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गतिसामान्यात् 1/1/10, 11,12,13,14,15,16

 सूत्र :गतिसामान्यात् 1/1/10

सूत्र संख्या :10

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : पदार्थ- (गति) ज्ञान और गमन (सामान्यात्) एक सी होने से ।

व्याख्या :भावार्थ- क्योंकि वेदान्त के सब ग्रंथों में निमित्त कारण की चर्चा है; इसलिये सर्वदा सब जगह आत्मा ही को कारण बताया। यदि वेदान्त शास्त्र अन्य कारणों के निरूपण करता, तो प्राकृत्यादि को कारण स्वीकार करता। जिस प्रकार उपनिषदों में लिखा है कि आत्मा ही से आकाश उत्पन्न हुआ, आकाश के वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी आदि, तो यहाँ यह प्रयोजन नहीं कि आकाश और वायु आदि की उपादान कारण ब्रह्म है; किन्तु निमित्त कारण ब्रह्म है। प्रश्न- सब विद्वान तो सब प्रकार का कारण ब्रह्म ही को मानते हैं; तुम केवल निमित्त कारण मानते हो। इसका क्या प्रमाण है कि तुम्हारा कथन उचित है ? उत्तर- प्रत्येक आचार्य को उपादान कारण ब्रह्म के होने पर जो शंकायें उत्पन्न होती हैं, उनके उत्तर के लिये माया का आसरा लेना पड़ता है और माया प्रकृति का नाम है। इस कारण उपादान कारण माया और निमित्त कारण ब्रह्म है। यदि वेदान्त के आचार्य उपादान कारण (माया) के लिये ग्रहण न करके उद्यत होते; परन्तु वास्तव में अधिकवाद बनाने पर भी वेदान्तियों की शंकाओं का उत्तर देने के लिये केवल ब्रह्म के अतिरिक्त छै पदार्थ मानने पड़े, जिससे स्पष्ट प्रगट हो गया कि छै शास्त्र मिलाकर ही पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है और प्रत्येक शास्त्र एक-एक कारण (इल्लत) का वर्णन करता है। प्रश्न- आकाश को दूसरे शास्त्रों ने नित्य माना है। वेदान्त ने उसकी उप्पत्ति किस प्रकार बतला दी ? उत्तर- आकाश के दो लक्ष्ण किये हैं- एक तो अवकाश स्थान (खाली जगह) दूसरा जिसमें निर्गमन और प्रवेश हो सकने का कार्य हो सके, जब तक कि प्रकृति में स्थूलपन नहीं होता, तो निकलना अथवा प्रवेश होना किस प्रकार सम्भव है अथवा जब तक आकाश मे गैस की भाँति भरा हुआ माद्दा ठोस दशा में न जाने लगे; तब तक आकाश कहाँ हो सकता। इस कारण यह दोनों वाक्या प्रकृति में ठोसपन होने से प्रकट हो सकते हैं; अतः जब तक प्रकृति में अतिक्रम न हो; तब तक आकाश कहता ही नहीं सकता और प्रकृति में गति बिना आत्मा के हो नहीं सकती। इसलिए सब की उत्पत्ति का कारण आत्मा है; जिसकी क्रिया से संयोग और वियोग होकर सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय आदि होते हैं। इस कारण जगत् का आदि मूल ब्रह्म को मानना उचित है। इस पर और युक्ति देते हैं ।


सूत्र :श्रुतत्वाच् च 1/1/11


अर्थ : पदार्थ- जितनी श्रुतियाँ जगत्कर्ता का विचार करती हैं सब-की-सब ब्रह्म को जगत् का कर्ता बतलाती हैं। कोई श्रुति प्रकृति को जगत् का कर्ता नहीं बतलाती। जैसे-वेद ने बतलाया जो कुछ जगत् में विद्यमान होता है, वह सब पुरूष ही के कारण से होगा। यद्यपि प्रकृति उपादान कारण है; परन्तु वह स्वयं परतंत्र होने से कुछ बना नहीं सकती; इस कारण संसार के जितने पदार्थ हैं, वह चेतन पुरूष के कारण बनते हैं। सब सृष्टि तो परमात्मा के कारण बनती है और उसमें जो कुछ भिन्न-भिन्न वस्तुयें दृष्टि-गोचर होती हैं, वह जीवात्मा के कर्मों के कारण हैं प्रकृति के उस कर्म को ग्रहण करनेवाली है और प्रकृति के कार्य, मन आदि शक्ति के औजार हैं। सबकी क्रिया का कारण केवल पुरूष अर्थात् परमात्मा और जीवात्मा है। इस कारण दूसरे सूत्र में तो में विवाद किया कि वह ब्रह्म जो जगत् का कर्ता है, वह जड़ प्रकृति व उसका कोई कार्य नहीं। अब सत्-चित् ब्रह्म को सिद्ध करके आनन्द सिद्ध करने के कारण नीचे का सू़त्र लिखते हैं।


सूत्र :आनन्दमयोऽभ्यासात् 1/1/12


अर्थ : पदार्थ- (आनन्दमयः) यह आनन्दस्वरूप् है (अभ्यासात्) क्योंकि सब श्रुतियाँ उसको आनन्दस्वरूप् बतलाती हैं।

व्याख्या :भावार्थ- क्योंकि सब श्रुतियाँ ब्रह्म को आनन्द-स्वरूप् बताती हैं इस कारण ब्रह्म आनन्द स्वरूप है; यहाँ तक कि 11 सूत्रों से ब्रह्म सच्चिदानन्द सिद्ध किया है। प्रश्न- तैत्तिरीयोपनिषद् में पाँच कोष लिखे हैं-अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय। क्या पाँचवा कोष जो आनन्दमय कहाता है, ब्रह्म से पृथक कोई दूसरा चेतन है ? उत्तर- तैत्तिरीयोपनिषद् में उस आनन्दमय कोष का शरीर आदि बतलाया है और ब्रह्म के सबसे बड़ा होने से उसका शरीर हो नहीं सकता; क्योंकि ब्रह्म शरीर ब्रह्म से बड़ा होगा, जिसमें ब्रह्म से बड़ा कोई नहीं, जो ब्रह्म का शरीर कहला सके, इसलिये यहाँ आनन्दमय कोष से जीवात्मा ही का ग्रहण करना उचित है। प्रश्न- यदि माया को ब्रह्म का शरीर मान लें, तो क्या हानि होगी ? उत्तर- जिसके शरीर होता है वह सुख-दुःख के भोग और इन्द्रियों से रहित नहीं हो सकता, क्योंकि शरीर पर भोग का स्थान होता है; जिसमें भोग के साधन इन्द्रियाँ कर्म करती हैं; जिससे आत्मा को सुखी-दुःखी होने का ज्ञान उत्पन्न होता है। ब्रह्मा भोक्ता नहीं, इसलिये वह शरीर से रहित है; अतः यहाँ तो आनन्दमय से अर्थ जीवात्मा का है; परन्तु और स्थानों में ब्रह्म का संग आनन्द का संबंध होने से ब्रह्म सच्चिदानन्द ही सिद्ध हाता है। प्रश्न-ब्रह्म को आनन्द कहने से विकार वाला हो जावेगा, क्योंकि भय शब्द विकार के अर्थ में आता है।


सूत्र :विकारशब्दान् नेति चेन् न प्राचुर्यात् 1/1/13


अर्थ : पदार्थ- (विकार शब्दात्) मय शब्द के अर्थ विकार के हैं (इति चेत्) यदि ऐसा नहीं, (न) नहीं (प्राचुय्यत्) अधिक भी है।

व्याख्या :भावार्थ- ब्रह्म आनन्दमय हैं। यद्यपि मय शब्द के अर्थ विकार के भी हों; परन्तु आनन्दमय कहने से ब्रह्म विकारवाला नहीं हो काता; क्योंकि विकार छह हैं, जो ब्रह्म में नहीं घट सकते। इस कारण मय शब्द का अर्थ प्राचुर्य्य अर्थात् अधिकता है। इसलिये आनन्दमय का अर्थ यह है कि ब्रह्म में अति आनन्द है। प्रश्न-विकार जो छह प्रकार के बतलाय हैं, वह कौन-से हैं ? उत्तर-उत्पन्न होना, बढ़ना, एक सीमा तक बढ़कर ठहर जाना, आकृतियाँ बदलना, घटना और नाश हो जाना- ये छह विकार हैं। जो वस्तु उत्पन्न होती है, उसमें ही विकार होता है। ब्रह्म की उत्पत्ति नहीं; इसलिये ब्रह्म को आनन्दमय कहने से इस स्थान में मय का अर्थ विकार नहीं होगा; किन्तु अधिकता लेनी होगी। प्रश्न-यदि बह्म में विकार मान लो, तो क्या दोष होगा ? उत्तर- इस दशा में ब्रह्म का कोई कारण स्वीकार करना पड़ेगा; क्योंकि कारण के बिना विकार नहीं हो सकता। जितने नित्य पदार्थ हैं, उनमें विकार नहीं होता; इस कारण ब्रह्म के अनादि अथवा जगत् का कर्ता होने से मय का अर्थ अधिकता लेना ही उचित है। इसपर युक्ति देते हैं कि आनन्द की अधिकता ही क्यों ली जावे, विकार क्यों न लिया जावे।


सूत्र :तद्धेतुव्यपदेशाच् च 1/1/14


अर्थ : पदार्थ- (तत्) उसका (हेतु) कारण (व्यपदेशाच्च) बतलाया जाने से।

व्याख्या :भावार्थ- जिस किसी को आनन्द मिलता है, वह सब ब्रह्म के कारण प्राप्त होता है। यह उपदेश सब वेद, उपनिषद् और शास्त्रों में विधान किया गया है। इस कारण जिसके पास अधिक आनन्द हो, वह ही दूसरों को आनन्द देने का कारण हो सकता हैं जिस प्रकार सृष्टि में जिसके पास अपने उदर से विशेष अन्न होता है, वही दूसरों को अन्न-दान करके उनकी क्षुधा दूर कर सकता है। इसलिये आनन्द का हेतु ब्रह्म है। समाधि, सुषुप्ति और मुक्ति में जीव ब्रह्म के कारण ही आनन्द को प्राप्त कर सकता हैं इसलिये विशेष आनन्दवाला होने से ब्रह्म ‘‘आनन्दमय″ कहा जा सकता है। इस पर और युक्ति देते हैं।


सूत्र :मान्त्रवर्णिकमेव च गीयते 1/1/15


अर्थ : पदार्थ- (मान्त्रवर्णकम्) वेद-मन्त्रों में (एव) ही (गीयते च) गान किया गया है।

व्याख्या :भावार्थ- वेद-मंत्रों में भी बतलाया गया है कि ब्रह्म विशेष आनन्द देनेवाला है जैसे- बतलाया है कि जो ब्रह्म को जानता है, वह ब्रह्मनन्द को प्राप्त होता है। ब्रह्म सच्चिदानन्द है। इस प्रकार अधिक स्थानों पर ब्रह्म को परमानन्दवाला बतलाया गया है। इस कारण सब उपनिषद् ब्राह्मणों और वेदों में कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ जीव को आनन्दमय बतलाया गया हो; किन्तु ब्रह्म ही आनन्दस्वरूप है। जीव उससे आनन्द प्राप्त करता है। जैसे-अग्नि में स्वरूप से उष्णता है; हम उससे उष्णता प्राप्त करते हैं। प्रश्न- ब्रह्म को आनन्द-स्वरूप होने में जितने वाक्य उपस्थित किये गए हैं, वह सब ब्राहाणा ग्रंथों के है, सूत्र में इनको मंत्र क्यों लिखा ॽ प्रश्न- क्योंकि ब्राह्मण वेदों के व्याख्यान् हैं यदि व्याख्यान मूल के विपरीत न हो, तो उसमें अंतर नहीं समझा जाता; इस कारण मंत्र के स्थान में ब्राह्मण को उपमा दी। जिस अंश में ब्राह्मण वेद के विरूद्ध होगा, वहाँ उसको वेद से पृथक् समझ लिया जायेगा। यहँ तक सूत्रकार ने ब्रह्म सच्चिदानन्द सिद्ध किया, अब विपक्षी शंका करता है।


सूत्र :नेतरोऽनुपपत्तेः 1/1/16

अर्थ : (न) नहीं (इतर) जीव आनन्दमय (अनुपपतेः) युक्तियों से सिद्ध नहीं किया जा सकता।

व्याख्या :भावार्थ- जीव को आनन्दस्वरूप्प नहीं; क्योंकि युक्ति से वह सिद्ध नहीं किया जा सकता। प्रश्न- जीव को आनन्दस्वरूप मानने से क्या दोष होगा ? हम तो मानते हैं कि जीव आनन्दस्वरूप है; अविद्या से अपने को शून्य मानता है। उत्तर-जीव को आनन्दस्वरूप मानने से सब शास्त्र, वेद और मोक्ष के साधन व्यर्थ हो जावेंगे; क्योंकि उस दशा में जीव बंधन से रहिन होगा; फिर किसके छुड़ाने के लिये शास्त्र बनाये जायेंगे? आनन्दस्वरूप में अविद्या नहीं आ सकती। प्रश्न-सब वेदान्ती तो माने हैं कि जीव तो आनन्दस्वरूप है, तुम कहते हो कि हो ही नहीं सकता। उत्तर-हम क्या कहते हैं। वेदान्त के आचार्य व्यासजी कह रहे हैं कि जीव को आनन्दस्वरूप होने किसी प्रकार सिद्ध नहीं हो सकता; क्योंकि यदि आनन्दस्वरूप है, तो वह किसी अवस्था में दुःख अनुभव नहीं कर सकता। जिस प्रकार अग्नि उष्ण है; वह शीतल नहीं हो सकती; जबकि जीव दुःखी न हो, तो मुक्ति की आवश्यकता ही क्या ? क्योंकि मुक्ति उसे कहते हैं; जबकि अत्यंत दुःख की निवृत्ति और आनन्द की प्राप्ति हो। जीव के आनन्दस्वरूप होने से कष्ट उसे हो ही नहीं सकता और आनन्द उसे प्राप्त है। यदि जीव मुक्ति स्वरूप है, ऐसी दशा में तो मुक्ति के लिये जो शास्त्र बनाये गये हैं व्यर्थ हैं। प्रश्न- वास्तव में जीव आनन्दस्वरूप् है; परन्तु अविद्या का आवरण आ जाने से वह आनन्द का अनुभव नहीं कर सकता, क्योंकि आनन्द और जीव के बीच परदा आ गया। उत्तर-आवरण दो द्रव्यों के बीच तीसरे द्रव्य का आया करता है। आनन्द गुण है। गुण और गुणी के बीच परदा नहीं आया करता। इसके लिये कोई उदाहरण संसार में प्राप्त नहीं हो सकता कि जिस स्थान पर गुण और गुणी के बीच परदा आया हो; क्योंकि गुण और गुणों के बीच दूरी नहीं, जिसमें परदा रह सके। यदि गुण और गुणी के मध्य दूरी होती, तो उनका सदैव रहनेवाला संबन्ध न होना; अर्थात् गुण और गुणों से भी समवाय समवेत संबन्ध है। प्रश्न-क्या जीव को आनन्दस्वरूप् माननेवाले निश्चलदास आदि विद्वान् भूल कर सकते हैं ? यह तम्हारा कथन असत्य है। हम तो मानते हैं; तुम्हीं भूल करते हो। उत्तर-वेदान्त दर्शन के मूल कर्ता अर्थात् व्यासदेवजी जब मानते हैं कि जीव आनन्दस्वरूप नहीं सिद्ध होता और युक्ति से भी उसका खंडन होता है, तो निश्चलदास आदि के लेख से किस प्रकार जीवात्मा आनन्दस्वरूप बन सकता है ? प्रश्न-क्या शंकराचार्य आदि ने अपने भाष्य में उसको स्वीकार कर लिया है ? उत्तर-स्पष्ट शब्दों में स्वीकार कर लिया है-न जीव आनन्दमय शब्देनाभिधीयते अर्थात् जीव आनन्दमय शब्द से नहीं कहा जाता। युक्ति से सिद्ध नहीं हो सकता। जो मनुष्य वेदान्त का अर्थ अभेदवाद में लगाते हैं, उनको इन सूत्रों को विखर से पढ़ना चाहिये। प्रश्न-क्या जीव और ब्रह्म में भेद है, जो ब्रह्म को आनन्दमय और जीव को आनन्दमय न कहा जावे ?

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