प्रत्याहार
प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन।
अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन
सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का
पाणिनि ने निर्देश किया है।
आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण
(अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि
वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध
कराता है।
उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र
‘अइउण्’
के आदि वर्ण ‘अ’ को
चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है। यह अच्
प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर
इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है। अतः,
अच् = अ इ उ ऋ ऌ ए ऐ ओ औ।
इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि
५वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ह को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर (या
इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है। फलतः,
हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द,
ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श
ष स, ह।
उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में
अन्तिम वर्ण (ण् क् ङ् च् आदि) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है। इत् संज्ञा होने
से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया
जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की
जाती है अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है।
प्रत्याहारों की संख्या
इन १४ माहेश्वर सूत्रों से कुल २८०
प्रत्याहार बनाए जा सकते हैं : १४*३ + १३*२ + १२*२ + ११*२ + १०*४ + ९*१ + ८*५ +
७*२ + ६*३ + ५*५ + ४*८ + ३*२ + २*३ + १*१ - १४ (पाणिनि एक अक्षर वाले प्रत्याहार
को नहीं मानते) -१० (सूत्रों में दो बार 'ह' आया है, जिससे १० कृत्रिम प्रत्याहार बनते हैं) । किन्तु पाणिनि ने केवल ४१
प्रत्याहारों का ही उपयोग किया है, जो निम्नलिखित हैं-
अण् अण् इण् यण् अक् इक् उक् एङ् अच् इच् एच् ऐच् अट् अम्
अल् यम् ङम् ञम् यञ् झष् भष् अश् हश् वश् झश् जश् बश् छव्
यय् मय् झय् खय् चय् यर् झर् चर् शर् हल् वल् रल् झल्
महादेव
नन्दिकेश्वरकाशिका
प्रत्याहार
पाणिनि
अष्टाध्यायी
प्रत्याहार
पतंजलि के अष्टांग योग के सन्दर्भ
में प्रत्याहार का अलग अर्थ है। यहाँ प्रत्याहार को पाणिनीय व्याकरण के सन्दर्भ
में दिया गया है।
प्रत्याहार का अर्थ होता है – 'संक्षिप्त कथन'। व्याकरण में प्रत्याहार विभिन्न वर्ण-समूह को अभीप्सित रूप से संक्षेप
में ग्रहण करने की एक पद्धति है। जैसे, 'अण्' से अ इ उ और 'अच्' से समग्र
स्वर वर्ण— अ, इ, उ, ऋ, ऌ, ओ और औ, इत्यादि। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के
प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन
सहेता’(1-1-71) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का
पाणिनि ने निर्देश किया है।
आदिरन्त्येन सहेता (1-1-71) : (आदिः) आदि
वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो
आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively)
बोध कराता है।
उदाहरण: अच् = प्रथम प्रत्याहार
सूत्र ‘अइउण्’
के आदि वर्ण ‘अ’ को
चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है। यह अच्
प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर
इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है। अतः,
अच् = अ इ उ ऋ ऌ ए ऐ ओ औ।
इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि 5वें सूत्र हयवरट् के
आदि अक्षर ‘ह’ को अन्तिम 14वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है।
फलतः,
हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध,
ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह
उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में
अन्तिम वर्ण की इत् संज्ञा पाणिनि ने की है। इत् - इण् धातु से गमनार्थ में
निष्पन्न पद है। इत् संज्ञक वर्णों का कार्य अनुबन्ध बनाकर अन्त में निकल जाना है।
अतः, इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग
प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया
जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया में इनकी गणना नहीं की
जाती है अर्थात् इनका प्रयोग नहीं होता है। किन वर्णों की इत् संज्ञा होती है,
इसका निर्देश पाणिनि ने निम्नलिखित सूत्रों द्वारा किया है:
(१) उपदेशेऽजनुनासिक
इत् (1.3.2): उपदेश में अनुनासिक अच् (स्वर वर्ण) इत् होते
हैं। (उपदेश – सूत्रपाठ (माहेश्वर सूत्र सहित), धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ,
प्रत्यय, आगम, आदेश
इत्यादि धातुसूत्रगणोणादि वाक्यलिंगानुशासनम्। आदेशो आगमश्च उपदेशाः प्रकीर्तिता
॥) अनुनासिक – मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः। अर्थात् जिन वर्णों
का उच्चारण मुख एवं नासिका दोनो की सहायता से किया जाए। अष्टाध्यायी में पाणिनि ने
जिन वर्णों की अनुनासिकता का निर्देश किया है वही अनुनासिक माने जातें हैं।)
(२) हलन्त्यम् (1.3.3):
उपदेश में (अन्त्यम्) अन्तिम (हल्) हल् = व्यंजन वर्ण इत् होते हैं।
लेकिन विभक्ति में अन्तिम तकार (त्), सकार (स्) तथा मकार
(म्) का लोप नहीं होता है – न विभक्तौ तुस्माः (1.3.4)
इत् संज्ञा का विधान करने वाले अन्य सूत्र हैं:
(३) आदिर्ञिटुडवः (1.3.5)
(४) षः प्रत्ययस्य (1.3.6)
(५) लशक्वतद्धिते (1.3.7)
(६) चुटू (1.3.8)
इत् संज्ञा होने से इन वर्णों का
लोप – तस्य
लोपः (1-2-9) सूत्र से होता है। लोप का अर्थ है – अदर्शन – अदर्शनं लोपः। फलतः, इत्
संज्ञा वाले वर्ण विद्यमान रहते हुए भी दिखाई नहीं पड़ते। अतः, इनकी गणना भी नहीं की जाती है।
प्रत्याहार की महत्ता एवं उपयोग
पाणिनि को जब भी अक्षर-समूह विशेष
की आवश्यकता होती है, वे सभी अक्षरों को पृथक् – पृथक् कहने की बजाए
उपयुक्त प्रत्याहार का प्रयोग करते हैं जिसमे उन अक्षरों का समावेश होता है।
उदाहरण: पाणिनि एक विशिष्ट संज्ञा (Technical device) ‘गुण’
की परिभाषा देते हैं:
अदेङ् गुणः अर्थात् अदेङ् को गुण कहते हैं। यहाँ,
अदेङ् = अत् + एङ् (व्यंजन संधि)। इस उदाहरण में एं
एक प्रत्याहार है।
माहेश्वर सूत्र – एओङ् के आद्यक्षर ‘ए’ एवं अन्तिम अक्षर ङ् के अनुबन्ध से यह प्रत्याहार
बना है। (आदिरन्त्येन सहेता)
एङ् = ए ओ ङ्
एङ् के अन्तिम अक्षर ङ्की इत्
संज्ञा होती है (हलन्त्यम्)। इत् संज्ञा होने से उसका लोप हो जाता है (तस्य लोपः)।
फलतः,
एङ् = ए, ओ।
अतः, अ (अत्), ए तथा ओ को गुण कहते हैं।
(अदेङ् गुणः)
उदाहरण: इको यणचि : यदि अच् परे हो
तो इक् के स्थान पर यण् होता है।
अच् = अ, इ, उ, ऋ, ऌ, ए, ओ, ऐ, औ।
इक् = इ, उ, ऋ, ऌ।
यण् = य, व, र, ल।
यदि पाणिनि उपर्युक्त प्रत्याहारों
का प्रयोग नहीं करते तो उन्हे कहना पड़ता:
यदि, इ, उ, ऋ,
ऌ के बाद अ, इ, उ,
ऋ, ऌ, ए, ओ, ऐ, औ रहें तो इ, उ, ऋ तथा ऌ के स्थान पर क्रमशः य, व, र, ल, होता है।
इस कथन को पाणिनि ने अत्यन्त
संक्षिप्त रूप में मात्र ‘इको यणचि’ इन दो पदों से व्यक्त कर दिया है।
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know