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दशकुमारचरित-2,3 दिग्विजय-यात्रा और कुमारों का बिछुड़ना

 


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दिग्विजय-यात्रा और कुमारों का बिछुड़ना

वामदेव का सुझाव

एक दिन वामदेव राजा राजहंस से मिलने गए। राजा का पुत्र कामदेव का संशय पैदा करता था। सभी कुमार कार्तिकेय के साहस का उपहास सा करते हुए से लगते थे। वे लोग राजा पर जयध्वज, छत्र, कुलिश आदि लगाते थे, इससे उनके हाथों में निशान पड़ गए थे। जब वामदेव पहुँचे तो सब कुमार वहीं थे। राजा ने वामदेव का आदर-सत्कार किया। भौरे जैसे काले, लंबे बालों वाले कुमारों ने उनके चरणकमल पर सिर झुकाया और भविष्य में शत्रुदमन की इच्छा रखने वाले कुमारों को वामदेव ने स्नेह से आलिंगन करके आशीर्वाद दिया। वे बोले : 'हे भूवल्लभ! आपका पुत्र राजवाहन आपके मनचाहे फल सा सुन्दरता और यौवन को पाकर अब आपके अनुकूल मित्र-सा हो गया है। अब इसका समय है कि यह अपने सहचरों के साथ दिग्विजय करने को निकले। अब आप इसे भेजिए।

कुमारों का दिग्विजय पर निकलना

कामदेव जैसे सुन्दर और राम जैसे अतुल पराक्रमी, क्रोध से ही शत्रु को भस्म करने में समर्थ, वायु से भी वेग में आगे जाने वाले उस कुमार समूह की युद्धयात्रा से राज्य बढ़ेगा, यह सोचकर राजवाहन की सेवा में उन कुमारों को लगाकर उचित उपदेश देकर शुभ मुहूर्त में राजा राजहंस ने दिग्विजय करने को उन्हें भेज दिया।

ब्राह्मण मातंग का मिलना

मंगल शकुनों को देखता अनेक देशों को पार करता हुआ राजवाहन विध्याटवी में घुसा। वहाँ उसे एक पुरुष मिला। उसके नेत्र भयंकर लगते थे। आयुधों की चोटों से उसके शरीर पर निशान पड़े थे। उसकी देह बड़ी कठोर थी। वैसे वह बिलकुल किरात-सा लगता था, मगर उसके कन्धे पर यज्ञोपवीत पड़ा था, जिसके कारण उसे ब्राह्मण समझना पड़ रहा था।

उस पुरुष ने राजवाहन का बड़ा सत्कार किया। कुछ समय बाद राजवाहन ने उससे कहा: 'हे अपरिचित ! तुम इस निर्जन में मृगों और वनपशुओं के योग्य घने जंगल में विंध्याटवी के भीतर क्यों रहते हो? कन्धे पर पड़े जनेऊ को देखकर तो ब्राह्मण लगते हो, परन्तु आयुधों के आघात चिह्नों के कारण तुम्हारा काम किरातों का सा मालूम देता है। यह क्या मामला है।

उस आदमी ने कुमार के मित्रों से पहले ही उसका नाम जन्म आदि पूछ लिया था । उसने सोचा कि यह तेजस्वी पुरुष असाधारण ही है। उसने कहा: 'हे राजनन्दन ! इस अटवी में बहुत-से कुत्सित ब्राह्मण रहते हैं। वे वेदाभ्यास, कुलाचार, सत्य, पवित्रता, धर्म, व्रत आदि सबको छोड़ चुके हैं। पाप करने में रत पुलिन्द उनके स्वामी है। उन्हींकी यह ब्राह्मण जूठन भी खा लेते हैं! उन्हीं में से एक कुत्सित ब्राह्मण का पुत्र मैं हूँ। मेरा नाम मातंग है। मैं निन्दित चरित्र हूँ। किरातों की सेना के साथ जनपदों में जाता था और बाल-बच्चों, औरतों के साथ अमीर आदमियों को पकड़ लाता था। उन्हें बन्धन में रखकर उनका सब धन छीन लेता था । यों मैं निर्दय सा घूमा करता था। एक बार जब मेरे साथी एक ब्राह्मण को जान से मारने वाले थे, मुझे दया आ गई। मैंने कहा: अरे पापियो ! ब्राह्मण की हत्या मत करो। यह सुनकर बहुत लाल-लाल आँखें करके वे मुझे डाँटने लगे। मैं उनकी डाँट नहीं झेल सका। ब्राह्मण के लिए मैं उनसे लड़ता लड़ता मारा गया। मरकर में प्रेतपुरी पहुँचा। वहाँ यमराज देहधारी पुरुषों से घिरे सभा के बीच रत्नजटित सिंहासन पर बैठे थे। मैंने जाकर दण्डवत प्रणाम किया। यमराज ने मुझे देखकर अपने अमात्य चित्रगुप्त को बुलाकर कहा देखो सचिव ! यह इसके मरने का समय नहीं है। यद्यपि यह निन्दित चरित्र है, पर यह पृथ्वी के देवता ब्राह्मण के लिए मरा है। अब इसकी बुद्धि पुण्य में लगेगी। पापियों को जो यातनाएँ झेलनी पड़ती हैं, वे इसे दिखाकर, फिर इसको इसके पहले शरीर में ही भेज दो। चित्रगुप्त ने मुझे नरक यातना दिखाई। कहीं पापी लोग गर्म लोहे के खंभों में बाँधे जा रहे थे, कहीं कड़ाहों के खौलते तेल में फेंके जा रहे थे, कहीं लट्ठों की मार से उनके अंजर पंजर ढीले कर दिए गए थे, किसी पर आरा चल रहा था। उन्होंने पापियों को दिखाकर, पुण्य, बुद्धि का उपदेश देकर मुझे फिर अपने पुराने शरीर में छोड़ दिया। उस महाटवी में वही ब्राह्मण शीतोपचार आदि करता हुआ मेरी रक्षा कर रहा था। उसने मेरे शरीर को शिला पर लिटा रखा था। तब तक मेरे वंशबन्धु भी सब समाचार जानकर अचानक आ पहुँचे और घर ले जाकर उन्होंने मेरी मरहम पट्टी की, मेरे घाव ठीक किए। वह ब्राह्मण बहुत कृतज्ञ हुआ। उसने मुझे पढ़ना-लिखना सिखाया। आगम के अनेक सिद्धान्त सिखाए । पापनाशक, सदाचार और ज्ञान से प्राप्त होने वाले चन्द्रशेखर महादेव की पूजा का विधान सिखाकर मेरी ओर से दी हुई भेंट लेकर चला गया। उसी दिन से मैंने किरातों के साथ रहने वाले सारे बन्धुओं का त्याग कर दिया। सकल लोक के एकमात्र कारण चन्द्रशेखर महादेव का चित्त में स्मरण करता हुआ मैं सब कलंकों से दूर, इस जंगल में रहता हूँ, देव! आपसे मुझे एकान्त में कुछ रहस्यमय बात कहनी है। मेरे साथ आइए।'

मित्रों से अलग होकर राजवाहन से उसने एकान्त में कहा 'हे राजन! ब्राह्मवेला में मैंने स्वप्न देखा है। प्रसन्नवदन गौरीपति ने मुझे सोते से जगाकर कहा कि मातंग ! दण्डकारण्य के बीच बहती नदी के तट पर एक स्फटिक लिंग है, जिसकी सिद्ध और साध्य पूजा करते हैं। उसके पीछे भगवती के पाँवों के निशान से चिह्नित एक पाषाण है, उसके पास ब्रह्मा के मुख की तरह एक बिल है, उसमें घुसो और वहाँ तुम्हें एक ताम्रपत्र मिलेगा। उसमें जो लिखा हो उसे भाग्यलिपि मानकर काम करो। तुम पाताल लोक के स्वामी बन जाओगे। और इस काम में तुम्हारी मदद करने वाला राजकुमार आज या कल आ जाएगा। जैसा भगवान ने कहा, वही हुआ। अब आप मेरी सहायता करें।'

राजवाहन ने भी स्वीकार कर लिया।

राजवाहन का मित्रों को छोड़कर जाना और मित्र - कार्य करना

आधी रात के समय जब सब सो गए तो मातंग ने आकर प्रणाम किया। राजवाहन मित्रों को छोड़कर उसके साथ दूसरे वन में चला गया। प्रातः काल खोजने पर भी राजवाहन किसी को नहीं मिला। सब बड़े दुःखी हुए।

कुमारों का राजवाहन को खोजने निकलना

जब सारे वनों में ढूँढने पर भी राजवाहन किसी को नहीं मिला तो वे कुमार उसे ढूँढ़ने के लिए देशांतर जाने को उत्सुक हो उठे। उन्होंने फिर एक जगह मिलने का संकेतस्थल निश्चित कर लिया और एक-दूसरे से अलग होकर निकल पड़े।

राजवाहन और मातंग की यात्रा

राजवाहन जैसे महावीर से रक्षित मातंग ने शिव के बताए मार्ग को पकड़ा। उसी मार्ग से वे लोग रसातल में पहुँच गए और मातंग ने ताम्रपत्र प्राप्त कर लिया। वहाँ एक नगर के पास सारस पक्षी एक तालाब के किनारे क्रीड़ा कर रहे थे। मातंग ने शिव की आज्ञा के अनुकूल उस ताँबे के पत्र को पढ़ा और अनेक प्रकार के होम करके विघ्नहर राजवाहन के देखते-देखते, उसे आश्चर्य में डालकर, समिधा और घी से हरहराती होमाग्नि में अपनी पुण्यवान देह अर्पित कर दी। वह अग्नि में से बिजली की सी चमकती दिव्यदेह प्राप्त करके निकल आया।

उस समय हंस की गति से चलने वाली, उत्तम मणिने भूषण पहने एक अनिंद्य सुन्दरी उस दिव्य देहधारी पुरुष के पास आई और चमकती मणी देकर खड़ी होगई। पुरुष ने पूछा तुम कौन हो?

वह स्त्री कोकिल कणठ से उत्कण्ठित स्वर में बोली, हे ब्राह्मण!हे पृथ्वी के देवता! मैं असुरारज की नन्दिनी कालिन्दी हूँ। मेरे महानुभाव पिता उस लोक के शासक थे, परन्तु दूसरे के पराक्रम को न सहने वाले विष्णु ने युद्ध में उन्हें मार डाला। मेरे पिता ने देवताओं को भी परास्त कर दिया था। पिता के बिना मैं शोक-सिन्धु में डुब गई। मुझ पर दया करके एक सिद्ध तापस ने कहाः बाले! तुम्हारा पति कोई दिव्य देहधारी तरूण मानव होगा। वहीं इस रसातल की रक्षा करेगा। जैसे चातकी मेघ की प्रतिक्षा करती है, मैं तुम्हारे लिए बैठी थी। अपने आनात्यों की अनुमती से अपने मनोरथ पूरण करने, मैं इस समय काम-वासना से भरी हुई तुम्हारे पास आई हूं। इस लोक की राज्यलक्ष्मी स्वीकार करके मुझे उसकी सपत्नी बना लो।

मतंग ने राजवाहन की अनुमती पाकर उससे विवाह कर लिया और दिव्य स्त्री को पाकर प्रसन्न हो गया। रसातल के राज्य ने उसे बहुत सुख दिया।

राजवाहन का लौटकर मित्रों को न पाकर घूमना  

राजवाहन अपने मित्रों से बिना कहे आया था। अब उसने भूमि पर लौटना चाहा। कालिंदी ने उसे भूख-प्यास मिटाने वाली एक मणि दी मातंग उसे पहुँचाने कुछ दूर गया। राजवाहन उसे बीच ही से लौटाकर बिल के मार्ग से निकल आया। परन्तु उसे वहाँ कोई मित्र नहीं दिखाई दिया। तब वह उन्हें ढूँढ़ने को इधर-उधर घूमने लगा।

सोमदत्त का मिलना

एक दिन ऐसे ही घूमते हुए वह विशालापुरी में जा निकला। एक उपवन के पास पहुँचा और आराम करने की चेष्टा में लगा। उसने देखा कि पालकी में चढ़ा, स्त्री और सेवकों से घिरा हुआ, एक पुरुष आ रहा था। वह पुरुष राजवाहन को देखकर एकदम प्रसन्न हो उठा। उसके मुख से निकला : 'अरे ! चन्द्रकुलभूषण, यश के उज्ज्वल समुद्र ! मेरे स्वामी राजवाहन! बड़े भाग्य कि मैं इनके चरणों में अपने-आप पहुँच गया! कैसा आनन्द है!' यह कहकर वह पालकी से उतर आया और राजवाहन जब तक तीन-चार पग ही बढ़ पाया होगा कि वह जल्दी से आकर मस्ती से अपने अंग-अंग से प्रसन्नता प्रकट करता हुआ झुका, और उसने अपने मस्तक से राजवाहन के कमल जैसे पाँवों को छुआ। उसके सिर से खिली हुई मल्लिका की मालाएँ झुकने से बिखर - सी गई।

राजवाहन ने भी स्नेहाश्रु भरकर उसका पुलकित होकर गाढ़ आलिंगन किया और कहा : 'अरे सोमदत्त !' फिर दोनों एक नागकेसर के पेड़ की शीतल छाया में बैठ गए। राजकुमार ने कहा : 'मित्र! इतने दिन तुम कहाँ और कैसे रहे? अब कहाँ जा रहे हो? यह तरुणी कौन है? यह परिजन तुम्हें कहाँ मिले ?'

तब वह देखने की आतुरता के ज्वर से युक्त हुआ सा हाथ जोड़कर बड़ी विनय से अपने भ्रमण वृत्तांत को सुनाने लगा-

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सोमदत्त की कहानी

सोमदत्त की मुसीबतें और सुखमय जीवन

'देव! आपके चरण-कमलों की सेवा का इच्छुक में वन में प्यास से आकुल घूम रहा था कि मुझे एक उज्ज्वल रत्न दिखाई दिया। मैंने उसे उठा लिया। धूप तेज़ हो गई। मैं चलने में असमर्थ हो गया। अन्त में मुझे एक देवमन्दिर दिखाई दिया। मैं उसीमें घुस गया। वहाँ मैंने कई बालकों को अपने साथ लिए हुए एक बूढ़े ब्राह्मण को देखा। उसे देखकर मुझे दया आ गई। मैंने उससे कुशल-क्षेम पूछा। उस बिचारे का दीनता के कारण मुँह पीला पड़ गया था। बड़ी आशा मन में रखकर वह ब्राह्मण मुझसे कहने लगा महाभाग! मैं इन मातृहीन बच्चों का इस कुदेश में भिक्षा माँगता हुआ पालन करता हूँ और इसी शिवालय में रहता हूँ।

'सामने एक सेना खड़ी थी। मैंने उससे पूछा भूदेव! इस सेना का स्वामी किस देश का राजा है? इसका नाम क्या है? यहाँ क्यों आया है?

'ब्राह्मण ने कहा सौम्य! इस देश का राजा वीरकेतु है उसकी पुत्री स्त्रीरत्न अद्वितीय रूपसी है। लाट देश के राजा मत्तकाल ने उससे विवाह करने की इच्छा प्रकट की, किन्तु वीरकेतु ने इनकार कर दिया। इस पर मत्तकाल ने वीरकेतु का नगर घेर लिया। वीरकेतु ने डरकर उपहारस्वरूप अपनी बेटी उसे दे दी। लाटेश्वर मत्तकाल ने यह निश्चय किया कि अपने घर में ही ले जाकर इससे ब्याह कर लूँगा। वही लौटते में यहाँ शिकार खेलने को पड़ाव डाले पड़ा है। किन्तु वीरकेतु का मन्त्री मानपाल बड़ा चतुर है। उसने स्वामी का अपमान देखकर इसमें भेद डाल दिया है। वह भी वीरकेतु की आज्ञा से अपनी चतुरङ्गिणी सेना के साथ उधर टिका हुआ है।

"मैंने उस ब्राह्मण को बूढ़ा और असमर्थ जानकर दयावश वह रत्न उसे दे दिया। वह प्रसन्न हो उठा। अनेक आशीर्वाद देकर वह चला गया। थकान के मारे में गहरी नींद में सो गया। कुछ देर बाद देखता क्या हूँ कि ब्राह्मण के दोनों हाथ बँधे हैं, शरीर पर चाबुक की मार के निशान हैं और कई सिपाही साथ हैं। ब्राह्मण ने मेरी ओर दिखाकर सिपाहियों से कहा: ये हैं चोर !

'इसपर राजभटों ने उसे छोड़कर मुझे बाँध डाला। मैंने बिलकुल निर्भीकता से उन्हें रत्न पाने का हाल बहुतेरा बताया, पर उन्होंने कुछ भी नहीं सुना ले जाकर कारागार में कुछ बन्दियों को दिखाकर कहा ये हैं तुम्हारे मित्र! और मेरे पैरों में बेड़ी डाल मुझे भी बन्द कर गए। मैं अब करूँ भी क्या? सोचते हुए मेरी तो बुद्धि जड़ हो गई। वहाँ से छूटने का कोई उपाय न देखकर मैंने उस बन्दियों से कहा तुम लोग इतने सबल होने पर भी इतना कठिन कारावास क्यों झेल रहे हो? इन सिपाहियों ने क्यों कहा कि ये हैं तुम्हारे मित्र !

'मैंने उन्हें ब्राह्मण से सुने लाटेश्वर का वृत्तांत भी सुनाया। तब वे वीर चोर कहने लगे : हे महाभाग ! हम लोग राजा वीरकेतु के मन्त्री कामपाल के सेवक हैं। हमें मन्त्री ने आज्ञा दी कि हम मत्तकाल को मार डालें हम सुरंग बनाकर उसके आगार में घुसे, पर वह हमें वहाँ नहीं मिला। हमें बहुत दुःख हुआ। अन्त में हम वहाँ से बहुत सा धन लेकर एक बीहड़ वन में घुस गए। दूसरे दिन राजा के सिपाही हमारे पगचिह्न देख-देखकर वहीं जा पहुँचे जहाँ हम उस धन के साथ रुके हुए थे। उन्होंने हमें घेर के रस्सियों से कसकर बाँध लिया और राजा के पास ले गए। सब सामान इकट्ठा किया गया, तो एक रत्न नहीं मिला। इस पर हमें प्राणदण्ड मिला। वही रत्न वसूल करने को हमें बाँधकर रखा गया है।

'मैं समझ गया कि वह रत्न चोरी का ही था। तब मैंने अपना रत्न पाना, ब्राह्मण को देना, अपना कुल नाम आदि बताया। बताया कि आपको मैं कहाँ-कहाँ ढूँढ़ता फिरा यों मैंने उनसे मित्रता कर ली। उसी आधी रात को मैंने उनके बन्धन खोल दिए, उन्होंने मेरे हम सब साथ-साथ निकल पड़े। फाटक के प्रहरी सो रहे थे। हमने उनके शस्त्र उठा लिए और आगे बढ़े। वहाँ कुछ नगररक्षक सिपाही मिल गए। हमने प्रबल पराक्रम से उन्हें मार भगाया और हम मानपाल के शिविर में घुस गए। मानपाल ने अपने सेवकों से जब मेरे कुल के बारे में और मेरी वीरता के सम्बन्ध में सुना तो मेरा बड़ा सम्मान किया।

'सवेरे ही मत्तकाल के भेजे हुए कुछ सेवकों ने वहाँ आकर बड़ी उद्दण्डता से कहा है मन्त्री ! राजा ने कहा है कि बहुत-से चोर सेंध लगाकर मेरे राज-शिविर से बहुत धन चुरा लाए हैं और आपके शिविर में आ गए हैं। उन्हें आप हमें समर्पित कर दें, अन्यथा घोर अनर्थ हो जाएगा।

'यह सुनकर मन्त्री मानपाल की आँखें क्रोध से लाल हो गई। उसने कहा : कौन है लाटेश्वर ! मेरी उससे कब की मित्रता है? मुझे उस बेचारे की सेवा से मिलेगा भी क्या ? उसने उन्हें डाँट दिया। सेवकों ने लौटकर सब ज्यों का त्यों मत्तकाल को जा सुनाया। वह बहुत क्रुद्ध हो उठा और अपने पौरुष के अभिमान में थोड़ी-सी ही सेना लेकर आक्रमण कर बैठा। मानपाल तो लड़ने को पहले ही तैयार बैठा था। उसने तुरन्त सैनिकों को उद्यत किया और निडर सामने आ डटा मुझे भी बड़े सम्मान से कई घोड़ों का रथ मिला। सारथी चतुर था। मैंने खूब दृढ़ कवच पहना। एक अच्छा धनुष और तरह-तरह के बाणों से भरे दो तूणीर मैंने ले लिए और हर तरह से लैस होकर लड़ने को मन्त्री के साथ आ गया। मन्त्री को मेरी शक्ति पर विश्वास था कि यह शत्रु को मार लेगा । द्वेष और क्रोध से भरी दोनों सेनाओं को लांघकर में बीच में पहुँच गया और मैंने शत्रुओं पर भीषण बाण-वर्षा प्रारंभ कर दी। और शीघ्र ही अपने चंचल वेगवान घोड़ों को कुदाकर मैं अपने रथ को मत्तकाल के रथ के पास ले पहुँचा। वह रथ लेकर भागने ही वाला था कि मैंने उसका सिर काट लिया। उसके मरते ही उसके सैनिक भी भाग गए। मानपाल को शत्रुपक्ष के अनेक हाथी, घोड़े और विविध वस्तुएँ मिलीं। उसने मेरा बड़ा सम्मान किया। उसके सेवक ने जाकर जब वीरकेतु को मत्तकाल के वध का समाचार सुनाया तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसे मेरी वीरता पर आश्चर्य हुआ और उसने अपने बाँधवों से राय ले-लिवाकर एक अच्छे दिन शुभ मुहूर्त में अपनी कन्या से मेरा विवाह कर दिया। कुछ दिन बाद राजा ने युवराजपद पर मेरा अभिषेक कर दिया। मैं भी कुछ समय तक इस वामलोचना के साथ सुखों का उपभोग करता रहा। परन्तु आप लोगों का वियोग मन में काँटे की तरह गड़ रहा था। मैंने एक सिद्ध पुरुष से पूछा । उसने कहा कि महाकाल निवासी महादेव की आराधना करो तभी मैं पत्नी को लेकर आया हूँ। भक्त-वत्सल गौरीपति की करुणा से आपके चरणारविन्दों के दर्शन मुझे प्राप्त हो गए।'

यह सुकर राजवाहन ने उसके पराक्रम का अभिनन्दन किया और व्यर्थ ही निरपराधी होने पर भी, जो उसने दण्ड पाया था, उसके लिए दैव को कोसा। इसके बाद उसने अपना सारा वृत्तांत कह सुनाया।

पुष्पोद्भव का आ पहुँचना

समय उसने देखा कि पुष्पोद्भव उसके चरणों पर माथा टेक रहा है। उसने शीघ्र उसे गले से लगाकर आनन्दाश्रु बहाते हुए कहा 'सौम्य सोमदत्त ! पुष्पोद्भव भी आ गया।' तब वे दोनों भी आलिंगन में बँध गए। वियोग का दुःख कम होने पर उसी वृक्ष की छाया में वे फिर बैठ गए। राजा ने आदर से हंसकर कहा 'मित्र! उस ब्राह्मण का कार्य आ पड़ा था। मेरे मित्र कहीं विघ्न न डाल दें इसलिए मैं सबको सोता छोड़कर चला गया था। मेरे जाने के बाद जब मित्रगण जागे, तब उन्होंने क्या निश्चय किया? मुझे ढूंढने कहाँ गए ? आप अकेले किधर चले गए थे?'

पुष्पोद्भव ने हाथ जोड़कर मस्तक पर लगाया और सविनय स्वर से कहने लगा-

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