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ज्ञान का वास्तविक स्वरूप



ज्ञान का वास्तविक स्वरूप

 

     नमस्कार मित्रों आपका हमारे चैनल में स्वागत और अभिनंदन हैं।

     

     सबसे पहले हमें यह समझना होगा की ज्ञान क्या है? ज्ञान वास्तव में जान से संबंधित है, और जान की उत्पत्ति जीव से होती है, इसके लिए ऋग्वेद में बहुत से मंत्र आते है, जैसा यह मंत्र कहता है।

 

यत्ते यम वैवस्त् मनो जगाम दूरकम।

तत्ते वर्तायमसी क्षया जीवसे।।

 

       यह मंत्र इसी भाव से भरा है की हमारा मन विषय लोभ और उसके साथ रहने के कारण अपने आप से अर्थात अपनी आत्मा से दूर चला गया है, उसको मैं अपने संकल्प से अपने पास बुलाता हूं, और अपने जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए एकाग्र करके, मैं विषयों को अपने बस में करके इनसे उपर उठ कर स्वयं को संसार की भौतिक वस्तु का स्वामी बनाउंगा। यही सत्य है कि हम सब संसार की किसी भौतिक वस्तु की तुलना में ज्यादा शक्ति शाली है, लेकिन हमारा मन अर्थात हमारा चिंतन ही हमारा इस संसार में भौतिक रूप से निर्माण करता है, हमें अपने विचार को नियंत्रित करना होगा। ज्ञान शब्द अपने आप में बहुत गहरा और अद्भुत है, इसके समान संसार में कोई दूसरा शब्द नहीं है, क्योंकि ज्ञान अथवा जान का मूल जीव है, जहाँ जीव वहां पर चेतनता है, हमारी भौतिक शरीर बिना जीव के एक पल जीवित नहीं रह सकती, जीव अर्थात जान अथवा ज्ञान के हम एक क्षण के लिए भी इस संसार में अपना कोई कार्य सिद्ध नहीं कर सकते हैं। बिना ज्ञान के कोई भी व्यक्ति या प्राणि मृत के समान है, संसार में जितनी भी जीवित वस्तु हैं, उन सभी में ज्ञान है, ज्ञान केवल ईश्वर कृत्य वस्तु नहीं यद्यपि स्वयं ईश्वर के रूप में ही इस संसार में आज भी विद्यमान है, लेकिन ज्ञान को गलत तरह से परिभाषित आज तक किया गया है, जिसका परिणाम यह हुआ की आज हमारे समाज और इस संसार में भौतिक वस्तुओं की ही भरमार है, और सारा संग्राम भौतिक वस्तु के लिए ही हो रहा है, भौतिक वस्तु जिसके पास जितना अधिक है, उसकी को इस संसार में सबसे अधिक संपन्न और ऐश्वर्यशाली समझा जाता है, इसके अतिरिक्त मानव आज मानव नहीं रह गया है, मानव के जीवन में जो वह खाता पिता है, उसका भी उसके जीवन पर और उसके आचरण पर असर पड़ता है, आज मानव अपने आपको ज्यादा प्रसन्न और आनंदित करने के लिए तरह - तरह नशे का सेवन करता है, और अपने आप को नशे में ज्यादा कम्फर्टेबल आराम दायक महसूस करता है, इससे उसको ऐसा समझ में आता है, कि वह चिंता मुक्त हो जाता है, सच तो यह है, कि इस प्रकार से वह अपनी आत्मा का हनन करता है, और भी हमारे ज्ञान का संबंध हमारे भोजन से भी है, हम जो भी खाते है, उससे हमारा जीवन अथवा हमारा ज्ञान रूपांतरित होता है।

 

     ज्ञान का मतलब जैसा की आज  हमारे समाज में बहुत बड़े अकादमिक संस्था विद्यालय, विश्व विद्यालय कार्य कर रहें हैं, जहां पर लोग ज्ञान अर्जन करने के लिए जाते हैं, और वहां से भौतिक वस्तु की जानकारी को प्राप्त करते हैं, और उसी को उन को ज्ञान कह कर प्रशिक्षित किया जाता है। विद्यालय या विश्वविख्यात या किसी अकादमिक संस्था में कभी किसी को ज्ञान नहीं दिया जाता है, वहां किसी भाषा की जानकारी दी जाती है, ज्ञान जैसा की मैंने पहले बताया कि उसका वास्तविक स्वरूप जीव है, इस प्रकार से संसार के किसी भी बड़ी से बड़ी शैक्षणिक संस्था या किसी भी विश्व विद्यालय में मृत व्यक्ति को जीवित नहीं किया जा सकता है, इसलिए इसको तो पुरी तरह से नकारना या अस्वीकार करना ही होगा, कि हम कहीं बाहर से ज्ञान प्राप्त करके स्वयं को ज्ञान वान बना सकते हैं। बाहर से जो भी वस्तु आपको प्राप्त होगी वह वस्तु आप जहां रहते हैं, उस स्थान पर अपना अधिकार कर लेगी। अर्थात आप मन में रहते हैं मन पर उसका अधिकार हो जायेगा। जिससे स्वयं आपको ही अपने मन के साथ रहने में दिक्कत होने लगेगी, आज यही हो रहा है, लोगों के पास आज के समय भौतिक समस्या से कहीं ज्यादा मानसिक समस्या है, जिसका समाधान आज के शिक्षा विद् के पास भी नहीं है, क्योंकि वह भी इसी समस्या के शिकार हैं। जैसा की मंत्र कहता है कि हमें अपने मन को अपने करीब आत्मा जीव के साथ एकाकार करना एकाग्र करना है, जिससे हम भौतिक वस्तु के स्वामी बन सकते हैं। और हम संसार में अपनी इच्छा अनुकूल आनंद  को प्राप्त कर सकते हैं। बाहर की कोई वस्तु या विचार का केवल इतना कार्य है, कि वह आपके उपर आपकी संपत्ती पर जो आपको शाश्वत रूप से मिली है, वह आप से छीन लेगा, और आप को भिखारी बना देगा। आप हमेशा भौतिक वस्तु के लिए ही पागल बने रहते हैं, अपना सारा जीवन संसार की तुच्छ भौतिक वस्तु प्राप्त करने के लिए खपा देते हैं। इसके पीछे जो मुख्य कारण है, उसको समझना होगा, आपको अपने मन में उसी वस्तु को स्थान देना चाहिए, जो वहां रहने योग्य है या फिर जिसका स्वभाव वहां रहना हैं, यद्यपि आज की जो शिक्षा हैं, वह आपकी मालिकीयत पर अपना अधिकार या प्रभुत्व ना करें, और यह सब आप अपने विचार को नियंत्रित करके कर सकते हैं।

 

      इसका मतलब यह नहीं है कि संसार के सारे शैक्षणिक संस्थान को बंद कर देना चाहिए, क्योंकि वह मानव की स्वतंत्रता के पक्षधर नहीं है, और इनका कार्य केवल इतना है कि मानव को अक्षर ज्ञान दे, इनके अंदर यह सामर्थ्य नहीं है, कि यह किसी व्यक्ति को ज्ञानवान कर दे, क्योंकि हर मानव अपने जन्म के साथ ही अपने ज्ञान को लेकर ही जन्म लेता है, इसलिए यह सभी शैक्षणिक संस्थान उस ज्ञान को मिटा कर उसके स्थान पर भौतिक ज्ञान रूपी जानकारी को मानव अस्तित्व में स्थापित कर देते हैं, जो व्यक्ति ज्ञान के साथ जन्म लिया था, लेकिन जब वह मरता है, तो उसका ज्ञान उसके पास नहीं रहता है, उसका सारा ज्ञान भौतिक वस्तु का उससे बाहर ही रहता है, जो यहां संसार में जो लोग बचे हैं, उनका शोषण करता है, इसका मतलब यह भी नहीं है, की जो व्यक्ति शैक्षणिक संस्थान में अध्ययन नहीं किया है, वह बहुत अधिक ज्ञानवान है, वह भी अपूर्ण ही क्योंकि इनके पास विचार को रूपांतरित करने के योग्यता नहीं होती है, यह सब दूसरों के कहे हुए विचार अथवा जो अपनी वासना और अपने अनुभव से समझते हैं, उसी को  सत्य समझते हैं, जब कि सत्य इन दोनों से परे है, जो यह समझते हैं कि ज्ञान कहीं बाहर से किसी को दिया जाता हैं, वह सभी गलत हैं, और जो यह समझते हैं कि ज्ञान बीना अक्षर ज्ञान के संभव है, यह भी पुरी तरह से ठीक नहीं है, विश्व विद्यालय या शैक्षणिक संस्थान का केवल इतना ही काम है कि मानव के अक्षर ज्ञान कराए वास्तव में वह केवल यहीं कार्य करते भी है, सभी को अक्षर ज्ञान होना चाहिए। इसके साथ हमें यह भी ध्यान देना होगा, की हमें अपने अस्तित्व को निरंतर ज्ञान की कसौटी पर जांचना चाहिए, सच्चा ज्ञान हमारे अंदर हमारा अपना है, उस पर किसी का अधिकार नहीं हैं, और यहीं हमारा सच्चा ज्ञान ही हमें इस संसार रूप भौतिक संसार से मुक्त करने में समर्थ है, इसको प्राप्त करना नहीं पड़ता है, यह अपने आप में विद्यमान है, लेकिन इसको संसार में सिद्ध करने के लिए ही हमें अक्षर ज्ञान की जरूरत पड़ती है। क्योंकि हमारे आत्मा या हमारे पास शाश्वत ज्ञान का समर्थन करने वाला कोई मानव इस संसार में जीवित नहीं मिलेगा, क्योंकि यहां सभी मृत वस्तु के आश्रित हैं, जीवित वस्तु केवल आप स्वयं हैं, और आप को स्वयं को समझने के लिए आपकी जो पुरी रूपरेखा और विज्ञान है, वह मन है आपको अपने मन को समझना होगा, जो गुरु हैं। वह यह अच्छी तरह से जानते हैं, पहले समय में जो शिक्षा के संस्थान थे जैसे गुरुकुल या पुराने विश्व विद्यालय वहां पर भी शिक्षा दि जाती थी। लेकिन उनका शिक्षा देने का तरीका आज की शिक्षा देने के तरीके से अलग था। पहले के समय में जो गुरु होता था वह मानव मन का गुरु होता था वह लोगों का या मानव  मन का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते थे, और उसको उसी प्रकार की शिक्षा दिया करते थे। और आज मानव मन का अध्ययन नहीं किया जाता है। मंत्र का मतलब ही विचार से है, वेद के मंत्र विचार ही हैं, लेकिन यह विचार बहुत अधिक उच्च स्तर के हैं, क्योंकि मंत्र दो कोटि के हैं, एक ईश्वर कोटि के हैं, जिन में दिव्य मानवता देवत्व की भावना की प्रधानता है, दूसरे ऐसे मंत्र हैं जो यह बताये हैं, कि जो सही नहीं हैं गलत हैं, वह दैत्य कोटि के हैं, जिनके जीवन में दूःख पीड़ा और क्लेश हैं, इस प्रकार के मानव और इस प्रकार के विचारों को धारण करने वाले और ऐसे विचार का फैलाव करने वाले को रोकने के लिए, और इन्हें नियंत्रित करने के लिए मानव को पुरुषार्थ करना चाहिए। क्योंकि जन्म से जो आपको प्राप्त होता है, वह पुरी तरह से स्वच्छ नहीं होता है, क्योंकि भौतिक माता पिता के शरीर और उनके कर्म संस्कार विचार रूप में आपके मन में विद्यमान रहते हैं, इसके अतिरिक्त आप का स्वयं का अर्थात जीव जब शरीर मन और अपनी इन्द्रियों से संबंधित होता है, तो वह उनके गुणों को भी धीरे - धीरे धारण करने लगता है, क्योंकि उसका जिससे भी संबंध होता है, वह सभी भौतिक वस्तु ही होती है, सिवाय स्वयं को छोड़ के स्वयं को जीवित सिद्ध करने के लिए ही मंत्र के विचार की जरूरत पड़ती है, जो मंत्रों में विद्यमान हैं, इसलिए पहले के गुरु यह जानते थे। कि जो दैत्य प्रकृत के लोग है, उनसे दैव प्रकृति के लोगों को बचाने के लिए एक विधि होनी चाहिए, जिससे वह अपने देवत्व को बरकरार रख सके, और अपने जीवन को सारी समस्या से मुक्त करने में समर्थ हो सके। दैत्य वह है जो जिसकी बुद्धि भौतिक वस्तु के आश्रित है, और वह उसी को ही सब कुछ समझता है, देव वह है जो भौतिक वस्तु के आश्रित नहीं है, वह उसका स्वामी है, अर्थात मालिक है। इसका मतलब यह नहीं है कि उसके पास संसार की सारी संपदा है, वह कोई सम्राट या राजा है, नहीं राजा या सम्राट कोई एक ही होता है, यह भी अपने अंदर से कंगाल ही होता है, क्योंकि यह भौतिक वस्तुओं को संग्रहित करता है, और इसी को सब कुछ समझता है, इसके साथ इसका कार्य यह भी होता है, की यह अपने साम्राज्य की रक्षा करे बाहरी आता ताई शत्रु से, यदि ऐसा नहीं करता है, तो वह राजा ज्यादा दिनों तक नहीं रह सकता है। उसको कोई दूसरा उससे अधिक भ्रष्ट और खतरनाक व्यक्ति उस पर आक्रमण करके उससे सभी वस्तु को छीन सकता हैं।

 

    यहां पर कार्य बहुत ही सूक्ष्म तरीके से हो रहा है, आज की शिक्षा गलत नहीं हैं शिक्षा का फोकस गलत है, पहले की शिक्षा आत्मा केन्द्रीय थी, आज की शिक्षा शरीर केन्द्रीय है। दोनों का दृष्टिकोण़ विपरीत है, पहले के लोग या गुरु को यह अनुभव था, मानव को उसके केन्द्र पर पहुंचाया जाये, और आज की शिक्षा और गुरु का उद्देश्य केवल इतना है कि वह किसी भी प्रकार से लोगों को उनके जड़ उनके केन्द्र से अलग किया जाए। जिससे उनके बाजार वाद का सिद्धांत सफल होगा, काफी हद तक सफल भी हो रहा है, लेकिन इसमें बहुत बड़ी कमी हैं, की यह मानव को भयंकर अतृप्ति और असंतुष्टि के कगार पर लाकर खड़ा कर रहा है। इसके साथ ही लोगों के जीवन में दासता, मृत्यु भय बहुत गहरे तक अपनी जड़ों को जमा लिया है।

 

     जिससे बचने के लिए वह मानव जो उसको नहीं करना चाहिए वह भी वह कर रहा है, आज कहने के लिए ही लोग केवल मानव है, यद्यपि ना उनके पास हृदय है, ना ही उनके पास आत्मा ही है, और ना ही ज्ञान ही है। फिर भी लोग को यह समझा दिया गया है, कि वह ज्ञानवान है, क्योंकि उन को प्रमाणपत्र मिला है, किसी बड़े विश्व विद्यालय से, जिनके पास प्रमाण पत्र नहीं है। वह भी अपने आपको कम ज्ञान वान नहीं समझते हैं, क्योंकि उनके पास इसका तो ज्ञान है ही, कि वह यह समझ सके, कि किसी वस्तु या किस व्यक्ति से उन को दुःख मिलता है, यह ज्ञान स्वाभाविक है। जब एक बहुत पढ़ा लिखा और बहुत अधिक धनवान व्यक्ति एक अनपढ़ का केवल इसलिए शोषण करता है, कि सामने वाला अशिक्षित है, या फिर सामने वाला गरीब है, उसके हृदय में उसके लिए कोई दया प्रेम नहीं है, या उसके ज़ीने का हक कम है। एक धनी व्यक्ति के लिए बहुत अधिक समस्या है, क्योंकि उसने सारी वस्तु को प्राप्त करने के बाद भी अपने जीवन में शांति और सुख या अपने आप से कभी उसका संपर्क नहीं हुआ है। वह किसी ना किसी वस्तु के आश्रित ही रहता है। जिससे उसे भी दुःख पीड़ा और क्लेश का अनुभव होता है। वह भी उससे मुक्त होना चाहता है, वह भी यहीं समझता है, की उसको किसी बाहरी वस्तु या किसी दूसरे बाहरी आदमी से उसको कष्ट मिलता है। जबकि यह सत्य नहीं है।

 

      पहले के गुरु यह जानते थे कि सभी मानव स्त्री पुरुष को कितना ही धन या भौतिक वस्तु दे दो, वह संतुष्ट या तृप्त नहीं हो सकता है, यह सत्य भी है, कि लोगों को धन दे कर खुशी नहीं कर सकते हैं, धन दे कर किसी भी व्यक्ति को अकर्मण्य बना सकते हैं। यदि ऐसा संभव होता कि धन देने से कोई सुख हो सकता है, तो एक धनी व्यक्ति जब मरता है, तो अपनी सारी संपत्ती अपने पुत्र के लिए छोड़ देता हैं, तो क्या उसका पुत्र अपने पिता के द्वारा दिये गये भारी मात्रा में प्राप्त धन को पा कर सुखी हो जाता है, इसका उत्तर होगा नहीं, इसके पीछे कारण  है, क्योंकि जिस बाप ने दिन रात खट करके या किसी भी प्रकार के एन केन प्रकारेण लोगों से छल कर के धन को कमाने के बाद मर गया,  उसका पुत्र तो बीना मेहनत किए ही धन को पाया है इस लिए उसकी दृष्टि में धन उसके पिता के समान बहुमूल्य नहीं होगा। ऐसा प्रायः देखा गया है, जिस को पुश्तैनी संपत्ती भारी मात्रा में मिल जाती है वह लोग प्रायः उसका दुरप्रयोग करते हैं, वह उस धन से किसी का कल्याण नहीं करते हैं, इसके विपरीत वह उस धन के माध्यम से मौका मिलने पर किसी दूसरे का भरपूर शोषण करते हैं।

 

    ज्ञान का वास्तविक स्वरूप ना धनी के पास है, ना ही निर्धन के पास है ना ही अशिक्षित के पास और नाहिं बहुत ज्यादा शिक्षित के पास ही है। ज्ञान का वास्तविक स्वरूप तब प्रकट होता है, जब सार्भौमिक्ता समदर्शिता, और समन्नवयवादिता सर्वव्यापकता के साथ सर्वज्ञता का गुण हो, और यह सब गुण परमेश्वर में विद्यमान है, परमेश्वर मानव चेतना अथवा उसके जान या ज्ञान अथवा उसके जीव के अंदर विद्यमान है।

 

      दुनिया को देखे तो कही समानता नहीं हैं, ना परिवार में है, ना ही समाज में है, ना देश में हैं, नी पूरे संसार में ही है, हर तरफ वैमनस्यता अशांति का वातावरण है, बहुत प्रयास करने पर भी पुरा विश्व या एक छोटा परिवार भी एक समान नहीं हो सकता है, इसके पीछे कारण है, क्योंकि जितनी भी वस्तु इस दृश्य मय जगत में हमारी आँखों के सामने दिखाई देती है, वह अपने आप में वास्तव में अलग - अलग हैं, तभी उनकी पहचान है, अन्यथा यदि सारी वस्तु एक समान होती तो बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो जाती, आप स्वयं कल्पना करें, यदी आपके परिवार में सभी लोग एक शक्ल के एक उम्र के एक स्वभाव के एक ही तरह से विचार करने वाले होते तो कितनी दिक्कत होती, किसी ने बिचार कर लिया कि आज खाना नहीं खायेगे, तो सभी खाना नहीं खाएगे, किसी ने आत्महत्या करने का मन बना लिया, तो सभी आत्म हत्या करने का विचार बनाने लगे। यह तो समस्या बहुत कठिन हो जाएगी। इसलिए समस्या यह नहीं है, कि संसार में समानता नहीं है, समस्या तो यह है कि संसार की सभी वस्तु को एक ही दृष्टि कोण से देखने की प्रवृत्ति का शक्ति के साथ पालन कराने के लिए बड़े - बड़े देश के नेता जो दूनिया का नेतृत्व करते हैं, वह कर रहें हैं।

 

      उदाहरण के लिए एक देश ने हथियार का संग्रह किया, क्योंकि उसको अपने शत्रु से अपने देश की रक्षा करनी है, इसी प्रकार से दूसरे देश ने भी अपने शत्रु से अपनी रक्षा करने के लिए अपने पास उससे अधिक हथियारों का संग्रह कर लिया, इसी प्रकार से जितने देश हैं वह सब अपने देश के शत्रु के नाम पर हथियारों का संग्रह शुरु कर दिया। और सब ने कर भी लिया, अब तो ऐसा कोई देश नहीं बचा है, जिसके पास अपने शत्रु से अपने देश की रक्षा करने के लिए हथियार ना हो, एक तरह से यह सब समान हो गए हैं, क्योंकि इनके सब के पास के हथियार हैं। इससे जो स्वाभाविक रूप से संसार में असमानता थी, वह नष्ट हो रही है, हथियार के क्षेत्र में वह समान हो गई, और असमानता का सिद्धांत असफल हो गया। यह दुनिया के लिए शुभ संकेत नहीं है, और दूसरी तरफ शत्रु के पास भी हथियार है, और मित्र देश के पास भी है, यद्यपि हथियारों का इस्तेमाल चाहे शत्रु करे या मित्र करें, इससे हथियारों को कोई फर्क नहीं पड़ता है। क्योंकि जो हथियार चाइना के पास हैं, वहीं अमरीका के पास भी है, वहीं भारत और रूस के पास भी हैं। उदाहरण के लिए परमाणु बम इन सबके पास है, चाहे कोई देश परमाणु बम का उपयोग करें, इससे परमाणु बम को कई फर्क नहीं पड़ता है कि उसका उपयोग कौन करता है, परमाणु बम जहा गीरेगा, उससे नुकसान पृथ्वी को ही होगा, उससे नुकसान मानव को होगा, लेकिन यहां पर दोनों देशों के नेतृत्व करने वालों की सोच अलग है, वह यह मानते हैं, की हमारे देश की सीमा और हमारे शत्रु देश की सीमा अलग -अलग है। हमारे देश के नागरिक अलग हैं, दूसरे देश के नागरी अलग है, उनकी समझ में यह नहीं आता है, कि पृथ्वी एक है, और यह एक मशीन की तरह से है, इसका कोई अंग खराब होगा तो उसका प्रभाव उसी प्रकार से पड़ेगा। जैसे किसी  एक आदमी की एक आँख खराब हो जाएगी, तो वह काना हो जायेगा, किसी का एक पैर खराब हो जाएगा तो वह लंगड़ा हो जाएगा। इसी प्रकार से पृथ्वी नष्ट होगी, तो इसमें नुकसान सिर्फ शत्रु देश का ही नहीं होगा, यद्यपि मित्र देश भी होगा। जो भी इस पृथ्वी पर रहता है, उसका भी किसी ना किसी प्रकार से नुकसान होगा ही। इस नुकसान से बचने का समाधान अस्त्र में समानता नहीं। इसका समाधान दोनों देशों के नेता के मन में छुपा है, उनके ज्ञान में छिपा है, हमारा प्रयास यह होना चाहिए की हम ज्ञान वान हैं, तो सामने वाले को भी ज्ञान प्राप्त हो जाए ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए। और ज्ञान स्वयं से प्राप्त होता है, समानता का ज्ञान संभव है, जिसकी बात मंत्र करता हैं। लेकिन यह भौतिक स्तर पर नहीं है, यह आध्यात्मिक या फिर मानसिक स्तर पर संभव है।

 

जैसा की मंत्र कहता है, -

 

नमस्ते अस्तु विद्युतेन नमस्ते सत्नइत्नवे।

नमस्ते भगवन्नस्तु यतः स्वः समिहसे।।

 

    विद्युत, अग्नि, जल, वायु, आकाश, पृथ्वी यह एक दूसरे के पूरक हैं, इनका अपना रासायनिक संबंध है, और इन्हीं से मिल कर मानव भी बना है, मानव यदि पृथ्वी को समाप्त करता है, या नुकसान पहुँचाता है, तो उसका भी नुकसान होता है, मानव यदि अपनी शरीर को नुकसान पहुँचाता है, तो उसके अंदर रहने वाला वह स्वयं आत्मा रूप में दुःख को पाता है, इसलिए मानव जो जीव रूप में हैं, वह सभी भौतिक शरीर में रहते हैं,  जब तक जीवित है उसका यह परम कर्तव्य है, कि वह अपनी शरीर का उचित देखभाल करे, युक्त आहार, युक्त विहार, और शरीर को स्वस्थ रखने के लिए कुछ निश्चित भौतिक कर्म भी शरीर से नित्य करें, यह शाश्वत सिद्धांत हैं, जो इसका पालन करते हैं, वहीं इस भौतिक शरीर का उपभोग इसके अंत समय तक कर सकते हैं। इसमें जो विद्युत रूप से विद्यमान जीव है, जो आकाश रूप में मन के साथ रहता है, वह कभी समाप्त नहीं होता है, आकाश में कितनी भी वस्तु को रख दे वह कभी नहीं भरता है, वह खाली ही रहता है, इसी प्रकार से हमारा मन हैं, वह कभी भी भौतिक इच्छा से तृप्त नहीं होता है, इसलिए इसको तृप्त करने का साधन है, ज्ञान से ही इसको तृप्त किया जा सकता है, क्योंकि ज्ञान में भी वहीं गुण हैं जो गुण मन के अंदर हैं, मन भी असीमित क्षमता वाला है, और आत्मा अथवा जीवन का श्रोत जीव भी जो विद्युत रूप से है भी असीमित क्षमता वाला है, वह आकाश में भर जाता है, और उसको पूर्ण कर देता जिससे आकाश में गति होने लगती है। जिसके कारण ही मानव चेतना शरीर के साथ इस पृथ्वी पर अपनी स्वेच्छा से विचरण करने में समर्थ होता है।  

 

    इसी दैवीय विद्युत गति का उपयोग करके मानव अब यहां पृथ्वी से दूर मंगल ग्रह पर जा कर बसने की योजना बना रहा है, क्योंकि तीसरा विश्व युद्ध हुआ, तो पृथ्वी पुरी तरह से मानव के रहने योग्य नहीं रहेगी। और मनुष्य के अस्तित्व को बचाने के लिए एलन मस्क मंगल ग्रह पर एक नया शहर बसाने पर कार्य कर रहा हैं।  2026 तक मंगल ग्रह पर मानव को रहने के लिए शहर वश जाएगा। शहर जो स्वतः स्वचालित होगा। इससे मानव की समस्या समाप्त नहीं होगी। मानव की समस्या का समाधान यहीं पृथ्वी पर संभव है शर्त यह है कि वह वास्तव में प्रत्येक मानव को अपनी समस्या का समाधान करना होगा, हम ऐसा कार्य क्यों ना करें की हम हमारे शत्रु को पहुंचाने, वास्तव में हमारा शत्रु हम स्वयं ही हैं। हमें अपना मित्र बनना होगा, और सच्चे मन से जिस भी कार्य को आप करेंगे, आपको सफलता अवश्य मिलेगी। ज्ञान का मतलब सिर्फ इतना है की आप स्वयं को जाने और स्वयं से प्रेम करें, यह सत्य है, आपकी कोई हत्या नहीं कर सकता है, आपको भी किसी के हत्या की योजना नहीं बनानी चाहिए, इसके साथ आपको अपनी शरीर का भी ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि इसको समाप्त किया जा सकता है, यह कुछ समय तक के लिए यह आपको मिली है, यह नाशवान है इसकी रक्षा आपको अपने ज्ञान से करनी है, इसका सही उपयोग करके बिना किसी प्रकार की हिंसा के ही आप अपने जीवन के परम आनंद को प्राप्त कर सकते हैं। जैसा आप अपनी आत्मा को चाहते हैं, उसी प्रकार से दूसरों की आत्मा को भी चाहें, आप अपने शत्रु की हत्या नहीं करनी है, उसकी हत्या हो जाएगी आपको इंतजार करना है, क्योंकि यही शाश्वत सत्य है, कि यहां कोई भी भौतिक देहधारी मानव अमर नहीं है, वह एक दिन अपनी शरीर को अवश्य त्याग देगा। राक्षस हो देवता हो, दोनों को यह अपनी भौतिक शरीर को एक ना एक दिन त्यागना ही है, और वह दिन आज के रूप में ही उपस्थित होगा। अपने आज को अपने आनंद के लिए व्यतीत करें, जहां भी जिस स्थिती में हैं, अपने को उपर ले जाने का प्रयास करें, आपकी सहायता करने के लिए आपके अंदर स्वयं इस विश्व ब्रह्माण्ड का बनाने वाला परमेश्वर विद्यमान है। वह आपके अंतरण में से आपको दिशा निर्देश करेगा, आपके हृदय में उठने वाले विचार या मंत्र से आपकी प्रसन्नता बढ़ती है, तो उसका आपको पालन करना चाहिए, और यदि आपको ग्लानि शोक, भय, हिंसा, लज्जा महसूस होती है तो उस कार्य को ना करें।

 

       मैं आशा करता आप सभी को हमारा यह विचार अच्छा लगेगा, आप स्वयं विचार करें, मैं केवल यही चाहता हूं कि आप सही दिशा में विचार करें, यदि आप सही दिशा में विचार करेंगे, तो सभी समस्या का समाधान आपको अवश्य ही मिल जायेगा। यहीं वास्तविक ज्ञान का सच्चा स्वरूप है।  

मनोज पाण्डेय 1102,2021

   ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान वैदिक विश्व विद्यालय छानवे मिर्जापुर उत्तर प्रदेश

                                       


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