छात्रों का
कर्तव्यपालन
प्रयाग के भारद्वाज आश्रम में छात्रों को संस्कृत, व्याकरण आदि की शिक्षा के साथ- साथ आचार्य
धनुर्विद्या की भी शिक्षा दे रहे थे। शिक्षा पूर्ण होने के बाद छात्रों को वन
विहार के लिए लिए ले जाया गया । यमुना तट पर छात्रों ने डेरा जमाया । भोजन बनाने
में निपुण छात्र अपने काम में जुट गए । आभेय, गार्य, उद्गीथ, सत्ययज्ञ, उषस्ति आदि वृक्षों के नीचे बैठे संगीत में
मग्न थे कि अचानक बचाओ- बचाओ के स्वर ने उनका ध्यान भंग किया । उन्होंने देखा कि
वायुवेग से एक अश्वारोही आ रहा है और उससे बचने के लिए एक युवती शोर मचाते - मचाते
यमुना में छलांग लगा रही है ।
राजकुमार कुवलय और अतिधन्वा ने बाणों की वर्षा कर अश्वारोही को धराशायी कर
डाला । उषस्ति ने यमुना में छलाँग लगाई और कन्या को जल से बाहर निकाला । आचार्य
तथा छात्रों ने कन्या की मूर्छा दूर करने के लिए जड़ी- बूटी का रस उसके मुँह में
डाला । कन्या ने आँखें खोली । आचार्य ने कहा, पुत्री, भयभीत न हो । अपनी व्यथा हमें सुनाओ। कन्या ने बताया, गुरुदेव, मैं राजपुरोहित की पुत्री हूँ । मैं जब त्रिपुरारी मंदिर के
दर्शन के लिए यमुना तट पर पहुँची, तो राजकुमार प्रलंब ने मुझे दबोचने की चेष्टा की । मैं अपनी इज्जत बचाने के
लिए यमुना में कूद पड़ी ।
आचार्य ने कहा, पुत्री, उस कामी को
हमारे शिष्यों ने फल चखा दिया है ।
___ आचार्य ने छात्रों की पीठ थपथपाते हुए कहा, किसी भी आपदाग्रस्त की सहायता के लिए तत्पर
रहना सुशिक्षित व्यक्ति का धर्म और कर्तव्य - दोनों हैं ।
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