पतित तो तुम स्वयं
हो
महर्षि परुच्छेप सरस्वती के वरद पुत्र थे। वे अपने शिष्यों को धर्मानुसार
जीवन बिताने की प्रेरणा दिया करते थे । सुपर्ण भी महर्षि के मेधावी शिष्यों में था
। उसने अपने त्यागमय जीवन में काम, क्रोध, मोह, अहंकार को
फटकने न दिया था ।
एक दिन उसने देखा कि गुरुदेव ने एक याचक पर दया करके उसके लोहे के
भिक्षापात्र को किसी पाषाण खंड का स्पर्श कराकर उसे स्वर्ण का बना डाला । सोने के
चमचमाते भिक्षापात्र ने उसके मन में हलचल मचा दी । उसने कहा, गुरुदेव, यदि आप मेरे लिए लौहखंडों को स्वर्ण बनाने की कृपा करें, तो मैं कुछ समय तक ऐश्वर्यपूर्ण जीवन का आनंद
ले सकता हूँ ।
महर्षि ने शिष्य का आग्रह देखा, तो उसे संसार की वास्तविकता दिखाने देशाटन पर निकल गए । सुपर्ण
ने देखा कि लोग धन- संपत्ति के लिए पागल बने हुए हैं । धन के लोभ में मानव घृणित
से घृणित दुष्कर्म करने को तैयार है । वापस आश्रम लौटकर महर्षि ने सुपर्ण से पूछा, संसार कैसा लगा? उसने कहा, गुरुदेव, बड़े- बड़े
विद्वान् तक धन- संपत्ति के लिए पतनोन्मुख होने को तत्पर दिखाई दिए । सद्गृहस्थ
माने जाने वाले लोग भी पारस पत्थर के बदले पतिव्रता पत्नी को सौंपने को तैयार थे।
उन जैसा पतित कहाँ मिलेगा?
__ महर्षि ने कहा, सुपर्ण, तुम अपने को क्या कम पतित मानते हो, जो वर्षों की साधना- तपस्या से प्राप्त महादीक्षा का तिरस्कार
कर क्षुद्र पारस के लिए मचल उठे? तुम अपने पतन की ओर दृष्टि डालो । महर्षि के शब्द सुनकर सुपर्ण पश्चाताप के
आँसू रो पड़ा ।
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