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नित्यानित्य-विचार व प्रलयावस्था-सम्पादन


 नित्यानित्य-विचार व प्रलयावस्था-सम्पादन



आत्मा और शरीर के नित्य-अनित्य स्वरूप को जानने के लिए विवेक-विचार की प्रक्रिया अपनावें। बुद्धि में बैठाएँ कि यह शरीर नाशवान्है। व्यक्ति इसे नाशवान् मानता है या सदा रहनेवाला ? इसका निर्णय करके देखो, विचार करो और नित्य को नित्य तथा अनित्य को अनित्य निश्चयात्मक जानो। केवल शाब्दिक रूप से नहीं जानना है। दो और दो चार ही होते हैं इस के तुल्य दृढ निश्चयात्मक जानो कि यह शरीर अवश्य नष्ट होगा। कब होगा? चाहे कभी भी किसी भी घटना से होगा, अवश्य ही। १०१ प्रकार से मृत्यु हो सकती है। हमने एक भवन बनाया, दो बनाये, ये सारे के सारे यहीं पड़े रहेंगे। हमें जला दिया जायेगा। कुछ नहीं रहेगा। इस वास्तविक चिन्तन से व्यक्ति घबराया हुआ मिलेगा। न 'में' ' मेरा' फिर भी नहीं मिलेगा। यह मेरा पुत्र विनय है। यह फिर कभी नहीं मिलेगा। लाखों करोड़ों वर्षों में भी नहीं। जो गया सो गया।


तुम्हारी इच्छा बनी है कि इस संसार के साथ खाते-पीते सदा जुड़े रहें। पर क्या यह सम्भव है ? कैसे सदा जीयेगा ? कोई है जो सदा जीयेगा ? यदि नहीं तो फिर व्यक्ति क्यों नहीं मानता कि मैं मरूँगा ? इसी का नाम तो है अनित्य को अनित्य और नित्य को नित्य समझना। शरीर को मार दिया गया, तो फिर क्या शरीर के परमाणु, आत्मा व ईश्वर भी नाशवान् पदार्थ हैं? नहीं, ये तो सदा रहते हैं।


एक साधक - "स्वामीजी ! यह तो हम भी जानते हैं ।" स्वामीजी "यह शरीर नाशवान् है" ऐसा आप लोगों का मानना अभी केवल शाब्दिक ज्ञान है। जब व्यक्ति इसे वास्तविक जानने लगता है तो उसका जीवन बदल जाता है, वह धर्म का पालन करने में पूरा पुरुषार्थ करता है, उसे सदा मुक्ति-प्राप्ति की लगन रहती है, उसकी संसार व संसार के भोगों से अरुचि हो जाती है। क्या आप अपने को इस स्तर पर पाते हैं ? जब साधक अनित्य को अनित्य जान लेता है तो फिर नित्य को नित्य भी जान लेता है। सत्य ज्ञान की विद्यमानता से असत्य ज्ञान का विनाश होता है।


जो वस्तु तोड़ने से टूट जाती है वह नाशवान् होती है। जो वस्तु उत्पन्न होती है वह नाशवान् होती है। शंका उभर सकती है कि शरीर की उत्पति तो देखी जाती है पर पृथ्वी की उत्पति नहीं देखी जाती है। इसका समाधान सुनें। यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि पृथ्वी का कोई भी भाग हीरा, पत्थर, मिट्टी आदि तोड़ने से टूट जाता है, जिस वस्तु का एक अंश टूट सकता है नष्ट हो सकता है वह वस्तु पूरी भी टूट सकती है नष्ट हो सकती है अतः पृथ्वी नाशवान् है। पृथ्वी नाशवान् है क्योंकि यह अनेक खण्डों से बनी हुई है।


जो-जो वस्तु अनेक खण्डों से बनी हुई होती है वह-वह नाशवान् होती है, जैसे यह घड़ा। अत: अनेक खण्डों से बनी होने के कारण पृथ्वी भी नाशवान् है।


यदि किसी वस्तु को देखकर व्यक्ति जानना चाहता है कि यह नाशवान्है  या नहीं ? तो उस वस्तु को अनन्त काल के सामने रखकर देखे। यह भूमि जिसकी सीमा नहीं दीखती वह अनन्त काल में कभी न कभी तो विनाश को प्राप्त होगी ही। फिर कभी न कभी यह बनी भी है। अनादि काल को सामने रखकर देखें कि कभी न कभी यह पृथ्वी उत्पन्न हुई। जब साधक इस परिणाम पर पहुँचता है कि यह पृथ्वी उत्पन्न हुई और विनाश को प्राप्त होगी तो इसके परिज्ञान से उसने अनित्य पृथ्वी को अनित्य जाना। पर क्या यह पृथ्वी नष्ट होने पर नितान्त अभाव रूप में बदल जाती है या खण्डों में बदल जाने से परिवर्तित हो जाती है ? जो भावरूप है उसका अभाव कभी नहीं होता। छोटे-छोटे सूक्ष्म खण्डों में परिवर्तित हो जाना पृथ्वी का नाश है।


प्रत्येक शरीर उत्पन्न होता है और नष्ट होता है। इसी प्रकार पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश को नाशवान् सिद्ध करें। यह शरीर नाश को प्राप्त होकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन पांच स्थूल भूतों में लीन हो जाता है। ये स्थूल भूत तन्मात्राओं (सूक्ष्म भूतों में), तन्मात्राएँ अहंकार में और अहंकार महत्तत्त्व में लीन हो जाता है। फिर महत्तत्त्व विनाश को प्राप्त होकर सत्त्व-रज-तम (प्रकृति की साम्यावस्था) को प्राप्त हो जाता है। ये सत्त्व-रज-तम आगे विनाश को प्राप्त नहीं होते। जो सूक्ष्मतम कण कभी भी, किसी भी अवस्था में न टूटें उन्हें परमाणु भी कहा जाता है।


अहंकार अवयवी है, तन्मात्रा भी अवयवी है। जो-जो टूटते चले जाते हैं वे सब अवयवी कहलाते हैं। सत्त्व-रज- तम अवयव हैं, अवयवी नहीं। यह विवेक तत्त्वज्ञान कहलाता है। जो यह उत्पन्न संसार समझ में आया तो अनुत्पन्न प्रकृति (सत्त्व-रज-तम), जीव और ईश्वर भी समझ में आ सकते हैं।


जब व्यक्ति बौद्धिक स्तर पर संसार को प्रलयवत् बना देता है तो समाधि (योग) प्रारम्भ हो जाता है। नित्य को नित्य और अनित्य को अनित्य समझने पर प्रलयवत् अवस्था को बुद्धि में लाकर खड़ी कर लेता है तो चितवृत्ति-निरोध हो जाता है। चितवृत्ति-निरोध का होना समाधि (योग) कहलाता है।


आकृति, रूप, शब्द आदि को देख-सुनकर व्यक्ति की प्रवृत्ति फैलती है और जब इन सब को अपनी बुद्धि से प्रलय अवस्था में देखता है तो प्रवृत्ति समाप्त होती है। "सत्त्व-रज-तम पड़े हुए हैं, जीवात्मा सुषुप्ति जैसी अवस्था में पड़े हुए हैं, ईश्वर नित्य-शुद्ध -बुद्ध अवस्था में रहता हुआ इन्हें ज्यों का त्यों देख रहा है"। तब साधक सारे संसार का परित्याग करता है व तब ईंश्वर की उपासना करता है। व्याप्य संसार की प्रलयवत् अवस्था में व्यापक प्रभु को देखता है। युक्तिपूर्वक जैसे कुछ धागे जोड़ने से रुमाल बनता है ऐसे ही ईश्वर द्वारा बुद्धिपूर्वक परमाणु जोड़ने से संसार बनता है।


प्रकृति-आत्मा-परमात्मा का विवेक प्राप्त करके देखें। क्या में जीवन में खाता-पीता, चलता-फिरता ईश्वर को स्मरण रख पा रहा हूँ? क्या मैं ईश्वर को सम्बोधित कर पा रहा हूँ ? "हे ईश्वर ये हाथ-उँगलियाँ आपने बनाई।" विचारते समय पक्षपात रहित हो अपने जीवन व्यवहार में देखें कि ये हैं या नहीं ? आप अपने को नारद मुनि की तरह मन्त्रवित् ही पायेंगे। आत्मवित् तो शोक को प्राप्त नहीं होता।


समाधि प्राप्त नहीं हो रही, ईश्वर प्रत्यक्ष नहीं हो रहा तो यह निश्चय जानें कि ज्ञान (विवेक) व वैराग्य आपके ठीक नहीं हैं। व्यक्ति जब इस प्रकार चिन्तन करके देखता है तो अपने को मौत के मुंह में पाता है। तब डरने लगता है और सोचता है कि अभी से ये क्यों विचारें? इस डर-भय के कारण विचारना बन्द कर देता है। परन्तु विवेकी संसार को छान मारता है और उसका निष्कर्ष आता है कि मौत से बचने का कोई मार्ग नहीं है। मरना ही पड़ेगा। क्या करूँ? प्रारम्भ में स्थिति को भुलाने के लिए अपने मित्रों-साथियों में जायेगा। खेलने, बैठने, बातचीत करने में लगेगा। यह सच्चाई से मुंह मोड़ना है। परन्तु सच्चाई-वास्तविकता से कहाँ तक मुंह मोड़ेगा ? अत: पुन: सोचने लगता है। धीरे-धीरे मौत की स्थिति में अपना दाह- संस्कार देखता है। जिनको अपना कहता था वे मेरे नहीं रहे, में उनका नहीं रहा। नाम और नामी का अभाव प्रतीत होने लगता है। फिर मृत्यु तक का डर जीत सकता है। बौद्धिक स्तर पर जब कोठी, धनादि सर्वस्व की आहुति देकर अकेला खड़ा रह पाता है तो मृत्यु तक को जीत लेता है।


आगे व्यक्ति सोचने लगा, मेरी हालत तो हो गई सो हो गई परन्तु क्या इन सब मनुष्यादि शरीरधारियों की स्थिति भी यही होगी ? अपने परिवार, पड़ोस, समाज, जगत्, पशु-पक्षियों आदि सब का विनाश अवश्यम्भावी है ? वर्तमान में विद्यमान शरीरधारियों को तो समाप्त कर दिया पर क्या ये संततियाँ यूं ही चलती रहेंगी या अनन्त काल में कभी न कभी, कभी न कभी समाप्त होंगी? ऋषियों की यह बात "एक के पीछे एक सब समाप्त होंगे" अनुमान-प्रमाण से भी सिद्ध होगी।


आगे विचारता है कि जब यह बनना-बिगड़ना-बनना-बिगड़ना होता रहता है तो यह स्वत: बनता रहता है या किसी बनाने वाले से बनता है ? हम बना नहीं सकते और स्वत: कुछ बन नहीं सकता, अत: ईश्वर बनाता है यह सिद्ध हुआ। इस प्रकार अरबों वर्षों के बाद होनेवाली प्रलय का क्षण वर्तमान में दिखाई देने लगता है। संसार प्रलयवत् दिखाई देता है तो शीघ्र समाधि प्राप्त होगी।

 

 इच्छा-विघात से पीड़ित मानव

 

प्रश्न- इच्छाओं का विघात होने पर व्यक्ति दुःखी क्यों होता है ? तथा उस दु:ख से कैसे बचा जाये ?


उत्तर- व्यक्ति मिथ्या अभिमान के कारण यह धारणा बना लेता है कि जो मैं चाहूँगा वह मेरी इच्छा पूर्ण हो जायेगी। किन्तु जब ऐसा नहीं होता तो व्यक्ति दुःखी होता है। हम मन में इच्छा करते हैं कि मेरा काम इस इस तरह हो जाये। जितना चाहता हूँ उतनी मात्रा में व इस ढंग (विधि) से हो जाये। किन्तु ऐसे शत-प्रतिशत कभी किसी की इच्छा पूर्ण नहीं होती। भौतिक स्तर पर सब कामनाओं की पूर्ति नहीं हो सकती। पर हाँ कामनाओं के संस्कार दग्धबीज किये जा सकते हैं।


दुःख से कैसे बचा जाये- व्यक्ति मनन व निदिध्यासन से इस निर्णय पर पहुँचे कि कोई किसी के पूरा अनुकूल नहीं रह सकता। हम भी किसी व्यक्ति के पूर्ण अनुकूल नहीं रहते हैं। पूर्ण अनुकूलता न होने में कारण हैं -


(१) प्रत्येक व्यक्ति कर्म करने में स्वतन्त्र है।


(२) व्यक्तियों के अपने विभिन्न संस्कार और योग्यताएँ होती हैं।


(३) व्यक्ति स्वार्थी, प्रमादी, आलसी आदि होता है।


(४) व्यक्ति के बौद्धिक स्तर गिरता और चढ़ता रहता है।


उपाय - हर समय यह मन में रखें कि घनिष्ट से घनिष्ट और निकट से निकट व्यक्ति वह चाहे मेरा पुत्र पत्नी आदि भी क्यों न हो जैसा मैं चाहता हूँ वैसा ही बोले, विचारे और वर्ताव करे यह सम्भव नहीं है । क्योंकि कत्त्ता तो कहते ही उसे हैं जो कर्तुम, अकर्तुम, अन्यथाकर्तुम्में स्वतन्त्र हो अर्थात् चाहे तो करे, न चाहे तो न करे या उल्टा करे। करने में स्वतन्त्र होने से कोई व्यक्ति हमारा विरोध भी कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति विचारने, बोलने, करने में स्वतन्त्र है। उस पर नियन्त्रण नहीं किया जा सकता। ईश्वर की धर्माचरण की आज्ञा को नहीं चाहे तो नहीं माने, ऐसा स्वतन्त्र है।


व्यक्ति वर्षों अपना तन, मन, धन लगाकर खून-पसीना बहाकर सन्तान को योग्य बनाता है; परन्तु वही बड़ा होकर स्वेच्छा से रहे और अपना सहयोग न दे ऐसा हो सकता है। यदि व्यक्ति पहले से अपना मन बना ले कि हो सकता है मेरा पुत्र मेरी इच्छानुसार नहीं रहेगा, कुछ देने पर वापिस नहीं लौटायेगा। तो इस इच्छा के विघातरूपी दु:ख से बच सकता है। भिन्न-भिन्न संस्कार और योग्यताओं के कारण व्यक्ति अपने पर किये गये उपकारों को भूल जाता है। मुझे ठीक समय पर सहयोग मिला था यह कृतज्ञता की भावना धार्मिक संस्कार न होने के कारण भूल जाता है या भुला देता है। कोई व्यक्ति याद होते हुए भी आलस्य, प्रमाद व स्वार्थवश सहयोग नहीं देता ।


इच्छाओं का विघात हो तो विचारें कि मैं भी तो अपने माता-पिता, पत्नी-बच्चों के अनुकूल पूरा-पूरा नहीं चलता हूँ। अत: अन्य भी मेरे अनुकूल न चलें तो दुःखी क्यों बनूँ। इन तीन बातों पर विशेष ध्यान दें -

 

(१) इस मिथ्या मान्यता को अपने मन से दूर करें कि जैसा मैं हूँ वैसा ही लोग मुझे मानें, समझे और जानें। यह आवश्यक नहीं कि परोपकारी-दानी को कोई मान, यश, कीर्ति प्रदान ही करे। यदि अन्य की बुद्धि खराब है तो वह धार्मिक को अधार्मिक, परोपकारी को स्वार्थी भी कह सकता है। ऐसी धारणा बना ले कि मेरी निन्दा भी हो सकती है। ऐसा विचारने से दु:ख नहीं होगा।


(२) यह आशा रखना भी गलत है कि दूसरे व्यक्ति मेरे गुणों की प्रशंसा भले ही न करें किन्तु कम से कम झूठे आरोप तो न लगायें। यह धारणा रख कर चलें कि अच्छे का भी विरोध होता है।


(३) सहनशीलता रखना किसी दूसरे व्यक्ति से भूल होती है तो व्यक्ति उत्तेजित हो जाता है, सहन नहीं कर सकता। प्रत्येक में जन्म-जन्मान्तर के संस्कार अलग-अलग हैं। अत: जिनसे विचार सिद्धान्त कुछ नहीं मिलते उनसे सावधानीपूर्वक व्यवहार करें या उपेक्षावृत्ति से काम लें या सहन कर लें।


समस्याओं का मूल कारण हम स्वयं हैं। समस्त मानसिक विपदाओं का समाधान हो सकता है, परन्तु आधि भौतिक, आधिदैविक विपदाओं का समाधान पूर्ण नहीं हो सकता।

 

 अद्वैतवाद - एक विवेचन

 

देश और विदेश में एक बहुत बड़े मत का प्रचलन है, जिसके अनुयायी लाखों की संख्या में हैं। उनकी मान्यता यह है कि केवल एक ब्रह्म की ही सत्ता है, वही सत्य है और यह संसार मिथ्या है, इसकी सत्ता नहीं है। इसी प्रकार वे जीवात्मा की भी पृथक् नित्य सत्ता नहीं मानते। अपने पक्ष की पुष्टि में अनेक हेत्वाभास (खण्डित हो जाने वाला प्रमाण) प्रस्तुत करते हैं। इसी मान्यता पर हम कुछ विवेचन प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

१. यदि ब्रह्म ही जीव बना है तो बताया जाये वह कब बना, क्यों बना और इसको सर्वप्रथम किसने जाना ? इसका कोई उत्तर नहीं। अत: जीव ब्रह्म के अद्वैत का विचार भ्रान्त है।


२. यदि मान लें कि ब्रह्म ही जीव बना है तो सारे प्राणियों के जीव ब्रह्म के टुकड़े मानने होंगे, इससे ब्रह्म अखंड व अटूट नहीं रहेगा।


३. इस प्रश्न का उत्तर भी नवीन वेदान्तियों को देना होगा कि ब्रह्म का कितना भाग अभी जीव नहीं बना और वह भाग कहाँ-कहाँ है ?


४. ब्रह्म का जो भाग अभी तक जीव नहीं बना, वह किसी कारण से नहीं बना और जो जीव बना है वह क्यों बना? क्या जीव बना हुआ भाग दूसरे भाग से कमजोर है या दोषयुक्त है? यदि है तो ब्रह्म को एक रस नहीं कह सकते। जिसकी अवस्था बदलती है अर्थात् जो कभी जीव बनता है कभी ब्रह्म वह भी एक रस नहीं हो सकता।


५. यह भी बताना होगा कि जीव के अन्दर ब्रह्म है या नहीं ? यदि कहें ब्रह्म सर्वव्यापक है अत: जीव के अन्दर भी है, तो प्रश्न उठेगा कि जब जीव स्वयं ब्रह्म ही है तो जीव के अन्दर व्यापक ब्रह्म कैसे माना जा सकता है? यदी कहें कि जीव में ब्रह्म नहीं रहता, तो ईश्वर सर्वव्यापक नहीं रहा।


६. जिस वस्तु के अवयव (टुकड़े/अंश) हो सकते हैं वह उनके अवयवों से मिलकर बनी होती है। जिस ब्रह्म में से असंख्य जीव बन चुके व बन रहे हैं, तथा पुन: (ब्रह्म में ही) विलीन भी हो रहे हैं वह स्वयं भी केवल जीवों का संग्रह ही मानना होगा, ब्रह्म के रूप में उसका पृथक् अस्तित्व नहीं हो सकता। सावयव होने से ब्रह्म के अनित्य होने का दोष भी आयेगा।


७. ब्रह्म का स्वाभाविक गुण ज्ञान है और स्वाभाविक गुण का कभी नाश नहीं होता। तब कैसे सम्भव है कि ज्ञान स्वरूप ब्रह्म कभी अज्ञानी हो जावे ?


८. अविद्या वा माया क्या वस्तु है ? वह कहाँ रहती थी ? और कब उसने ब्रह्म को पकड़ कर पहले ईश्वर और फिर जीव को बनाया ?


९. ब्रह्म और अविद्या के (माया के) मेल से जीव बनता है तो क्या वह अविद्या या माया से दुर्बल है ? क्या सर्वशक्तिमान को कोई अन्य शक्ति दबा सकती है ? क्या सर्वज्ञ में अविद्या रह सकती है ?


१०. जिस अविद्या वा माया क्या वह ब्रह्म को रोक नहीं सकती कि जीवों को कर्मफल के रूप में ब्रह्म को जीव बनाकर अपने अधीन किया, दुःख न देवे ?


११. ब्रह्म या ईश्वर जो जीवों को कर्म फल दे रहा है, वह किसी अधिकार से देता है ? क्या कोई राजा या न्यायाधीश स्वयं ही दोषी या चोर बनकर अपने विरुद्ध साक्षियाँ लाता व अपने आपको दण्ड देता देखा जाता है ?


१२. क्या सम्भव है कि मनुष्य अपने आपको काटकर वा किसी अन्य से काटा जाकर जीवित रहे और कटे हुए भाग से काम ले वा उस पर शासन करे ? कदापि नहीं। तब परमेश्वर किस प्रकार खंड-खंड रहकर जीवित रह सकता वा जीवों पर अधिकार पा सकता है ?


१३. जब सब ब्रह्म ही ब्रह्म है तो प्रकृति या जड़ पदार्थ कहाँ से आ गये ? ब्रह्मा या ईश्वर को अविद्या ने जीव बनाया है तो जड़ पदार्थ भी ब्रह्म से ही बने हैं या और किसी के मेल से ? यदि कहो कि प्रकृति ब्रह्म से नहीं बनी तो मानना होगा कि ब्रह्म से अतिरिक्ति अन्य कोई वस्तु भी अनादि है और जब प्रकृति को भी अनादि माना तो जीव को अनादि मानने में क्या रुकावट है ?


१४. यह कहना भी निरर्थक है कि - "चूंकि जगत् स्वप्न की तरह मिथ्या है। अत: जीव भी मिथ्या है।" कारण कि यह विचार केवल कल्पनाओं पर लागू हो सकता है। कहने को यह भी कल्पना हो सकती है कि जैसे स्वप्न की बात व जगत् मिथ्या है वैसे ही ब्रह्म को मानना भी असत्य हो, ऐसे ही नवीन वेदान्ती जो अपने आपको ब्रह्म मानते हैं यह भी अज्ञान हो। तब मात्र अज्ञान ही रहेगा अन्य कुछ नहीं, ब्रह्म भी नहीं।


१५. यदि सर्प वास्तव में न हो तो रज्जु में सर्प की कल्पना (भ्रम) भी नही हो सकती। रज्जु में सर्प नहीं, पर सर्प में सर्प अवश्य होता है। इसी प्रकार जगत् व जीव भी भ्रान्ति मात्र नहीं। प्रत्येक वस्तु जिसके संबन्ध में कुछ भी कल्पना की जा रही हैं वह अपने यथार्थ स्थान पर सत्य अवश्य है। अत: जीव तथा जगत् किसी प्रकार भी मिथ्या नहीं है।


१६. जन्म से अन्धे को कभी रूप का स्वप्न नहीं आता और जो वस्तु कभी देखी या सुनी न हो वह भी कभी स्वप्न में नहीं आती। इससे सिद्ध है कि यदि जीव न होता तो ब्रह्म को जीव होने का ख्याल भी कदापि न आता। जीव की स्वतन्त्र सत्ता माने बिना ब्रह्म को जीव मान लेना भी नहीं हो सकता।


१७. ब्रह्म जिस अज्ञान से जीव बना है, वह अज्ञान सारे ब्रह्म को अज्ञानी क्यों नहीं करता ? क्यों ब्रह्म के कुछ (किन्हीं) अंशो को ही ग्रसित करता है ?


१८. घटाकाश, मठाकाश का उदाहरण देकर बताया जाता है कि घट और मठ की उपाधि से आकाश पृथक्-पृथक् दिखाई देता है अन्यथा सब आकाश एक ही है। ऐसे ही सब कुछ ब्रह्म है, जीव अविद्या से प्रतीत हो रहा है। ऐसी युक्तियाँ निरर्थक हैं। कारण कि आकाश वास्तव में विभक्त नहीं होता और न घट और मठ का आकाश पृथक्- पृथक् है, पर जीव तथा ब्रह्म तो स्पष्टतया पृथक् माने जा रहे हैं। ब्रह्म व्यापक है, जीव एकदेशी, ब्रह्म कर्मफलदाता है ,जीव कर्मकर्ता व कर्म फल भोक्ता इत्यादि। अत: इस दृष्टान्त की जीव-ब्रह्म के साथ समानता नहीं है।


१९. घटाकाश और मठाकाश की उपाधि वाला दृष्टान्त तो स्वयं नवीन वेदान्तियों के विरुद्ध जाता है क्योंकि घट और मठ आकाश से पृथक्  हैं। जैसे आकाश से भिन्न घट-मठ को स्वीकार करने पर ही घटाकाश-मठाकाश बनते हैं वैसे ही ब्रह्म से भिन्न अन्य किसी (अविद्या) की सत्ता मानने पर ही जीव माना जा सकेगा ऐसे में केवल ब्रह्म ही है यह सिद्धान्त खंडित हो जाता है।


२०. यह कहना कि "ब्रह्म ही उपाधि से ईश्वर व जीव बनता है," असत्य है। जब ब्रह्म के बिना कुछ है ही नहीं तो उपाधि कहाँ से आ गई ? जब साधारण सा ज्ञानी मनुष्य उपाधि, व्याधि से बचकर सुखपूर्वक रह सकता है, तो ज्ञान स्वरूप, सर्वशक्तिमान् ब्रह्म उपाधि का शिकार हो जावे, यह कभी स्वीकार नहीं किया जा सकता।


२१. यह कहना कि "उपाधि-अविद्या-माया का सम्बन्ध टूटने पर अपने स्वरूप का ज्ञान होता है और जीव फिर ब्रह्म हो जाता है," सत्य नहीं है। इससे तो जीव, ब्रह्म से अधिक ज्ञानी और शक्तिशाली सिद्ध होता है। ब्रह्म को तो उपाधि ने नीचा दिखाया, पर जीव ने उस उपाधि को बन्धन को तोड़ दिखाया।


२२. जीव को ब्रह्म मानें तो चोरी, व्यभिचार आदि सब पापों को करने वाला ब्रह्म ठहरता है।


२३. उपाधि के विषय में यह कहा जाता है कि "यह अनिर्वचनीय है" अर्थात् यह ज्ञान वाली है या अज्ञानी वाली कुछ कहा नहीं जा सकता। परन्तु ज्ञान स्वरूप ब्रह्म को अज्ञानी बनाने वाली उपाधि के अज्ञानयुक्त होने में क्या संदेह हो सकता है। उपाधि को अनिर्वचनीय बताना ही इस बात का प्रमाण है कि नवीन वेदान्तियों को अपने मन्तव्यों की सत्यता पर स्वयं विश्वास नहीं।


२४. यह कहना कि "ब्रह्म का प्रतिबिम्ब अन्तःकरण पर पड़ता है, जिसे चिदाभास कहते हैं, यही जीव है" सर्वथा असत्य है। प्रतिबिम्ब पड़ता है दूसरी वस्तु पर और नवीन वेदान्तियों के मत में ब्रह्म के बिना दूसरी वस्तु है ही नहीं, तो प्रतिबिम्ब पड़ा किस पर ? प्रतिबिम्ब जहाँ पड़ता है वहाँ वह वस्तु नहीं होती, इससे ब्रह्म के सर्वव्यापक न होने का दोष भी आयेगा।


२५. प्रतिबिम्ब पड़ता है साकार वस्तु का। पर ब्रह्म तो निराकार है उसका कोई रूप या आकार नहीं है, तो उसका प्रतिबिम्ब कैसा ?


२६. प्रतिबिम्ब पड़ता है फासले वाली चीज पर, परन्तु ब्रह्म सब में व्यापक है, कोई भी वस्तु उससे दूर नहीं, तब उसका प्रतिबिम्ब कैसा ?


२७. अन्त:करण के मेल से ब्रह्म का जीव बनता है ऐसी स्थिति में तो जहाँ-जहाँ अन्त:करण जायेगा वहाँ-वहाँ का ब्रह्म जीव बनता जायेगा तथा पूर्व स्थान पर जहाँ जीव था वह ब्रह्म होता जायेगा। कभी जीव ब्रह्म बन जायेगा तो कभी ब्रह्म जीव बन जायेगा इस प्रकार सब क्षण-क्षण में परिवर्तन होता रहेगा। कर्म को करने वाला ब्रह्म/जीव भिन्न होगा व फल को भोगने वाला ब्रह्म/जीव भिन्न होगा। ऐसे में कर्मफल व्यवस्था व्यर्थ हो जायेगी, अन्याय का दोष भी आयेगा। करे कोई अन्य व भोगे कोई अन्य।


२८. यह कैसे हो जाता है कि जड़ अन्त:करण ब्रह्म को जीव बना ले तथा वह स्वयं अविद्या से ग्रसित हो जावे ?


२९. अद्वैतवाद में किसी जीव पर विश्वास नहीं हो सकता कि वह कब तक जीव है। सम्भव है उसे अभी अन्त:करण छोड़ दे और वह ब्रह्म बन जाये। ऐसी अवस्था में तो किसी राजा किसी भी नीच से नीच अपराधी को दण्ड भी नहीं देना चाहिए क्योंकि यदि अन्तःकरण ने उसे छोड़ दिया तो वही विशुद्ध ब्रह्म बन जायेगा।


३०. अन्त:करण के संयोग तथा वियोग से प्रत्येक क्षण ब्रह्म ज्ञानी तथा अज्ञानी बनता रहेगा। ऐसी स्थिति में तो ब्रह्म अखण्ड, एकरस, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् नहीं रहेगा।


३१. एक स्थान पर अन्त:करण के मेल से ब्रह्म 'जीव' बनता है और उसी अन्त:करण के दूसरे स्थान पर चले जाने से पूर्व जीव 'ब्रह्म' बन जायेगा तो ऐसी अवस्था में पूर्व स्थान में की गई बातों का स्मरण नहीं रहना चाहिए, किन्तु ऐसा तो देखने में नहीं आता। प्रत्येक मनुष्य को अपने बाल्यावस्था तक की अनेक बातें स्मरण रहती हैं। अन्त:करण तो जड़ है, जड़ कभी स्मरण नहीं रखता, स्मरण तो चेतन ही रखेगा। और चेतन बार-बार बदल रहा है तो एक के अनुभव का दूसरे को स्मरण कैसे होगा ?


३२. यदि ब्रह्म ही जीव बना है तो जीव को भी सर्वत्र सर्वशक्तिमान होना चाहिए, क्योंकि स्वाभाविक गुणों का कभी नाश नहीं होता।


३३. कहा जाता है कि चेतन होने से जीव तथा ब्रह्म एक हैं, दो पृथक्-पृथक्न हीं हैं। परन्तु केवल एक गुण समान होने से दो पदार्थ एक नहीं माने जा सकते। जैसे भार वाला होने से अमरूद व सेब एक नहीं हो जाते। जीव तथा ब्रह्म के अनेक गुण परस्पर भिन्न भी हैं जैसे जीव एकदेशी, अल्पज्ञ, अल्पशक्तिमान् है किन्तु ब्रह्म सर्वव्यापक, सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान् है। मात्र एक या कुछ गुणों की समानता से दोनों को एक मान लेना अविद्या (अज्ञान) है।


३४. यह अविद्या ऐसी बात लगती है कि स्त्री भी ब्रह्म और पुरुष भी ब्रह्म, रोटी भी ब्रह्म और मल भी ब्रह्म, चोर भी ब्रह्म और पुलिस भी ब्रह्म। ऐसी अवस्था में तो धर्माधर्म, सुख-दुःख आदि की विवेचना भी नहीं हो सकती। पेड़ा भी ब्रह्म गोबर भी ब्रह्म, तो फिर पेड़ा मुख में पड़ें तो निगलते क्यों और गोबर पड़े तो थूकते क्यों हैं?


उपरोक्त विवेचना पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर यह सहज ही सिद्ध हो जाता है कि ब्रह्म तथा जीव को और तीसरी प्रकृति को एक मानना सर्वथा मिथ्या है
, मिथ्या बातों को मानना श्रेयस्कर नहीं होता। अतः इस मान्यता को नितान्त त्याग देना चाहिए।

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