तकदीर (भाग्य)
[‘चौदहवीं का चाँद’ भाग-३] ।
पण्डित चमूपति जी
[मौलाना सनाउल्ला खाँ कृत
पुस्तक ‘हक़ प्रकाश’ का प्रतिउत्तर]
इस्लाम की एक मान्यता पर कुछ अन्य मतों को आपत्ति है, वह है भाग्य के सम्बन्ध
में उसकी मान्यता। जिसके अर्थ यह हैं कि संसार में जो कुछ अच्छा-बुरा होता है
अल्लाहताला के आदेश से होता है। अल्लाहताला नित्य सत्ता है उसके अतिरिक्त सारी
सृष्टि उत्पन्न की हुई है। अर्थात् वे अभाव से भाव में आए हैं। उनका अस्तित्व व
गुण अल्लाहताला द्वारा निर्मित है, कोई नेक हुआ तो उसका कारण यह है कि अल्लाहताला ने उसे
नेक बनाया है उसका कारण यह नहीं कि वह अपनी इच्छा से या प्रयत्न से नेक बन गया
प्रत्युत इसका कारण यह है कि अल्ला ने उसे भला बनाया। इसी प्रकार, इस पर आर्यसमाज की आलोचना
यह है कि यदि हमारे नेक व बुरे कर्म हमारी ‘इच्छा से नहीं अपितु परमात्मा की इच्छा
से होते हैं और हम कर्म करने में केवल विवश हैं तो न्याय का निर्णय यह है कि हमारे
बुरे-भले का उत्तरदायित्व हम पर न डाला जाए। अपितु उसके वास्तविक कर्ता (परमात्मा)
को ही उसका उत्तरदायी मानना चाहिए और दोज़ख़ व जन्नत हमारे लिए निर्धारित न किए
जावें’। इस्लाम अपनी इस भाग्य की मान्यता के दार्शनिक परिणाम को स्वीकार करता है
कि अल्लाहताला ने न केवल हमारे स्वभाव सृष्टि के आरम्भ से ही निश्चित कर दिए हैं, न केवल हमारे अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों
कालों के कर्मों को लेखबद्ध लोहे महफूज़ (परमात्मा के पास सुरक्षित भाग्य पुस्तक)
में पहले से ही लिख रखा है, अपितु हममें से कुछ को स्वर्ग (बहिश्त) के लिए व कुछ को दोज़ख़ (नरक) में रहने
के लिए विशेषतया नियुक्त कर दिया है। इस सिद्धान्त के होते शुभ कर्मों का प्रयत्न, महत्वाकांक्षा, किसी महान् कार्य की
लक्ष्य प्राप्ति का कोई अवसर ही नहीं रह जाता। हम इस सिद्धान्त को कुरान व उसके
भाष्यकारों के अपने शब्दों में प्रस्तुत करेंगे। सूरते फ़ातिह में आया है – सिरातुल्लजीना अनअमतांअलैहिम गैरिलमग़जूबी
अलैहिम व लज्ज्वाल्लीन। मार्ग इन
लोगों का जिन पर उपहार दिया है तूने, न कि उनका जिन पर अत्याचार किया गया न उनका जो
पथभ्रष्ट हैं। इस पर तफ़सीरे हुसैनी
में लिखा है – न राहे आं कसानेकि
ख़श्म गिरफ़्ता बर एशां यानी कबल अज़ वजूद बमअरज़े गज़बे तो आमदा अन्द व बदां सबब
बर कुफ़र इकदाम नमूदा। न उन लोगों
का मार्ग जिन पर तूने क्रोध किया, अर्थात् उत्पन्न होने से पूर्व ही तेरे क्रोध के
पात्र बने और इस कारण काफ़िर (गैर मुस्लिम) बने। यदि इस्लाम व कुफ्र को अल्लाहताला ने
पहले से कुछ व्यक्तियों के लिए विशेष निश्चित कर दिया है तो फिर अब इस्लाम धर्म के
प्रचार के क्या अर्थ हुए? और काफ़िरों का क्या दोष है कि वे इस्लाम को स्वीकार नहीं करते। उपरोक्त वाक्य
में मौजूद होने से पहले और इस कारण यह दो शब्द विशेषतया पाठकों को ध्यान देने
योग्य हैं। सूरते बकर में इसी विषय
को और स्पष्ट किया है –
इन्नल्लज़ीना कफ़रु सवाउन अलैहुम अन्ज़रतहुम अमलम तन्ज़िरुहुम ला योमिनून।
ख़तमल्लाहो अलाकुलूबिहिम व अला समइहिम व अला अबसारिहिम गिशावतुन वलहुम अज़ाबुन
अज़ीमुन। [सूरते बकर आयत ७] जो
काफ़िर हों, बराबर है उनके लिए तू डराए या न डराए वह ईमान न लाएँगे। सील लगा दी अल्लाह ने
उनके दिलों पर और कान पर और उनकी आँखों पर परदा है और उनके लिए बड़ा दण्ड है। तफ़सीरे जलालैन में “जो काफ़िर हुए” के
बाद लिखा है – जैसे अबूजहल अबूलहब और
जिनके भाग्य में काफ़िर होना लिखा गया।
यदि काफ़िर होना भाग्य में लिखा गया है और वह अटल है तो किसी भी नियम
प्रणाली से उन काफ़िरों को अपराधी नहीं कहा जा सकता और यदि दण्ड भी उसी प्रकार
पहले से लिखा गया है तो उन्हें किसी न्याय व्यवस्था के अनुसार दण्ड का भागी नहीं
मानना चाहिए। हाँ! विधाता की अवैधानिक रचना का प्रमाण भले ही हो जाए। फिर फ़रमाया है – फ़ी कुलुबिहिम मरजुन फ़ज़ादाहुमुल्लाहो
मरजा। [सूरते बकर आयत १०] उन लोगों
के दिलों में बीमारी है फिर अल्लाह ने उनकी बीमारी और बढ़ा दी। यह रोग वही है जिसका वर्णन हुआ कि उनके
भाग्य में काफ़िर होना निश्चित हुआ था। तफ़सीरे जलालैन में लिखा है – अल्लाह ने उनके रोग को बढ़ाया इस प्रकार
कि जो आदेश अल्लाह ने उतारे उनके लिए विद्रोही हुए। यह हुआ कुफ्र पर कुफ्र और यह सब अल्लाह
के आदेश से, मूज़िहुलकुरान में इन पीड़ाओं की और व्याख्या की है वह यह कि – एक पीड़ा यह थी कि जिस दीन (मत) को दिल न
चाहता था स्वीकार करना पड़ा। दूसरा कष्ट अल्लाह ने दिया कि आदेश दिया धर्मयुद्ध
(जिहाद) का जिनके शुभचिन्तक थे उनसे लड़ना पड़ा। इस्लाम के समुदाय में प्रारम्भिक प्रवेश
किस प्रकार हुआ इस पर इन वृद्ध महाशय की सम्पत्ति विचारणीय है – सर्वप्रथम
बलपूर्वक इस्लाम को स्वीकार करना फिर बलपूर्वक धर्मयुद्ध में सम्मिलित होना और ये
दोनों अल्लाहताला के आदेश से – हाय रे भाग्य! सूरते बकर में लिखा है – बल्ला हो यल्तस्सो बिरहमतिही मन्यशाओ।
[सूरते बकर आयत ८६] अल्लाह विशेषतया
निश्चित करता है कि अपनी कृपा जिसको वह चाहता है। इस पर तफ़सीरे हुसैनी की टिप्पणी
है – इख़्तिसास मे दिहदब नूबव्वुत व वही ए ख़ुद
हर किरा ख्वाहद, विशेष करता है नूबव्वुत
(ईश्वरीय दूत) व वही (ईश्वरीय सन्देश) के लिए जिसको चाहता है। कारण? वर्तमान समय के कुछ मुसलमान विद्वानों ने स्वामी
दयानन्द की शंका की सत्यता के आगे सिर झुकाया है। एक साहब लिखते हैं – अल्लाहो अअलमो हैसायजअला रिसालतिन जिस व्यक्ति को ख़ुदा नबी बनाता है उसकी
दशा से भली भाँति परिचित होता है।
श्रीमान् जी! यह दशा किसकी बनाई हुई है। अल्लाह मियाँ की या विशिष्ट बनाए
व्यक्ति की अपनी? दूतत्व (नबीपन) के लिए विशेषता अभाव से भाव में लाने से पूर्व होती है या
पश्चात् ? पूर्व होता है तो विशेषता प्राप्त व्यक्ति के
स्वेच्छापूर्वक किए कार्यों पर निर्भर न हुई। अल्लाहताला की इच्छा पर निर्भर हुई
तो विशेषता प्राप्ति की निर्भरता अल्लाह की इच्छा पर हुई। किसी की अपनी योग्यता पर
नहीं हुई। इससे भी बढ़कर लिखा गया
है – अल्लाहो यज्तबी मिन्रुसिलिहीमन्यशाओ।
[आले उमरान आयत १७३] अल्लाह पसन्द करता है अपने पैग़म्बरों में से जिसको चाहता
है। सूरते बकर में आया है – धलकदस्तफ़ीनहु फ़िदुनियां वइन्हूफ़िल
आख़िरतिलमिनस्सालिहीन। [आयत १३०] और
निश्चय ही हमने पसन्द किया उसको दुनिया में व निश्चय ही वह न्याय के दिन नेकों में
है। मौलवी सनाउल्ला जी न्याय के दिन
नेकों में होना ही इब्राहिम के “चुने जाने का कारण” नियत करते हैं और स्वामी
दयानन्द के इस कथन पर साक्षी देते हैं कि “जो धर्मात्मा है वही परमात्मा को प्यारा
है।” अब प्रश्न यह होगा कि आया पुण्य या पाप अपनी स्वेच्छानुसार किए कर्मों के
आधार पर होता है या जैसे तफ़सीरे हुसैनी के लेखक का विश्वास है – ख़ुदा पहले से ही
किसी को श्रेष्ठ व किसी को पापी निश्चित कर देता है ? यदि प्रत्येक मनुष्य की
योग्यता समान है तो क्या दूसरे “धर्मात्मा” भी ईश्वरीय दूत (पैग़म्बर) हो सकते हैं
या नहीं? यदि प्रत्येक “धर्मात्मा”
इतना पवित्र हो सकता है जितना इब्राहिम तो उसे ईश्वरीय दूत पैग़म्बर भी हो सकना
चाहिए। यदि दूसरों में इतना पवित्र होने का सामर्थ्य नहीं तो यह अल्लाह मियाँ का
अन्याय है और यदि सामर्थ्य होते हुए भी ईश्वरीय दूत बनने के गौरव से वंचित है तो
यह इससे भी बढ़कर अन्याय है। अन्याय नहीं अत्याचार है। अल्लाह फ़रमाता है – फ़मिनहुम मन आमनाव मिनहुममन कफ़रावलौ
शाअल्ला हो माक्ततिलूव लाकिन्नल्लाहो यफ़अलोमा युरीदो। [सूरते बकर आयत २४८] उनमें से कोई (इस्लाम पर) ईमान लाया और
कोई काफ़िर हुआ यदि अल्लाह चाहता तो न लड़ते, परन्तु अल्लाहै करता है जो चाहता है। यह लड़ाने की इच्छा भी निराली है ! तफ़सीरे जलालेन में इसी स्थान पर लिखा है
– जिस को चाहे भले कामों की सामर्थ्य
दे और जिसको चाहे लज्जित करे, सामर्थ्य न दे। आगे लिखा है – युअति अलहिकमतो मंय्यशाओ। [सूरते बकर आयत
२६४] देता है कर्मकुशलता जिसे
चाहता है। फ़यन्फरालिमंय्याशाओ व
यअजिबा मंय्यशाओ बल्लाहो अला कुल्ले शैइन कदीर। [बकर २८०] फिर क्षमा करेगा जिसको चाहेगा और दण्ड
देगा जिसे चाहेगा और अल्लाह सब बातों पर समर्थ है। यह बात है तो कर्मों का विवाद किस बात का
है और क्यों उत्पन्न किया है ? सूरते रअद में है – इन्नअल्लाहा युज़िल्लो मन्यशाओ व यहदी
इलेहे मनअताबा। [सूरते रअद आयत २६]
वास्तव में ख़ुदा गुमराह करता है जिसे चाहता है और राह दिखाता है अपनी ओर
जो खिचता है। (प्रायश्चित करता है इस्लाम पर ईमान लाता है)। इस पर मूज़हुल कुरान में लिखा है कि
– यही स्वीकार है कि कोई बच ले और
कोई राह पाए और जिसका हृदय प्रवृत हुआ, यह संकेत है कि उसको ख़ुदा ने समझाना चाहा। आशय यह है कि पथ-भ्रष्ट होना या सन्मार्ग
पर आना अपने प्रयत्न से नहीं अल्लाह मियाँ की इच्छा पर आधारित है तो पुरस्कार व
दण्ड का पात्र कौन हुआ? और इस कथन के क्या अर्थ है ? लिय बलूकुम अय्युकुम
अहसनो अमलन। [सूरते हूद आयत ७] परीक्षा ले तुम्हारी कि कौन उत्तम है तुममें
से कर्म करने में। कार्यों का
निर्धारण भी स्वयं करते हो फिर परीक्षा भी लेते हो। क्या सन्देह है कि भाग्य के
अनुसार कार्य नहीं होगा? सूरते बनी इसराईल में है
– व कुल्ला इन्सानिन अलज़मनहताइरहफ़ी
उनकिही वयखरि जोलह योमल कमायते किताबन यलकहू मन्शूरा। [बनी इसराईल आयत १३] और प्रत्येक व्यक्ति के लिए लटका दिया है
हमने उसका कर्मों का हिसाब उसकी गर्दन के बीच और निकालेंगे उसके लिए न्याय के दिन
एक पुस्तक खुली हुई देखेगा। इस आयत
की व्याख्या में तफ़सीरे जलालैन में लिखा है – मुजाहिद ने कहा कि कोई बच्चा भी ऐसा नहीं
कि उसकी गर्दन में एक कागज न हो कि उसमें लिखा हुआ होता है कि यह सौभाग्यशाली है
या दुर्भाग्यशाली? यही कथन हुसैनी में
उद्धृत करके आगे लिखा है – यानी आंचे
तकदीर करदा अंद अज़ रोज़े अज़ल अज़ किरदारे ओ। लाज़िम साख्ता एम दर गर्दने ओ। यानी
रा चारानेस्त अजां अर्थात् जो कुछ
भाग्य में लिख दिया है पहले से ही उसके कर्मों के सम्बन्ध में निश्चित किया है।
उसकी गर्दन में, अर्थात् उससे बचने का कोई मार्ग नहीं है। लीजिए हमारे कर्म तो पहले से ही निश्चित
हो चुके, हमारी सद्भाग्यशीलता व
दुर्भाग्यशीलता हमारे अस्तित्व में आने से पहले ही निश्चित हो चुकी। अब हमें इस
भाग्य से या कर्म लेख के अनुसार ही काम कर देना है। कर्म में हमारा अधिकार ही कहाँ
रहा? और जब हमारा कोई अधिकार
ही नहीं तो पुरस्कार या दण्ड कैसा? स्वयं कुरान कहता है
– बलौशिअना लाअतैना कुल्लानफ्सिन
हुदाहावलाकिन हक्कल कोले मिन्नीलअम्तअन्ना जहन्नमा मिनलजन्नते वन्नासे अजमईन।
[सूरते सिजदा आयत १२] अर्थात् और
यदि हम चाहते तो प्रत्येक व्यक्ति को सन्मार्ग दिखाते, परन्तु सच्चा है वचन मेरा
कि निश्चय ही भरूँगा दोज़ख़ को जिन्नों व इन्सानों से इकट्ठा। तफ़सीरे हुसैनी में इसका अनुवाद इस
प्रकार किया है – व अगर मे ख्वास्तेम
हर आईना दादेम दर दुनियां हर नफ़स रा आंचे राह याफ्ती आं बसूए ईमान व अमल सालिह व
लेकिन साबित शुदा अस्त ईं हुकमे मन कि हर आईना पुर साजेम[१] दोज़ख़ रा
अज़कुफ़्फ़ार व देव व आदमी बहर एशां। [पाद
टिप्पणी १. मूल में ‘साज़म’ शब्द है जिसका अर्थ है मैं पूरा भरता हूँ, परन्तु आरम्भ में मे
‘ख्वास्तेम’ हम चाहते हैं को देखकर अनुवादक ने आगे ‘साजेम’ बहुवचन में ही कर दिया
है। -‘जिज्ञासु’] इस अनुवाद में
दोज़ख़ की भरती में काफ़िरों की वृद्धि हुसैनी का अपना आविष्कार है, इस पर किसी काफ़िर को
आपत्ति हो सकती है। लेकिन यह बात तो कुरान के अपने शब्दों में अंकित है कि अल्लाह
सन्मार्ग दर्शन हर एक को करा सकता था, लेकिन नहीं कराता इसलिए कि उसने दोज़ख़ को बनाया है
और उसे भरना है। इस कथन के पश्चात्
जहाँ-जहाँ यह वर्णन है कि अल्लाह गुनहगारों को सत्प्रेरणा नहीं करता जैसे यह कुरान
केवल परहेज़गारों को मार्गदर्शन के लिए है जैसे बकर-सूरा-२ में वहाँ इस कथन के
अर्थ यही करने होंगे कि गुनाहगार और परहेज़गार पहले से ही निर्धारित हैं और स्वामी
दयानन्द की आपत्ति कि परहेज़गार तो सीधे रास्ते पर हैं ही और गुनाहगारों के लिए
सत्प्रेरणा नहीं तो कुरान के उतरने का लाभ किसे है ? उत्तर रहित प्रश्न है। कुरान न होता तो भी परहेज़गार
परहेज़गारी के लिए निर्धारित थे और गुनहगार गुनहगारी के लिए।[२] [पाद टिप्पणी २.
यह प्रश्न आज इस्लाम में गूञ्ज रहा है। ‘सोज़ो साज़’ में भी यही प्रश्न उठाया गया
है। -‘जिज्ञासु’] यह हुआ भाग्य
निर्णय कर्मों का कि हमारे लिए भले और बुरे कर्म पहले से ही निश्चित हैं और हम भाग्य
लेख को पूरा करते हैं। दूसरा हमारा भाग्य लेख दुःख और सुख का है। कोई उत्पन्न होते
ही दुःखी है कोई पैदा होते ही सुखी। यह भेद भाव क्यों? आर्यसमाज के सिद्धान्तों
के अनुसार सुख-दुःख कर्मों का दण्ड व उपहार है। पर जो लोग इस जीवन से पूर्व किसी
जीवन के पक्षधर नहीं वह वर्तमान जीवन के प्रारम्भ होते ही विभिन्न व्यक्तियों के
किए हुए दुःख सुख की भिन्नता व स्तर की असमानता का क्या कारण बता सकते हैं? वर्तमान जीवन के कार्यों
का फल दण्ड या पुरस्कार उन्होंने स्वर्ग या नरक को निर्धारित किया है। यद्यपि
उपरोक्त भाग्य की मान्यता ने दण्ड व पुरस्कार का सिद्धान्त ही निराधार बना दिया
है। इस पर भी यदि थोड़ी देर के लिए इस कठिनाई पर ध्यान न भी दें तो वर्तमान
असमानता का दार्शनिक निदान क्या है ? न्याय दिन के सुख और दुःख का कारण वर्तमान कर्म तभी
हो सकते हैं जब वर्तमान जीवन के सुख और दुःख इससे पूर्व किए गए कर्मों का फल हों।
अन्यथा कर्मों और सुख-दुःख में कारण व कार्य का सम्बन्ध ही न होगा। यदि इस संसार
में दुःख-सुख बिना पूर्ववर्ती कर्मों के दिए जाते हैं तो न्याय के दिन के स्वर्ग व
नरक भी बिना कर्मों के क्यों न मिलेंगे? भाग्य के सम्बन्ध में जो चर्चा हमने ऊपर की है इससे
स्पष्ट सिद्ध है कि इस्लाम के मतानुसार कर्म केवल दिल बहलाने की वस्तु है उनमें
हमारी स्वेच्छा वृत्ति को कोई स्थान नहीं। हम अच्छा करने पर भी विवश हैं और बुरा
करने पर भी। फिर स्वर्ग-नरक में जाने पर भी वैसे ही विवश हैं अल्लाह मियाँ का कथन
अनादि है कि दोज़ख़ भरा जाएगा और वह पूरा होना है। हमारी विवेकशीलता इसी में है कि
उस वचन को (सत्य सिद्ध कर दिखावें) करें। भला इससे बढ़कर इस्लाम क्या हो सकता है
कि अल्लाताला का नित्य वचन हमारे कर्मों के कारण सत्य सिद्ध हो? फिर कर्म क्षमा भी किए जा
सकते हैं। अल्लाह जिसे चाहे बिना कर्मों के स्वर्ग में ले जाए। फलतः मौलवी
सनाउल्ला जी लिखते – “बेचारे अवयस्क
बच्चों को तो इस बात की ख़बर भी नहीं कि शिरक (इस्लाम से विरोध) कुफ़र (स्पष्ट
अमुस्लिम होना) क्या होता है इसलिए वे जन्नत में जाने से न रोके जाएँगे।” [हक
प्रकाश पृष्ठ २२७-२२८] यही
सिद्धान्त इस्लाम का है। अब तो और भी कर्मों से मुक्ति हुई। मौलाना सनाउल्ला के
समविचारक लोग यदि यह इच्छा करें और इस इच्छा को कार्यान्वित करें कि हर बच्चा जो
बगैर शिरक और कुफ़र के विवेक के मर जाया करे तो अल्लाह मियाँ का यह वचन कि दोज़ख़
को भरना है, सम्भव है, पूरा हो ही न पाए। इस्लाम के प्रचार का यह निराला ढंग विचित्र है। परन्तु नहीं, मौलाना मुसलमान हैं और
उन्हें अल्लाहमियाँ का आदेश कार्यान्वित कराना है। परमात्मा उन्हें पुरस्कृत करें
अस्तु। अब हम कुरान-करीम की उन वाणियों
का दिग्दर्शन करायेंगे जिनमें इस संसार की (सम्पदा) भाग्य रेखा के हाथों बिना
प्रयत्न व कर्मों के या अन्य किसी उपाय के बहुत सस्ती कर दी गई है। फ़रमाया है
– अल्लाहो यरज़िको मनय्यशाओ बगैर
हिसाब। [सूरते बकर आयत २१२] अल्लाह
दौलत देता है जिसे चाहता है बिना हिसाब के।
अल्लाहो यब्सतोरिज़का लिमन्यशाओ व यकदिरो। [सूरते रअद आयत २२] अल्लाह विस्तार करता है धन-दौलत जिसके
लिए चाहता है और तंग करता है।
अल्लज़ी ख़लकनी फ़हुवा यहदिनीनवल्लज़ी हुवा युतमइनी व यसकीने। [सूरते शुअरा
आयत ७८-७९] जिसने उत्पन्न किया मुझको इसलिए वही
मार्गदर्शन करता है और जो खिलाता है मुझको व पिलाता है मुझको। जब खिलाना व पिलाना पूर्व कर्मों का फल
नहीं तो उसमें समानता क्यों नहीं? हमारा वैभव व हमारी रिक्तता अल्लाह मियाँ की देन है।
फिर हमारे लेख भी सदा से निश्चित होकर हमारी गर्दन में बाँध दिये गये हैं। अतः
खाने-पीने में अनियमितता भी हमारे ऊपर नहीं आती और उसका परिणाम जो रोग उत्पन्न हो
जाते हैं उसके उत्तरदायी विवशता के कारण हम नहीं। अल्लाह की बिना शर्त के पुरस्कार
के अर्थ तो यह थे कि बराबर सबको पुरस्कृत करता और यदि संसार में रंगा-रंगी लाने के
लिए असमानता आवश्यक थी तो वह असमानता हमें पीड़ित किए बिना भी तो हो सकती थी।
असमानता केवल सुखों की हो जाती। हमारे खाने-पीने में रोग उत्पन्न करने का गुण ही न
रखता। बिना पूर्व जन्म के माने
हमारी बीमारी हमारे पुराने कर्मों का फल तो हो नहीं सकती और वर्तमान जीवन के
कर्मों में भी हम भाग्य के आगे नतमस्तक हैं तो क्या रोग भी अल्लाह मियाँ की देन
समझी जाए। यह देन उसके कृपापूर्ण गौरव के सर्वथा उपयुक्त है! जीवन का एक उपहार है पुत्र व पुत्रियाँ
इस पर अल्लाहताला ने फ़रमाया है – यहबो लिमन्यशाओ इनासन व यहवोलिमन्यशा
अज्जकूर ओ यज्ज़िहिम् ज़िकरानम व अनासन व यजअलोमन्यशाओ अकीमन। [सूरते शुरा आयत ४८]
[३] देता है जिसे चाहता है बेटियाँ
और देता है और कर देता है जिसे चाहता है। सन्तान रहित। [पाद टिप्पणी ३. Saheeh International व फ़तह-उल-हमीद आदि में
ये दो आयतें हैं। इनकी संख्या ४९ व ५० दी गई है। -‘जिज्ञासु’] इस आयत पर भी प्रश्न वही है जब प्राणियों
में सम्भोग का फल प्रायः सन्तान होती है और मनुष्यों का प्रायः सम्भोग कर्म
निष्प्रभावी क्यों रहे? क्या सन्तान होने न होने में कोई विधान काम करता है? या केवल अनियमितता है ? इसी प्रकार पुत्र या
पुत्री उत्पन्न होने में कोई नियम है या केवल अनियमितता है? हमारी सन्तान हीनता का
कारण या तो हमारा सृष्टि नियम के विपरीत कर्म हो सकता है या गत जीवन के कुकर्म
जिसके दण्ड स्वरूप हमें निःसन्तान किया जाता
है। इस्लाम में अतीत काल के जीवन का सिद्धान्त नहीं और वर्तमान जीवन में मनुष्य की
इच्छा का हस्तक्षेप न होने से कोई फल उत्पन्न होने का सामर्थ्य नहीं, सब कुछ अल्लाहताला पर
निर्भर है। इस पर प्रश्न उठता है कि बिना किसी कर्म के ही सन्तान उत्पन्न क्यों
नहीं कर देता? मौलाना सनाउल्ला जी इस प्रश्न पर बिगड़े हैं। पूछते हैं कि क्या किसी आस्तिक
(ईश्वर को मानने वाले) का यह प्रश्न हो सकता है ? हज़रत ईसा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अपने मत पर
विचार कर लें। यदि वह मत आस्तिकों का है तो यह प्रश्न आस्तिकों का क्यों नहीं? स्वामी दयानन्द को आपत्ति
है इस्लाम के भाग्य के सिद्धान्त पर जिसके अनुसार अल्लाह मियाँ ही वास्तविक कर्ता
है। हम सब उसकी कठपुतलियाँ हैं। इस दशा में सन्तान की उत्पत्ति पर माता-पिता की ओर
से किसी कर्म की शर्त उचित नहीं। एक ओर भाग्य लेख और दूसरी ओर कानून परस्पर विरोधी
सिद्धान्त हैं। और तो और सहीह बुखारी में अंजल की आज्ञा इसी आधार पर दी गई है कि
सन्तान होना माता-पिता के कर्मों का फल ही नहीं केवल परमात्मा की देन है। वास्तव में मनुष्य का न केवल दण्ड या
पुरस्कार के भुगतने के हेतु अपितु उनकी अनुकूलता या प्रतिकूलता के अनुसार कर्मों
के लिए विवश होना एक तर्क संगत परिणाम है। इसी सिद्धान्त का कि अल्लाहताला नित्य
सत्ता है और शेष सभी सृष्टि अभाव से भाव में लाई गई है। अभाव से भाव में लाए
पदार्थों की निजी अपने अस्तित्व सहित सत्ता हो ही नहीं सकती है। महाकवि जौक ने कहा
ही तो है – अपनी खुशी न आए न अपनी
खुशी चले। अच्छा बुरा नहीं हो सकता, बुरा अच्छा नहीं हो सकता जैसा बनाने वाले ने बना दिया
बन गए फिर पुरस्कार या दण्ड कैसा? अभाव से भाव के सम्बन्ध में हम एक नया अध्याय
लिखेंगे। सम्प्रति इस विषय के १-२ उद्धरण लिखे जा रहे हैं – कहा है – वरब्बुका यख़्लको मायशाओव यख़्तारो।
[सूरते कसस आयत ६८] और तेरा पालनहार
जो चाहता है, पसन्द करता है वही उत्पन्न करता है।
बदीअस्समावाते वलअरजे व इज़ाकज़ा अमरन फ़इन्नमा यकूलोकुन फ़यकूनः।[४]
[सूरते बकर आयत ११८] उत्पन्न करने
वाला आसमानों और ज़मीनों का। जब वह चाहता है कोई काम करना तो एक ही उसका तरीका है
कि कहता है हो जा और वह हो जाता है। [पाद
टिप्पणी ४. फारुखी जी वाले हिन्दी कुरान में इस आयत की संख्या ११७ है।] यह सारी सृष्टि जब अल्लाह के एक आदेश का
परिणाम है। इस आदेश से पूर्व इस सृष्टि का केवल अभाव था तो इसका कारण केवल
अल्लाताला का आदेश ही तो हुआ। इस दशा में इस सृष्टि की अच्छाई-बुराई अल्लाहताला के
आदेश की ही अच्छाई या बुराई है । हम सुख व दुःख भोगने में विवश हैं। अच्छे-बुरे
काम करने में विवश हैं और अन्त में दोज़ख़ व जन्नत में जाने को भी विवश हैं।
अल्लाह को दोज़ख़ व जन्नत को भरना है। स्वेच्छा से पैग़म्बर (ईश्वरीय दूत) बनाने
हैं उनमें से चुनाव करना है और इसमें नियम है उसकी शर्त रहित बेरोक-टोक इच्छा का, फिर शिक्षा क्या और उपदेश
के क्या अर्थ? सब खेल ही तो है। अल्लाह समर्थवान् सही पर हमारा उत्तरदायित्व कुछ नहीं। इस एक
मान्यता से, आचार, दर्शन, विधान सब निराधार होकर रह
जाते हैं। तकदीर (भाग्य) के अर्थ
हैं अल्लाहताला की असीम शक्ति का प्रयोग, अर्थात् उस सामर्थ्य की जिस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं।
प्रश्न होता है कि क्या अल्लाह पाप कर सकता है ? अर्थात् कोई ऐसा कर्म जो मनुष्य करे तो पाप कहलाए।न
कर सके तो सर्वशक्तिमान् न रहा। तभी तो लिखा है – वमकरु वमकरल्लाहो वल्लाही खैरुल
माकरीन।[५] [सूरते आले इमरान आयत ५०]
उन्होंने छल किया और छल किया अल्लाहै ने और अल्लाह सबसे बड़ा छल करने वाला
है। [पाद टिप्पणी ५. फ़ारुकी जी के हिन्दी
कुरान, फ़तह उलहमीद व Saheeh International में इस आयत की संख्या ५४
है। -‘जिज्ञासु’] इस आयत का विवरण
तफ़सीरे हुसैनी में इस प्रकार का वर्णन किया गया है। बअनवाए हील ईसा रा बदस्त आवुरदन्द व दर
ख़ानाए महबूस साख्तन्द……..अलस्सुबाह महतर खुद कि यहूदा नाम दाश्त बदाँ खाना
फ़िरस्तादन्द……हकताला दरां शब ईसा रा बर आसमान बुरदा बुवद……..यहूदा ईसारा नदीदव
हकताला शबीह ईसा बरो……..फ़गन्द……..व अज़ दारश दर आवेख़्ता तीर बारां नमूदन्द। भाँति-भाँति के बहानों से ईसा को पकड़ा
और घर में बन्दी बनाया…….प्रातः अपने में से बड़े वृद्ध व्यक्ति को जिसका नाम
यहूदा था घर के अन्दर भेजा………अल्लाहताला ने रात-रात में ईसा को आसमान पर उठा लिया
था। ……..पर यहूदा ने……..ईसा को न देखा और अल्लाताला ने उसे ईसा की शक्ल दे दी। उसे
फाँसी पर लटकाकर उस पर तीर बरसाए।
यहूदा को ईसा के रूप में प्रकट करके उसे मरवाना छल होता है, यही अर्थ निम्नलिखित आयत
का है – व यमकरुल्लाहो वल्लाहो
खैरुलमाकरीन। [सूरते इन्फ़ाल आयत ३०]
छल करता था अल्लाह और अल्लाह उच्च कोटि का छल करने वाला है। इन्नहुम याकैदूना कैदन व कैदू कदन।
[सूरते तारिक आयत १५-१६] वास्तव में
मकर करते हैं एक मकर और मैं मकर करता हूँ एक मकर। यही व्यवहार फ़रिश्तों से हुआ था कि
उन्हें तो नाम सिखाए नहीं। आदम को सिखा दिए। फिर उनका मुकाबिला करा दिया। आदम अधिक
विद्वान् निकला। जब अल्लाह ने अधिक ज्ञान दिया तो उसमें आदम की श्रेष्ठता क्या हुई? फ़रिश्तों को सिखा देता
तो वे फ़ाज़िल हो जाते। व अल्लमा
आदमल अस्मा आकुल्लबा सुम्मा अरजहुम अललमलाइकते, फ़काला अम्बिऊनी बिइस्म ए हाउलाए इन कुन्तुम
सादिकीन…………कालू या आदमो अन्बइर्हमबिस्माइहिम काल अलम अकुल्लकुम इन्नीअलमौ
रौबस्समावाते वलअरज़े। [सूरते बकर आयत ३१ व ३३] और सिखाए आदम को सारे नाम। फिर किया
सामने फ़रिश्तों के फिर कहा मुझे इनके नाम बताओ अगर सच्चे हो, कहा ए आदम बता दे इनके
नाम। फिर जब बता दिए उनके नाम तो कहा क्या मैंने तुमसे न कहा था कि निश्चय ही मैं
जानता हूँ गुप्त वस्तु को ज़मीन व आसमान की? इसी प्रकार निम्नलिखित
वचन हैं – फ़यस्त्रवरुना मिनफहुम
मस्खरल्लाहो मिनफहुम। [सूरते तौबा आयत ७९]
फिर ठट्ठा करते हैं और अल्लाह भी उनसे ठट्ठा करता है। इन्नलमुनाफ़िकूना युखाद ऊनल्लाहा व
हुवाख़ाद अहुम। [नसा आयत १४२]
वास्तव में मुनाफिक (इस्लाम के विरोधी) धोखा देते हैं अल्लाह को और वह धोखा
देता है उनको। अल्लाह के धोखे में आ
जाने की पराकाष्ठा यह है कि उत्तर में वह भी धोखा देने लगे। जैसा कि ईसा की कहानी में
ऊपर वर्णन किया गया है। सूरते बकर
में आया है – अल्लाहो उदुव्वुनलिल
काफिरीन। [सूरते बकर आयत ९८] और
अल्लाह है शत्रु काफ़िरों का। लीजिए
अब शत्रुता भी करने लगे, एक तो काफ़िर पैदा करना फिर शत्रुता पर तुल जाना। सूरते निसा में लिखा है – वल्लाहोअरकसहमबिमा कसबू, अतुरीदूना अन तहदू मन
अज़ल्ललाहो वमन्यजुल्लिल्लाहो फ़लन तजिदालहूसबीला। [सूरत निसा आयत ८८] और अल्लाह ने उल्टा किया उन्हें साथ उसके
जो उन्होंने किया। क्या तुम चाहते हो कि राह पर लाओ उसको जिसे पथ-भ्रष्ट किया
अल्लाह ने और जिसे पथ-भ्रष्ट किया अल्लाह ने कदापि न पाएगा तू उसके लिए
मार्ग। इसकी विगत तफ़सीरे जलालैन
में इस प्रकार दी गई है – जंगे उहद
(इस्लाम के प्रारम्भिक युद्धों में से एक) से एक समूदाय गैर मुस्लिमों का भाग गया
था। मुसलमान परेशान थे, अर्थात् उन्हें चिन्ता हुई कि उन्हें फिर मुसलमान बनावें तब अल्लाताला ने कहा
कि इन्हें पथ-भ्रष्ट हमने किया है तुम इन्हें सन्मार्ग नहीं दिखा सकते। क्या ही
अच्छा होता! कि इस्लाम मानने वाले भाग्य के इस चमत्कार के मानने वाले होते और
शुद्धि को अल्लामियाँ की इच्छा मानकर उसके विरुद्ध शोर न मचाते। कुरान स्वयं कहता है – इन्नल्लजीना आमनू सुम्मा कफ़रु सुम्मा
आमनू सुम्मा कफ़रु सुम्मा अज़दादू कुफ़रा, लमयकु निल्लाहो लियग़फ़रि लहुम वला लियहदीहिम सबीला।
[सूरते निसा आयत १३७] वास्तव में जो
मुसलमान बने फिर काफ़िर हुए, फिर ईमान लाए, फिर काफ़िर हुए। फिर कुफ्र में वृद्धि की। अल्लाह
उनको क्षमा नहीं करता और उन्हें मार्ग नहीं दिखाता। इस आयत की व्याख्या तफ़सीरे हुसैनी में
इस प्रकार है – वास्तव में जो लोग
मूसा अलैहस्सलाम पर। ईमान लाए अर्थात् यहूदी फिर काफ़िर बन गए। गोसाला (बछड़ा)
पूजने के कारण। फिर ईमान लाए और तौबा की फिर काफ़िर हो गए। ईसा अलैहिस्सलाम की शान
में……….फिर ज्यादा किया उन्होंने कुफ्र मुहम्मद सल्लेअल्ला व सल्लम से इंकार
करके….नहीं बख्शेगा अल्ला उन्हें, हकताला ने जान लिया है कि उनकी समाप्ति कुफ्र पर
है। यह व्यर्थ प्रयत्न क्यों? – इसका अर्थ यह है कि जिनके
पूर्वज हज़रत मूसा पर ईमान लाकर फिर उनसे व उनके पश्चात् हज़रत ईसा व हज़रत
मुहम्मद से भी विरोधी रहे उनके लिए न इस्लाम है और न जन्नत। हम आश्चर्यचकित हैं कि
यह मुसलमान लोग इस्लाम के प्रचार का व्यर्थ का प्रयत्न ही क्यों करते हैं ?[६] [ पाद टिप्पणी ६.
पण्डितजी का भाव यह है कि जब अल्लाह को अपना दोज़ख़ भरना ही है और वह जिसे चाहता
है मार्गभ्रष्ट करता है फिर इस्लाम के प्रचार का प्रयास ही व्यर्थ है।
-‘जिज्ञासु’] भाग्य-लेख की समस्या
की विशेषता यह है कि मनुष्य मात्र तो उससे बन्ध गये हैं, यह और बात है कि कानून के
साथ नहीं, अल्लाह मियाँ की अनियमित
और अवैधानिक इच्छाओं के साथ मगर अल्लाह मियाँ स्वयं स्वतन्त्र हैं। किसी आचार
संहिता व तर्क के बन्धन में नहीं। लेखक –
पण्डित चमूपति एम॰ए॰ ‘चौदहवीं का चाँद’
पुस्तक से संकलित
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