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गालियाँ अपने पास रख

 


गालियाँ अपने पास रख

भगवान् बुद्ध एक बार मगध के एक गाँव में पहुँचे। गाँव का मुखिया दुर्व्यसनों में लिप्त रहता था । देवी को प्रसन्न करने के नाम पर वह मूक पशुओं की बलि देता था । बुद्ध ने अपने उपदेश में हिंसा और दुर्व्यसनों का विरोध किया, तो वह आग- बबूला हो उठा । उसने गाँव वालों से उन्हें भिक्षा न देने को कहा । बुद्ध को इसकी भनक लग गई । वे भिक्षा माँगने मुखिया के घर ही जा पहुँचे।

मुखिया ने उन्हें देखते ही आवेश में अपशब्द कह डाले । वह बोला, भीख माँगते हुए लज्जा नहीं आती? धर्म के नाम पर लोगों को मूर्ख बनाते हो । बुद्ध ने मुसकराते हुए कहा, वत्स , हम दुर्गुण दूर कर सद्गुण ग्रहण करने का उपदेश देते हैं । दुर्व्यसन , अहंकार, घृणा त्यागकर सत्कर्म करो, तभी मानव जीवन सफल होगा ।

बुद्ध के इन वचनों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । उसने चिल्लाकर कहा, भिखमंगे, तू यह नहीं जानता कि किसके सामने खड़ा है । मैं इस गाँव का मालिक हूँ । यहाँ से निकल जा । इसी में तेरी भलाई है । महात्मा बुद्ध ने धैर्य के साथ कहा, मैं तुम्हारे पास भिक्षा माँगने आया था , तुमने उसके बदले गालियाँ दीं । मैं इन गालियों को स्वीकार नहीं करता । इन्हें तुम अपने पास ही रखो ।       बुद्ध के शब्दों ने मुखिया के हृदय को झकझोर दिया । वह उनके चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा । बुद्ध ने उसे उपदेश देते हुए कहा, निरीह पशुओं की हत्या घोर पाप है । मांस- मदिरा से बुद्धि भ्रष्ट होती है । सत्य का पालन और दया भावना ही कल्याणकारक है । 

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