तमोगुण का प्रभाव
अकर्मण्यता
तमोगुणी पड़ा रहना चाहता है। आलस्य में, सोने में, काम नहीं करना चाहता परन्तु फल को चाहता है। पड़े रहने में ही आनन्द-सुख मानना। बिना कर्म किये फल चाहना। विद्यार्थी न पढ़ता न लिखता। परन्तु परीक्षा में प्रथम आना चाहता है। यह मानसिकता क्यों बनी कि काम नहीं करना लाभदायक है। नींद को बढ़ाते-बढ़ाते बीसों घण्टे कर लेता है। और रोटी खाते-खाते भूख बढाता है। पण्डे पांच छः किलो बर्फी खा लेते हैं। यह मानव का स्वाभाविक गुण नहीं। परन्तु प्रकृति के संसर्ग से तमोगुण के प्रभाव से हम स्वयं आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता को बढ़ाते जाते हैं। जीवात्मा का स्वाभाविक गुण तो 'प्रयत्न' (कर्म करना) है। कर्म तो करने लग गये परन्तु निष्काम भावना नहीं आयेगी तो बुरे काम से नहीं बचेंगे । अत: निष्काम कर्म ही उत्तम शुभ कर्म हो सकते हैं । लौकिक कामना कर्मानुसार एक सीमा तक तो ठीक, परन्तु अपने दान आदि कर्म की मात्रा से अधिक मान की इच्छा रखना या काम कोई करे नाम अपना हो यह चाहना अन्याय है।
जीवन की सार्थकता
व्यक्ति के जीवन
में एक ऐसा भी क्षण आता है। जब वह वस्तुत: कुछ करना चाहता है, तो उसे जीवन में आने वाले सुख और दुःख, आनन्द और पीड़ा, सफलता और विफलता के विचारों से ऊपर उठ जाना पड़ता है।
दुनियाँ को जीतना
हो तो व्यक्ति को प्रथम अपने आपको जीतना पड़ता है। व्यक्ति को यह समझ लेना चाहिए
कि उसके जीवन का कार्य एक यज्ञ है। उसका उद्देश्य धर्म, विज्ञान, साहित्य लेखन, मानव - सेवा, तत्त्वज्ञान व योगाभ्यास से ईश्वर का
सान्निध्य प्राप्त करना हो और इसका फल अन्तिम कुछ भी रहे उसे इस कार्य रूपी यज्ञ
में स्वयं को सर्वस्व आहुति के रूप में स्वाहा करना है। इसे समझे बिना व्यक्ति
कार्य कर ही नहीं सकता। प्रयोजन लक्ष्य लेकर चलना ही पड़ेगा।
स्वयं की शक्ति
और बुद्धि अनुसार अपनी प्रवृत्तियों का कुछ केन्द्रबिन्दु तो निश्चित करना ही
पड़ेगा। सुख-दुःख, आनन्द-पीड़ा, सफलता-विफलता से किसी भी व्यक्ति का जीवन सर्वथा मुक्त नहीं होता। चाहे मन
पसन्द भोजन मिला हो या निराहार रहना पड़ा हो परन्तु सोने से पूर्व व्यक्ति यह कहने
में समर्थ हो जाये कि आज का अपना कार्य मैनें कर लिया है। तो यह आत्म संतोष ही
उसके जीवन साफल्य का माप- दण्ड है।
मन को वश में
करना, अपने अधिकार से बाहर कुछ नहीं सोचना, न करना। यह
असम्भव सा दीखता है। यह अयोग्यता व अनभ्यास के कारण असम्भव लगता है। अभ्यास और
वैराग्य से मन वश में होता है।
अपने दोषों से जो
व्यक्ति प्यार करता है वह कभी उन्नति नहीं कर सकता। एक बात ठीक कर लेने से अनेक
बातें ठीक होती चली जाती हैं।
एक-एक विचार
व्यक्ति को बिगाड़ने व सुधारने में सक्षम होता है। जो विद्या जिस नियम से आती है
उसी नियम से प्राप्त करनी चाहिये। उस विद्या के अनुसार सब बातें करनी पड़ेंगी।
उठना-बैठना, खाना-पीना, विचारना-करना आदि आवश्यक निर्देश को सामने रखकर सुधार करेंगे तो सफलता मिलेगी, इससे विपरीत ध्यान न दिया तो सफलता नहीं मिलेगी।
"मनुष्य का आत्मा
सत्यासत्य को जानने वाला है"। यह ऋषि की भाषा दिखावे के लिये नहीं है, जीवन की सार्थकता के लिये है। अपने प्रयत्न और ईश्वर प्रदत्त सामर्थ्य दोनों
से मनुष्य सत्यासत्य को जान सकता है किन्तु हठ, दुराग्रह, मिथ्या-अभिमान और अविद्यादि दोषों के कारण झूठ में झुक जाता है। जान गया फिर
भी नहीं मानता, यह हठ है। दुराग्रह उलटा आग्रह अड़ जाता
है।
व्यक्ति जन्म से
मरण पर्यन्त सुख और सुख के साधनों की प्राप्ति में प्रयत्नशील रहता है और
जहाँ-जहाँ से उसे सुख मिलता है उसे प्राप्त करने में दूसरों के साथ अनुचित व्यवहार
करता है । इस प्रकार का व्यक्ति सत्यासत्य को नहीं जान सकता ।
विचार ही से बन्ध-मुक्ति
विशेष विद्या की
प्राप्ति विशेष परिश्रम से होती है। दुःखी हुए बिना दु:ख सहना और दु:ख को दु:खी
होकर सहना इन में बड़ा अन्तर है। घर पर सम्बन्धी आने पर उसे सुख पूर्वक सह लेते
हैं; परन्तु कोई अपरिचित आ जाये तो खिन्न भाव से रहते हैं। व्यक्ति द्वेष-क्लेश में
पिसता रहता है। एक बार खट-पट होने से हमेशा उससे दु:खी होता रहता है। पूर्वकृत
बुरे विचार, बुरे व्यवहार जब उपासना-साधना में आते हैं
तो रोता है।
मान-अपमान सहन
करना सीखना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो कष्ट सर्दी-गर्मी आदि तप समझ कर सहन करने
चाहिए, इससे अभ्यास हो जाता है। सुविचार उत्पन्न करके, कुविचारों से युद्ध करके उन्हें नष्ट कर देता है। यह एक विज्ञान है सोचने का
ढंग है। कुविचार ही मनुष्य के दुःख (बन्ध) और सुविचार ही मुक्ति का कारण हें।
सारा संसार
इसलिये दु:खी है कि उसे ठीक ढंग से सोचना नहीं आता। ज्वर ग्रस्त व्यक्ति अधिक
चिल्लाने से अधिक दु:खी हो जाता है। जीवन में सुविचार-कुविचार का बड़ा भारी प्रभाव
पड़ता है।
व्यक्ति
योगाभ्यास से विचारना-सोचना जानता है कि यह धन-सम्पत्ति मेरी नहीं, ईश्वर की है। और तो और मेरा शरीर, मन, बुद्धि इन्द्रियाँ जिससे मैंने यह सब प्राप्त किया वे भी ईश्वर प्रदत्त हैं।
मैं इनका रक्षण व उपयोग करूँगा। जब मेरा जन्म नहीं हुआ था तब या जब मर जाऊँगा तब
इसमें से मेरा कुछ न था- न रहेगा। अरबपति मर जाये तो कौड़ी भी साथ नहीं जाती है।
जो चीज आती है वह आती है। संयोग है तो वियोग होगा। इस निश्चित तथ्य को जो पहले ही
से जान लेता है वह आने-जाने पर शोक नहीं करता।
मृत्यु दुःख से
छूटने का उपाय
अकामो धीरो अमृतः
स्वयम्भूः रसेन तृप्तो न कुतश्चनोनः ।
तमेव विद्वान् न
बिभाय मृत्योरात्मानं धीरमजरं युवानम् ॥
(अ. १०/८/४४)
शब्दार्थ ➨ (अकाम:) कामना रहित (धीरः) धीर धृतिमान्, सर्वज्ञ (अमृतः)
अविनाशी,
सदा मुक्त (स्वयम्भूः) स्वसत्ता में परनिरपेक्ष (रसेन
तृप्तः) आनन्द से तृप्त=परिपूर्ण (कुतः+चन) कहीं से भी (न ऊन:) न्यून नहीं।
(तम्+एव) उस ही (धीरम्+अजरम्) धीर, अजर (युवानम्)
सदा नूतन-जवान (आत्मानम्) सर्वव्यापक भगवान् को (विद्वान्) जाननेवाला (मृत्योः न)
मौत से नहीं (बिभाय) डरता है।
वह सर्वथा कामना
रहित (स्वयं की कोई इच्छा नहीं, पर जीवों की भलाई की
इच्छा रहती है), धीर, अमर, स्वयं अपनी सत्ता से विद्यमान, आनन्द से
आप्लावित और हर तरह से पूर्ण है। उसी धीर, अजर, सदा एक रस रहने वाले आत्मस्वरूप को जानने वाला मृत्यु से नहीं डरता।
कोई वैज्ञानिक इस मृत्यु भय से छुटकारा नहीं दे सकता-नहीं पा सकता। पञ्च क्लेशों से छुटकारा नहीं दे सकता। 'वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्' । हे जिज्ञासु पुरुष ! मैं जिस-इस पूर्वोक्त बड़े-बड़े गुणों के युक्त सूर्य के तुल्य प्रकाशस्वरूप, अन्धकार वा अज्ञान से पृथक् वर्तमान, स्वरूप से सर्वत्र पूर्ण परमात्मा को जानता हूँ। उसी को जान के आप भी दु:खदायी मरण को उल्लंघन कर सकते हो, इससे भिन्न मार्ग अभीष्ट स्थान मोक्ष के लिये विद्यमान नहीं है ।
योग साधक के लिये
व्रत
ओ३म् अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम् ।
इदमहमनृतात्
सत्यमुपैमि ।
(यजु. १/५)
अर्थ : अग्ने =
हे सत्य धर्म के उपदेशक ईश्वर | व्रतपते = सत्य भाषणादि
व्रतों के पालक, अहम् = मैं, व्रतम् = सत्य आदि आदर्श व्रतों का चरिष्यामि = पालन करूँगा। अहम् अनृतात् =
में असत्य आचरण से, इदं सत्यं= इस सत्य आचरण को, उपैमि = प्राप्त करूँ, मुझे शक्ति दो कि मैं तच्छकेयम् = इस
कार्य में समर्थ होऊँ, तन्मे राध्यताम् = वह मेरा व्रत सफल
होवे।
व्रत लेने का
बड़ा महत्त्व है। उत्तम कार्यों में सब से अधिक सहयोग ईश्वर का ही होता है। आपने
व्रत - संकल्प लिये, इनसे जीवन महान् बनेगा। जो व्यक्ति
संकल्प लेकर चलता है वह विकास को प्राप्त होता है । जो व्रत लेकर नहीं चलता उसका
जीवन निम्न स्तर को चला जाता है। व्रत का पांच क्षेत्रों मे विस्तार किया जा सकता
है।
स्वयं में क्या
त्रुटियाँ हैं। परिवार में और समाज की क्या कमियाँ हैं उन्हें दूर करें। फिर देश
को देखें,
शत्रुओं व दोषों को दूर करें। विशेषताओं की पूर्ति करें।
इसी प्रकार विश्व और इतर प्राणियों के क्षेत्र में सोचना पड़ता है। जो व्यक्ति इन
पांच क्षेत्रों में कार्य नहीं करता उसका जीवन अधूरा माना जायेगा।
आज का व्यक्ति
झूठ बोलता, झगड़ा करता, चाय-अण्डा-मांस खाता है। सब देशवासी केवल अपने परिवार, व्यापार-धन्धे को देखने में पड़ गये। विद्यार्थी जगत् सिनेमा, टी. वी., निरुद्देश्य भटकना वा नशा करने में व्यस्त
है।
सम्प्रदायी अधिक
से अधिक चेला चेली मूंडने में वा भव्य मन्दिर, महालय, देवस्थान बनाने में लग गये। देश की तरफ किसी का ध्यान नहीं। इसी देश में पैदा
हुए, इसी का अन्न-जल खाते-पीते व इसी की जड़ काटते, इसे विस्फोट से उड़ाना चाहते हैं।
व्यक्तिगत
खाना-पीना तो पशु पक्षियों का भी होता ही है। ईश्वर को अपना माता-पिता नहीं
स्वीकारते। सब के हित की बात नहीं सोचते। गद्दी पर बैठे। प्राणियों को खाने वाले
लोग सर्वहित की बात कैसे सोच सकते हैं ?
आज देशवासी
(हिन्दु) अपने शत्रुओं का तो साथ देता है; और अपनों को छोड़
देता है। जो रोग, शत्रु और दोष को छोटा मानता है उसे
ये तीनों खत्म कर देते हैं। या तो इनको खत्म करो या स्वयं नष्ट हो जाओ। आन्तरिक
शत्रु राग, द्वेष आदि और बाह्य शत्रु देशद्रोही राजा, मंत्री, सत्ताधीश आदि। जो अपने हितैषी की बात नहीं
मानता वह विनाश को प्राप्त होता है। देश की यह दुर्दशा व्रतहीन-संकल्पहीन
सत्ताधीशों ने ही की है।
अव्रती-दस्यु
पिशाच हैं। व्रत व्यक्ति को मनुष्य बनाता है, ईश्वर से मिलाने
का कार्य करता है। जो अपने व्रत-प्रतिज्ञा को नहीं पालता उसका विश्वास कोई नहीं
करता। संगठन के बिना अकेला व्रती मारा जाता है। अत: व्रती को संगठन के लिए भी
प्रयत्न करना चाहिए।
व्रत का महत्त्व
- योग विद्या से अपना और दूसरों का कल्याण होता है। जो कुछ यहाँ सीखा व किया - इस
विषय में अब कुछ संकल्प-व्रत लेकर चलो, वरना आप अपना व
दूसरों का कल्याण नहीं कर सकते। व्यक्ति सोचता है कि पहले जो व्रत लिये थे वे भंग
हो गये,
टूट गये अत: अब व्रत नहीं लूँगा। आप उन व्रतों को फिर से
दोहरायें कि मैं उन्ही व्रतों का फिर से दृढ़ता पूर्वक पालन करूँगा। न चलने वाले
से सहस्त्र वार गिरकर चलने वाला ठीक है। चलने वाला न कभी कभी मञ्जिल पर अवश्य
पहुँचेगा,
यह निश्चित बात है।
गुरु के पास रहते
हुए भी यम-नियम का पालन नहीं करेंगे तो सफल नहीं होंगे। वेदादि शास्त्रों को पढ़ते
हुए भी सत्य को आचरण-व्यवहार में नहीं लायेंगे तो सफल नहीं होंगे। जो अपने दोषों
को न देख अन्य के दोषों को प्रधानता देता है, देखता है वह
निष्फल होता है। सब अपने-अपने स्तर पर नियम बनायें और व्रत लें।
व्यक्ति, परिवार, समाज, देश और विश्व के
क्षेत्र में क्या करूँ, क्या न करूँ, यह विभाजन करना पड़ेगा। उन व्रतों पर दृढ़ रहकर वेद और राष्ट्र के रक्षण हेतु
संकल्प लेना है। कई सोचते हैं अब नहीं, वृद्ध होकर जीवन
लगा देंगे। पर अतिवृद्ध होकर जीवन में कुछ शेष होगा तो देगा ना ? जब जीवन में कुछ रहा ही नहीं तो क्या जीवन लगायेगा।
अनुव्रतः पितुः
पुत्रः - जो सत्य न्याय मार्ग पर चलता है वह हमारा पुत्र व जो ईश्वर आज्ञा से
विरुद्ध चले तो वह अपने घर में जन्म लेने मात्र से हमारा पुत्र नहीं।
एक प्रचार का काम, एक धन का सहाय, एक सेवा का कार्य, एक पुत्र वा पुत्री को देश, वेद, धर्म के लिये अर्पण करना। व्रत लो और उठते जाओ। बुद्धि पूर्वक न गिरें-शेष करते जायें। गिरने पर उठते चलो, बढ़ते चलो, मार्ग लम्बा है पर सफल अवश्य होंगे। ऋषि की बात माने, दुनियाँ की बात से न डरें।
जो पुरुष वा स्री
वेद-राष्ट्र की सेवा को ही अपना उद्देश्य बनाना चाहे वे अविवाहित रह सकते हैं। आगे
चलने वाले, मर मिटने वाले थोड़े भी होंगे तो पीछे
चलने वाले बहुत हो जायेंगे। जैसे सुभाषचन्द्र बोस, चन्द्रशेखर, भगतसिंह आदि हुए। गलत बात को मूल से ही
रोक दो,
वह खत्म हो जायेगी। कोई झगड़ा नहीं, लड़ाई नहीं। आक्रमण करने वालों से बुद्धिपूर्वक (जानकर) रक्षा करना। झूठ बोलने
वाले की झूठ पकड़ी जाने पर वह विरोध करेगा, उससे टक्कर लेनी
पड़ेगी।
जिसके जीवन में
व्रत, नियम,
उद्देश्य, आदर्श नहीं वह मनुष्य
नहीं। 'अव्रतो अमानुषः'। जो अपना आदर्श व्यक्तित्व बनाना
चाहता है वह सब नियम पालन करे। व्रती के लिये कुछ भी कठिन नहीं। अव्रती के लिये सब
कुछ कठिन है। एक साधक का यम-नियम का पालन तो भली प्रकार अच्छी भावना के साथ होना
ही चाहिये।
संकल्पों के आधार पर व्यक्ति महान् बनता है। बिना व्रत पालन के व्यक्ति अच्छा नहीं बन सकता। अन्तिम निर्णय यह निकलता है कि जो अच्छे काम का व्रत लिया है उसके लिये यदि मरना भी पड़े तो भी चिन्ता नहीं। सत्य का व्रत लिया और सत्य के कारण मृत्यु आ रही है तो झूठ बोलकर जीवन बचा लिया, तब सोचे कि क्या झूठ बोलने से मैं अमर हो जाऊँगा? क्या कभी मरूँगा नहीं ? जब अपनी बुद्धि से उभरा हुआ प्रश्न आता है तो दो विचारधाराओं की टक्कर होती है। अवसरवाद की और आदर्शवाद की। अवसरवादी जहाँ-जहाँ लाभ होता है झूठ बोलता है। आदर्शवादी इतने कम रह गये कि कोई लाखों में एकाध मिलिगा, शेष सब अवसरवादी। लाभ हो रहा हो तब तो सत्य बोलते रहना, पर हानि होती देखे तो असत्य बोल देना यह अवसरवाद है। यदि पति-पत्नी भी परस्पर झूठ बोलें तो उनका सदा के लिये एक दूसरे से विश्वास उठ जाता है। परन्तु सत्य बोलने वाले का विश्वास उसके शत्रु-विरोधी भी करते हैं। इस झूठ ने मनुष्य को मनुष्यपन से गिरा दिया-समाप्त कर दिया। लौकिक सुख और मोक्ष सुख दोनों सत्य से मिलते हैं झूठ पर चलने वाला कभी भी सुखी नहीं होता।
महात्मा सदा-मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं और दुरात्मा-मनस्यन्यद्व चस्यन्यद् कर्मण्यन्यद् होता है ।
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