य व अव्यय इन दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। दृष्टव्य / विकारी शदों के पुनः दो भेद हैं- नाम और आयात। नाम पद सुबन्त होते हैं तथा आयात/क्रि यापद तिङन्त।
अव्ययउपसर्ग, निपात, कुछ कृत्प्रत्ययान्त, कतिपय तद्धितप्रत्ययान्त तथा कतिपय समस्त पद अव्यय होते हैं। इन सभी का मूल है धातु।
धातु से तिङ्प्रत्यय के योग से क्रियापद तथा कृत्प्रत्यय के योग से नाम या प्रातिपदिक बनते हैँ, जिन्हें सामान्य भाषा में शब्द  कहते हैं। प्रातिपादिक से सुप् प्रत्ययों के योग से पद बनते हैं। इसी प्रकार तिङ्प्रत्ययान्त धातुज शदों को भी पद कहते हैं।
अथाह शब्द  भण्डार
एक-एक धातु से लाखों शब्द  बनते हैं। यह संस्कृत की अनुपम विशेषता है। उदाहरण के लिए भू धातु को ही लेते हैं, जो धातुपाठ का प्रथम धातु है। ‘भू’ का सामान्य अर्थ है-होना।
संस्कृत में दस लकार हैं- लट्, लिट्, लुट् लृट्, लेट्, लोट्, लङ्, लिङ, लुङ् , लृङ्। इनमें पञ्चम लकार ‘लेट्’ वेद में ही प्रयुक्त होता है। व्यवहार में प्रायः अप्रयुक्त है। लिङ् लकार के दो ोद हैं। एक- विध्यादिलिङ्, जिसे सामान्यतया विधिलिङ् बोलते हैं, दूसरा है- आशीर्लिङ्। इस प्रकार सामान्य व्यवहार में भी दस लकार आ जाते हैं।
प्रत्येक लकार में तीन पुरुष – प्रथम, मध्यम तथा उत्तम, और प्रत्येक पुरुष में तीन वचन होते हैं- एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन। फलतः एक लकार के न्यूनतम 9 पद रूप हो जाते हैं। कहीं-कहीं रूप-भेद से यह संया बढ़ भी जाती है।
इस प्रकार लट् लकार में भवति, भवतः, भवन्ति, भवसि,ावथः, भवथ, भवामि, भवावः, भवामः, – इत्यादि, शेष 9 लकारों में भी 9-9 रूप बनकर -9×10=90 पद होते हैं ।
यह संया कर्तृवाच्य परस्मैपद की है। यदि धातु आत्मनेपदी भी हो तो- व्यतिभवते, व्यतिभवेते, व्यतिभवन्ते इत्यादि 90 रूप और होंगे। इसी प्रकार कर्मवाच्य में भी 90 रूप होंगे।
‘चाहना’ अर्थ में धातु से ‘सन्’ प्रत्यय लगता है। होना चाहता है- बुाूषति। देश -विदेश की किसी भी भाषा में यह विशेषता नहीं है। ङ्खड्डठ्ठह्लह्य ह्लश द्दश, ङ्खड्डठ्ठह्लह्य ह्लश स्रश, ङ्खड्डठ्ठह्लह्य ह्लश ड्ढद्ग या जाना चाहता है, करना चाहता है, होना चाहता है- इत्यादि वाक्य बनते हैं। भिन्न रूप में प्रयोग सभव ही नहीं, परन्तु संस्कृत में दोनों तरह के प्रयोग सभव हैं- ‘गन्तुम् इच्छति’ भी ‘जिगमिषति’ भी। इसी प्रकार ‘कर्तुम् इच्छति’ – परस्मै. और आत्मनेपदों के 10 लकारों के ये 180 रूप बनते हैं। इसके भी कर्मवाच्य आदि में ‘बुभूष्यते’- इत्यादि 90-90 रूप बनते हैं।
बार-बार होना या ‘बहुत होना’ अर्थ में धातु से यङ् प्रत्यय होता है (धातोरेकाचो.)। यह उन एकाच धातुओं से होता है, जिनका आदि वर्ण हल/व्यञ्जन हो। यथा – भ् + ऊ = भू, प + अठ्=पठ्। इससे भी ‘बोभूयते’ इत्यादि 90 रूप बनते हैं।
इस यङ् का लुक् (=लोप) हो जाने पर ‘बोभवीति’ तथा ‘बोभोति’ जैसे एक वचन के दो रूपों के कारण 30+90=120 रूप बनते हैं। फिर इनकी कर्मवाच्य, भाववाच्य, कर्मकर्तृवाच्य आदि प्रक्रियाओं के भी दसों लकारों में रूप चलते हैं।
प्रेरणा अर्थ में धातु से णिच् – प्रत्यय होता है। ऐसे धातु को णिजन्त कहते हैं । इससे प्रेरणार्थक या णिजन्तरूप भावयति, भावयतः, भावयन्ति आदि परस्मैपद में तथा भावयते, भावयेते, भावयन्ते आदि आत्मनेपद में होते हैं। इस प्रकार 10 लकारों के ये रूप 90+90=180 हो जाते हैं।
सन्, यङ्, णिच् की प्रक्रियाओं में दो या तीनों प्रक्रियाओं के मिल जाने पर पुनः 90-90 रूप बनते जाते हैं। जैसे – पुनः पुनः भवितुमिच्छति = ‘बोभूयिषते’ इत्यादि। भावयितुमिच्छति= ‘विभावयिषति’ इत्यादि। पुनः पुनः भावयितुमिच्छति= ‘बोभूययिषति’।
वेद में व्यत्यय की बहुलता से प्रयुक्त लेट् लकार में और भी अधिक रूप होते हैं। यथा- भू धातु के लेट् लकार के केवल तिप् में- ‘‘भविषति, भाविषाति, भाविषद्, भाविषाद्, भाविषत्, भाविषात्, भविषति, भविषाति, भविषद् भविषाद् भविषत् भविषात् भवति, भवाति, भवद्, भवाद्, भवत्, भवात्’’-ये 18 रूप केवल भवेत् के तुल्य अर्थात् लिङ् के अर्थ में प्रथम पुरुष एकवचन के हैं। द्विवचन में 6 रूप, बहुवचन में 12, द्विवचन में 6, बहुवचन में 6 रूप और उत्तम पुरुष के एक वचन में 12 तथा द्विवचन और बहुवचन में भी 12-12 रूप बनते हैं। इस एक ही लकार में 16 रूप हैं।
अन्य लकारों के समान ‘लेट्’ में भी आत्मनेपद, भाववाच्य, कर्मवाच्य, कर्मकर्तृप्रक्रियाः सन्, यङ्, णिच् आदि प्रक्रियाओं में समान रूप से पद बन सकते हैं।
‘भू’ – धातु से इस प्रकार लेट् लकार सहित सभी 11 लकरों में हमारे हस्तलेख अमुद्रित ‘धातुप्रकाशः’ के अनुसार कुल तिङन्तरूप 6336 बनते हैं।
क्रिया पद के निष्पन्न रूप के साथ ‘तरप्, तमप्, कल्पप्, देश्य, देशीयर, अकच्, रूपप्’ – आदि कुछ तद्धित प्रत्यय विशिष्ट अर्थों में लगते हैं। तदनुसार ‘भवतितराम्, भवतितमाम्, भवतिकल्पम्, भवतिदेश्यम्, भवतिदेशीयम्,भवतकि, भवतिरूपम्’= भवति रूप बनते हैं, जो 6336×7= 44352 रूप बनते हैं, जो पूर्वरूपों के साथ मिलकर (44352+6336)= 50688 रूप हो जाते हैं।
उपसर्गों की विशेषता
उपसर्गों के योग से धात्वर्थ में कहीं वैशिष्ट्य आ जाता है, तो कहीं अर्थ बदलता है। जैसेः- ‘प्रभवः, पराभवः सावः, अनुभव, विभवः, आभव, अधिभवः, उदव, अभिभवः, प्रतिभवः, परिभवः’ इत्यादि । इसी प्रकार आहारः, विहारः, संहारः, प्रहार, समाहारः, प्रत्याहारः, उदाहारः इत्यादि रूप होते हैं।
20 उपसर्गों के योग से पूर्वोक्तरूप (50688×20)= 1013760 बनते हैं, जो उपसर्गरहितों से मिलकर (1013760+50688)= 1064448 रूप हो जाते हैं। ये दस लाख चौंसठ हजार चार सौ अड़तालीस रूप केवल ‘भू’ धातु के हैं। पाणिनीय धातुपाठ में इस प्रकार के धातु 2000 से अधिक हैं।
इनमें कुछ धातु अजादि (स्वरादि) हैं, जिनसे यङ् प्रत्यय न होने से यङन्त प्रक्रिया के रूप कम हो जाते हैं। इस प्रकार यदि औसतन प्रत्येक धातु से 10 लाख रूप मानें तो सब धातुओं के रूप मिलकर (1000000×2000)= 2,00,00,00,000 (दो अरब= दौ सौ करोड़) रूप हो जाते हैं।
उपर्युक्त संया पाणिनीय धातुपाठ की लगभग 2000 धातुओं से निष्पन्न रूपों की है। काशकृत्स्न-धातुपाठ के लगभग 800 (= आठ सौ) धातु ऐसे हैं, जो पाणिनीय धातुपाठ में नहीं हैं। कुछ सौत्र धातु अष्टाध्यायी में तथा कुछ जिनेन्द्र-व्याकरण आदि के धातुओं की संया दो सौ/200हो जाती है। इस प्रकार पाणिनीय धातुपाठ से अतिरिक्त 1000(= एक सहस्र) धातु हैं, जिनके पूर्वोक्त विधि से 1,00,00,00,000 (= एक अरब = एक सौ करोड़) रूप और बनेंगे तथा कुल मिलाकर 3,00,00,00,000 (= तीन अरब) धातुरूप होंगे।
कृत् – प्रत्यय
‘भू’ – धातु से कृत्प्रत्ययों के योग से बने प्रातिपदिकों / शदों को भी संक्षेप से देखेंः-
‘चाहिए’ या ‘के लिए’ अर्थ में ‘तव्य’ प्रत्यय लगता है। ‘भू + तव्य = भवितव्य’, (होना चाहिए, होने योग्य)। इसके तीनों लिङ्गों में सातों विाक्तियों में 21+21+21 = 63 रूप होते हैं।
सन् आदि प्रत्ययान्त भू-धातु से ‘तव्य’ प्रत्यय का योग होने पर ‘बुभूषितव्य, भावयितव्य, भावयिषितव्य, बोभूयितव्य’- आदि रूप बनेंगे।
प्रत्येक के तीनों लिङ्गों और सातों विभक्तियों में 63-63 रूप बनकर 63×4= 252 रूप तथा पूर्व के 63 रूप मिलकर 252+63= 315 रूप होंगे।
तव्य से अतिरिक्त अन्य 40 से अधिक कृत् प्रत्ययाी ‘भू’ धातु से लगते हैं, जिनसे पूर्ववत् (315×40=)12600 रूप बनते हैं। इनके समान पूर्वोक्त (2000+1000 =)3000 धातुओं से (12,500×3000=)3,75,00,000 रूप न्यूनतम बनेंगे। इन सबके साथ 20 उपसर्ग लगें तो (3,75,00,000×20=) 75,00,00,000 रूप और भी बन जायेंगे। पूर्वोक्त निरुपसर्गों के साथ मिलकर कुल कृदन्त रूप (75,00,00,000+ 3,75,00,000=) 78,75,00,000 (अठत्तर करोड़ पिचत्तर लाख) बनते हैं।
कृदन्त प्रातिपदिकों से तद्धित प्रत्ययों के योग से अर्थ विशेष में भिन्न प्रातिपदिक बना लिए जाते हैं। जैसे-ाूमि से सबन्धित अर्थ में ‘भौम’। यह विशेषण होने से तीनों लिङ्गों में हो सकता है। इसी प्रकार ‘प्रति भू’ से ‘प्रातिभाव्य’ (जमानत) ‘स्वयभू’ से ‘स्वायभुव’, ‘भूरि’ से ‘भौरिक’, ‘भवत्’ ‘भवदीय, भावत्क’। ‘भूत’ से ‘भौतिक’। विभव से ‘वैभव’। शभू से ‘शाभव’। ये सभी विशेषण होने के कारण तीनों लिङ्गों से सबद्ध हैं। भू धातु के योग से यथेष्ट शब्द  बन जाते हैं।
कुछ तद्धित प्रत्यय शदों को अव्यय भी बना देते हैं। जैसे- भव + तसिल् = भवतः (भव से); भव + त्रल् = भवत्र इत्यादि।
पारस्परिक समास से बने शदों की इयत्ता असाव है। अव्ययीभाव के पद एवं कुछ अन्य सामासिक पद अव्यय होते हैं।
जैसे :- अधिभूतम् (भूत या भूतों में)। अधिभवम् (जन्म में, संसार में, शिव में) इत्यादि।
यहाँ भू धातु से निष्पन्न अत्यन्त प्रसिद्ध पदों की गणना कराई गयी है। अन्य अप्रसिद्ध प्रत्यय या अतिशास्त्रीय प्रयोग छोड़ दिए हैं। इसी प्रकार अन्य धातुओं से भी बहुत से रूप बनते हैं। उनकी पूर्ण इयत्ता नहीं बतायी जा सकती।
नामधातु
अब तक हमने पाणिनीय धातुपाठ के धातुओं तथा अन्य धातुपाठों के लगभग 3000 धातुओं से निष्पन्न विािन्न रूपों के विस्तार का दिग्दर्शन कराया है। अब नाम धातुओं का विचार करते है।
नामधातु के रूप में प्रत्येक प्रातिपदिक एक धातु है तथा उससे फिर उसी प्रकार लाखों पदों का क्रम है-पुत्र से ‘पुत्रीयति, पुत्रायते’। ‘अश्व’ से ‘अश्वस्यति’ अश्वायते। ‘त्वद्’ से ‘त्वद्यति’ इत्यादि 10 लकारों एव 40 प्रक्रियाओं में रूप करोड़ों , अरबों की संया में हो जाते हैं। तुल्य- आचरण अर्थ में क्विप् प्रत्यय होने पर जिसका कि पूर्णतया लोप भी हो जाता है, प्रत्येक प्रातिपदिक उसी रूप में नामधातु बन जाता है। जैसे :- देवदत्त इव आचरति (देवदत्त + क्विप्) देवदत्त, (देवदत्त + शप् +तिप्)= ‘देवदत्तति’; ‘देवदत्ततः’; ‘देवदत्तन्ति’- इत्यादि सभी पुरुषों सभी वचनों, सभी दस लकारों, सभी 40 प्रक्रियाओं में तिङन्त एवं कृदन्त रूप अरबों, खरबों की संया में विशिष्ट अथरें में बनते चले जाते हैं।
नामधातुओं से बने शदों / पदों की गणना करना उसी प्रकार असाव है, जिस प्रकार अन्तरिक्ष के सभी तारों अथवा पृथिवी आदि ग्रहों पर स्थित सभी पदार्थों के परमाणुओं की गिनती / इयत्ता बताना। चिन्तन करते – करते पाणिनीय आदि व्याकरणों के आधार पर ब्रह्माण्ड में शब्द समूह / शब्द ब्रह्म वैसा ही व्यापक दीखता है, जैसे लोक-लोकान्तरों में सब ब्रह्माण्डों में ब्रह्म / परमेश्वर व्यापक है। शदों / पदों की एक-एक करके गणना करने के लिए यदि सब समुद्रों की स्याही बनाकर, सब वृक्षों की एक-एक टहनी को लेखनी बनाकर युगों-युगों तक लिखा जाय, तो भी उनकी गणना पूरी नहीं हो सकेगी।
जिस प्रकार विशिष्ट दूरबीनों की सहायता से वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड के सितारे गिनने का कुछ प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार वैयाकरण लोग पाणिनीय आदि व्याकरणों की सहायता से आवश्यक/अपेक्षित शदों की अर्थ सहित व्यवस्थित जानकारी करते कराते हैं।
शब्द कोष
संस्कृत का शब्द कोष भी संसार की सभी भाषाओं से विशालतम है। इसमें पृथिवी के लिए 25 शब्द  हैं, रात्रि के लिए 27, उषा के लिए 20, मेघ के लिए 35, वाणी के लिए 120, नदी के लिए 37, अपत्य/पुत्र के लिए 25, मनुष्य के लिए 30 शब्द  हैं। ये केवल उदाहरण मात्र हैं, परिगणन नहीं।
संसार की किसीाी भाषा में इतना विशाल शब्द संग्रह नहीं है। हरीतकी (=हरड़) के 35 नाम  है। उनमें से कुछ  ये हैंः- अभया, अव्यथा, पथ्या, श्रेयसी,शिवा, कायस्था, बल्या, पाचनी, जीवनिका, जीवनी, प्राणदा, अमृता- इत्यादि। इससे जान सकते हैं कि हरड़ से शरीर निरोग होता है, रोगभय दूर होता है, पाचनशक्ति बढ़ती है। स्त्री के – माता, जननी, महिला, योषा, पुरन्ध्री, पतिंवरा, वर्या, कुलवधू, कुलपालिका, जाया, दारा, वरारोहा, महिषी, ललना, कान्ता, पत्नी, सहधर्मिणी, भार्या, पाणिगृहीती- इत्यादि बहुत से नाम हैं, जिनसे स्त्रियों की विभिन्न स्थितियों का ज्ञान होता है।
अंग्रेजी आदि अन्य भाषाओं में यह विशेषता नहीं है। जैसेः- अंग्रेजी में मामा, चाचा, ताऊ, मौसा, फूफा के लिए एक ही शब्द  हैः अंकल। चाची, ताई, बुआ, मौसी, मामी के लिए-आण्टी शब्द  है। दादा और नाना के लिए एक ही सामान्य शब्द  है- ‘ग्राण्डफादर’, तथा दादी और नानी के लिए ‘ग्राण्डमदर’। ऐसी स्थिति में अंकल कहने से पता नहीं चलता कि इससे मामा, चाचा, आदि में से किसको बताया जा रहा है? एक बार बी.बी.सी. के समाचारों में मैंने सुना कि श्री राजीव गाँधी के दादा स्वतन्त्र भारत के पहले प्रधानमन्त्री बने। जब कि दादा के स्थान पर नाना कहना चाहिए था। इस त्रुटि का कारण था, दोनों के लिए प्रयुक्त ‘ग्राण्डफादर’ शब्द । अंग्रेजी में प्राप्त समाचार का अनुवाद ‘नाना’ के स्थान पर ‘दादा’ हो गया।
इतना विशाल शब्द  भण्डार होते हुएाी उसका शदार्थ समझने में विशेष कठिनाई नहीं होती, क्योंेिक संस्कृत के शदों के अर्थ उसके धात्वर्थ से उनके अन्दर ही विद्यमान होते हैं । उदारणार्थः- ‘सृष्टि, जगत् और संसार’- इन शदों से विश्व की यथार्थ सत्ता का बोध होता है। ‘सृज्’ धातु का अर्थ है- रचना, बनाना। इससे ‘क्तिन्’ -प्रत्यय लगाकर ‘सृष्टि’ शब्द  बनता है। इससे पता चलता है कि यह विश्व बनाया हुआ है, रचा गया है। फिर ‘गच्छति इति जगत्’ से ज्ञान होता है कि विश्वचलता है, गतिशील है। ‘सम्’ उपसर्ग सहित ‘सृ’ का अर्थ है-गति करना, चलना, बहना आदि। इससे ज्ञात होता है कि यह विश्व गतिशील है, चलता है और संसरणशील (परिवर्तनशील) है। इस प्रकार संसार- विषयक बहुत सी बातें इन तीन शदों से ही ज्ञात हो जाती है। अंग्रेजी के ङ्खशह्म्द्यस्र- इस शब्द  से विश्व का स्थिति विषयक कोई बोध नहीं होता। इसी प्रकार महिला (पूजनीया, समाननीया), पिता (रक्षक, पालक), माता (सन्तान से सर्वाधिक स्नेह / प्रीति करने वाली), पात्र (रक्षक, भोज्यसाधन), वस्त्र (आच्छादित करने वाला), लेखनी (लिखने का साधन) आदि शदों से उनके कार्यों / उपयोगों का ज्ञान जिस सरलता से हो जाता है, वैसा इनके अंग्रेजी शदों क्रमशः   ‘लेडी, फादर, मदर, पॉट, क्लॉथ, पैन’ से नहीं होता।
संस्कृत – व्याकरण की यौगिक – अर्थबोधकता के कारण ही हम वेदों तथा हजारों वर्ष पूर्व लिख गये शाखा- उपवेद- ब्राह्मण- आरण्यक- उपनिषद्- वेदाङ्ग- साहित्य- आयुर्वेद- विज्ञान- गणित- रामायण- महाभारत- गीता आदि ऋषि-मुनियों के बनाये हुए सभी ग्रन्थों को सुगमता से समझ सकते हैं, जबकि हमारी प्रान्तीय भाषाओं में लिखे 2-3सौ वर्ष पुराने ग्रन्थाी आज हमारे लिए दुरूह हो जाते हैं।
‘आङ्ग्ल-भाषा (अंगेजी)का इतिहास’ नामक ग्रन्थ में आङ्ग्ल – भाषा, यूरोपीय भाषाओं में समृद्ध भाषा के रूप में बतायी गयी है। उसमें कपेण्डियस- ऑक्सफोर्ड- डिक्सनरी के आधार पर जर्मन भाषा में 1,85,000; फ्रेंच भाषा में 1,00,000 और आङ्ग्ल- भाषा में 5,00,000+5,00,000 (सांकेतिक, वैज्ञानिक)= 10,00,000 शब्द  बताये गये हैं। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में अंग्रेजी शदों की संया 6,50,000 बतायी गयी है।
इससे आप संस्कृत – भाषा के महत्त्व एवं उसके भाव प्रकट करने के सामर्थ्य का अनुमान कर सकते हैं।
18वीं शतादी में जब इस संस्कृत भाषा का प्रवेश योरोप में हुआ, तो पाश्चात्य विद्वानों में नये उत्साह और हर्ष की लहर- सी दौड़ गयी तथा तुलनात्मक भाषा-विज्ञान एवं तुलनात्मक वेद-विज्ञान जैसे नये शास्त्रों की रचना होने लगी। मैक्समूलर, मैक्डोनेल्ड, गोल्ड़ुस्टुकर, विल्सन, कीथ, विंटरनिट्ज, रॉथ, ग्रासमान जैसे सैकड़ों विद्वानों ने अपने जीवन को उसके अयास और अनुसन्धान में लगा दिया। योरोप और अमेरिका के हर विश्वविद्यालय में तथा जापान, रूस आदि के विश्वविद्यालयों में संस्कृत – भाषा के अध्ययन और अनुसन्धान के लिए पीठों का निर्माण हुआ। वैदिक शोध और भाषा – विज्ञान विषयक महान् ग्रन्थों की रचना हुई । देववाणी संस्कृत में आकाशवाणी से वार्ता-प्रसारण भी सर्वप्रथम जर्मनी के कोलोन केन्द्र से प्रारभ हुआ, उसके वर्षों बाद हमने भारत में प्रारभ किया।
अमेरीका के ‘नासा’ नामक सैन्य अनुसन्धान केन्द्र और संगणक (कप्यूटर) के कुछ विशेषज्ञों ने संगणक पर मानवीय भाषा के जो प्रयोग किये हैं, उसमें संस्कृत सबसे उपयुक्त पायी गयी है। इन वैज्ञानिकों ने अपने 25 वर्ष के अनुसन्धान के पश्चात् दावा किया है कि संगणक की यान्त्रिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किसी भी अन्य भाषा की तुलना में संस्कृत की संरचना ही सबसे उपयुक्त है। ‘नासा’ के वैज्ञानिकों की यह उपलधि भारत के लिए बड़े गौरव और महत्त्व की बात है, परन्तु बड़े खेद का विषय है कि आज उस सुरभारती की जन्मस्थली भारतवर्ष में ही उसका ह्रास बड़ी तेजी से हो रहा है। तथाकथित त्रिभाषा -सूत्र के नाम पर आज उसको पाठ्यक्रम से निकाला जा रहा है। देश की सबसे बड़ी और अमूल्य धरोहर से ही देश की युवा पीढ़ी को वंचित कर दिया गया है ।
अन्त में हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह इस देश के कर्णधारों एवं जनता के हृदय में अपूर्व अनुराग एवं भक्तिभावना भरे, जिससे भारत पुनः विश्वगुरु का पद प्राप्त कर सके।।

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