जुगाड़
इन उद्यमियों को बिजनेस में कोई फॉर्मल ट्रेनिंग नहीं मिली । उन्होंने सिर्फ देखकर, नए नए प्रयोग
करके और दिमाग लगाकर सीखा। क्योंकि बिजनेस रॉकेट साइंस नहीं होता ।
जुनून
कुछ उद्यमी किसी एक आइडिया या जुनून पर काम करते हुए अपने लिए रास्ते तैयार कर लेते
हैं । एक ऐसा आइडिया , जो सबसे अलग है, अपने वक़्त से बहुत आगे है । ये वेंचर अपने सपने
को हकीकत में बदलने की एक मिसाल है ।
जुबान
क्रिएटिव लोगों को अपनी बात कहने के लिए प्लैटफॉर्म चाहिए होता है । अगर उनका हुनर सबसे
अलग हो तो वो प्लैटफॉर्म भी तैयार हो जाता है । और इस तरह आर्टिस्ट भी उद्यमी बन जाता है ।
अनुक्रम
जुगाड़
जुनून
जुबान
जुगाड़
इन उद्यमियों को बिजनेस में कोई फॉर्मल ट्रेनिंग नहीं मिली। उन्होंने सिर्फ देखकर, नए नए प्रयोग
करके और दिमाग लगाकर सीखा। क्योंकि बिजनेस रॉकेट साइंस नहीं होता ।
सड़कों का बादशाह
प्रेम गणपति -- जन्म 1973
दोसा प्लाजा
बेहतर भविष्य की तलाश में लाखों की संख्या में हर रोज मुंबई आने वालों के हुजूम में
से एक थे वो । प्रेम गणपति नाम के बर्तन मांजने वाले इस शख्स ने मैकडॉनल्ड्स से
प्रेरणा लेकर दोसा प्लाजा के नाम से फास्टफूड चेन शुरू किया , जिसके पूरे देश में
अब 26 आउलेट्स हैं ।
एक आविष्कारक
कुंवर सचदेव -- जन्म 1962
सु - कैम
कुंवर सचदेव सिर्फ बीएससी ग्रैजुएट है, लेकिन वे कई इंजीनियरों पर भारी पड़ते हैं ।
स्कूल में एक औसत छात्र , कुंवर को फिजिक्स से बहुत बाद में प्यार हुआ । बाद में इसी
फिजिक्स ने उन्हें एक बिजनेस खड़ा करने का रास्ता दिखाया । कुंवर अब पावर
इलेक्ट्रॉनिक्स के क्षेत्र में सु- कैम नाम की 500 करोड़ रुपए की एक कंपनी चलाते हैं ।
इंग्लिश गुरु
गणेश राम -- जन्म 1960
वीटा
एनएसएस के स्वयंसेवी के तौर पर काम करते हुए गणेश राम को अपने बारे में एक बात
पता चली -- उनके पास पढ़ाने का कौशल है । 1981 में खोले गए एक कोचिंग सेंटर ,
विवेकानंदस्टडीसर्कल से शुरू हुआ उनका सफर वीटा तक पहुंच गया है, जो भारत में
स्पोकन इंग्लिश सिखाने का सबसे बड़ा ट्रेनर है ।
खूबसूरती का सुनहरा रंग
सुनीता रामनाथकर -- जन्म 1954
फेम केयर फार्मा
अपनी दूसरी बेटी के जन्म के चार महीने बाद ही इस गृहिणी ने फेम फेयरनेस ब्लीच
लॉन्च किया । अगले 27 सालों में घर से शुरू हुई इस स्किनकेयर कंपनी ने बड़ी
मल्टीनेशनल कंपनियों के आगे अपना वजूद कायम रखा, और हाल ही में डाबर ने इस
कंपनी को खरीद लिया ।
खाने का ख़ज़ाना
एम महादेवन -- जन्म 1955
ओरिएंटल कुइजीन्स
महादेवन ने मद्रास यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर की अच्छी- भली नौकरी को छोड़कर चाइनीज
रेस्टुरेंट खोलने का फैसला किया । लेकिन रसोई में भी उन्हें कॉस्ट - अकाउंटिंग के ज्ञान से
उतनी ही मदद मिली । आज एम महादेवन का साम्राज्य कई पाक - शैलियों और कई देशों
में अपनी पहचान बना चुका है ।
स्वच्छता अभियान
हनमंत गायकवाड़ -- जन्म 1972
बीवीजी ( भारत विकास ग्रुप )
इंजिनियरिंग की पढ़ाई करते हुए हनमंत ट्यूशन पढ़ाया करते थे, ताकि कॉलेज में अपना
खर्च चला सकें । आज वे भारत विकास ग्रुप ( बीवीजी ) नाम की एक फैसिलिटी मैनेजमेंट
संस्था चला रहे हैं , जिसका टर्नओवर 300 करोड़ रुपए है । बीवीजी के न सिर्फ कई
कॉरपोरेट क्लायंट हैं , बल्कि ये फर्म राष्ट्रपति भवन की देखभाल भी करता है ।
जुनून है तो सब हासिल
रंजीव रामचंदानी -- जन्म 1968
तंत्रा टी - शर्ट्स
रंजीव रामचंदानी ने माइक्रोबायॉलोजी की पढ़ाई की , लेकिन ये उन्हें रास नहीं आई ।
उन्होंने एडवर्टाइजिंग में काम शुरू किया , लेकिन वो दुनिया भी उन्हें रास नहीं आई ।
आख़िर में वे तंत्रा नाम की कंपनी में अपने बॉस बन गए -- जहां वे ख़ास किस्म की
इंडियन डिजाइनों वाली टी - शर्ट्स बनाते हैं । और उन्हें अपने काम से बेइंतहा मोहब्बत
हो गई है !
कर्माकंपनी
सुरेश कामथ-- जन्म 1958
लेजर सॉफ्ट इन्फोसिस्टम्स
आईआईटी से एमटेक सुरेश कामथ एक ऐसा सॉफ्टवेयर फर्म चलाते हैं जिसमें
इंजीनियरिंग की नौकरियां सिर्फ इंजीनियरों के लिए ही नहीं, सभी के लिए खुली हुई हैं ।
सुरेश कामथ इस बात पर यकीन करते हैं कि सामाजिक जिम्मेदारियों के साथ- साथ
अच्छा बिजनेस भी किया जा सकता है, और उनकी कंपनी ये बात साबित करने पर
आमादा है ।
बिना किसी ताम - झाम के
रघु खन्ना -- जन्म 1985
कैशयॉरड्राइव
रघु खन्ना की उम्र है कुल चौबीस साल, और उन्होंने कॉलेज से निकलते ही अपनी कंपनी
शुरू कर दी थी । कैशरड्राईव एक सिंपल से आईडिया पर आधारित है जिसको चलाने
के लिए न कैपिटल की जरूरत थी न ऑफिस की , और न ही किसी फैंसी टेक्नॉलोजी
की । उनकी कहानी से ये पता चलता है कि हम बेवजह तजुर्बे को इतनी तवज्जो देते हैं --
नया काम शुरू करने का कोई सही वक़्त नहीं होता , सिवाय अभी, इसी लम्हे के ।
जुनून
कुछ उद्यमी किसी एक आइडिया या जुनून पर काम करते हए अपने लिए रास्ते तैयार कर लेते
हैं । एक ऐसा आइडिया , जो सबसे अलग है, अपने वक्त से बहुत आगे है। ये वेंचर अपने सपने
को हकीकत में बदलने की एक मिसाल है ।
किताबी कीड़ा -- जन्म 1964
आर श्रीराम
क्रॉसवर्ड
श्रीराम के मन में बिजनेस शुरू करने की कोई उत्कट इच्छा नहीं थी -- वे सिर्फ किताबों
की दुनिया में खो जाना चाहते थे। इस कॉलेज ड्रॉपआउट ने फिर भी देश का सबसे बड़ा
बुक स्टोर चेन खोला, और रीडिंग की आदत को दूर - दूर तक फैलाने का बीड़ा उठाया ।
वोट फॉर चेंज
सौरभ व्यास -- जन्म 1979
गौरव राठौर -- जन्म 1980
पॉलिटिकल एज
हॉस्टल की दोस्ती और पॉलिटिक्स के लिए प्यार ने इस अलग किस्म की कंपनी को
जन्म दिया । दो आदर्शवादी युवा अब नेताओं को रिसर्च और कन्सलटिंग सर्विस मुहैया
करा रहे हैं ।
किंग ऑफ पॉप
सत्यजीत सिंह-- जन्म 1967
शक्ति सुधा इंडस्ट्रीज
सत्यजीत सिंह अपनी जिंदगी में बहुत अच्छा कर रहे थे। कन्ज़्युमर ड्युरेबल बेचते थे,
और काम अच्छा चल रहा था । लेकिन फिर भी एक दिन उन्होंने बिजनेस बंद कर दिया ,
और मखाना का कमर्शियल बिजनेस करने का फैसला किया । इसके साथ ही उन्हें
अपनी जिंदगी का मिशन मिल गया , और इसका फायदा हजारों छोटे किसानों को हुआ ।
शहर की भीड़ - भाड़ से दूर
सुनील भू -- जन्म 1961
फ्लैंडर्स डेयरी
शहर का एक लड़का, जो बचपन से जानता था कि उसे एक दिन खेतों में ही काम
करना है ।
वंडर कार
चेतन मैनी-- जन्म 1970
रेवा इलेक्ट्रिक कार कंपनी
जब से उन्हें याद है, तब से चेतन मैनी इलेक्ट्रॉनिक्स को लेकर पागल थे -- और गाड़ियों
को लेकर भी । ये वो जुनून था जिसकी वजह से चेतन ने एक इलेक्ट्रिक कार बनाने की
ठानी । आज रेवा सिर्फ ऐसी गाड़ियां ही नहीं बना रही , बल्कि जनरल मोटर्स जैसी बड़ी
कंपनियों को अपनी टेक्नॉलोजी लाइसेंस भी कर रही है ।
पेपर टाइगर
महिमा मेहरा-- जन्म 1970
हाथी छाप
महिमा रिसाइकलिंग में कुछ करना चाहती थीं, लेकिन किसी एनजीओ के साथ मिलकर
नहीं । इसलिए उन्होंने हैंडमेड पेपर का काम शुरू कर दिया । इस बीच महिमा ने कई
और दिलचस्प चीजें ढूंढ़ निकाली, जिनमें से एक था हाथी के गोबर का इस्तेमाल ।
सलाद पत्तों वाला
समर गुप्ता -- जन्म 1963
त्रिकाया एग्रीकल्चर
शहर में पैदा हुए समर के बड़े ख्वाब नहीं थे। लेकिन ज़िंदगी चुनौती देती रही और
उन्होंने तय किया कि चुनौतियों का सामना सामने से किया जाएगा। पिछले एक दशक
में त्रिकाया एग्रीकल्चर ने एक हॉबी को एक फलते-फूलते बिजनेस में तब्दील कर दिया
है । भारत में क्या - क्या उगाया जा सकता है, उस सोच की सीमाओं के तोड़ते हुए नई
चीजें पैदा कर रहा है ।
जुबान
क्रिएटिव लोगों को अपनी बात कहने के लिए प्लैटफॉर्म चाहिए होता है । अगर उनका हुनर सबसे
अलग हो तो वो प्लैटफॉर्म भी तैयार हो जाता है । और इस तरह आर्टिस्ट भी उद्यमी बन जाता है ।
कहानी कहने वाला
अभिजीत बनसोड़ -- जन्म 1972
स्टूडियो एबीडी
यंग एनआईडी ग्रैजुएट अभिजीत बनसोड सोचते थे कि ये देसी इंजीनियर वेस्ट से इतने
प्रभावित क्यों होते हैं । अभिजीत ने भारतीय धरोहर हेरिटेज के नाम से संरक्षित किया ,
टाइटन का रागा कलेक्शन तैयार किया और अब अपनी प्रॉडक्ट डिजाइन कंपनी चला
रहे हैं ।
होगी सच की जीत
परेश मोकाक्षी-- जन्म 1969
हरिश्चंद्राची फैक्टरी
परेश मोकाक्षी एक्टर बनना चाहते थे, लेकिन मराठी नाटककार और निर्देशक बन गए ।
दादासाहब फाल्के की बायोग्राफी अचानक हाथ लगी, और परेश एक नए सफर पर
अचानक निकल पड़े-- एक ऐसी फीचर फिल्म बना डाली जो 2009 में भारत की
ऑफिशियल ऑस्कर एंट्री बनी ।
अवतार
कृष्णा रेड्डी -- जन्म 1984
प्रिंस डांस ग्रुप
उड़ीसा के एक छोटे से गांव में कृष्ण रेड्डी ने मजदूरों की एक टोली बनाई, और एक डांस
ग्रुप बना लिया --प्रिंस डांस ग्रुप । इस ट्रप ने भारत का सबसे मशहूर टैलेंट शो --इंडिया
हैज गॉट टैलेंट-- जीत लिया , और मिथक कथाओं से ली गई कहानियों पर कोरियॉग्राफी
करके दर्शकों का दिल जीत लिया ।
जंगल जंगल बात चली है
कल्याण वर्मा-- जन्म 1980
वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर
बाईस साल की उम्र में कल्याण वर्मा के पास एक अदद - सी नौकरी थी , याहू में । लेकिन
एक दिन इस लड़के ने नौकरी छोड़ दी , और अपने जुनून को पूरा करने में लग गए । ये
जुनून था वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी का । आज कल्याण एक ऐसे ईडियट के तौर पर
जाने जाते हैं जिसने अच्छे - खासे काम को लात मारकर वो करना शुरू कर दिया जिसमें
वाकई उनका मन लगता था ।
जुगाड़
इन उद्यमियों को बिजनेस में कोई फॉर्मल ट्रेनिंग नहीं मिली। उन्होंने सिर्फ देखकर, नए -नए प्रयोग
करके और दिमाग लगाकर सीखा। क्योंकि बिजनेस रॉकेट साइंस नहीं होता ।
सड़कों का बादशाह
प्रेम गणपति
दोसा प्लाजा
बेहतर भविष्य की तलाश में लाखों की संख्या में हर रोज मुंबई आने वालों के हुजूम में से एक थे
वो । प्रेम गणपति नाम के बर्तन मांजने वाले इस शख्स ने मैकडॉनल्ड्स से प्रेरणा लेकर दोसा
प्लाजा के नाम से फास्टफूड चेन शुरू किया, जिसके पूरे देश में अब 26 आउलेट्स हैं ।
" मेरा इंग्लिश बहुत अच्छा नहीं है, पहली बार इंटरव्यू के लिए वक़्त मुकर्रर करने के लिए हम
उनसे बात करते हैं , तो प्रेम ये कहते हैं ।
कहने को तो हिंदी भी परफेक्ट नहीं है --भारी तमिल लहजे वाली उनकी हिंदी समझे में कई
बार परेशानी होती है ।
लेकिन एक भाषा है जो प्रेम गणपति बहुत आसानी से, और अच्छी तरह समझते हैं --बिजनेस
की भाषा ।
ब्रांडिंग ? उनसे बेहतर कौन समझेगा !
कॉस्टिंग ? हमेशा उस पर नजर होती है ।
ग्राहकों का संतोष ? उससे बढ़कर तो कुछ है ही नहीं ।
प्रेम गणपति यानि पीजी को ये सब सीखने के लिए किसी बिजनेस स्कूल जाने की जरूरत नहीं
पड़ी। उन्होंने कॉलेज के बाहर, मुंबई की तंग और धूलभरी सड़कों पर काम करते हुए अपना
ज्ञान हासिल किया ।
प्रेम ने अपना करियर किसी रेस्टोरेंटलाइन में बर्तन मांजने वाले के तौर पर शुरू किया , और
धीरे - धीरे कड़ी मेहनत की बदौलत ऊपर पहुंचते चले गए । चाय के स्टॉल से लेकर सड़क के
किनारे दोसा बेचने तक, और फिर वाशी रेलवे स्टेशन के पास एक छोटा- सा फूडज्वाइंट चलाने
तक -- कई सारे लोगों के लिए इतनी ही उपलब्धियां काफी होती हैं । लेकिन प्रेम गणपति के लिए
नहीं थी ।
प्रेम गणपति ने नवी मुंबई के सबसे पहले मॉल --सेंटर वन--में अपना एक काउंटर खोला, और
उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा ।
आज देश भर में 26 दोसा प्लाजा आउटलेट्स हैं और यहां तक कि न्यूजीलैंड में भी एक
फ्रेंचाइजी है ।
यहां तक पहुंचना आसान नहीं । लेकिन यहां तक पहुंचना नामुमकिन भी नहीं । प्रेम गणपति की
कहानी आपको उम्मीद देती है, कि हां , इस देश में कोई भी कुछ भी हासिल कर सकता है । हमारे
देश में सैकड़ों धीरूभाई अंबानी हो सकते हैं । और हमारे देश में लाखों प्रेम गणपतियों का बनना
भी मुमकिन है ।
सड़कों का बादशाह
प्रेम गणपति
दोसा प्लाजा
प्रेम गणपति तमिलनाडु के तूतीकोरिन जिले के नगलपुरम में पैदा हुए। छह भाइयों और
एक बहन के बीच वो चौथेनंबर पर थे ।
___ " मेरे पिता खेती से जुड़ा बिजनेस करते थे... उससे पहले कोयले का व्यापार कर रहे थे...
लेकिन उस धंधे में उन्हें बहुत नुकसान हुआ । मेरे पैदा होने के आस- पास उन्होंने वो काम बंद कर
दिया ," खेती का काम भी बहुत अच्छा नहीं चलता था , लेकिन काम किसी तरह चल रहा था ।
सीनियर गणपति योगा और जिमनास्टिक्स के टीचर भी थे। प्रेम बताते हैं कि उनके पिता
सबसे अलग थे। उनका जो व्यवहार था , नॉर्मल लोगों से थोड़ा अलग था । मिसाल के तौर पर
ईमानदारी उनकी पहचान थी । " मेरे पिता ने कभी बिजनेस के बारे में मुझे नहीं सिखाया । वे कभी
सफल नहीं रहे । लेकिन उन्होंने मेरे विचारों, मेरे मूल्यों पर बहुत असर डाला । जिंदगी में जो भी
थोड़ी- बहुत सफलता मुझे मिली है, उन्हीं की वजह से है । "
प्रेम नादर समुदाय से हैं , और इसलिए दसवीं तक की पढ़ाई उन्होंने पास के ही एक
सामुदायिक स्कूल से की । उस समय तमिलनाडु के मुख्यमंत्री थे कामराज नादर, और उन्हीं की
वजह से मेरे जैसे लोगों के लिए शिक्षा मुमकिन हो सकी ।
नादर कम्युनिटी का गांव में एक मंदिर ट्रस्ट जो स्कूल चलाता था । जिस एससीएन स्कूल में
प्रेम ने पढ़ाई की , वहां आस- पास के गांवों से भी बच्चे पढ़ने आते थे।
" अब तो वहां बारहवीं तक की पढ़ाई होती है । इस साल स्कूल पूरे जिले में फर्स्ट आया, "
प्रेम गर्व से बताते हैं ।
एससीएन हाईस्कूल के छात्र अब बड़ी चुनौतियों के लिए प्रयासरत हैं , लेकिन जब प्रेम ने
दसवीं की पढ़ाई पूरी की थी तो उनके सामने एक ही रास्ता था -- स्कूल से बाहर निकलकर काम
ढूंढ़ना । हमारे समुदाय में लोग या तो आठवीं तक पढ़ाई करते हैं या बहुत से बहुत दसवीं तक ।
फिर परचून की दुकान खोल लेते हैं , कपड़े की दुकान खोल लेते हैं , बर्तनों की दुकान में जॉब पर
जाते हैं ।
पैसे की कमी थी । प्रेम चेन्नई चले गए, जहां उनके पिता और भाई पहले से काम कर रहे थे
और वहां एक कॉफी की दुकान में उनकी नौकरी लग गई ।
"मैंने कॉफी बीन पीसना सीखा... छोटे - छोटे काम सीखे। " उसके बाद साल की एक छुट्टी
में जब वे गांव लौटे तो उन्होंने दूसरा काम ले लिया -- कॉफी और चावल के व्यापार का । शायद
प्रेम इसी काम में रम जाते, लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था ।
" मेरे मालिक का एक भाई बॉम्बे से आया था 1990 में । उसके साथ मैं बॉम्बे चला गया । "
क्यों ?
क्यों नहीं ?
प्रेम तब सत्रह साल के थे, बाहर की दुनिया देने की उत्सुकता थी । बिना किसी को बताए वे
सपनों की नगरी की ओर निकल गए । किसी हिंदी फिल्म का प्लॉट लग सकता है ये, लेकिन
इसके बाद जो हुआ वो वाकई बहुत फिल्मी था । जिस इकलौते इंसान को प्रेम इतनी बड़ी मुंबई में
जानते थे, वो इकलौता इंसान उन्हें बांद्रा स्टेशन पर अकेला छोड़कर खुद कहीं गायब हो गया ।
___ "मुझे कुछ भाषा वगैरह भी मालूम नहीं था , " वे बताते हैं । एक भले दिल वाला तमिल
इंसान उन्हें मरियम्मन मंदिर के पास ले गया, जहां लोगों ने चेन्नई वापस जाने के पैसे जमाकर
उन्हें दे दिया ।
प्रेम ने पैसे लेने से इंकार कर दिया । कहा कि यहीं कुछ काम करेंगे ।
मुंबई हर रोज कई नए अजनबियों को पनाह देती है। प्रेम को भी एक बेकरी शॉप में नौकरी
मिल गई । काम क्या था ? साफ - सफाई करना और पिज्जा और बर्गर वाले ट्रे साफ रखना। छह
महीने के बाद प्रेम अपने गांव गए । लौटने पर उन्हें चेंबूर के सदगुरु होटल में नई नौकरी मिल गई ।
1991 में सदगुरु के मालिक ने वाशी के एपीएमसी मार्केट में एक नया वेंचर शुरू किया । प्रेम
गणपति को गुरुदेव होटल में मोरी (किचन की नाली ) के पास काम मिला ।
" बर्तन मांजने का , " प्रेम बताते हैं ।
"मैं उनको काफी रिक्वेस्ट करता था ... मैं टेंथ तक पढ़ा हूं, मुझे थोड़ा इंग्लिश नॉलेज है ।
मुझे वेटर बनाओ या तो बाहर चाय लेकर जाने का काम दो । कुछ नहीं तो कम से कम
टेबलक्लीन करने का जॉब दे दो ..." ।
पेट भले ही भूख से जल रहा हो , लेकिन किसी इंसान के भीतर भी एक आग होती है। प्रेम
गणपति के भीतर भी थी ।
लेकिन मुश्किल ये थी कि होटल का मालिक उस युवा लड़के को नजरअंदाज करता रहता
था , जो हमेशा ज़्यादा, और ज़्यादा काम मांगा करता था । तब शायद क्षेत्रीयता काम पर इस
कदर भारी थी कि मद्रासियों को मेज साफ करना, या वेटर के काम करने जैसे फ्रंटलाइन काम
नहीं मिला करते थे। उन्हें किचन तक ही रखा जाता था , और मैंगलोर के लोगों या स्थानीय लोगों
को सामने का काम मिलता था ।
___ मुझे बहुत तकलीफ होती थी , बुरा लगता था , प्रेम बताते हैं । लेकिन तब सही वक़्त का
इंतजार करने के अलावा प्रेम कुछ कर भी नहीं सकते थे।
जब बगल में प्रेम सागर नाम का रेस्टुरेंट खुला तो प्रेम की किस्मत बदली । यहां उन्हें
टीबॉय का काम मिला । लेकिन एक टीबॉय का काम बर्तन मांजने वाले से बेहतर कैसे होता
होगा ? क्योंकि बाहर चाय लेकर जाने से 10 प्रतिशत का कमीशन मिलता है, और आप
क्लायंट्स से अपने रिश्ते बना सकते हैं -- वैसे इंसानी रिश्ते जो जाने कब आपको कहां पहुंचा दें !
" मेरा दुकान सब जगह खोलने का था मुझे । फास्ट जाने का था । "
प्रेम गणपति में बिजनेस का कुदरती हुनर था । जब बाकी के टीबॉय ज्यादा से ज्यादा तीन
सौ रुपए हर रोज कमाते थे, प्रेम हजार रुपए प्रति दिन तक कमा लिया करते थे। आखिर इसका
राज क्या था ?
___ " देखिए, मेरे रिश्ते सबसे बहुत अच्छे थे। हमारे बगल में तमिलनाडु मर्कन्टाईल बैंक था ।
वहां से लोग फोन करके मेरा नाम लेकर कहते कि प्रेम को ही भेजो । "
" मैं सबसे प्यार से , हंसकर बात करता था । मेरी सर्विस बहुत अच्छी थी । मुझे ये भी मालूम
था कि किस इंसान को किस तरह की चाय पसंद है, और कितने बजे । ये भी जानता था कि
किसे लंच के साथ कौन- सा सॉफ्ट ड्रिंक चाहिए । मैं इन चीजों पर ख़ास ध्यान देता था । " ।
__ " क्योंकि पूरा मार्केट में , सबको अलग- अलग टेस्ट रहता है । तो मैं उनके हिसाब से अच्छा
सर्विस देने की कोशिश किया ताकि मेरा नाम हो । "
चाहे आप चाय बेच रहे हों या फिर फॉर्चुन 500 क्लायंट को सर्विस दे रहे हैं ,बिजनेस का
मूल सिद्धांत एक ही होता है । हमेशा!
जल्द ही प्रेम की कमाई भी अच्छी होने लगी और बचत भी होने लगी क्योंकि रहने - खाने
की सुविधा मिली हुई थी । लेकिन सफर शुरू होना तो अभी बाकी था । उन्हीं के एक कस्टमर,
एक तमिल सज्जन ने, प्रेम को एक ऑफर दिया । वाशी के सेक्टर 3 - 4 मार्केट में वे चाय की एक
दुकान खोलना चाहते थे। वे पैसे लगाने को तैयार थे, और प्रेम से उन्होंने बिजनेस चलाने को
कहा--50 :50 की पार्टनरशिप में ।
प्रेम गणपति खुशी- खुशी तैयार हो गए । चाय की दुकान एक किराना दुकान के पीछे खोली
गई । पहले ही दिन से बिजनेस चल निकला । दो -तीन महीनों के बाद पैसे लगाने वाले पार्टनर का
लालच बढ़ने लगा । तब मुनाफा 8, 000 - 10, 000 तक पहुंच गया था । फिर प्रेम को उसका 50
प्रतिशत क्यों दिया जाए ?
"मुझे निकाल दिया और सैलरी पर किसी को रख लिया । "
प्रेम गणपति दौड़ शुरू होने से पहले ही दौड़ से बाहर हो गए ।
साल था 1992 | प्रेम छुट्टियों में अपने गांव गए, और वापस मुंबई अपने एक रिश्तेदार से
छोटा- सा कर्ज और छोटे भाई को साथ में लिए लौटे । अपनी बीस हजार की छोटी - सी लागत से
प्रेम गणपति ने सड़क के किनारे अपनी एक छोटी सी दुकान लगा ली ।
बिजनेस अच्छा चल रहा था , लेकिन पड़ोस की हाउसिंग सोसाइटी ने जीना दूभर कर रखा
था । रोज की किट-किट से परेशान होकर प्रेम ने एक हाथगाड़ी खरीद ली और बस डिपो के पास
अपनी दुकान लगा ली । ये वेंचर भी बहुत कम दिन चला ।
लेकिन कभी हार न मानने वाले प्रेम के पास गिरकर दुबारा उठते रहने के अलावा कोई
रास्ता नहीं बचा था । जल्दी ही प्रेम को एक और जगह मिल गई, और इस बार वाशी के सेक्टर
17 में प्रेम ने एक साउथ इंडियन स्टॉल लगा लिया । प्रेम को दोसा या इडली बनाना तक नहीं
आता था । इडली या दोसा तैयार करने का सामान आस-पास के दक्षिण भारतीय परिवारों से
आता था और खाना बनाना उन्होंने गलती करते हुए, दूसरों को ध्यान से देखते हुए सीखा।
" मुझे तुरंत समझ में आ गया कि आटे की क्वालिटी अच्छी नहीं थी । इसलिए मैंने अपना
ग्राइंडर खरीद लिया और खुद ही आटा बनाने लगा। "
प्रेम गणपति का दोसास्टॉल 1992 से 1997 तक बॉम्बे मर्केन्टाईल को - ऑपरेटिव बैंक के
बाहर खूब चला।
" काफी अच्छा मेरा नाम हुआ । "
और कमाई भी अच्छी होने लगी । प्रेम गणपति मुनाफे के तौर पर हर महीने बीस हजार
रुपए तक कमा रहे थे।
" मैं हमेशा पर्सनली नहीं खड़ा हो पाऊंगा...
इसलिए एक ब्रांड बनाना जरूरी था । "
लेकिन कोई बिजनेस ऐसा नहीं जिसमें परेशानी न होती हो ।
" उस समय स्टार्टिंग में सिडको आता था , भागना पड़ता था । बाद में म्युनिसिपैलिटी आया ।
म्युनिसिपैलिटी के लोगों ने भी काफी तकलीफ दिया है । "
फिर आप धीरे- धीरे सेटिंग करना भी सीख जाते हैं ।
इस वक्त तक प्रेम गणपति वाशी के सेक्टर 11 में एक किराए के घर में रह रहे थे। यही घर
रसोई का काम करता था , जहां से चटनी, आलू भाजी और दोसे का मसाला हर सुबह तैयार
होकर निकलता था । स्टॉल में दिनभर ध्यान देने की जरूरत पड़ती थी , और ऑपरेशन्स चलाने
के लिए प्रेम के दो और भाईयों ने बिजनेसज्वाइन कर लिया ।
लेकिन इतना छोटा- सा स्टॉल आखिर इतना मशहूर क्यों था ? मुंबई में तो हर जगह उडुपी
में इडली और दोसा मिल जाता है। फिर लोग इस छोटे से स्टॉल के पास क्यों भीड़ लगाते थे?
इसलिए क्योंकि ये सबसे अलग था ।
" मैं सफाई पर बहुत ध्यान देता था । सड़क के किनारे बाकी के दोसावालों से अलग हम
शर्ट और पैंट पहनते थे, लुंगी नहीं । हमारी हाथगाड़ी हमेशा एकदम साफ होती थी । एकदम
अच्छा और फ्रेश चीज बनता था । अच्छा ढंक के रखता था । "
___ एक बोर्ड पर बड़े- बड़े अक्षरों में नीले और सफेद रंगों से प्रेम गणपति साउथ इंडियन
फास्टफूड लिखा होता । ब्रांडिंग शुरू से ही एकदम साफ और स्पष्ट थी ।
स्टॉल आम जनता के बीच में ही मशहूर नहीं थी , कई गाड़ी वाले ग्राहक भी रुककर यहां से
दोसा और इडली खरीदा करते थे। इनमें मर्सिडिज में आने वाले बड़े लोग भी होते थे। खाने की
कीमत कम थी । दो इडली चार रुपए में और एक मसाला दोसा दस रुपए में मिलता था । पास के
नवरत्न रेस्टुरेंट की तुलना में ये बहुत सस्ता था ।
___ 1997 तक प्रेम ने एक - दो लाख के आस - पास बचत कर ली । इन पैसों से उन्होंने अपने
एक भाई के लिए चेन्नई में किराने की एक दुकान खोल दी । प्रेम कुछ साल काम करने के बाद
घर लौट सकते थे। लेकिन जनवरी 1998 में उन्होंने एक और बड़ा जुआ खेला ।
प्रेम ने 50, 000 रुपए डिपॉजिट और 5 ,000 रुपए किराया देकर वाशी स्टेशन के ठीक
बगल में एक दुकान ले ली । इसके साथ ही प्रेम गणपति प्रेम सागर दोसा प्लाजा की शुरूआत
हुई, और वहां से एक ब्रांड का सफर शुरू हुआ।
दोसा प्लाजा नाम कैसे आया , इसके पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है । उस समय प्रेम
का एक रूममेट हुआ करता था जो एनआईआईटी का छात्र था । इसी शख्स ने प्रेम की एक ई
मेल आईडी बनाई और उन्हें इंटरनेट सर्किंग सिखाई । दोपहर के तीन बजे से लेकर शाम के छह
बजे तक प्रेम को जब थोड़ी फुर्सत मिलती तो वे एक साइबरकैफे में जाकर लॉगऑन करते , और
सर्च करते ।
" काफी मैं फूड के बारे में सोचता था कि कैसा क्या होता है । मैकडॉनल्ड्स , पिज्जा हट
सबके बारे में आईडिया आया मुझे। "
प्रेम को अहसास हो गया था कि वे दोसा के लिए मशहूर हैं । इसलिए उनके नाम में भी ये
आना चाहिए । जैसे पिज्जा हट, जो पिज्जा के लिए जाना जाता है । उन्होंने कई नाम सोचे--
दोसापैलेस, दोसा पार्क , दोसा इन ।
__ इसी दौरान उन्हें कोकाकोला के ब्रांड की कहानी पता चली, कि उन्होंने कोला के आगे
कोका इसलिए लगाया क्योंकि ये सुनने में अच्छा लगता था । और अचानक प्रेम के दिमाग में
एक नाम अटक गया -- दोसा प्लाजा --जिसमें एक किस्म की लय भी थी । यही नाम चुना जा
सकता था !
__ "फिर मैंने एक दिन प्लाजा का मीनिंगडिक्शनरी में देखा। तो ओपेन बिल्डिंग को ,
ओपेनस्पेसबिल्डिंग को प्लाजा बोलते हैं । "
___ चूंकि प्रेम भी खुली जगह से अपना बिजनेस चला रहे थे, इसलिए उन्हें ये नाम बिल्कुल
सटीक लगा -- प्रेम गणपतिज प्रेम सागर दोसा प्लाजा ।
प्रेम ने अपनी ओपन एयरईटरी के लिए एक वेबसाइट भी बनाया -- मेरे ख्याल से देश का
पहला ऐसा दोसाशॉप ,जिसकी वेबसाईट थी ! लेकिन अभी काफी कुछ और किया जाना था ।
ग्राहकों की और से वेराईटी की मांग आ रही थी । इसलिए तीन - चार महीनों के बाद प्रेम ने
बगल में एक चाइनीजस्टॉल खोला और उसका नाम दिया चाइनीजप्लाजा , जो बुरी तरह फ्लॉप
रहा ।
" हमें बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि चाइनीजस्टॉल कैसे चलाते हैं । हमें चाइनीज बनाना नहीं
आता था ... क्या - क्या चीजें उसमें पड़ती हैं , ये नहीं जानते थे। इसके अलावा लोकेशन भी अच्छा
नहीं था । पहले से ही वहां एक अलीबाबा चाइनीज था । "
वेंचर घाटे में चल रहा था और हमें तीन महीने में ही दुकान बंद करनी पड़ी। लेकिन पैसे की
बर्बादी नहीं हुई क्योंकि हमें कुछ सीखने को मिला।
प्रेम गणपति ने प्रयोग करना शुरू कर दिया। उन्होंने चाइनीज फिलिंग्स के साथ कुछ
मसाले तैयार किए और उनको दोसों में भरना शुरू कर दिया ।
" शेजवान दोसा । "
"मंचूरियन दोसा । "
" पनीर-चिली दोसा । "
स्टॉल के आस -पास डेरा डालने वाले एनआईआईटी के छात्र उनका टेस्ट मार्केट बने ।
" ये अमेरिकन चॉपसी दोसा खाओ। इसमें खट्टा-मीठा भी है । "
स्टूडेंट्स आराम से तैयार हो जाते थे और उन्होंने नए किस्म के दोसों को स्वीकृति देना शुरू
कर दिया और इस तरह चाइनीज दोसा दोसा प्लाजा के मेन्यू का हिस्सा बना । ग्राहकों को ये नया
प्रयोग पसंद आया , और वे लौट - लौटकर आने लगे । प्रेम ने प्रयोग किए और नए किस्म की
वेराइटी का ईजाद किया । वे रेसिपी ढूंढ़ा करते थे। उन्होंने अलग - अलग किस्म की पाक - शैलियों
को मिलाकर देखा कि कैसे उन्हें मिक्स और मैच करके नई रेसिपी बनाई जा सकती है ।
लेकिन उनका रोल - मॉडलमैकडॉनल्ड्स रहा। जब भी वे कहीं अटकते, यही सोचते कि
आखिर मैकडॉनल्ड्स ने कैसे किया होगा ।
" मैंने ध्यान दिया कि मैकडॉनल्ड्स अपने प्रॉडक्ट के बगल में टीएम लिखता था । तभी मुझे
अपने ब्रांड की ट्रेडमार्किंग का आइडिया आया , क्योंकि कई सारे लोग मेरी रेसिपी की नकल
करने लगे थे। साई सागर दोसा प्लाजा, उडुपीदोसा प्लाजा और न जाने क्या क्या । " प्रेम ने
एक वकील की मदद से दोसा प्लाजा रजिस्टर करा लिया । आज उनकी 27 रेसिपिज पर
उनका कॉपीराइट और ट्रेडमार्क है ।
अपने प्रॉडक्ट पर ध्यान देने के अलावा प्रेम को ब्राडिंग और पब्लिसिटी की कीमत भी
समझ में आने लगी ।
" पब्लिक को मेरे स्टॉल पर लेकर आने के लिए मैंने काफी मेहनत किया। न्यू बॉम्बे में
कितना भी कॉलेज है, सब कॉलेज में अपना स्टॉल लगाया । बड़ा - बड़ा बैनर के साथ । "
धीरे- धीरे उनकी मेहनत रंग लाने लगी । 2002 तक दोसा प्लाजा सफलता के नए
कीर्तिमान रच चुका था । दो आउटलेट्स और 15 लोगों के स्टाफ के साथ महीने के 10 लाख
रुपए के टर्नओवर के साथ प्रेम गणपति को अब संतुष्ट हो जाना चाहिए था । लेकिन उनमे कुछ
और करने की एक ज्वलंत ख्वाहिश थी ।
" एक्चुअली, मेरा प्रॉफिट जो था मैंने कभी निकाला नहीं । बस मेरा घर चलता था । "
प्रेम गणपति और आगे बढ़ना चाहते थे । इसके लिए वे आज का बैंक बैलेंस भी कुर्बान
करने को तैयार थे। वे और बड़े इन्वेस्टमेंट के साथ दोसा प्लाजा की पूरी चेन शुरू करना चाहते
थे।
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