अहंकार को कैसे मिटाएं?
मैं शरीर हूँ, शरीर मेरा है यह मान्यता रखना ही खास भूल है। मूल भूल है कि 'मैं शरीर हूँ'। आप इसपर जरा विचार करो-शरीर मिला है। मिली हुई चीज अपनी नहीं होती। अपनी चीज सदैव अपनी ही रहती है, कभी बिछुड़ती नहीं, पहले से अन्त तक अपनी ही रहेगी और जो मिली है, वह छूट जाती है, सदैव साथ नहीं रहती। ऐसी मिली हुई वस्तु 'मेरी' कैसे हुई? | स्वयं पहले था और स्वयं पीछे रहेगा। बीच में शरीर मिला तो यह स्वयं शरीर कैसे हुआ?
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते। एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥
(गीता १३।१) 'इदंता' से दीखनेवाले शरीरको क्षेत्र कहा है। इसको जाननेवालेको इसी श्लोकमें क्षेत्रज्ञ कहा है। इस वर्णनसे यह स्पष्ट है कि क्षेत्रज्ञ और क्षेत्र दो चीजें हैं। जैसे, मैं खम्भे को जानता हूँ, तो खम्भा जानने में आनेवाली चीज हुई और मैं खम्भे को जाननेवाला हुआ। जाननेवाला, जाननेमें आनेवाली वस्तु से भिन्न होता है यह नियम है। मैं शरीर को जानता हूँ, इससे स्पष्ट हुआ कि शरीर मुझसे अलग है। हम यही कहते हैं- यह मेरा पेट है, यह मेरा पैर है, यह मेरी गर्दन है, यह मेरा मस्तिष्क है, ये मेरी इन्द्रियाँ हैं, यह मेरा मन है, यह मेरी बुद्धि है। अपने से अलग को ही 'मेरा' कहा जाता है।
अतः ये सबसे अलग हैं। वास्तवमें विचारा जाय तो 'अहम्' यानी 'मैं' पन भी ‘इदम्' ही है; क्योंकि जिस प्रकाशमें संसार दिखायी देता है; उसी प्रकाशमें 'अहम्' भी दिखायी देता है। जिस प्रकाश में शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण इदंता से दिखायी देते हैं, उसी सामान्य प्रकाश में अहं भी इदंता से दिखायी देता है। दीखने वाला अपना स्वरूप कैसे हुआ? वास्तवमें 'अहम्' भी अपना स्वरूप नहीं है। । मैं शरीर नहीं हूँ-इस बात को दृढ़ता से मान लो। मैं न कभी शरीर था, न कभी शरीर हो सकता हूँ, न शरीर रहूँगा और न अभी वर्तमान में मैं शरीर हूँ। मैं इससे बिलकुल अलग हूँ। इसकी पहचान क्या है कि मैं शरीर से अलग हूँ? यदि शरीर से मेरी एकता होती तो चाहे तो मरने पर शरीर मेरे साथ चलता अथवा शरीर के साथ मैं भी रहता पर न तो मैं शरीर के साथ रहता हूँ और न शरीर मेरे साथ जाता है।
इस परिस्थिति में शरीर के साथ मेरी एकता कैसे हुई? अर्थात् मैं शरीर कैसे हुआ? मकान और मैं अलग-अलग हूँ। मकान से मैं बाहर चला जाता हूँ तो मकान मेरे साथ नहीं जाता। मकान यहीं रहता है, मैं बाहर चला जाता हूँ तो इससे सिद्ध हुआ कि मैं मकान के साथ नहीं रहता, यानी मैं और मकान ये दो हैं, एक नहीं। इसी प्रकार शरीर और मैं ये दो हैं एक नहीं। ऐसा ठीक बोध होने पर अहंकार मिट जाता है और अहंकार मिटने पर मैं और शरीर ये दोनों अलग-अलग दिखायी देते हैं।
मैं शरीर हूँ, शरीर मेरा है और शरीर मेरे लिये है ये तीन खास भूलें हैं। न तो मैं शरीर हूँ, न शरीर मेरा ही है और न शरीर मेरे लिये ही है। मेरे लिये शरीर हो ही नहीं सकता क्योंकि मैं नित्य-निरन्तर रहनेवाला और यह नित्य-निरन्तर बदलनेवाला है। यह शरीर बदल रहा है, जा रहा है, वियुक्त हो रहा है प्रतिक्षण; यह मेरे लिये कैसे हो सकता है? कोई एक भी क्षण ऐसा नहीं है, जिस क्षणमें यह शरीर वियुक्त न होता हो।
मनुष्य मानता है कि जब शरीर मर जाता है, तब शरीर का वियोग होता है; इसलिये जन्म से मृत्यु तक हमारा रहा। यह बहुत स्थूल बुद्धि से मान्यता है। बारीकी से देखा जाय तो शरीर जो सौ वर्षतक रहनेवाला है, वह एक वर्ष का बालक हो गया तो अब ९९ वर्ष ही रहनेवाला रहा। दृष्टि होती है कि बालक बढ़ रहा है, यह बात बिलकुल गलत है। बालक तो प्रतिक्षण मर रहा है।
अपने भी सोचते हैं कि हम बढ़ रहे हैं, हम जी रहे हैं, यह बिलकुल झूठी बात है। सच्ची बात तो यह है कि हम मर रहे हैं, प्रतिक्षण मर रहे हैं! हम मानते हैं कि मरने के बाद शरीर से वियोग हो जाता है, पर वास्तव में वियोग प्रतिक्षण हो रहा है, तो हरदम वियुक्त होनेवाला शरीर हमारे लिये कैसे हो सकता है? हमारा कैसे हो सकता है? और हम उसके कैसे हो सकते हैं? अब विचार करें कि क्या मेरा पूरा आधिपत्य शरीरपर चलता है? अगर चलता है, तो इसको हम बीमार न होने दें, कमजोर न होने दें और कम-से-कम मरने तो मत ही दें। पर हमारा आधिपत्य इसपर नहीं चलता फिर शरीर हमारा कैसे हुआ?
बालकपन में जो मैं था, वही अब भी हूँ। अपना होनापन निरन्तर वैसा-का-वैसा दीखता है, पर शरीर बदलता है। बदलनेवाला शरीर 'मैं' कैसे हुआ? मैं नित्य-निरन्तर रहनेवाला, शरीर नित्य-निरन्तर ही बदलनेवाला वह शरीर मेरे लिये कैसे हुआ? मेरे लिये तो वही हो सकता है, जो सदैव मेरे साथ रहे, और मेरे काम आ जाय। पर यह मेरे साथ रहता नहीं, तो यह मेरे लिये कैसे हुआ?
शरीर की संसार के साथ एकता है 'छिति जल पावक गगन समीरा' जिन पाँच तत्त्वों से यह संसार बना है, उन्हीं पाँच तत्त्वों से यह शरीर बना है। शरीर और संसारकी एक जाति है। यह शरीर संसार का एक अंग है। शरीर हम को मिला है संसार की सेवा के लिये, तो अपने लिये शरीर कैसे हुआ? शरीर हम को क्या निहाल करेगा? हम शरीर को अपना तथा अपने लिये न मानकर संसार का मानकर संसार की सेवा में लगा दें। इस प्रकार संसार की वस्तु संसार के काम में लगा दें तो इससे हमारा सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा, इससे माना हुआ सम्बन्ध टूट जायगा अर्थात् शरीरसे 'मैं-पन' मिट जायगा।
आप एक शंका कर सकते हैं कि इस शरीर से हम भगवन् नाम जप करते हैं, इससे ध्यान लगाते हैं, चिन्तन करते हैं, इससे सेवा करते हैं तो यह शरीर किसके काम आया? यानी हमारे ही तो काम आया? हम जप, ध्यान करते हैं, तो भगवान् की प्राप्ति होगी, भगवान् के दर्शन होंगे, तो इस प्रकार शरीर हमारे काम आया। आप थोड़ा गहरा विचार करें-वास्तव में शरीर आपके काम नहीं आया। शरीर से मेरा पन मिटा है। भजन-ध्यान करने से अन्तःकरण शुद्ध हो गया। शुद्ध अन्त:करण में यह ज्ञान जाग्रत् हुआ कि 'मैं शरीर नहीं हूँ तथा शरीर मेरा नहीं है' आप ज्यों-के-त्यों हैं।
आपके शरीर क्या काम आया? शरीर की शुद्धि हुई। शुद्धि होने से मैं पन, मेरा पन मिटता है। मैं पन और मेरा पन यह अशुद्धि है। (गीता (५।११) में श्रीभगवान् ने कहा है कि योगीलोग अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये कर्म करते हैं। केवलैः पद श्लोक में आया है। केवलः पद इन्द्रिय, मन, बुद्धि, काया सबके साथ लगेगा।
केवले न कायेन, केवलेन मनसा, केवलया बुद्धया, केवलैः इन्द्रियः।
केवल कहने का मतलब इनके साथ अपना सम्बन्ध न मानना । है। इनके साथ अपना पन मानना ही अशुद्धि है। रामायण में 'ममता मल जरि जाइ' ऐसा आया है, ममतारूपी मल है।
हम बहुत वर्षों से जप-ध्यान करते हैं और मन शुद्ध नहीं होता, क्या कारण है? उस में मेरा पन है, यह मान्यता रखते हैं। यह मान्यता पकड़ी हुई है। मन को शुद्ध करना चाहते हो, पर मेरापन छोड़ते नहीं। मेरापन रखना ही अपवित्रता है। जप-ध्यान अपने लिये मानते हो, ऐसा मानते हो कि जप-ध्यान करें तो हमारा कल्याण होगा। पर वास्तव में नाम-जप से, कीर्तनसे, भजन-ध्यान सेअन्तःकरण शुद्ध होगा, तब यह बात समझमें आ जायगी कि ये 'मैं' नहीं, ये 'मेरे' नहीं हैं। शरीर मेरा नहीं है, शरीर मैं नहीं हूँ, फिर आपके लिये शरीर कैसे हुआ? आप तो शरीर-मन-बुद्धि से सदैव अलग ही हैं।
अपने लिये मानते रहने से सम्बन्ध जुड़ता है। परमात्मा का हम चिन्तन करते हैं तो मन, बुद्धि से ही चिन्तन करेंगे। मन-बुद्धि प्रकृतिके हैं कि आपके तो भगवान् के चिन्तन में आप पराधीन हो गये। प्रकृति 'पर' है, आप स्वयं 'स्व' हो। 'पर' का सहारा लेना पड़ा, तो आप पराधीन हुए। ध्यान करो तो जड़ का सहारा लेना पड़ेगा। समाधि लगाओ तो जड़ का सहारा लेना पड़ेगा। लेकिन जड़ के द्वारा चेतन की प्राप्ति होती नहीं। चेतन की प्राप्ति जड़के त्याग से होती है। जड़ता के त्यागसे चिन्मयता में हमारी स्थिति होगी। जड़ता का आश्रय लेंगे, जड़ता की आवश्यकता समझेंगे तो जड़ चीजों से, शरीर आदि से सम्बन्ध-विच्छेद कैसे करेंगे?
जब इनका त्याग करने से ही कल्याण होगा, तो ये हमारे क्या काम आये? इनका त्याग ही हमारे काम आता है। वह आज ही कर दें तो कितना अच्छा होगा। ठीक तरह से समझें इस बात को कि शरीर हमारे लिये कैसे हुआ? इसलिये भजन-ध्यान करो, दान-पुण्य करो, सेवा करो, सब कुछ करो शरीर से, पर अपने लिये नहीं, तो ये सब चीजें कल्याण करने वाली हो जायेंगी। लेकिन कब? जब इस भाव से करोगे कि ये सब मेरे नहीं हैं, मेरे लिये नहीं हो सकती हैं।
प्रश्न उठता है कि फिर करते क्यों हो?
दूसरों से हमने लिया है-इसलिये। शरीर भी दूसरों से मिला है, अन्न-जल दूसरों से मिलता है, हवा भी हमारे जीने के लिये मिलती है। राह, सड़क औरों से मिली है, छाया, मकान सब चीजें औरों से मिली हैं। मिली हुई चीज जिनसे मिली है, उनकी सेवा में लगा देना है कर्जा उतारने के लिये। आगे कर्जा लेना नहीं है। अपना मानकर अपने लिये चाहते रहने से कर्जा चढ़ता रहेगा। इसलिये नया कर्जा करना नहीं है। | शरीर हमारे काम आ जाय, यह इच्छा रहेगी, तो यह आपके कैसे काम आयेगा? आप चेतन हैं, जड़ शरीर आपके कैसे काम आयेगा? तो हम क्या करें?
जड़ता से माना हुआ सम्बन्ध है। उस सम्बन्ध को छुड़ाने के लिये सेवा करें, भजन-ध्यान करें, जप करें, समाधि लगायें, परंतु अपने लिये नहीं। अपने लिये मानते रहने से व्यक्तित्व बना रहता है। श्रुतियों में 'ब्रह्मणे स्वाहा इदं न मम' आता है। 'इदं न मम' पद देने का तात्पर्य है कि यह हवि हमारे लिये नहीं है अर्थात् यज्ञके साथ अपना सम्बन्ध विच्छेद कर देना।
श्रीगीता जी में भी 'दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे। देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥' (१७। २०) इस श्लोकमें 'अनुपकारिणे' पद देकर अपने लिये किंचिन्मात्र भी न चाहनेका लक्ष्य कराया है। इस श्लोकपर जरा विचार करें। आपको व्याकरण की एक आश्चर्यकी बात बताता हूँ। 'अनुपकारिणे' पद में चतुर्थी विभक्ति दी है और 'देशे काले च पात्रे' में सप्तमी विभक्ति दी है। इसका क्या तात्पर्य है ? 'पात्रे च' में तो कम-से-कम सप्तमी नहीं कहनी चाहिये थी। 'पात्राय' होना चाहिये, सप्तमी कैसे हो गयी वहाँ? इसका तात्पर्य क्या है, पूरा तो भगवान जाने और व्यासजी महाराज जानें, अपने को पता नहीं। हम तो कोई विद्वान् हैं नहीं, परंतु हमारी धारणामें 'देशे काले च पात्रे च' कहने में 'देशे काले प्राप्ते सति' अर्थात् देश, काल और पात्र के प्राप्त होनेपर-'अनपकारिणे दीयते' है। 'अनुपकारिणे' का अर्थ यह है कि (जिसने हमारा) न तो उपकार किया है, न उपकार करता है और न हमें उससे उपकारकी आशा है।
उपकारी को दिया जाय तो वह सात्त्विक दान नहीं होगा, वह दान राजस होगा। 'यत्तु प्रत्युपकारार्थम्' आदि कहा है, जो राजस हुआ, क्योंकि दान से सम्बन्ध जोड़ लिया, रागात्मक सम्बन्ध हो गया और 'रजो रागात्मकं विद्धि' होता है।
राग क्या है? सम्बन्ध जोड़ना है। अतः उपकार की आशा रखकर देना सात्त्विक दान नहीं है। वह बाँधनेवाला दान है। यद्यपि भगवान् ने गीता (१७।२०) में वर्णित दानको सात्त्विक दान कहा है, परंतु वास्तवमें यह दान नहीं, यह त्याग है, क्योंकि यह देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर, अपना सम्बन्ध न रखते हुए दिया जाता है।
ऐसे ही जप-ध्यान का सम्बन्ध भी हमारे साथ न रहे। सेवा का भी सम्बन्ध हमारे साथ न रखें। यदि सेवा करके हम समझते हैं कि हमने बड़ा काम किया तो गलती करते हैं। हमारे पास जो शक्ति है, यह समष्टि की शक्ति है, समष्टि से अधिक या अलग कोई योग्यता या शक्ति आपके पास है क्या? विद्या, बुद्धि, योग्यता कुछ भी परिस्थिति जो आपको प्राप्त है, वह आपको समष्टि से मिली है। समष्टि की चीज समष्टि की सेवा में लगा दी तो क्या अहसान किया? उसी की चीज उसी के काम में लगा देना ईमानदारी है। अपने लिये लगाते हो तो अहंकार आयेगा। मैंपन है. तो मेरापन आयेगा. मेरे लिये आयेगा।
न तो यह मैं हूँ, न मेरा है, न मेरे लिये है। यह करके जिसको कहते हैं, वह 'मैं' कैसे हुआ? यह 'मैं' नहीं होता। 'मैं' होता है, वह यह नहीं होता। शरीर यह है, मन यह है, बुद्धि यह है, प्राण यह है। मैं पन यह है। तो ये सब हमारा स्वरूप कैसे हुए? न तो मैं हूँ और न ये मेरे हैं। खूब सोचो, इसे समझने के लिये आपने किसी को पढ़ाया। किसीको आपने शिष्य बनाया। गायत्री मन्त्र दिया आपने, तो वह आपका शिष्य हो गया और आप उसके गुरुजी हो गये। गुरु और शिष्य दो हुए। अब तीसरा दोनोंका आपस का सम्बन्ध हुआ। यह सम्बन्ध एक अलग सत्ता हो गया। यह सम्बन्ध ही एक आफत हो गया। यह सम्बन्ध ही जन्म-मरण का कारण है। अतः जड़तासे सम्बन्ध विच्छेद जल्दी-से-जल्दी कर लेना चाहिये। जड़ता से सम्बन्ध-विच्छेद होना ही अहंकार का मिटना है।
नारायण! नारायण! नारायण!
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