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गुरु -शिष्य में युद्ध

 

गुरु -शिष्य में युद्ध

एक बार महर्षि गालब गलतफहमी के कारण चित्रसेन गंधर्व से रूठ गए । उन्होंने द्वारिका पहुँचकर भगवान् श्रीकृष्ण से कहा, चित्रसेन ने मेरा घोर अपमान किया है । मैं जीवित रहने की स्थिति में नही हूँ ।

श्रीकृष्ण ने कहा , आप निश्चिंत रहें । चित्रसेन अब जीवित नहीं रहेगा । मैं अपने हाथों से उस ऋषि- द्रोही का वध करूँगा। देवर्षि नारद को जब यह जानकारी मिली, तो उन्होंने तुरंत चित्रसेन को जाकर बताया कि श्रीकृष्ण उसके वध की प्रतिज्ञा ले चुके हैं । नारदजी ने उसे सुभद्रा और अर्जुन की शरणागत होकर प्राण बचाने की विधि बताई ।

चित्रसेन ने किसी युक्ति से सुभद्राजी से वचन ले लिया कि वे उसके प्राणों की रक्षा करेंगी और सुभद्राजी के इस वचन की रक्षा के लिए अर्जुन तत्पर हो उठे । धर्मराज युधिष्ठिर ने अर्जुन को समझाया कि भगवान् श्रीकृष्ण से विरोध उचित नहीं, लेकिन अर्जुन ने कहा, मैं शरणागत को दिए वचन से हटने का पाप मोल नहीं ले सकता ।

अंततः श्रीकृष्ण और अर्जुन आमने - सामने आ डटे । युद्ध का भयंकर दृश्य उपस्थित हो गया । अर्जुन ने भगवान् शंकर से मदद की गुहार लगाई । महादेव प्रकट हुए । उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की , अर्जुन आपका परम भक्त है । भक्तों के आगे अपनी प्रतिज्ञा को भूल जाना तो आपका सहज गुण है । अर्जुन के प्राण की रक्षा में ही आपका गौरव श्रीकृष्ण भगवान् शंकर की ओर देखकर मुसकराए और अर्जुन को गले से लगा लिया । उन्होंने चित्रसेन को अभयदान दे दिया ।


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