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क़ुर्आन का प्रारम्भ ही मिथ्या से

 क़ुर्आन का प्रारम्भ ही मिथ्या से

[‘चौदहवीं का चाँद’ भाग-१]

पण्डित चमूपति

[मौलाना सनाउल्ला खाँ कृत पुस्तक ‘हक़ प्रकाश’ का प्रतिउत्तर]      

वर्तमान कुरान का प्रारम्भ बिस्मिल्ला से होता है। सूरते तौबा के अतिरिक्त और सभी सूरतों के प्रारम्भ में यह मंगलाचरण के रूप में पाया जाता है। यही नहीं इस पवित्र वाक्य का पाठ मुसलमानों के अन्य कार्यों के प्रारम्भ में करना अनिवार्य माना गया है।       

ऋषि दयानन्द को इस कल्मे (वाक्य) पर दो आपत्तियाँ हैं। प्रथम यह कि कुरान के प्रारम्भ में यह कल्मा परमात्मा की ओर से प्रेषित (इल्हाम) नहीं हुआ है। दूसरा यह कि मुसलमान लोग कुछ ऐसे कार्यों में भी इसका पाठ करते हैं जो इस पवित्र वाक्य के गौरव के अधिकार क्षेत्र में नहीं।        पहली शंका कुरान की वर्णन शैली और ईश्वरी सन्देश के उतरने से सम्बन्ध रखती है। हदीसों (इस्लाम के प्रामाणिक श्रुति ग्रन्थ) में वर्णन है कि सर्वप्रथम सूरत ‘अलक’ की प्रथम पाँच आयतें परमात्मा की ओर से उतरीं। हज़रत जिबरील (ईश्वरीय दूत) ने हज़रत मुहम्मद से कहा –        ’इकरअ बिइस्मे रब्बिका अल्लज़ी ख़लका’  पढ़!

अपने परमात्मा के नाम सहित जिसने उत्पन्न किया। इन आयतों के पश्चात् सूरते मुज़मिल के उतरने की साक्षी है। इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ –       या अय्युहल मुज़म्मिलो        ऐ वस्त्रों में लिपटे हुए!        ये दोनों आयतें हज़रत मुहम्मद को सम्बोधित की गई हैं। मुसलमान ऐसे सम्बोधन को या हज़रत मुहम्मद के लिए विशेष या उनके भक्तों के लिए सामान्यतया नियत करते हैं। जब किसी आयत का मुसलमानों से पाठ (किरअत) कराना हो तो वहाँ ‘इकरअ’ (पढ़) या कुन (कह) भूमिका इस आयत के प्रारम्भ में ईश्वरीय सन्देश के एक भाग के रूप में वर्णन किया जाता है। यह है इल्हाम ईश्वरीय सन्देश कुरान की वर्णनशैली जिस से इल्हाम प्रारम्भ ही हुआ था।        अब यदि अल्लाह को कुरान के इल्हाम का आरम्भ बिस्मिल्लाह से करना होता तो सूरते अलक के प्रारम्भ में हज़रत जिबरील ने बिस्मिल्ला पढ़ी होती या इकरअ के पश्चात् बिइस्मेरब्बिका के स्थान पर बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम कहा होता।        मुज़िहुल कुरान में सूरत फ़ातिहा की टिप्पणी पर जो वर्तमान कुरान की पहली सूरत है, लिखा है –        यह सूरत अल्लाह साहब ने भक्तों की वाणी से कहलवाई है कि इस प्रकार कहा करें।        यदि यह सूरत होती तो इसके पूर्व कुल (कह) या इकरअ (पढ़) जरूर पढ़ा जाता।        कुरान की कई सूरतों का प्रारम्भ स्वयं कुरान की विशेषता से हुआ है। अतएव सूरते बकर के प्रारम्भ में, जो कुरान की दूसरी सूरत है प्रारम्भ में ही कहा –        ’ज़ालिकल किताबोला रैबाफ़ीहे, हुदन लिलमुत्तकीन’        यह पुस्तक है इसमें कुछ सन्देह (की सम्भावना) नहीं। आदेश करती है परहेज़गारों (बुराइयों से बचने वालों) को। तफ़सीरे इत्तिकान (कुरान भाष्य) में वर्णन है कि इब्ने मसूद अपने कुरान में सूरते फ़ातिहा को सम्मिलित नहीं करते थे। उनकी कुरान की प्रति का प्रारम्भ सूरते बकर से होता था। वे हज़रत मुहम्मद के विश्वस्त मित्रों (सहाबा) में से थे। कुरान की भूमिका के रूप में यह आयत जिसका हमने ऊपर उल्लेख किया है, समुचित है। ऋषि दयानन्द ने कुरान के प्रारम्भ के लिए यदि इसे इल्हामी (ईश्वरीय रचना) माना जाए यह वाक्य प्रस्तावित किये हैं। यह प्रस्ताव कुरान की अपनी वर्णनशैली के सर्वथा अनुकूल है और इब्ने मसूद इस शैली को स्वीकार करते थे। मौलाना मुहम्मद अली अपने अंग्रेज़ी कुरान अनुवाद में पृष्ठ ८२ पर लिखते हैं –       कुछ लोगों का विचार था कि बिस्मिल्ला जिससे कुरान की प्रत्येक सूरत प्रारम्भ हुई है, प्रारम्भिक वाक्य (कल्मा) के रूप में बढाया गया है यह इस सूरत का भाग नहीं।        एक और बात जो बिस्मिल्ला के कुरान शरीफ़ में बाहर से बढ़ाने का समर्थन करती है वह है, प्रारम्भिक वाक्य (कल्मा) के रूप में बढ़ाया गया है यह इस सूरत का भाग नहीं।        एक और बात जो बिस्मिल्ला के कुरान शरीफ़ में बाहर से बढाने का समर्थन करती है वह है सूरते तौबा के प्रारम्भ में कल्माए तस्मिआ (बिस्मिल्ला)का वर्णन न करना। वहाँ लिखने वालों की भूल है या कोई और कारण है जिससे बिस्मिल्ला लिखने से छूट गया है। यह न लिखा जाना पढ़ने वालों (कारियों) में इस विवाद का भी विषय बना है कि सूरते इन्फाल और सूरते तौबा जिनके मध्य बिस्मिल्ला निरस्त है दो पृथक् सूरते हैं या एक ही सूरत के दो भाग-अनुमान यह होता है कि बिस्मिल्ला कुरान का भाग नहीं है। लेखकों की ओर से पुण्य के रूप (शुभ वचन) भूमिका के रूप में जोड़ दिया गया है और बाद में उसे भी ईश्वरीय सन्देश (इल्हाम) का ही भाग समझ लिया गया है।        यही दशा सूरते फ़ातिहा की है, यह है तो मुसलमानों के पाठ के लिए, परन्तु इसके प्रारम्भ में कुन (कह) या इकरअ (पढ़) अंकित नहीं है। और इसे भी इब्ने मसूद ने अपनी पाण्डुलिपि में निरस्त कर दिया था।        स्वामी दयानन्द की शंका एक ऐतिहासिक शंका है यदि बिस्मिल्ला और सूरते फ़ातिहा पीछे से जोड़े गए हैं तो शेष पुस्तक की शुद्धता का क्या विश्वास? यदि बिस्मिल्ला ही अशुद्ध तो इन्शा व इम्ला (अन्य लिखने-पढ़ने) का तो फिर विश्वास ही कैसे किया जाए?        कुछ उत्तर देने वालों ने इस शंका का इल्ज़ामी (प्रतिपक्षी) उत्तर वेद की शैली से दिया है कि वहाँ भी मन्त्रों के मन्त्र और सूक्तों के सूक्त परमात्मा की स्तुति में आए हैं और उनके प्रारम्भ में कोई भूमिका रूप में ईश्वरीय सन्देश नहीं आया।        वेद ज्ञान मौखिक नहीं – वेद का ईश्वरीय सन्देश आध्यात्मिक, मानसिक है, मौखिक नहीं। ऋषियों के हृदय की दशा उस ईश्वरीय ज्ञान के समय प्रार्थी की दशा थी। उन्हें कुल (कह) कहने की क्या आवश्यकता थी। वेद में तो सर्वत्र यही शैली बरती गई है। बाद के वेदपाठी वर्णनशैली से भूमिकागत भाव ग्रहण करते हैं। यही नहीं, इस शैली के परिपालन में संस्कृत साहित्य में अब तक यह नियम बरता जाता है कि बोलने वाले व सुनने वाले का नाम लिखते नहीं। पाठक भाषा के अर्थों से अनुमान लगाता है। कुरान में भूमिका रूप में ऐसे शब्द स्पष्टतया लिखे गए हैं, क्योंकि कुरान का ईश्वरीय सन्देश मौखिक है जिबरईल पाठ कराते हैं और हजरत मुहम्मद करते हैं। इसमें ‘कह’ कहना होता है। सम्भव है कोई मौलाना ( इस्लामी विद्वान्) इस बाह्य प्रवेश को उदाहरण निश्चय करके यह कहें कि अन्य स्थानों पर इस उदाहरण की भाँति ऐसी ही भूमिका स्वयं कल्पित करनी चाहिए। निवेदन यह है कि उदाहरण पुस्तक के प्रारम्भ में देना चाहिए था न कि आगे चलकर, उदाहरण और वह बाद में लिखा जाये यह पुस्तक लेखन के नियमों के विपरीत है।        ऋषि दयानन्द की दूसरी शंका बिस्मिल्ला के सामान्य प्रयोग पर है। ऋषि ने ऐसे तीन कामों का नाम लिया है जो प्रत्येक जाति व प्रत्येक मत में निन्दनीय हैं। कुरान में मांसादि का विधान है और बलि का आदेश है। इस पर हम अपनी सम्मति न देकर शेख ख़ुदा बख्श साहब एम० ए० प्रोफ़ेसर कलकत्ता विश्वविद्यालय के एक लेख से जो उन्होंने ईदुज्ज़हा के अवसर पर कलकत्ता के स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित कराई थी, निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत किए देते हैं –       ख़ुदा बख्श जी का मत – “सचमुच-सचमुच बड़ा ख़ुदा जो दयालु व दया करने वाला है वह ख़ुदा आज खून की नदियों का चीखते हुए जानवरों की असह्य व अवर्णनीय पीड़ा का इच्छुक नहीं प्रायश्चित?…. वास्तविक प्रायश्चित वह है जो मनुष्य के अपने हृदय में होता है। सभी प्राणियों की ओर अपनी भावना परिवर्तित कर दी जाए। भविष्य के काल का धर्म प्रायश्चित के इस कठोर व निर्दयी प्रकार को त्याग देगा। ताकि वह इन दोनों पर भी दयापूर्ण घृणा से दृष्टिपात करे। जब बलि का अर्थ अपने मन के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु या अन्य सत्ता का बलिदान है।” [- ‘माडर्न रिव्यु से अनुवादित’]       दयालु व दया करने वाले परमात्मा का नाम लेने का स्वाभाविक परिणाम यह होना चाहिए था कि हम वाणी हीन जीवों पर दया का व्यवहार करते, परन्तु किया हमने इसके सर्वथा विरोधी कार्य…..। यह बात प्रत्येक सद्बुद्धि वाले मनुष्य को खटकती है।        मुजिहुल कुरान में लिखा है –       जब किसी जानवर का वध करें उस पर बिस्मिल्ला व अल्लाहो अकबर पढ़ लिया करें। कुरान में जहाँ कहीं हलाल (वैध) व हराम ( अवैध) का वर्णन आया है वहाँ हलाल (वैध) उस वध को निश्चित किया है जिस पर अल्लाह का नाम पढ़ा गया हो। कल्मा पवित्र है दयापूर्ण है, परन्तु उसका प्रयोग उसके आशय के सर्वथा विपरीत है।        (२) इस्लाम में बहु विवाह की आज्ञा तो है ही पत्नियों के अतिरिक्त रखैलों की भी परम्परा है। लिखा है –        वल्लज़ीन लिफ़रूजिहिम हाफ़िजून इल्ला अललअज़वाजुहुम औ मामलकत ईमानु हुम। सूरतुल मौमिनीन आयत ऐन        और जो रक्षा करते हैं अपने गुप्त अंगों की, परन्तु नहीं अपनी पत्नियों व रखैलों से। तफ़सीरे जलालैन सूरते बकर आयत २२३              निसाउकुम हर सुल्लकुम फ़आतू हरसकुम अन्ना शिअतुम        तुम्हारी पत्नियाँ तुम्हारी खेतियाँ हैं जाओ अपनी खेती की ओर जिस प्रकार चाहो। तफ़सीरे जलालैन में इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है –       बिस्मिल्ला कहकर – सम्भोग करो जिस प्रकार चाहो, उठकर, बैठकर, लेटकर, उल्टे-सीधे जिस प्रकार चाहो .. सम्भोग के समय बिस्मिल्ला कह लिया करो।        बिस्मिल्ला का सम्बन्ध बहु विवाह से हो रखैलों की वैधता से हो। इस प्रकार के सम्भोग से हो यह स्वामी दयानन्द को बुरा लगता है।      (३) सूरते आल इमरान आयत २७ –        ला यत्तख़िजु मौमिनूनलकाफ़िरीना औलियाया मिनदूनिल मौमिनीना………इल्ला अन तत्तकू मिनहुम तुकतुन        न बनायें मुसलमान काफ़िरों को अपना मित्र केवल मुसलमानों को ही अपना मित्र बनावें।        इसकी व्याख्या में लिखा है –       यदि किसी भय के कारण सहूलियत के रूप में (काफ़िरों के साथ) वाणी से मित्रता का वचन कर लिया जाए और हृदय में उनसे ईर्ष्या व वैर भाव रहे तो इसमें कोई हानि नहीं…….जिस स्थान पर इस्लाम पूरा शक्तिशाली नहीं बना है वहाँ अब भी यही आदेश प्रचलित है।        स्वामी दयानन्द इस मिथ्यावाद की आज्ञा भी ईश्वरीय पुस्तक में नहीं दे सकते। ऐसे आदेश या कामों का प्रारम्भ दयालु व दयाकर्ता, पवित्र और सच्चे परमात्मा के नाम से हो यह स्वामी दयानन्द को स्वीकार नहीं। [इस्लामी साहित्य व कुर्आन के मर्मज्ञ विद्वान् श्री अनवरशेख़ को भी करनी कथनी के इस दोहरे व्यवहार पर घोर आपत्ति है। -‘जिज्ञासु’] लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰  ‘चौदहवीं का चाँद’ पुस्तक से संकलित प्रस्तुति – ‘अवत्सार’ ॥ ओ३म् ॥

अल्लाह-ताला एक सीमित व्यक्ति है [‘चौदहवीं का चाँद’ भाग-२] । पण्डित चमूपति

[मौलाना सनाउल्ला खाँ कृत पुस्तक ‘हक़ प्रकाश’ का प्रतिउत्तर]       प्रत्येक धर्म में सर्वोच्चकोटि की कल्पना परमात्मा के सम्बन्ध में है। कुरान शरीफ़ में उसे अल्लाहताला कहा गया है। कुरान के कुछ वर्णनों पर विचार करने से विदित होता है कि इस्लाम में परमात्मा की कल्पना किसी असीम शक्ति की नहीं है, अपितु स्थान, समय व शक्ति के रूप में एक सीमित व्यक्ति की कल्पना है। स्थानीयता की सीमा के साक्षी निम्नलिखित उद्धरण हैं। शेष प्रकारों की सीमा का वर्णन आगे चलकर किया जाएगा।        इन्ना रब्बुकुमुल्लाहोल्लज़ी ख़लकस्समावात् वलअरज़ाफ़ि सित्तते अय्यामिन सुम्मस्तवा अलल अरशे। [सूरते यूनिस आयत ३]        वास्तव में पालनहार तुम्हारा अल्लाह है। जिसने उत्पन्न किया आकाशों को और भूमि को छह दिन में फिर स्थिरता धारण की ऊपर अर्श (अल्लाह का सिंहासन) पर।        तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है –       मा बदो ईमान दारेम व तावीले आं बहक गुज़ारेम        व्याख्या अल्लाह पर छोड़ो – हम इस पर ईमान (श्रद्धा विश्वास) रखते हैं और उसकी व्याख्या अल्लाह मियाँ पर छोड़ते हैं।        सूरते हूद में आया है –        व हुव ल्लज़ी ख़लकस्ममावाते वलअरज़े फ़ीसित्तते अय्यमिन व काना अरशहू अललमाए। [सूरते हूद आयत ७]        और जिसने उत्पन्न किया आकाशों को और भूमि को छह दिन में और है उसका अर्श (सिंहासन) पानी पर।        इस पर तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है –       दर बरखे अज़ तफ़ासीर आवुर्दा कि हकताला दर मबदए आफ़रीनशं याकूते सब्ज बयाफ़रीद व बनज़र हैबत दरां निगरीस्त, आं जौहर आब शुद पस हक सुबहाना वताला बाद रा बयाफरीद व आब रा बर बालाए ओ बदाश्त व अर्श रा बर ज़बर आब जाए दाद,        अर्थात् कुछ कुरान के भाष्यों में वर्णन है कि अल्लाहताला ने सृष्टि उत्पत्ति के प्रारम्भ में एक हरे रंग का याकूत (कीमती जवाहर पत्थर) बनाया और उसे आतंकपूर्ण दृष्टि से देखा। वह जौहर पानी हो गया फिर अल्लाहताला ने वायु बनाई और पानी को उस पर रखा। और अपने अर्श को (सिंहासन को) पानी के ऊपर स्थान दिया।        अल्लाह ऊपर ही है – इन उद्धरणों से सिद्ध हुआ कि अर्श कोई साकार वस्तु है। और अल्लाताला उस पर स्थित होने से साकार प्रतीत होता है। वायु के ऊपर जल है। जल के ऊपर अर्श है और अर्श के ऊपर अल्लामियाँ। निचला भाग स्वाभाविक रूप से अल्ला से रिक्त होगा।        सूरते हाका में इस स्थानीय सीमितता को स्वयं कुरान शरीफ़ के शब्दों में स्पष्ट किया गया है –       व यहमिलु अरशा रब्बुका फ़ौकहुम योमइज़िन समानियतन        और उठाएँगे तेरे रब (पालनहार) के सिंहासन को अपने ऊपर उस दिन आठ व्यक्ति।        जिसे आठ व्यक्ति उठाएँगे उसके साकार होने में क्या सन्देह रहा? यह आठ कौन हैं ? तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है        दर मआलिम आवुर्दा कि दरां रोज़ हमलाए अर्श हश्त बाशन्द ब सूरते बुज़ कोही, अज़ सुम्महाए एशां ता बज़ानू मसाफ़ते आं मिकदारे बुवद कि अज़ आसमाने ता ब आसमाने।        अर्थात् मआलिम (कुरान भाष्य) में लिखा है कि उस दिन तख़्त के उठाने वाले आठ होंगे जिन की सूरत पहाड़ी बकरे की होगी। उनके सुम्मों (एड़ियों) से घुटनों तक इतनी दूरी होगी जितनी एक आकाश से दूसरे आकाश तक (होती है)।        सूरते सिजदा में लिखा है –       युदब्बिरुल अमरा मिनस्समाए इललअरजे सुम्मा यअरुजो, फ़ीयीमिन काना मिकदारहू अलफ़ा सिनतिन मिम्मा तउद्दून,        व्यवस्था करता है हर बात की भूमि की ओर फिर चढ़ जाता है आसमान की ओर एक दिन में, (ख़ुदाई दिन) जिसका अनुमान तुम्हारी गणना में एक हजार वर्ष है।        इतनी दूर! – आसमान से भूमि की समस्याओं की देखभाल करने वाला फिर हज़ार वर्ष में ऊपर चढ़ने वाला शरीर रहित कैसे हो सकता है ? कुछ लोगों का ऐसा विचार है कि यहाँ चढ़ना अल्लाहमियाँ का नहीं, अपितु फ़रिश्तों का वर्णन है। फिर भी अल्लाहताला भूमि से इतना दूर तो है ही कि फ़रिश्तों को उसके पास जाते हज़ार वर्ष लगते हैं। वह भी तो शरीरधारी ही हुआ।        सूरते मआरिज में कहा है –       तअरजुल मलाइकतो वर्रुहोइलैहि फ़ीयोमिन काना मिकदारहू ख़मसीना अलफ़ा सिनतुन [सूरते मआरिज आयत ४]        चढ़ते हैं फ़रिश्ते और रूह उसकी ओर में उस दिन में जिसकी सीमा है पचास हजार वर्ष।        एक हजार और पचास हजार के अन्तर को ध्यान में न भी लावें तो अल्लाहताला की दूरी और सीमितता का वर्णन यहाँ भी स्पष्ट शब्दों में हुआ है।        अर्श का वाम दक्ष! सूराए वाकिया की प्रारम्भिक आयतों में बहिश्त में (स्वर्ग में) व दोज़ख़ (नरक) में रहने वालों का वर्णन है। बहिश्त में रहने वालों को असहाबुलमैमना अर्थात् ख़ुदा के दाहिनी ओर रहने वाले और दोज़ख़ में रहने वालों को असहाबुल मशीमता अर्थात् ख़ुदा के बाएँ तरफ़ रहने वाले कहा गया है। तफ़सीरे हुसैनी में इन शब्दों की व्याख्या करते हुए लिखा है कि – (असहाबुलमैमना) ब बहिश्तरवन्द व आँ दर यमीन अर्श अस्त, अर्थात् वे बहिश्त में जाएँगे और बहिश्त अर्श के दाएँ ओर है और (असहाबुलमशीमता) ब दोज़ख़ बरवन्द दोज़ख़ बर चपे अर्श अस्त, अर्थात् उन्हें दोज़ख़ ले जाएँगे और दोज़ख़ अर्श के बाएँ ओर है । जब अर्श के दाएँ और बाएँ दो दिशाएँ हैं और इस प्रकार वहाँ जाने वालों को दाएँ ओर के लोग व बाएँ ओर के लोग कहा जाता है तो अर्श को सीमा रहित कौन कह सकता है? सीमित स्थान का निवासी होने से अल्लाहमियाँ भी सीमित ही हुए।        सूरते ऐराफ़ में आया है –        फलम्मा तजल्ला रब्बुहूलिलजबलेजअलहूदक्कन व ख़र्रामूसा सअकन। [सूरते आराफ़ आयत १४३]        फिर जब दर्शन किया स्वामी उसके ने पहाड़ की ओर किया उसे टुकड़े-टुकड़े और गिर पड़ा मूसा बेहोश।        यहाँ परमात्मा की उस ज्योति का वर्णन नहीं जो है तो समस्त ब्रह्माण्ड को घेरे हुए। परन्तु मनुष्य दृष्टि-दोष के कारण उसे पहचानता नहीं, बल्कि किसी ऐसी ज्योति का वर्णन है जिससे प्रकट होने से पहाड़ टूट गया, यह ज्योति जिसका प्रभाव शारीरिक है। आध्यात्मिक नहीं शारीरिक होगा, अर्थात् बिजली की भाँति का जिसका प्रकटीकरण सीमित है और उसे देखकर मूसा बेहोश हुआ। दूसरे शब्दों में परमात्मा की ज्योति आँखों की दृष्टि का आकर्षण भी है जैसे कि मूज़िहुलकुरान में इसी आयत पर लिखा है –        “इससे ज्ञात हुआ कि हकताला (परमात्मा) को देखना सम्भव है।” इस ज्योति को सीमित न कहें तो क्या कहें ?        सूरते नूर में फ़र्माया है –       अल्लाहो नूरु स्समावाते वल अरजे मस्सल नूरिही कमिश्कातिन फ़ीहा मिस्ब्बाहुन अलमिस्बाहे फ़जुजाजतिजुजाते। कअन्नहा कोकबुन योकदो मिनशजरतिन मुबा रिकतिन जैतूनतिन लाशर कियतुवला ग़रबियतुनयकादो जैतुहा युज़ियो व लौलम तमस्सहू नारुन। [सूरत नूर आयत ३५]        अल्लाह ज्योति है आसमानों की व ज़मीन की, उस (ताक) की भाँति (धनुष सरीखा) जिसमें दीपक हो और वह दीपक शीशे में हो वह शीशा एक तारा है प्रकाशमान है एक वृक्ष के तेल से कि मुबारिक जैतून का है न पूर्व का है न पश्चिम का है। निकट है तेल उसका कि प्रकाशमान हो जाए, यद्यपि उसको आग न लगे।        क्या समझे? – अनेक कुरान के भाष्य देखने पर भी समझ में नहीं आया कि उदाहरण पर उदाहरण पर इस वाक्य का आशय क्या है? हाँ यह स्पष्ट है कि अल्लाहताला का वर्णन शारीरिकता से ऊपर उठ नहीं सका। ताक (तिरवाल) क्या है ? दीपक क्या? शीशा क्या? जैतून का तेल क्या? अल्लाह नूर (ज्योति) है और ताक के सदृश है और तेल बिना अग्नि के प्रकाशमान होने वाला है कुछ रहस्य-सा है जिसकी सूक्ष्मता हमारी मोटी समझ में नहीं आती।        सूरते बकर की आयतें – ३३ से ३९, सूरते एराफ़ की आयतें ९ से १५, सूरते स्वाद की आयतें-७० से ७८ आदि स्थानों पर अल्लाहमियाँ का फ़रिश्तों, आदम और शैतान से वार्तालाप वर्णित है। इस वार्तालाप में आदम को शिक्षा देकर स्वर्ग में प्रविष्ट किया है। फ़रिश्तों ने पहले तो घमण्ड किया है, परन्तु फिर नतमस्तक (सिजदा) करने को तैयार हो गए हैं और शैतान आदि से अन्त तक विद्रोही बना रहा। और उसे तीन दिन तक अवसर दिया गया। वार्तालाप की प्रक्रिया एक शरीरधारी मनुष्य की-सी है जो डराता है, धमकाता है और फिर असहाय होकर घटनाओं के बहाव को उसके अपने ढंग से बहने देता है इस वार्तालाप के उद्धरण मनुष्य और शैतान के अध्याय में लिखे गए हैं वहाँ देखिए।        सुरते स्वाद में आदम को उत्पन्न करने की युक्ति बताई है        ख़लकतो बियदय्या        बनाया मैंने दोनों हाथों के द्वारा।        यदि यहाँ हाथों का प्रयोग उदाहरण के रूप में हुआ है तो इससे आदम की उत्पत्ति की कोई विशेषता नहीं रही, क्योंकि बनाया तो औरों को भी अल्लाह ने ही है तो वे अभिवादनीय क्यों नहीं? दो हाथों की विशेषता वास्तविक हाथों पर प्रयुक्त है, जो शारीरिक होने  की निशानी है।         सूरते शूरा में लिखा है –        व मा कान लिबशरिन अन युकल्लिमहुल्लाहो इल्ला वहयन              ओमिन वराए हिजाबिन और युरसिलो रसूलन [सूरते शूरा आयत ५१]       और नहीं है (सम्भव) किसी मनुष्य के लिए कि अल्लाह बात करे उससे, परन्तु संकेत से या पर्दे के पीछे से या भेजे सन्देश लाने वाला।        यदि परमात्मा मनुष्य के अन्दर विद्यमान है तो उसकी बात बिना किसी माध्यम के होनी चाहिए। संकेत, परदा और फ़रिश्ता (सन्देशवाहक-जिबरील की भाँति) सर्वव्यापक परमात्मा किस लिए प्रयुक्त करेगा?        तफ़सीरे हुसैनी में इसी आयत की व्याख्या करते हुए लिखा है –       दर मूज़िह आवुरदा कि ख़ुदा बा रसूलिल्लाह सलअम सखुन गुफ्त अज़ो वराए हिजाबैन यानी हज़रत रसूल पनाह दर दो हिजाब बूद। कि सखुने ख़ुदा शुनीद, हिजाबे अज़ सुर्ख व हिजाबे अज़ मरवारीद सफ़ेद व मसीरत दरमियान हर दो हिजाब हफ़्ताद साला राह बूद।        मूज़िह में लिखा है कि ख़ुदा ने रसूलिल्लाह के साथ दो परदों के पीछे से कलाम किया, अर्थात् हज़रत दो पर्दो के बीच में थे जब उन्होंने ख़ुदा का कलाम सुना, एक पर्दा सुर्ख जरी का था और एक पर्दा सफ़ेद मोतियों का था और उन दोनों की दूरी एक दूसरे से सत्तर साल के सफ़र जितनी थी।        परदा ख़ुदा और उसके अतिरिक्त के बीच दूरी की सीमा के अतिरिक्त और क्या काम दे सकता है? रसूल ने पर्दे में ख़ुदा से बातचीत की तो ख़ुदा भी तो उसी परदे में होगा।        सूरते निसा में कहा है –       या अय्युहहन्नासू कद जाअकुमुर्रसूलो बिलहक्के मिन रब्बिकुम फ़आमिनू। [सूरत निसा]        ऐ लोगो! निःसन्देह आया तुम्हारे पास पैग़म्बर साथ सच्ची बात के तुम्हारे रब (पालनहार) के पास से अतः ईमान लाओ।        पैग़म्बर भी मनुष्य है और जब वह कोई सत्य की बात लाता है तो उसका माध्यम उपरोक्त तीन माध्यमों में से एक होगा। या तो वह अल्लाह मियाँ का संकेत पकड़ेगा या पर्दे में होकर बात करेगा या फ़रिश्ते (सन्देशवाहक) के द्वारा वाणी सुनेगा। दूसरे शब्दों में अल्लाह किसी मकान में सीमित रहेगा। वह अन्य संसार से पृथक् है और वह रसूल से बिना माध्यम के बात नहीं करता।        सूरते कदर में लिखा है –       तनज़्ज़लुल मलाइकतोवर्रूहो बिइज़नेरब्बिहिम मिनकुल्ले अमरिन। [सूरते कदर आयत ४]        उतरते हैं फ़रिश्ते और आत्माएँ अपने रब के आदेश के साथ प्रत्येक कार्य के लिए।        सूरते फ़जर में जिक्र है –       व जाआ रब्बुका वलमलको सफ़्फ़न सफ़्फ़न, व जाआ योमइज़िन बिजहन्नमा। [सूरते फ़जर आयत २२]        और आएगा रब तेरा और फ़रिश्ते सफ़ (लाइन) बाँधकर और लाया जाएगा उस दिन दोज़ख़।        यह वर्णन कयामत (प्रलय-न्याय का दिन) का है उस दिन गुनहगार व बेगुनाह सबके सामने रब आएगा। जिससे सिद्ध हुआ कि इस प्रकटीकरण का अर्थ ऐसा प्रकटीकरण नहीं जो साधक लोगों को हृदय-शुद्धि द्वारा प्राप्त होता है और सामान्य लोग अपने हृदय की बुराइयों के कारण उससे वंचित होते हैं, क्योंकि पापियों का हृदय तो उस समय भी शुद्ध न होगा। उनका हृदय का दर्पण जंग लगा हुआ होगा और उनके सामने रब आएगा। यह शारीरिक प्रकटीकरण है। तफ़सीरे हुसैनी में इसे और स्पष्ट कर दिया है। लिखा है –       (दोजख रा) बर चपे अर्श बदारन्द, अर्थात् दोज़ख़ को अर्श के बाएँ रखेंगे।        जब अर्श का दायाँ-बायाँ है तो स्पष्ट ही वह शारीरिक ही हुआ। वह दायाँ-बायाँ वास्तव में अर्श पर बैठने वाले का ही होगा। उपरोक्त उद्धरणों से अल्लाहताला की सीमित अवस्था स्वयं सिद्ध है इस पर किसी टिप्पणी की आवश्यकता नहीं। ज़मीन व आसमान बनाकर अर्श पर विराजमान होना, अर्श का पानी पर रखा जाना, आठ फ़रिश्तों से उठाया जाना, हज़ार या पचास हजार वर्ष में स्वयं अल्लाह मियाँ का ज़मीन से आसमान तक या फ़रिश्तों का यह दूरी सफ़र करके उसकी ओर जाना, अर्श या अर्श पर बैठने वाले के दाएँ स्वर्ग और बाएँ नरक का होना, अल्लाह का आग की भाँति चमकना और पहाड़ का टुकड़े करना व मूसा को बेहोश करना, ताक चिराग जैतून का तेल या उनका नूर होना, डराना, धमकाना फिर चुप हो रहना, दो हाथों से पुतला तैयार करना, संकेत परदा या फ़रिश्ते के माध्यम से बात करना, फ़रिश्तों आदि का उसकी ओर से आना-जाना, न्याय के दिन उसका विशेषरूप से प्रकट होना, सीमा व उसके सीमाबद्ध व शरीरी होने के स्पष्ट चिह्न हैं।  लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰  ‘चौदहवीं का चाँद’ पुस्तक से संकलित

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