महर्षि
दयानन्द ने उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में अपना कालजयी ग्रन्थ सत्यार्थ
प्रकाश रचकर धार्मिक जगत में एक क्रांति कर दी . यह ग्रन्थ वैचारिक क्रान्ति का एक
शंखनाद है . इस ग्रन्थ का जन साधारण पर और विचारशील दोनों प्रकार के लोगों पर बड़ा
गहरा प्रभाव पड़ा . हिन्दी भाषा में प्रकाशित होनेवाले किसी दुसरे ग्रन्थ का एक
शताब्दी से भी कम समय में इतना प्रसार नहीं हुआ जितना की इस ग्रन्थ का अर्धशताब्दी में
प्रचार प्रसार हुआ . हिन्दी में छपा कोई अन्य ग्रन्थ एक शताब्दी के भीतर देश व
विदेश की इतनी भाषाओँ में अनुदित नहीं हुआ जितनी भाषाओँ में इसका अनुवाद हो गया
है. हिन्दी में तो कवियों ने इसका पद्यानुवाद भी कर दिया .
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