मोह बड़ा दुःखरूप
एक
बार संत कबीर एक गाँव में गए । वहाँ उन्होंने देखा कि लोग एक वेश्या को गाँव से
बाहर निकालना चाहते हैं और वह गाँव छोड़ने के लिए राजी नहीं हो रही है । जब
गाँववालों ने उसका घर जलाना चाहा तो कबीर ने उन्हें रोका और कहा कि वे लोग धीरज
रखें,
वह स्वयं चली जाएगी । कबीर दूसरे दिन सवेरे - सवेरे ही भिक्षापात्र
लेकर उस वेश्या के द्वार पर पहुँच गए । एक दिव्य पुरुष को अपने घर के दरवाजे पर
भिक्षापात्र लिये देखकर वह अंदर गई और कई पकवान लेकर आई ।
कबीरदासजी
ने पकवानों की ओर देखा तक नहीं और उससे कहा , " मैं
यहाँ इन पकवानों की भिक्षा लेने नहीं बल्कि तुम्हारा मोहावरण दूर करने के लिए आया
हूँ । तुम्हारे भीतर जगत्- जननी का दिव्य रूप है और उसे तुम्हारी कलुषित कामना ने
आच्छादित कर रखा है । मैं उसी कलुषित आवरण की भिक्षा माँगने के लिए आया हूँ ।
" यह सुनकर उस स्त्री की आँखों से आँसू बहने लगे । बोली, " बाबा क्या यह इतना आसान है? यह मोहावरण तो मेरे शरीर
की चमड़ी की तरह मुझसे चिपक गया है । इस चर्म को हटाने से जो वेदना होगी, वह भला मुझसे कैसे सहन हो सकेगी? " कबीरदासजी
ने कहा , " जब तक मुझे मेरी भिक्षा नहीं मिलेगी,
मैं यहाँ से नहीं हटूंगा । " तब उस स्त्री ने यह विचार करने का
निश्चय किया कि मोहावरण को हटाना ही होगा और गाँव को छोड़े बिना वह हट नहीं सकता ।
उसने अपना निश्चय कबीरदास को सुनाया । उसका निश्चय सुनकर उन्हें आत्मसंतोष हुआ और
वे मन - ही - मन बोले, " इस द्वार पर भिक्षा के लिए आकर
आज मैंने एक नारी के जगन्माता के रूप में दर्शन किए।
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