पतन से बचो
भगवान् बुद्ध श्रावस्ती के जेतवन में निवास कर रहे थे। प्रत्येक दिन अनेक
भक्तजन उनके सत्संग व दर्शन के लिए आया करते थे। एक दिन एक जिज्ञासु उनके सत्संग
के लिए पहुँचा। उसने बुद्ध से प्रश्न किया, भगवन् , पतन से बचने के लिए क्या - क्या उपाय किये जाने चाहिए ?
बुद्ध ने उपदेश देते हुए बताया , हमेशा धर्म और न्याय पर दृढ़ रहना चाहिए । धर्म के प्रति घृणा व
संशय पैदा होते ही पतन शुरू हो जाता है । कुसंग करने से भी पतन होता है । अतः
सत्पुरुषों का संग ही करना चाहिए । दुर्व्यसनी से दूर रहना चाहिए । जो व्यक्ति
गप्प मारने में समय बिताता और क्रोध करता है, उसके पतन की आशंका बनी रहती है । अतः हमेशा कर्मठ व शांतचित्त
रहने से पतन से बचा जा सकता है । जिस व्यक्ति को जन्म, जाति एवं धन का अभिमान हो जाता है, वह एक -न - एक दिन गर्त में अवश्य गिरता है ।
मानव को किसी प्रकार के अहंकार को पास भी नहीं फटकने देना चाहिए । जो व्यक्ति
असंयमी व भोगी है, शराबी व
जुआरी है, उसके पतन को
कोई रोक नहीं सकता ।
भगवान् बुद्ध ने पतन के ग्यारह लक्षणों का विस्तार से वर्णन करने के बाद कहा, जो व्यक्ति सत्य , संयम और अहिंसा का पालन करता है, अपने वृद्ध माता -पिता की सेवा करके उनका
आशीर्वाद प्राप्त करता है, अपनी कमाई का कुछ अंश गरीबों की सेवा - सहायता में खर्च करता है, उसकी सदैव उन्नति होती है । भगवान् के उपदेश
से जिज्ञासु का चित्त शांत हो गया ।
तृष्णा का
दूत
वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त की मृत्यु के बाद उनका पुत्र राजा बना । वह भोजन
प्रिय था । तरह -तरह के स्वादिष्ट व्यंजन तैयार कराकर सोने की थाली में भोजन किया
करता था । वह शुद्धता का भी विशेष ध्यान रखता था । इस अनूठी रुचि के कारण उसे लोग
भोजन शुद्धिक- राजा कहने लगे थे ।
राजा ने यह आदेश दे रखा था कि यदि कोई दूत उससे मिलना चाहे , तो उसे तुरंत उनके पास पहुँचाया जाए । ऐसे में
, एक व्यक्ति के मन
में आया कि वह भोजन करते समय राजा के पास पहुँचकर अपनी आँखों से देखे कि वह सोने
की थाली में क्या - क्या खाता है ? मौका मिले, तो भोजन को चखकर भी देखे ।
एक दिन अचानक वह मैं दूत हूँ कहकर राजा के महल में घुस गया । किसी ने उसे
नहीं रोका । वह वहाँ तक पहुँच गया, जहाँ राजा भोजन कर रहा था , फिर मौका मिलते ही उस व्यक्ति ने झपटकर थाली में से एक कौर
उठाया और मुँह में डाल लिया । अंगरक्षक ने यह दुस्साहस देखा, तो सिर काटने के लिए तलवार उठा ली, पर राजा ने उसे रोकते हुए उस व्यक्ति से कहा, डरो नहीं , छककर भोजन करो । उसके भरपेट भोजन करने के बाद राजा ने पूछा, तुम किसके दूत हो ? उसने कहा, राजन्, मैं तृष्णा का दूत हूँ । मैं काफी समय से आपके अद्भुत भोजन से तृप्त होना
चाहता था ।
राजा का विवेक जाग गया कि भूख व जीभ ही तो लोगों से पाप कर्म कराती है । मैं
राजा होकर भी पेट का दूत हूँ । राजा ने उसी समय सात्विक भोजन करने का संकल्प ले
लिया ।
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