महाभाष्य
पतंजलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी के
कुछ चुने हुए सूत्रों पर भाष्य लिखी जिसे व्याकरणमहाभाष्य का नाम दिया (महा+भाष्य
(समीक्षा, टिप्पणी, विवेचना, आलोचना)।
व्याकरण महाभाष्य में कात्यायन वार्तिक भी सम्मिलित हैं जो पाणिनि के अष्टाध्यायी
पर कात्यायन के भाष्य हैं। कात्यायन के वार्तिक कुल लगभग 1400 हैं जो अन्यत्र नहीं
मिलते बल्कि केवल व्याकरण महाभाष्य में पतञ्जलि द्वारा सन्दर्भ के रूप में ही
उपलब्ध हैं। इसकी रचना लगभग ईसापूर्व दूसरी शताब्दी में हुई थी।
संस्कृत के तीन महान वैयाकरणों में
पतंजलि भी हैं। अन्य दो हैं - पाणिनि तथा कात्यायन (140 ईशा पूर्व)। महाभाष्य में
शिक्षा (phonology,
including accent), व्याकरण (grammar and morphology) और निरुक्त (etymology) - तीनों की चर्चा हुई है।
इसकी रचना ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी की मानी जाती है। महाभाष्यकार "पतंजलि" का समय असंदिग्ध रूप में ज्ञात है। पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में पतंजलि वर्तमान थे। महाभाष्य के निश्चित साक्ष्य के आधार पर विजयोपरांत पुष्यमित्र के श्रौत (अश्वमेध यज्ञ) में संभवतः पतंजलि पुरोहित थे। यह (इह पुष्यमित्रं याजयाम:) महाभाष्य से सिद्ध है। साकेत और माध्यमिका पर यवनों के आक्रमणकाल में पतंजलि विद्यमान थे। अत: महाभाष्य और महाभाष्यकार पतंजलि - दोनों का समय ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी निश्चित है। द्वितीय शताब्दी ई.पू. में मौर्यों के ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग - मौर्य वंशी बृहद्रथ को मारकार गद्दी पर बैठे थे। नाना पंडितों के विचार से 200 ई.पू. से लेकार 140 ई.पू. तक महाभाष्य की रचना का मान्य काल है।
महत्ता
महाभाष्य की महत्ता के अनेक कारण
हैं। प्रथम हेतु है उसकी पांडित्यपूर्ण विशिष्ट व्याख्याशैली। विवादास्पद स्थलों
का पूर्वपक्ष उपस्थित करने के बाद उत्तरपक्ष उपस्थित किया है। शास्त्रार्थ प्रक्रिया
में पूर्व और उत्तर पक्षों का व्यवहार चला आ रहा है। इसके अतिरिक्त आवश्यक होने पर
उस पक्ष का भी उपन्यास किया है। विषयप्रतिपादन दूसरी विशेषता है। महाभाष्य की
व्याख्या का क्रम तो अष्टाध्यायी और तदंतर्गत चार पादों और उनके सूत्रों का क्रम
है। पर भाष्य के अपने क्रम में व्याख्या का नियोजन विभक्त है, जिसका अर्थ यह भी
होता है कि एक "महाभाष्य" लिखा जाता रहा।
"पतंजलि" ने अपने
महाभाष्य में व्याकरण की दार्शनिक शब्दनित्यत्ववाद या स्फोटबाद अथवा शब्दब्रह्मवाद
का किया है। इस सिद्धांत को भर्तृहरि ने विस्तार के से वाक्यपदीय में पल्लवित किया
है। महाभाष्य की महत्ता का यह कारण है। साहित्यिक दृष्टि से महाभाष्य का गद्य
अत्यन्त अकृत्रिम, मुहावरेदार, धाराप्रावाहिक और स्पष्टार्थबोध है।
भर्तृहरि ने इसपर टीका लिखी थी पर उसका अधिकांश अनुपलब्ध है। केय्यट की
"प्रदीप" नामक टीका और नागोज उद्योत नाम से "प्रदीपटीका"
प्रकाशित है। भट्टोजि दीक्षित ने अपने "शब्दकौस्तुभ" की रचना महाभाष्य
के आधार पर की।
संस्कृत व्याकरण में
"मुनित्रय" को बहुत ही उच्च और प्रामाणिक पद दिया गया है।
अष्टाध्यायी-कार पाणिनि,
वार्त्तिककार कात्यायन और महाभाष्यकार पतंजलि - इन्हीं तीनों को
"मुनित्रय" कहा गया है। व्याकरणशास्त्र के इतिहास में पाणिनीय व्याकरण
की शाखा के अतिरिक्त पूर्व और परवर्ती अनेक व्याकरण शाखाएँ रही हैं। परंतु
"मुनित्रय" से पोषित और समर्थित व्याकरण की पाणिनीय शाखा को जो प्रसिद्धि,
मान्यता और लोकप्रियता प्राप्त हुई वह अन्य शाखाओं को नहीं मिल सकी
- जिसका कारण महाभाष्य ही माना गया है। अष्टाध्यायी पर "कात्यायन" ने
वार्त्तिकों की रचना द्वारा व्याकरणसिद्धांतों को अधिक पूर्ण और स्पष्ट बनाया।
"पतंजलि" ने मुख्यत: वार्त्तिकों की व्याख्या को महाभाष्य द्वारा आगे बढ़ाया।
अनेक स्थलों पर उन्होंने कात्यायनमत का प्रत्याख्यान और पाणिनिमत की मान्यता भी
सिद्ध की है। कभी-कभी उन सूत्रों की भी विवेचना की है जो कात्यायन ने छोड़ दिए थे।
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