ब्रह्मज्ञान | जिसे सुन कर जीवन बदल जाये
सभी प्रभु के पुत्र
१ . ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । ।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति । ।( गीता , १५ / ७ )
सभी मानव ईश्वर की सन्तान हैं ।
मानव तन की सार्थकता
२. अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् । । ( गीता , ९ / ३३ )
सुखरहित , क्षणभंगुर किन्तु दुर्लभ मानव - तन को पाकर मेरा भजन कर अर्थात् भजन का अधिकार मनुष्य - शरीरधारी को है ।
मनुष्य की केवल दो जाति
३. द्वौ भूतसग लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु । । ( गीता , १६ / ६ )
मनुष्य केवल दो प्रकार के हैं - देवता और असुर । जिसके हृदय में दैवी सम्पत्ति कार्य करती है वह देवता है तथा जिसके हृदय में आसुरी सम्पत्ति कार्य करती है वह असुर है । तीसरी कोई अन्य जाति सृष्टि में नहीं है ।
हर कामना ईश्वर से सुलभ
४ . त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक | मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् । । ( गीता , ९ / २० )
मुझे भजकर लोग स्वर्ग तक की कामना करते हैं ; मैं उन्हें देता हैं । अर्थात् सब कुछ एक परमात्मा से सुलभ है ।
भगवान की शरण से पापों का नाश
५. अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्य : पापकृत्तमः । ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि । । ( गीता , ४ / ३६ )
सम्पूर्ण पापियों से अधिक पाप करनेवाला भी ज्ञानरूपी नौका द्वारा निःसन्देह पार हो जायेगा । | |
ज्ञान
६ .अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थ दर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा । । ( गीता , १३ / ११ )
आत्मा के आधिपत्य में आचरण , तत्त्व के अर्थरूप मुझ परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन ज्ञान है और इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है , अज्ञान है । अतः ईश्वर की प्रत्यक्ष जानकारी ही ज्ञान हैं ।
भजन का अधिकार सबको
७ . अपि चेत्सुदराचारो भजते मामनन्यभाम् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः । । ( गीता , ९ / ३० )
७/२. क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति । ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति । । ( गीता , ९ / ३१ )
अत्यन्त दुराचारी भी मेरा भजन करके शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है एवं सदा रहनेवाली शाश्वत शान्ति को प्राप्त कर लेता है । अतः धर्मात्मा वह । है जो एक परमात्मा के प्रति समर्पित है और भजन करने का अधिकार दुराचारी तक को है ।
भगवत्पथ में बीज का नाश नहीं
८. नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् । । ( गीता , २ / ४० )
इस आत्मदर्शन की क्रिया का स्वल्प आचरण भी जन्म - मरण के महान् ‘ भय से उद्धार करनेवाला होता है ।
ईश्वर का निवास
९. ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया । । ( गीता , १८ / ६१ )
ईश्वर सभी भूतप्राणियों के हृदय में रहता है ।
९/२. तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत । ।
तत्प्रसादात्परं शान्ति स्थान प्राप्स्यसि शाश्वतम् । । ( गीता , १८ / ६२ )
सम्पूर्ण भाव से उस एक परमात्मा की शरण में जाओ ।
जिसकी कृपा से । तु परमशान्ति , शाश्वत परमधाम को प्राप्त होगा ।
यज्ञ
१०. सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे । । आ
त्मसंयमयोगाग्नौ जति ज्ञानदीपिते । । ( गीता , ४ / २७ )
सम्पूर्ण इन्द्रियों के व्यापार को , मन की चेष्टाओं को ज्ञान से प्रकाशित हुई
आत्मा में संयमरूपी योगाग्नि में हवन करते हैं ।
१०/२. अपाने जुक्ति प्राण प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगतीरुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः । । ( गीता , ४ / २९ )
बहुत से योगी श्वास को प्रश्वास में हवन करते हैं और बहुत से प्रश्वास को श्वास में । इससे उन्नत अवस्था होने पर अन्य श्वास - प्रश्वास की गति रोककर प्राणायामपरायण हो जाते हैं । इस प्रकार योग - साधना की विधि - विशेष का नाम यज्ञ है । उस यज्ञ को कार्यरूप देना कर्म है । ।
कर्म
११. एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे । । ( गीता , ४ / ३२ )
इस प्रकार बहुत से यज्ञ जैसे श्वास का प्रश्वास में हवन , प्रश्वास का श्वास में हवन , श्वास - प्रश्वास का निरोध कर प्राणायाम के परायण होना इत्यादि यज्ञ जिस आचरण से पूर्ण होता है , उस आचरण का नाम कर्म है । कर्म माने आराधना , कर्म माने चिन्तन ! योग साधना पद्धति का नाम यज्ञ है ।
विकर्म
विकर्म का अर्थ विकल्पशून्य कर्म है । प्राप्ति के पश्चात् महापुरुषों के कर्म विकल्पशून्य होते हैं । आत्मस्थित , आत्मतृप्त , आप्तकाम महापुरुषों को न तो कर्म करने से कोई लाभ है और न छोड़ने से कोई हानि ही है , फिर भी वे पीछेवालों के हित के लिए कर्म करते हैं । ऐसा कर्म विकल्पशून्य है , विशुद्ध है और यही कर्म विकर्म कहलाता है । ( गीता , ४ / १७ ) १२ .
यज्ञ करने का अधिकार
१२. यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम । । ( गीता , ४ / ३१ )
यज्ञ न करनेवालों को दुबारा मनुष्य - शरीर भी नहीं मिलता अर्थात् यज्ञ करने का अधिकार
उन सबको है जिन्हें मनुष्य - शरीर मिला है ।
ईश्वर देखा जा सकता है
१३ . भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टं च परन्तप । । ( गीता , ११ / ५४ )
अनन्य भक्ति के द्वारा मैं प्रत्यक्ष देखने , जानने तथा प्रवेश करने के लिये भी सुलभ हूँ ।
१३/२. आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन | माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् । । ( गीता , २ / २९ )
इस अविनाशी आत्मा को कोई विरला ही आश्चर्य की तरह देखता है ,
आश्चर्य की ज्यों उपदेश करता है और कोई विरला ही इसे
आश्चर्य की ज्यों सुनता है अर्थात् यह प्रत्यक्ष दर्शन है । ।
आत्मा ही सत्य है , सनातन है
१४ . अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः । । ( गीता , २ / २४ )
यह आत्मा सर्वव्यापक , अचल , स्थिर रहनेवाला और सनातन है । आत्मा ही सत्य है ।
विधाता और उससे उत्पन्न सृष्टि नश्वर है
१५ . आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते । । ( गीता , ८ / १६ )
ब्रह्मा और उससे निर्मित सृष्टि , देवता और दानव दु : खों की खानि , क्षणभंगुर और नश्वर हैं ।
देव - पूजा
१६. कामैस्तैस्तैर्हतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया । । ( गीता , ७ / २० )
कामनाओं से जिनकी बुद्धि आक्रान्त है , ऐसे मूढबुद्धि ही परमात्मा के
अतिरिक्त अन्य देवताओं की पूजा करते हैं ।
१६/२. येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः । ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् । । ( गीता , ९ / २३ )
देवताओं को पूजनेवाला मेरी ही पूजा करता है ; किन्तु
वह पूजन अविधिपूर्वक है , इसलिये नष्ट हो जाता है ।
शास्त्रविधि का त्याग
१६/३. यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः । ।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः । । ( गीता , १७ / ४ )
अर्जुन, शास्त्रविधि को त्यागकर भजनेवाले सात्त्विकी श्रद्धावाले
देवताओं को , राजस पुरुष यक्ष - राक्षसों को और तामस पुरुष भूत - प्रेतों को पूजते हैं ; किन्तु
१६/४. कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः ।
मां चैवान्तः शरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् । । ( गीता , १७ / ६ )
वे शरीररूप से स्थित भूतसमुदाय और अन्तर्यामी रूप में स्थित मुझ
परमात्मा को कृश करनेवाले हैं, उनको तु असुर जान ।
अर्थात् देवताओं को पूजनेवाले भी आसुरी वृत्ति के अन्तर्गत हैं ।
अधम
१७. तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपाम्यजत्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु । । ( गीता , १६ / १९ )
जो यज्ञ की नियत विधि छोड़ कल्पित विधियों से यजन करते हैं वे ही
क्रूरकर्मी , पापाचारी तथा मनुष्यों में अधम हैं । अन्य कोई अधम नहीं है ।
नियत विधि क्या है ?
१८. ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् । । ( गीता , ८ / १३ )
ॐ , जो अक्षय ब्रह्म का परिचायक है उसका जप तथा मुझ एक परमात्मा का
स्मरण , तत्त्वदर्शी महापुरुष के संरक्षण में ध्यान । ।
शास्त्र
१९. इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत । । ( गीता , १५ / २० )
इस प्रकार यह अति गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया । स्पष्ट है कि शास्त्र गीता है ।
१९/२. तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि । । ( गीता , १६ / २४ )
कर्तव्य और अकर्तव्य के निर्धारण में शास्त्र ही प्रमाण है ।
अत : गीता में निर्धारित विधि से आचरण करें ।
धर्म
२०. सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । । ( गीता , १८ / ६६ )
धार्मिक उथल - पुथल को छोड़ एकमात्र मेरी शरण हो जा अर्थात् एक भगवान के प्रति
पूर्ण समर्पण ही धर्म का मूल है , उस प्रभु को पाने की नियत विधि का आचरण ही
धर्माचरण है ( अध्याय २ , श्लोक ४० ) और जो उसे करता है वह अत्यन्त पापी भी
शीघ्र धर्मात्मा हो जाता है । ( अध्याय ९ , श्लोक ३० ) ।
धर्म प्राप्त कहाँ से करें ?
२१ . ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च । ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च । । ( गीता , १४ / २७ )
उस अविनाशी ब्रह्म का , अमृत का , शाश्वत - धर्म का और अखण्ड एकरस
आनन्द का मैं ही आश्रय हूँ अर्थात् परमात्मस्थित सद्गुरु ही इन सबका आश्रय है ।
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