*#कुम्भ_का_मेला*
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पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय द्वारा रचित एक ट्रैक्ट
प्रस्तोता - डॉ. अमित
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मुन्नू-चाचाजी! इस वर्ष कुम्भ का मेला प्रयाग में लगेगा।
तुलसीराम- हाँ, सुना तो है। कहते हैं दस लाख आदमी आवेंगे।
मुन्नू-दस लाख ! इतनी बड़ी भीड़। हमारे गाँव में तो दो सौ आदमी भी न होंगे। बाप रे बाप। दस लाख!
तुलसीराम- अचम्भे की क्या बात है? दिल्ली जैसे बड़े नगरों में दस लाख से अधिक लोग रहते
मुन्नू-हम भी चलेंगे। अम्मा कह रही थीं कि कौन जाने, मरें या जिएँ। कुम्भ का स्नान तो जरूर करना चाहिए।
तुलसीराम-इतनी भीड़ में जाना आसान नहीं है। बारह वर्ष हुए अर्थात् पिछले कुम्भ में कई हजार आदमी कुचल के मर गए थे।
मुन्नू-फिर कुम्भ में इतने आदमी क्यों जाते हैं?
तुलसीराम गंगा नहाने के लिए।
मुन्नू-गंगा नहाने से क्या होगा?
तुलसीराम-गंगा नहाने से मुक्ति होगी।
मुन्नू मुक्ति किसे कहते हैं? कैसी होती है?
तुलसीराम-मैं भी नहीं जानता कि मुक्ति क्या होती है। हम सुनते चले आते हैं कि गंगा में नहाने से मुक्ति होती है।
मुन्नू-तो पिछले कुम्भ में जो मर गए थे वे मुक्ति को पा सके होंगे?
अगर हम भी मर गए होते तो हमको भी मुक्ति मिल जाती।
तुलसीराम-तुम तो पागलों की-सी बात करते हो। कोई मरने के लिए नहीं जाता।
(जब बाप-बेटे यह बातें कर रहे थे, तो पण्डित मनीराम जी आ गए)
तुलसीराम-पण्डित जी! पा लागी ! अब की साल कुम्भ है, मुन्नू और उसकी माँ भी जाना चाहते हैं।
मुन्नू पूछता है कि गंगा नहाने से मुक्ति मिलती है, मुक्ति क्या चीज़ है?
मनीराम-भाई। कुम्भ क्या है, भेड़िया-धसान है। कुम्भ पर इतनी भीड़ होती है कि गंगा जी में नहाने भी नहीं पाते। इतनी भीड़ के लिए खाना भी नहीं मिलता। कहीं बैठने को जगह नहीं मिलती, अच्छी तरह नहा भी नहीं पाते।
तुलसीराम कहते हैं साधु-महात्मा आते हैं जिनके दर्शन से पुण्य होता है।
मनीराम - कुछ साधु तो आते हैं। परन्तु कुछ धूर्त भी साधुओं के वेश में आते हैं और लोगों को ठगते हैं। यात्री जो आते हैं वे उपदेश सुनने नहीं आते, केवल आशीर्वाद लेने आते हैं।
तुलसीराम- कुम्भ की प्रथा किसने डाली?
मनीराम- यह प्रथा तो बहुत दिनों से चली आ रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में ऋषि-महर्षि गंगा के तट पर इकट्ठे होते थे।
वे लोगों को धर्म का उपदेश देते थे-
झूठ नहीं बोलना चाहिए,
किसी जीव को नहीं सताना चाहिए, प्राणीमात्र से प्रेम रखना चाहिए, बेईमानी नहीं करनी चाहिए।
जो अच्छे चाल-चलन से रहता है उससे ईश्वर प्रसन्न होता है और मरने के पीछे अच्छी योनि प्राप्त होती है।
कुम्भ के मेले का यही प्रयोजन था।
तुलसीराम - आजकल तो कोई ऐसा नहीं करता। चोर, डाकू, रिश्वत लेनेवाले, बेईमान, कम तोलनेवाले सेठ सभी समझते हैं कि गंगा नहाने से पाप छूट जाते हैं।
मनीराम- यह मिथ्या बात है। यदि गंगास्नान मात्र से पाप छूट जाएँ तो चोर-डाकू सजा से बरी हो जाएँ। पुलिस उनको न पकड़े, अदालत उनको दण्ड न दे, अंधे-लंगड़े अच्छे हो जाएँ।
*गंगा के नहाये से जो पापी नर तरिहें।*
*मीन क्यों न तरिहे जाको गंगा में ही घर है।।*
ऐसी बात तो कोई मूर्ख भी नहीं मानेगा। हाँ, यदि कोई महात्मा पाप-कर्म से बचने का उपदेश देता हो तो उसके सुनने से पाप से बच सकेंगे और कुम्भ में जाना भी सफल होगा। केवल गंगा में डुबकी लगाने से कुछ नहीं होता। देखो मनुस्मृति में लिखा है-
*अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति, मनः सत्येन शुध्यति ॥*
(मनुस्मृति ५/१०९)
अर्थात् पानी से तो देह का मल छूट जाता है। मन तो सत्य से ही शुद्ध होता है।
भीड़ में कीचड़ में डुबकी लगाने से तो देह का मैल भी नहीं छूटता, रेता और चढ़ जाता है।
इसलिए कुम्भ से लाभ नहीं, हानि ही होती है। पुरानी जो प्रथाएँ बिगड़ गई हैं उनको सुधारना चाहिए।
मुन्नू - पण्डित जी ! आप कहते तो ठीक हैं, भला पुरानी प्रथाएँ कैसे छोड़ी जाएँ?
मनीराम- देखो, अच्छी-अच्छी पुस्तकें पढ़ो। धूर्तों के बहकावे में मत आओ।
जो तुमसे कहे कि गंगा के नहाने मात्र से मुक्ति मिलती है उसको मत मानो।
गायत्री मन्त्र को सीखो और उसके अर्थों पर विचार करो।
झूठ बोलना और बेईमानी करना छोड़ दो।
अगर कुम्भ के मेले में जाओ तो सन्त-महात्माओं के उपदेश सुनो, केवल उनके दर्शन से कोई लाभ नहीं। उनसे पूछो कि महाराज! अधर्म को कैसे छोड़ें और धर्म पर कैसे चलें ?
चुन्नू- पण्डित जी। हम कुम्भ के मेले में जावें या न जावें?
मनीराम- हमने तुम्हें बता दिया कि यदि गंगा में डुबकी लगानी है तो वहाँ जाना और इतने कष्ट मूर्खता है। यदि किसी महात्मा-उपदेशक से उपदेश लेना है तो अवश्य जाओ। परन्तु इस नीयत से जाओ कि उसके उपदेशों का पालन करेंगे।
मुन्नू - ऐसा तो कोई नहीं करता। हमारे गाँव में बहुत से लोग गंगा नहाते हैं और चोरी और बेईमानी करते हैं। यदि आपकी बात मानी जाए तो कुम्भ पर लाखों मनुष्य आवें ही क्यों? क्या ये सब पागल हैं जो इतना कष्ट करके आते हैं?
बूढ़े, जवान, औरत, मर्द, बालक, रोगी, लूले लंगड़े सभी तो चल देते हैं।
मनीराम - हाँ, होता तो ऐसा ही है, परन्तु संसार में मूर्ख तो बहुत हैं, इसीलिए हमारे देश का सुधार नहीं होता। पुजारी, पण्डे, भिखारी और ढोंगी लोग मूखौं को ठगते रहते हैं। तीथों के पंडे आपस में लड़ते हैं और अनेक प्रकार से लोगों को ठगते हैं। जब तक भेड़चाल रहेगी, देश का उद्धार नहीं होगा। यदि कुम्भ के मेलों से देश सुधर सकता होता तो कुम्भ सैकड़ों वर्षों से लगता है,
देश-विदेशियों का दास क्यों हो गया?
लाखों अपने धर्म को छोड़कर ईसाई और मुसलमान क्यों हो गए?
इतनी भेड़-बकरियाँ क्यों कट रही हैं? गौओं की रक्षा क्यों नहीं होती?
अविद्या क्यों फैल रही है?
पण्डितों को चाहिए कि दक्षिणा लेने के लिए यात्रियों को बहकाना छोड़ दें और धर्म का उपदेश करें।
मुन्नू- अच्छा पंडित जी। आप हमको गायत्री का उपदेश करें।
मनीराम- हम अवश्य सिखाएँगे। आज तुमको इतना ही उपदेश देते हैं जो गायत्री का एक छोटा- सा भाग है-
"धियो यो नः प्रचोदयात् ।"
हे ईश्वर। हमारी बुद्धियों को ठीक कीजिए। हम पाप करना छोड़ दें और अच्छी बातों पर चलें।
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