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रोग का निवारण

 

रोग का निवारण

काशी के राजा ब्रह्मदत्त का बड़ा पुत्र विरक्त स्वभाव का था । पिता की मृत्यु के बाद उसने अपने छोटे भाई को राजा नियुक्त किया और स्वयं वन में चला गया । कुछ वर्ष बाद उसके मन में राज करने की इच्छा जागृत हुई । छोटे भाई को पता चला, तो उसने आदर सहित राज्य की बागडोर उसे सौंप दी । राजा बनते ही उसके मन में राज्य-विस्तार की लालसा जगने लगी । उसने कई राज्यों पर चढ़ाई कर उन्हें अपने राज्य में मिला लिया ।

इंद्र ने जब देखा कि एक धर्मपरायण व्यक्ति माया के जाल में फँस गया है, तो उन्होंने उसे सही रास्ते पर लाने का निर्णय किया । एक दिन ब्रह्मचारी के वेश में आकर उन्होंने राजा से कहा, मैं ऐसे तीन नगरों की यात्रा कर आया हूँ, जहाँ अपार स्वर्ण व रत्नों के भंडार हैं । यदि वे नगर आपके हाथों में आ जाएँ, तो आप अथाह संपत्ति के स्वामी बन जाएँगे । यह बताकर वह वापस लौट गए ।

राजा ने सोचा कि ब्रह्मचारी ने नगरों के नाम तो बताए ही नहीं । उसने ब्रह्मचारी की खोज कराई, लेकिन उसका कोई पता न चला । राजा की नींद उड़ गई । अपार संपदा की तृष्णा ने उसे रोगी बना दिया । एक दिन बोधिसत्व भिक्षा के लिए राजमहल पहुँचे। राजा से मिलकर वे समझ गए कि रत्नों की लालसा ने उसे रोगी बना दिया है । उन्होंने उपदेश देते हुए कहा, आपको शारीरिक नहीं, मानसिक रोग है । धन की लालसा ने आपके शरीर को व्याधियों का घर बना दिया है । ब्रह्मदत्त ने उसी क्षण राजपाट त्याग दिया । उन्होंने अपना जीवन साधना में लगा दिया, फिर वे पूर्ण स्वस्थ हो गए ।


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