शस्त्रों का
सदुपयोग ही करें
महर्षि भारद्वाज के पुत्र द्रोणाचार्य ने वेद शास्त्रों का गहन अध्ययन करके
अनूठा ज्ञान प्राप्त किया था । उन्होंने धर्मशास्त्रों में पढ़ा था कि धर्म और
न्याय की रक्षा के लिए अस्त्र - शस्त्रों में निपुणता प्राप्त करना बहुत आवश्यक है
। द्रोणाचार्य ने अग्निवेश से आग्नेयास्त्र की शिक्षा ग्रहण की । कौरवों -पांडवों
को उन्होंने शस्त्र चालन का प्रशिक्षण दिया ।
एक बार द्रोण को पता चला कि परशुराम ब्राह्मणों को सर्वस्व दान कर रहे हैं ।
वह महेंद्राचल पर्वत पर जा पहुँचे। महर्षि परशुराम को साष्टांग प्रणाम करके कहा, मैं महर्षि भारद्वाज का पुत्र हूँ , मुझे ऐसी वस्तु दें, जिसका कभी अंत न हो । परशुरामजी ने कहा , तपोनिधान द्रोण , मेरे पास सुवर्ण और जो भी अन्य धन था , वह सब मैं दान कर चुका हूँ । मैंने पृथ्वीरूपी
संपत्ति कश्यप ऋषि को दे दी है । अब मेरे पास कोई संपत्ति नहीं बची है । अब मेरे
पास कुछ शस्त्रास्त्र तथा मेरा शरीर बचा है । इन दोनों में से जो आप चाहें , मैं सहर्ष देने को तत्पर हूँ । द्रोण ने विनत
भाव से कहा , भार्गव
श्रेष्ठ , आप मुझे
शस्त्रास्त्र तथा उन्हें चलाने की विद्या देकर कृतार्थ करें । परशुराम ने द्रोण को
शिष्य स्वीकार करते हुए धनुर्वेद का संपूर्ण ज्ञान प्रदान किया । साथ ही कहा, यह ध्यान रखना कि शस्त्रास्त्रों का धर्म व
न्याय की रक्षा के लिए उपयोग ही सार्थक होता है, अन्यथा शस्त्र विद्या निरर्थक हो जाती है । द्रोण उन्हें प्रणाम
कर लौट आए ।
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know