Ad Code

ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/१४. उपासनाविषयः

 


अथोपासनाविषयः संक्षेपतः

युञ्जते मन उत युञ्जते


धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः।


वि होत्रा दधे वयुनाविदेक


इन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः॥1॥


-ऋ॰ अ॰ 4। अ॰ 4। व॰ 24। मं॰ 1॥


युञ्जानः प्रथमं मनस्तत्त्वाय सविता धियः।


अग्नेर्ज्योतिर्निचाय्य पृथिव्या अध्याभरत्॥2॥


युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितुः सवे ।


स्वर्ग्याय शक्त्या॥3॥


युक्त्वाय सविता देवान्त्स्वर्यतो धिया दिवम्।


बृहज्ज्योतिः करिष्यतः सविता प्रसुवाति तान्॥4॥


युजे वां ब्रह्म पूर्व्यं नमोभिर्विश्लोक एतु पथ्येव सूरेः।


शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा


आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥5॥


-य॰ अ॰ 11। मं॰ 4।1।2।3।5॥


भाष्यम् - (युञ्जते॰) अस्याभि॰- अत्र जीवेन सदा परमेश्वरस्यैवोपासना कर्त्तव्येति विधीयते।


(विप्राः) ईश्वरोपासका मेधाविनः (होत्राः) योगिनो मनुष्याः (विप्रस्य॰) सर्वज्ञस्य परमेश्वरस्य मध्ये (मनः) (युञ्जते) युक्तं कुर्वन्ति (उत) अपि (धियो) बुद्धिवृत्तीस्तस्यैव मध्ये युञ्जते। कथम्भूतः स परमेश्वरः ? सर्वमिदं जगत् यः (विदधे) विदधे तथा (वयुनावि॰) सर्वेषां जीवानां शुभाशुभानि यानि प्रज्ञानानि प्रजाश्च तानि यो वेद स वयुनावित् (एकः) स एकोऽद्वितीयोऽस्ति (इत्) सर्वत्र व्याप्तो ज्ञानस्वरूपश्च , नास्मात् पर उत्तमः कश्चित् पदार्थो वर्त्तते इति। तस्य (देवस्य) सर्वजगत्प्रकाशकस्य (सवितुः) सर्वजगदुत्पादकस्ये-श्वरस्य सर्वैर्मनुष्यैः (परिष्टुतिः) परितः सर्वतः स्तुतिः कार्य्या। कथम्भूता स्तुतिः ? ( मही) महतीत्यर्थः एवंकृते सति जीवाः परमेश्वरमुपगच्छन्तीति॥1॥


(युञ्जानः) योगं कुर्वाणः सन् (तत्त्वाय) ब्रह्मादितत्त्वज्ञानाय प्रथमं मनो युञ्जानः सन् योऽस्ति तस्य धियं (सविता) कृपया परमेश्वरः स्वस्मिन्नुपयुङ् क्ते। (अग्नेर्ज्योतिः) यतोऽग्नेरीश्वरस्य ज्योतिः प्रकाशस्वरूपं (निचाय्य) यथावत् निश्चित्य (अध्याभरत्) स योगी स्वात्मनि परमात्मानं धारितवान् भवेत्। इदमेव पृथिव्या मध्ये योगिन उपासकस्य लक्षणमिति वेदितव्यम्॥2॥


सर्वे मनुष्या एवमिच्छेयुः -( स्वर्ग्याय) मोक्षसुखाय (शक्त्या) योगबलोन्नत्या (देवस्य) स्वप्रकाशस्या-नन्दप्रदस्य (सवितुः) सर्वान्तर्यामिनः परमेश्वरस्य (सवे) अनन्तैश्वर्य्ये (युक्तेन मनसा॰) योगयुक्तेन शुद्धान्तःकरणेन वयं सदोपयुञ्जीमहीति॥3॥


एवं योगाभ्यासेन कृतेन (स्वर्यतः) शुद्धभावप्रेम्णा (देवान्) उपासकान् योगिनः (सविता) अन्तर्यामीश्वरः कृपया (युक्त्वाय) तदात्मसु प्रकाशकरणेन सम्यग् युक्त्वा (धिया) स्वकृपाधारवृत्त्या (बृहज्ज्योतिः) अनन्तप्रकाशं (दिवं) दिव्यं स्वस्वरूपम् (प्रसुवाति) प्रकाशयति तथा (करिष्यतः) सत्यभक्तिं करिष्यमाणानुपासकान् योगिनः (सविता) परमकारुणिका-न्तर्यामीश्वरो मोक्षदानेन सदानन्दयतीति॥4॥


उपासना-प्रदोपासना-ग्रहीतारौ प्रति परमेश्वरः प्रतिजानीते -( ब्रह्म पूर्व्यम्) यदा तौ पुरातनं सनातनं ब्रह्म (नमोभिः) स्थिरेणात्मना सत्यभावेन नमस्कारैरुपासाते , तदा तद् ब्रह्म ताभ्यामाशीर्ददाति - ( श्लोकः) सत्यकीर्तिः (वां) (वि) (एतु) व्येतु व्याप्नोतु। कस्य केव ? (सूरेः) परमविदुषः (पथ्येव) धर्ममार्ग इव (ये) एवं य उपासकाः (अमृतस्य) मोक्षस्वरूपस्य नित्यस्य परमेश्वरस्य (पुत्राः) तदाज्ञानुष्ठातार-स्तत्सेवकाः सन्ति , त एव (दिव्यानि) प्रकाश-स्वरूपाणि विद्योपासना-युक्तानि कर्माणि तथा दिव्यानि (धामानि) सुखस्वरूपाणि जन्मानि सुखयुक्तानि स्थानानि वा (आतस्थुः) आ समन्तात् तेषु स्थिरा भवन्ति। ते (विश्वे॰) सर्वे (वां) उपासनोपदेष्ट्रपुदेश्यौ द्वौ (शृण्वन्तु) प्रख्यातौ जानन्तु। इत्यनेन प्रकारेणोपासनां कुर्वाणौ वां युवां द्वौ प्रतीश्वरोऽहं (युजे) कृपया समवेतो भवामीति॥5॥


भाषार्थ - अब ईश्वर की उपासना का विषय जैसा वेदों में लिखा है उस में से कुछ संक्षेप से यहां भी लिखा जाता है- (युञ्जते मन॰) इस का अभिप्राय यह है कि जीव को परमेश्वर की उपासना नित्य करनी उचित है अर्थात् उपासना समय में सब मनुष्य अपने मन को उसी में स्थिर करें।


और जो लोग ईश्वर के उपासक (विप्राः) अर्थात् बड़े बड़े बुद्धिमान् (होत्राः) उपासनायोग के ग्रहण करनेवाले हैं, वे (विप्रस्य) सब को जाननेवाला (बृहतः) सब से बड़ा (विपश्चितः) और सब विद्याओं से युक्त जो परमेश्वर है, उस के बीच में (मनः युञ्जते) अपने मन को ठीक ठीक युक्त करते हैं तथा (उत) (धियः) अपनी बुद्धिवृत्ति अर्थात् ज्ञान को भी (युञ्जते॰) सदा परमेश्वर ही में स्थिर करते हैं जो परमेश्वर इस सब जगत् को (विदधे) धारण और विधान करता है (वयुनाविदेक इत्) जो सब जीवों के ज्ञानों तथा प्रजा का भी साक्षी है, वही एक परमात्मा सर्वत्र व्यापक है कि जिस से परे कोई उत्तम पदार्थ नहीं है (देवस्य) उस देव अर्थात् सब जगत् के प्रकाश और (सवितुः) सब की रचना करनेवाले परमेश्वर की (परिष्टुतिः) हम लोग सब प्रकार से स्तुति करें। कैसी वह स्तुति है कि (मही) सब से बड़ी अर्थात् जिस के समान किसी दूसरे को हो ही नहीं सकती॥1॥


(युञ्जानः) योग को करनेवाले मनुष्य (तत्त्वाय) तत्त्व अर्थात् ब्रह्मज्ञान के लिये, (प्रथमं) (मनः) जब अपने मन को पहले परमेश्वर में युक्त करते हैं, तब (सविता) परमेश्वर उन की (धियम्) बुद्धि को अपनी कृपा से अपने में युक्त कर लेता है। (अग्नेर्ज्यो॰) फिर वे परमेश्वर के प्रकाश को निश्चय करके (अध्याभरत्) यथावत् धारण करते हैं। (पृथिव्याः) पृथिवी के बीच में योगी का यही प्रसिद्ध लक्षण है॥2॥


सब मनुष्य इस प्रकार की इच्छा करें कि (वयम्) हम लोग (स्वर्ग्याय) मोक्षसुख के लिये (शक्त्या) यथायोग्य सामर्थ्य के बल से (देवस्य) परमेश्वर की सृष्टि में उपासनायोग करके, अपने आत्मा को शुद्ध करें कि जिस से (युक्तेन मनसा) अपने शुद्ध मन से परमेश्वर के प्रकाशरूप आनन्द को प्राप्त हों॥3॥


इसी प्रकार वह परमेश्वर देव भी (देवान्) उपासकों को (स्वर्यतो धिया दिवम्) अत्यन्त सुख को देके (सविता) उन की बुद्धि के साथ अपने आनन्दस्वरूप प्रकाश को करता है तथा (युक्त्वाय) वही अन्तर्यामी परमात्मा अपनी कृपा से उन को युक्त करके उन के आत्माओं में (बृहज्ज्योतिः) बड़े प्रकाश को प्रकट करता है और (सविता) जो सब जगत् का पिता है वही (प्रसुवा॰) उन उपासकों को ज्ञान और आनन्दादि से परिपूर्ण कर देता है परन्तु (करिष्यतः) जो मनुष्य सत्य प्रेम भक्ति से परमेश्वर की उपासना करेंगे, उन्हीं उपासकों को परमकृपामय अन्तर्यामी परमेश्वर मोक्षसुख देके सदा के लिए आनन्दयुक्त कर देगा॥4॥


उपासना का उपदेश देनेवाले और ग्रहण करने वाले दोनों के प्रति परमेश्वर प्रतिज्ञा करता है कि जब तुम (पूर्व्यम्) सनातन ब्रह्म की (नमोभिः) सत्यप्रेमभाव से अपने आत्मा को स्थिर करके नमस्कारादि रीति से उपासना करोगे तब मैं तुम को आशीर्वाद देऊंगा कि (श्लोकः) सत्यकीर्ति (वां) तुम दोनों को (एतु) प्राप्त हो। किस के समान? (पथ्येव सूरेः) जैसे परम विद्वान् को धर्ममार्ग यथावत् प्राप्त होता है, इसी प्रकार तुम को सत्यसेवा से सत्यकीर्ति प्राप्त हो। फिर भी मैं सब को उपदेश करता हूं कि (अमृतस्य पुत्राः) हे मोक्षमार्ग के पालन करनेवाले मनुष्यो। ( शृण्वन्तु विश्वे) तुम सब लोग सुनो कि (आ ये धामानि॰) जो दिव्यलोकों अर्थात् मोक्षसुखों को (आतस्थुः) पूर्व प्राप्त हो चुके हैं, उसी उपासनायोग से तुम लोग भी उन सुखों को प्राप्त हो, इस में सन्देह मत करो। इसीलिये (युजे) मैं तुम को उपासनायोग में युक्त करता हूं॥5॥


सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वितन्वते पृथक्।


धीरा देवेषु सुम्नया॥6॥


युनक्त सीरा वि युगा तनुध्वं


कृते योनौ वपतेह बीजम्।


गिरा च श्रुष्टिः सभरा असन्नो


नेदीय इत्सृण्यः पक्वमेयात्॥7॥


-य॰ अ॰ 12। मं॰ 67। 68॥


भाष्यम् - ( कवयः) विद्वांसः क्रान्तदर्शनाः क्रान्तप्रज्ञा वा (धीराः) ध्यानवन्तो योगिनः (पृथक्) विभागेन (सीराः) योगाभ्यासोपासनार्थं नाडीर्युञ्जन्ति अर्थात् तासु परमात्मानं ज्ञातुमभ्यस्यन्ति तथा (युगा) युगानि योगयुक्तानि कर्माणि (वितन्वते) विस्तारयन्ति। य एवं कुर्वन्ति , ते (देवेषु) विद्वत्सु योगिषु (सुम्नया) सुखेनैव स्थित्वा परमानन्दं (युञ्जन्ति) प्राप्नुवन्तीत्यर्थः॥6॥


हे योगिनो यूयं योगाभ्यासोपासनेन परमात्मयोगेनानन्दं (युनक्त) तद्युक्ता भवत। एवं मोक्षसुखं सदा (वितनुध्वं) विस्तारयत तथा (युगा॰) उपासनायुक्तानि कर्माणि (सीराः) प्राणादित्ययुक्ता नाडीश्च युनक्तोपासनाकर्माणि योजयत। एवं (कृते योनौ) अन्तःकरणे शुद्धे कृते परमानन्दयोनौ कारण आत्मनि। (वपतेह बीजम्) उपासनाविधानेन योगोपासनाया विज्ञानाख्यं बीजं वपत तथा (गिरा च) वेदवाण्या विद्यया (युनक्त) युङ्क्त युक्ता भवत। किं च (श्रुष्टिः) क्षिप्रं शीघ्रं योगफलं (नो नेदीयः) नोऽस्मान्नेदीयोऽतिशयेन निकटं परमेश्वरानुग्रहेण (असत्) अस्तु। कथम्भूतं फलं ? ( पक्वं) शुद्धानन्दसिद्धम् (एयात्) आ समन्तादियात् प्राप्नुयात्। (इत्सृण्यः) उपासनायुक्तास्ता योगवृत्तयः सृण्यः सर्वक्लेशहन्त्र्य एव भवन्ति। इदिति निश्चयार्थे। पुनः कथम्भूतास्ताः ? ( सभराः) शान्त्यादिगुणपुष्टा


एताभिर्वृत्तिभिः परमात्मयोगं वितनुध्वम्। अत्र प्रमाणम् -


श्रुष्टीति क्षिप्रनामाशु अष्टीति॥


-निरु॰ अ॰ 6। खं॰ 12॥


द्विविधा सृणिर्भवति भर्ता च हन्ता च॥


-निरु॰ अ॰ 13। खं॰ 5॥


भाषार्थ - (कवयः) जो विद्वान् योगी लोग और (धीराः) ध्यान करनेवाले हैं वे (सीरा युञ्जन्ति) (पृथक्) यथायोग्य विभाग से नाड़ियों में अपने आत्मा से परमेश्वर की धारणा करते हैं (युगा) जो योगयुक्त कर्मों में तत्पर रहते हैं, (वितन्वते) अपने ज्ञान और आनन्द को सदा विस्तृत करते हैं, (देवेषु सुम्नया) वे विद्वानों के बीच में प्रशंसित होके परमानन्द को प्राप्त होते हैं॥6॥


हे उपासक लोगो! तुम योगाभ्यास तथा परमात्मा के योग से नाड़ियों में ध्यान करके परमानन्द को (वितनुध्वं) विस्तार करो। इस प्रकार करने से (कृते योनौ) योनि अर्थात् अपने अन्तःकरण को शुद्ध और परमानन्दस्वरूप परमेश्वर में स्थिर करके उस में उपासनाविधान से विज्ञानरूप (बीजं) बीज को (वपत) अच्छी प्रकार से बोओ तथा (गिरा च) पूर्वोक्त प्रकार से वेदवाणी करके परमात्मा में (युनक्त) युक्त होकर उस की स्तुति प्रार्थना और उपासना में प्रवृत्ति करो तथा (श्रुष्टिः) तुम लोग ऐसी इच्छा करो कि हम उपासनायोग के फल को प्राप्त होवें और (नो नेदीयः) हम को ईश्वर के अनुग्रह से वह फल (असत्) शीघ्र ही प्राप्त हो। कैसा वह फल है? कि (पक्वं) जो परिपक्व शुद्ध परम आनन्द से भरा हुआ और मोक्षसुख को प्राप्त करने वाला है (इत्सृण्यः) अर्थात् वह उपासनायोगवृत्ति कैसी है कि सब क्लेशों को नाश करनेवाली और (सभराः) सब शान्ति आदि गुणों से पूर्ण है। उन उपासनायोग वृत्तियों से परमात्मा के योग को अपने आत्मा में प्रकाशित करो॥7॥


अष्टाविंशानि शिवानि शग्मानि सह योगं भजन्तु मे।


योगं प्र पद्ये क्षेमं च क्षेमं प्र पद्ये योगं च


नमोऽहोरात्राभ्यामस्तु॥8॥


-अथर्व॰ कां॰ 19। अनु॰ 1। व॰ 8। मं॰ 2॥


भूयानरात्याः शच्याः पतिस्त्वमिन्द्रासि


विभूः प्रभूरिति त्वोपास्महे वयम्॥9॥


नमस्ते अस्तु पश्यत पश्य मा पश्यत॥10॥


अन्नाद्येन यशसा तेजसा ब्राह्मणवर्चसेन॥11॥


भाष्यम् - ( अष्टाविंशानि) हे परमेश्वर भगवत्कृपया-ऽष्टाविंशानि (शिवानि) कल्याणानि कल्याणकारकाणि सन्त्वर्थाद्दशेन्द्रियाणि , दश प्राणा , मनोबुद्धिचित्ता-हङ्कारविद्या-स्वभाव-शरीरबलं चेति। (शङ्गमानि) सुखकारकाणि भूत्वा (अहोरात्राभ्यां) दिवसे रात्रौ चोपासनाव्यवहारं योगं (मे) मम (भजन्तु) सेवन्ताम्। तथा भवत्कृपयाऽहं (योगं प्र॰) प्राप्य (क्षेमं च) (प्रपद्ये) क्षेमं प्राप्य योगं च प्रपद्ये। यतोऽस्माकं सहायकारी भवान् भवेदेतदर्थं सततं नमोऽस्तु ते॥8॥


इमे वक्ष्यमाणाश्च मन्त्रा अथर्ववेदस्य सन्तीति बोध्यम् - ( इन्द्रा॰) हे इन्द्र परमेश्वर! त्वं (शच्याः) प्रजाया वाण्याः कर्मणो वा पतिरसि (भूयान्) सर्वशक्तिमत्त्वात् सर्वोत्कृष्टत्वादतिशयेन बहुरसि तथा (अरात्याः) शत्रुभूताया वाण्यास्तादृशस्य कर्मणो वा शत्रुरर्थाद् भूयान्निवारकोऽसि (विभूः) व्यापकः (प्रभूः) समर्थश्चासि। (इति) अनेन प्रकारेणैवम्भूतं (त्वा) त्वां वयं सदैव (उपास्महे) अर्थात्तवैवोपासनं कुर्मह इति॥9॥ अत्र प्रमाणम् -


वाचो नामसु शचीति पठितम्॥


-निघण्टु अ॰ 1। खं॰ 11॥


तथा- कर्मणां नामसु शचीति पठितम्॥


-निघं॰ अ॰ 2। खं॰ 1॥


तथा- प्रज्ञानामसु शचीति पठितम्॥


-निघं॰ अ॰ 3। खं॰ 9॥


ईश्वरोऽभिवदति - हे मनुष्या यूयमुपासनारीत्या सदैव (मा) मां (पश्यत) सम्यग् ज्ञात्वा चरत। उपासक एवं जानीयाद्वदेच्च - हे परमेश्वरानन्तविद्यायुक्त! (नमस्ते अस्तु) ते तुभ्यमस्माकं सततं नमोऽस्तु भवतु॥10॥


(अन्नाद्येन) कस्मै प्रयोजनायान्नादिराज्यैश्वर्य्येण (यशसा) सर्वोत्तमसत्कर्मानुष्ठानोद्भूतसत्यकीर्त्त्या (तेजसा) निर्दीनतया प्रागल्भ्येण च (ब्राह्मणवर्चसेन) पूर्णविद्यया सह वर्त्तमानानस्मान् हे परमेश्वर! त्वं कृपया सदैव (पश्य) संप्रेक्षस्वैतदर्थं वयं त्वां सर्वदोपास्महे॥11॥


भाषार्थ - (अष्टाविंशानि शिवानि) हे परमैश्वर्य्ययुक्त मङ्गलमय परमेश्वर! आप की कृपा से मुझ को उपासनायोग प्राप्त हो तथा उस से मुझ को सुख भी मिले। इसी प्रकार आप की कृपा से दश इन्द्रिय, दश प्राण, मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार, विद्या, स्वभाव, शरीर और बल, ये अट्ठाईस सब कल्याणों में प्रवृत्त होके उपासनायोग को सदा सेवन करें तथा हम भी (योगं॰) उस योग के द्वारा (क्षेमं) रक्षा को और रक्षा से योग को प्राप्त हुआ चाहते हैं। इसलिए हम लोग रात दिन आपको नमस्कार करते हैं॥8॥


(भूयानरात्याः) हे जगदीश्वर! आप (शच्या) सब प्रज्ञा, वाणी और कर्म इन तीनों के पति हैं तथा (भूयान्) सर्वशक्तिमान् आदि विशेषणों से युक्त हैं। जिस से आप (अरात्याः) अर्थात् दुष्टप्रजा, मिथ्यारूपवाणी और पापकर्मों को विनाश करने में अत्यन्त समर्थ हैं तथा आपको (विभूः) सब में व्यापक और (प्रभूः) सब सामर्थ्यवाले जान के हम लोग आप की उपासना करते हैं॥9॥


(नमस्ते अस्तु॰) अर्थात् परमेश्वर सब मनुष्यों को उपदेश करता है कि-हे उपासक लोगो! तुम मुझ को प्रेमभाव से अपने आत्मा में सदा देखते रहो तथा मेरी आज्ञा और वेदविद्या को यथावत् जान के उसी रीति से आचरण करो। फिर मनुष्य भी ईश्वर से प्रार्थना करें कि हे परमेश्वर! आप कृपादृष्टि से (पश्य मा) हम को सदा देखिये। इसलिए हम लोग आप को सदा नमस्कार करते हैं॥10॥ कि-


(अन्नाद्येन) अर्थात् अन्न आदि ऐश्वर्य (यशसा) सब से उत्तम कीर्ति (तेजसा) भय से रहित (ब्राह्मणवर्चसेन) और सम्पूर्ण विद्या से युक्त हम लोगों को करके कृपा से देखिये। इसलिये हम लोग सदा आपकी उपासना करते हैं॥11॥


अम्भो अमो महः सह इति त्वोपास्महे वयम्॥12॥


अम्भो अरुणं रजतं रजः सह इति त्वोपास्महे वयम्॥13॥


उरुः पृथुः सुभूर्भुव इति त्वोपास्महे वयम्॥14॥


प्रथो वरो व्यचो लोक इति त्वोपास्महे वयम्॥15॥


-अथर्व॰ कां॰ 13। अनु॰ 4। मं॰ 47। 48। 49। 50। 51। 52। 53॥


भाष्यम् - ( हे ब्रह्मन्) (अम्भः) व्यापकं शान्तस्वरूपं जलवत् प्राणस्यापि प्राणम् आप्ऌधातो-रसुन्प्रत्ययान्तस्यायं प्रयोगः (अमः) ज्ञानस्वरूपम् (महः) पूज्यं सर्वेभ्यो महत्तरं (सहः) सहनस्वभावं ब्रह्म (त्वा) त्वां ज्ञात्वा (इति) अनेन प्रकारेण (वयं) सततम् उपास्महे॥12॥


(अम्भः) आदरार्थो द्विरारम्भः अस्यार्थ उक्तः (अरुणम्) प्रकाशस्वरूपम् (रजतम्) रागविषयमा-नन्दस्वरूपम् (रजः) सर्वलोकैश्वर्य्यसहितम् (सहः) सहनशक्तिप्रदम् (इति त्वोपास्महे वयम्) त्वां विहाय नैव कश्चिदन्योऽर्थः कस्यचिदुपास्योऽस्तीति॥13॥


(उरुः) सर्वशक्तिमान् (पृथुः) अतीव विस्तृतो व्यापकः (सुभूर्भुवः) सुष्ठुतया सर्वेषु पदार्थेषु भवतीति सुभूः अन्तरिक्षवदवकाश-रूपत्वाद्भुवः (इति) एवं ज्ञात्वा (त्वा) त्वाम् (उपास्महे वयम्)॥14॥ बहुनामसु उरुरिति प्रत्यक्षमस्ति॥


-निघण्टु अ॰ 3। खं॰ 1॥


(प्रथः) सर्वजगत्प्रसारकः (वरः) श्रेष्ठः (व्यचः) विविधतया सर्वं जगज्जानातीति (लोकः) लोक्यते सर्वैर्जनैर्लोकयति सर्वान् वा (इति त्वो॰ वयमीदृक्स्वरूपं सर्वज्ञं त्वामुपास्महे॥15॥


भाषार्थ - (अम्भः) हे भगवन्! आप सब में व्यापक, शान्तस्वरूप और प्राण का भी प्राण हैं तथा (अमः) ज्ञानस्वरूप और ज्ञान को देनेवाले हैं (महः) सब के पूज्य, सब के बड़े और (सहः) सब के सहन करनेवाले हैं। (इति) इस प्रकार का (त्वा) आप को जान के (वयम्) हम लोग सदा उपासना करते हैं॥12॥


(अम्भः) दूसरी बार इस शब्द का पाठ केवल आदर के लिये है। (अरुणम्) आप प्रकाशस्वरूप सब दुःखों के नाश करनेवाले तथा (रजतम्) प्रीति के परम हेतु आनन्दस्वरूप (रजः) सब लोकों के ऐश्वर्य से युक्त (सहः) (इस शब्द का भी पाठ आदरार्थ है) और सहनशक्ति वाले हैं। इसलिए हम लोग आप की उपासना निरन्तर करते हैं॥13॥


(उरु॰) आप सब बलवाले (पृथुः) अर्थात् आदि अन्त रहित तथा (सुभूः) सब पदार्थों में अच्छी प्रकार से वर्त्तमान और (भुवः) अवकाशस्वरूप से सब के निवासस्थान हैं। इस कारण हम लोग उपासना करके आप के ही आश्रित रहते हैं॥14॥


(प्रथो वरो॰) हे परमात्मन्! आप सब जगत् में प्रसिद्ध और उत्तम हैं, (व्यचः) अर्थात् सब प्रकार से इस जगत् का धारण, पालन और वियोग करनेवाले तथा (लोकः) सब विद्वानों के देखने अर्थात् जानने के योग्य केवल आप ही हैं, दूसरा कोई नहीं॥15॥


युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः।


रोचन्ते रोचना दिवि॥16॥


-ऋ॰ अ॰ 1। अ॰ 1। व॰ 11। मं॰ 1॥


भाष्यम् - ( युञ्जन्ति॰) ये योगिनो विद्वांसः (परितस्थुषः) परितः सर्वतः सर्वान् जगत्पदार्थान् मनुष्यान् वा (चरन्तं) ज्ञातारं सर्वज्ञम् (अरुषं) अहिंसकं करुणामयम् (रुष हिंसायाम्) (ब्रध्नं) विद्यायोगाभ्यासप्रेमभरेण सर्वानन्दवर्धकं महान्तं परमेश्वरमात्मना सह युञ्जन्ति (रोचनाः) त आनन्दे प्रकाशिता रुचिमया भूत्वा (दिवि) द्योतनात्मके सर्वप्रकाशके परमेश्वरे (रोचन्ते) परमानन्दयोगेन प्रकाशन्ते। इति प्रथमोऽर्थः।


अथ द्वितीयः - ( परि त॰) चरन्तमरुषमग्निमयं ब्रध्नमादित्यं सर्वे लोकाः सर्वे पदार्थाश्च (युञ्जन्ति) तदाकर्षणेन युक्ताः सन्ति। एते सर्वे तस्यैव (दिवि) प्रकाशे रोचनाः रुचिकराः सन्तः (रोचन्ते) प्रकाशन्ते। इति द्वितीयोऽर्थः।


अथ तृतीयः - य उपासकाः परितस्थुषः सर्वान् पदार्थान् चरन्तमरुषं सर्वमर्मस्थं (ब्रध्नं) सर्वावयववृद्धिकरं प्राणमादित्यं प्राणायामरीत्या (दिवि) द्योतनात्मके परमेश्वरे वर्त्तमानं (रोचनाः) रुचिमन्तः सन्तो (युञ्जन्ति) युक्तं कुर्वन्ति , अतस्ते तस्मिन् मोक्षानन्दे परमेश्वरे (रोचन्ते) सदैव प्रकाशन्ते॥16॥


अत्र प्रमाणानि -


मनुष्यनामसु तस्थुषः पञ्चजनाः इति पठितम्॥


-निघं॰ अ॰ 2। खं॰ 3॥


महत्ब्रध्नः , महन्नामसु पठितम्॥


-निघं॰ अ॰ 3। खं॰ 3॥


तथा युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तमिति। असौ वा आदित्यो ब्रध्नोऽरुषोऽमुमेवास्मा आदित्यं युनक्ति स्वर्गस्य लोकस्य समृष्ट्यै॥


-श॰ कां॰ 13। अ॰ 2॥


आदित्यो ह वै प्राणो रयिरेव चन्द्रमा रयिर्वा एतत्सर्वं यन्मूर्त्तं चामूर्त्तं च तस्मान्मूर्त्तिरेव रयिः॥1॥


-प्रश्नोपनि॰ प्रश्न 1। मं॰ 5॥


परमेश्वरात् महान् कश्चिदपि पदार्थो नास्त्येवातः प्रथमेऽर्थे योजनीयम्। तथा शतपथप्रमाणं द्वितीयमर्थं प्रति। एवमेव प्रश्नोपनिषत्प्रमाणं तृतीयमर्थं प्रति च। क्वचिन्निघण्टावश्वस्यापि ब्रध्नारुषौ नाम्नी पठिते। परन्त्वस्मिन् मन्त्रे तद्घटना नैव सम्भवति , शतपथादि-व्याख्यान-विरोधात् , मूलार्थ-विरोधादेकशब्देनाप्यनेकार्थग्रहणाच्च।


एवं सति भट्टमोक्ष-मूलरैर्ऋग्वेदस्येङ्गलेण्डभाषया व्याख्याने यदश्वस्य पशोरेव ग्रहणं कृतं तद् भ्रान्तिमूलमेवास्ति। सायणाचार्येणास्य मन्त्रस्य व्याख्यायामादित्य-ग्रहणादेकस्मिन्नंशे तस्य व्याख्यानं सम्यगस्ति। परन्तु न जाने भट्टमोक्ष-मूलरेणायमर्थ आकाशाद्वा पातालाद् गृहीतः। अतो विज्ञायते स्वकल्पनया लेखनं कृतमिति ज्ञात्वा प्रमाणार्हं नास्तीति॥16॥


भाषार्थ - (युञ्जन्ति॰) मुक्ति का उत्तम साधन उपासना है, इसीलिये जो विद्वान् लोग हैं, वे सब जगत् और सब मनुष्यों के हृदयों में व्याप्त ईश्वर को उपासना रीति से अपने आत्मा के साथ युक्त करते हैं। वह ईश्वर कैसा है कि (चरन्तं) अर्थात् सब का जाननेवाला (अरुषं) हिंसादि दोषरहित कृपा का समुद्र (ब्रध्नं) सब आनन्दों का बढ़ाने वाला, सब रीति से बड़ा है। इसी से (रोचनाः) अर्थात् उपासकों के आत्मा सब अविद्यादि दोषों के अन्धकार से छूट के (दिवि) आत्माओं को प्रकाशित करने वाले परमेश्वर में प्रकाशमय होकर (रोचन्ते) प्रकाशित रहते हैं। इति प्रथमोऽर्थः।


अब दूसरा अर्थ करते हैं कि- (परितस्थुषः) जो सूर्य्यलोक, अपनी किरणों से सब मूर्तिमान् द्रव्यों के प्रकाश और आकर्षण करने में (ब्रध्नं) सब से बड़ा और (अरुषं) रक्तगुणयुक्त है और जिस के आकर्षण के साथ सब लोक युक्त हो रहे हैं, (रोचनाः) जिस के प्रकाश से सब पदार्थ प्रकाशित हो रहे हैं, विद्वान् लोग उसी को सब लोकों के आकर्षणयुक्त जानते हैं। इति द्वितीयोऽर्थः।


(युञ्जन्ति॰) इस मन्त्र का और तीसरा यह भी अर्थ है कि- सब पदार्थों की सिद्धि का मुख्य हेतु जो प्राण है उस को प्राणायाम की रीति से अत्यन्त प्रीति के साथ परमात्मा में युक्त करते हैं। इसी कारण वे लोग मोक्ष को प्राप्त होके सदा आनन्द में रहते हैं।


इन तीनों अर्थों में निघण्टु आदि के प्रमाण भाष्य में लिखे हैं सो देख लेना॥16॥ इस मन्त्र के इन अर्थों को नहीं जान के भट्ट मोक्षमूलर साहब ने घोड़े का जो अर्थ किया है, सो ठीक नहीं है। यद्यपि सायणाचार्य का अर्थ भी यथावत् नहीं है, परन्तु मोक्षमूलर साहब के अर्थ से तो अच्छा ही है, क्योंकि प्रोफेसर मोक्षमूलर साहब ने इस अर्थ में केवल कपोलकल्पना की है।


इदानीमुपासना कथंरीत्या कर्त्तव्येति लिख्यते - तत्र शुद्ध एकान्तेऽभीष्टे देशे शुद्धमानसः समाहितो भूत्वा सर्वाणीन्द्रियाणि मनश्चैकाग्रीकृत्य सच्चिदानन्द-स्वरूपमन्तर्यामिनं न्यायकारिणं परमात्मानं सञ्चिन्त्य तत्रात्मानं नियोज्य च तस्यैव स्तुतिप्रार्थनानुष्ठाने सम्यक्कृत्वोपासनयेश्वरे पुनः पुनः स्वात्मानं संलगयेत्। अत्र पतञ्जलि-महामुनिना स्वकृतसूत्रेषु वेदव्यासकृतभाष्ये चायमनुक्रमो योगशास्त्रे प्रदर्शितः। तद्यथा -


योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः॥1॥


-अ॰ 1। पा॰ 1। सू॰ 2॥


उपासनासमये व्यवहारसमये वा परमेश्वरादतिरिक्त-विषयादधर्मव्यवहाराच्च मनसो वृत्तिः सदैव निरुद्धा रक्षणीयेति॥1॥


निरुद्धा सती सा क्वावतिष्ठत इत्यत्रोच्यते -


तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्॥2॥


-अ॰ 1। पा॰ 1। सू॰ 3॥


यदा सर्वस्माद् व्यवहारान्मनोऽवरुध्यते , तदास्योपासकस्य मनो द्रष्टुः सर्वज्ञस्य परमेश्वरस्य स्वरूपे स्थितिं लभते॥2॥


यदोपासको योग्युपासनां विहाय सांसारिकव्यवहारे प्रवर्त्तते , तदा सांसारिकजनवत्तस्यापि प्रवृत्तिर्भवत्या-होस्विद्विलक्षणेत्यत्राह -


वृत्तिसारूप्यमितरत्र॥3॥


-अ॰ 1। पा॰ 1। सू॰ 4॥


इतरत्र सांसारिकव्यवहारे प्रवृत्तेऽप्युपासकस्य योगिनः शान्ता धर्मारूढा विद्याविज्ञान- प्रकाशा सत्यतत्त्वनिष्ठाऽतीवतीव्रा साधारण-मनुष्य-विलक्षणाऽपूर्वैव वृत्तिर्भवतीति। नैवेदृश्यनुपासकानामयोगिनां कदाचिद् वृत्तिर्जायत इति॥3॥


कति वृत्तयः सन्ति कथं निरोद्धव्या इत्यत्राह -


वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः॥4॥


प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः॥5॥


तत्र प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि॥6॥


विपर्य्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्॥7॥


शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः॥8॥


अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा॥9॥


अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः॥10॥


अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः॥11॥


-अ॰ 1। पा॰ 1। सू॰ 5। 6।7।8।9।10।11।12॥


उपासनायाः सिद्धेः सहायकारि परमं साधनं किमस्तीत्यत्रोच्यते -


ईश्वरप्रणिधानाद्वा॥12॥


-अ॰ 1। पा॰ 1। सू॰ 23॥


भा॰ - प्रणिधानाद्भक्ति-विशेषादावर्तित ईश्वरस्तमनुगृह्णात्य-भिध्यानमात्रेण तदभिध्यानादपि योगिनः आसन्नतमः समाधिलाभः फलञ्च भवतीति॥12॥


भाषार्थ - अब जिस रीति से उपासना करनी चाहिए, सो आगे लिखते हैं-


जब जब मनुष्य लोग ईश्वर की उपासना करना चाहें, तब तब इच्छा के अनुकूल एकान्त स्थान में बैठकर, अपने मन को शुद्ध और आत्मा को स्थिर करें तथा सब इन्द्रियों और मन को सच्चिदानन्दादि लक्षणवाले अन्तर्यामी अर्थात् सब में व्यापक और न्यायकारी परमात्मा की ओर अच्छी प्रकार से लगा कर, सम्यक् चिन्तन करके, उस में अपने आत्मा को नियुक्त करें। फिर उसी की स्तुति, प्रार्थना और उपासना को वारंवार करके, अपने आत्मा को भलीभांति से उस में लगा दें। इस की रीति पतञ्जलि मुनि के किये योगशास्त्र और उन्हीं सूत्रों के वेदव्यासमुनि जी के किये भाष्य के प्रमाणों से लिखते हैं-


(योगश्चित्त॰) चित्त की वृत्तियों को सब बुराइयों से हटा के, शुभ गुणों में स्थिर करके, परमेश्वर के समीप में मोक्ष को प्राप्त करने को योग कहते हैं। और वियोग उस को कहते हैं कि परमेश्वर और उस की आज्ञा से विरुद्ध बुराइयों में फंस के उस से दूर हो जाना॥1॥


(प्रश्न) जब वृत्ति बाहर के व्यवहारों से हटा के स्थिर की जाती है, तब कहां पर स्थिर होती है?


इस का उत्तर यह है कि- (तदा द्र॰) जैसे जल के प्रवाह को एक ओर से दृढ़ बांध के रोक देते हैं, तब वह जिस ओर नीचा होता है, उस ओर चल के कहीं स्थिर हो जाता है, इसी प्रकार मन की वृत्ति भी जब बाहर से रुकती है, तब परमेश्वर में स्थिर हो जाती है। एक तो चित्त की वृत्ति के रोकने का यह प्रयोजन है॥2॥


और दूसरा यह है कि- (वृत्तिसा॰) अर्थात् उपासक योगी और संसारी मनुष्य जब व्यवहार में प्रवृत्त होते हैं तब योगी की वृत्ति तो सदा हर्ष शोक रहित, आनन्द से प्रकाशित होकर उत्साह और आनन्दयुक्त रहती है और संसार के मनुष्य की वृत्ति सदा हर्ष शोकरूप दुःखसागर में ही डूबी रहती है। उपासक योगी की तो ज्ञानरूप प्रकाश में सदा बढ़ती रहती है और संसारी मनुष्य की वृत्ति सदा अन्धकार में फंसती जाती है॥3॥


(वृत्तयः॰) अर्थात् सब जीवों के मन में पांच प्रकार की वृत्ति उत्पन्न होती हैं। उस के दो भेद हैं- एक क्लिष्ट, दूसरी अक्लिष्ट, अर्थात् क्लेशसहित और क्लेशरहित। उन में से जिन की वृत्ति विषयासक्त; परमेश्वर की उपासना से विमुख होती है उन की वृत्ति अविद्यादि क्लेशसहित और जो पूर्वोक्त उपासक हैं, उन की क्लेशरहित शान्त होती है॥4॥


वे पांच वृत्ति ये हैं- पहली (प्रमाण) दूसरी (विपर्य्यय) तीसरी (विकल्प) चौथी (निद्रा) और पांचमी (स्मृति)॥5॥


उन के विभाग और लक्षण ये हैं-(तत्र प्रत्यक्षा॰) इस की व्याख्या वेदविषय के होमप्रकरण में लिख दी है॥6॥


(विपर्य्ययो॰) दूसरी विपर्य्यय कि जिस से मिथ्याज्ञान हो अर्थात् जैसे को तैसा न जानना अथवा अन्य में अन्य की भावना कर लेना, इस को विपर्य्यय कहते हैं॥7॥


तीसरी विकल्पवृत्ति (शब्दज्ञाना॰) जैसे किसी ने किसी से कहा कि एक देश में हम ने आदमी के शिर पर सींग देखे थे। इस बात को सुन के कोई मनुष्य निश्चय कर ले कि ठीक है सींगवाले मनुष्य भी होते होंगे। ऐसी वृत्ति को विकल्प कहते हैं। सो झूठी बात है अर्थात् जिस का शब्द तो हो परन्तु किसी प्रकार का अर्थ किसी को न मिल सके, इसी से इस का नाम विकल्प है॥8॥


चौथी (निद्रा) अर्थात् जो वृत्ति अज्ञान और अविद्या के अन्धकार में फंसी हो, उस वृत्ति का नाम निद्रा है॥9॥


पांचमी (स्मृति) (अनुभूत॰) अर्थात् जिस व्यवहार वा वस्तु को प्रत्यक्ष देख लिया हो, उसी का संस्कार ज्ञान में बना रहता है उस विषय को (अप्रमोषः) भूले नहीं, इस प्रकार की वृत्ति को स्मृति कहते हैं॥10॥


इन पांच वृत्तियों को बुरे कामों और अनीश्वर के ध्यान से हटाने का उपाय कहते हैं कि- (अभ्यास॰) जैसा अभ्यास उपासना प्रकरण में आगे लिखेंगे वैसा करें और वैराग्य अर्थात् सब बुरे कामों और दोषों से अलग रहें। इन दोनों उपायों से पूर्वोक्त पांच वृत्तियों को रोक के उन को उपासनायोग में प्रवृत्त रखना॥11॥


तथा उस समाधि के योग होने का यह भी साधन है कि (ईश्वरप्र॰) ईश्वर में विशेष भक्ति होने से मन का समाधान होके मनुष्य समाधियोग को शीघ्र प्राप्त हो जाता है॥12॥


अथ प्रधानपुरुषव्यतिरिक्तः कोऽयमीश्वरो नामेति -


क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः॥13॥


-अ॰ 1। पा॰ 1। सू॰ 24॥


भा॰ - अविद्यादयः क्लेशाः कुशलाकुशलानि कर्माणि तत्फलं विपाकस्तदनुगुणा वासना आशयाः ते च मनसि वर्त्तमानाः पुरुषे व्यपदिश्यन्ते , स हि तत्फलस्य भोक्तेति। यथा जयः पराजयो वा योद्धृषु वर्त्तमानः स्वामिनि व्यपदिश्यते। यो ह्यनेन भोगेनापरामृष्टः स पुरुषविशेष ईश्वरः।


कैवल्यं प्राप्तास्तर्हि सन्ति च बहवः केवलिनः। ते हि त्रीणि बन्धनानि छित्त्वा कैवल्यं प्राप्ताः। ईश्वरस्य च तत्सम्बन्धो न भूतो न भावी। यथा मुक्तस्य पूर्वा बन्धकोटिः प्रज्ञायते , नैवमीश्वरस्य। यथा वा प्रकृतिलीनस्योत्तरा बन्धकोटिः सम्भाव्यते , नैवमीश्वरस्य। स तु सदैव मुक्तः सदैवेश्वर इति।


योऽसौ प्रकृष्टसत्त्वोपादानादीश्वरस्य शाश्वतिक उत्कर्षः स किं सनिमित्त आहोस्विन्निर्निमित्त इति ? तस्य शास्त्रं निमित्तम्। शास्त्रं पुनः किं निमित्तम् ? प्रकृष्टसत्त्वनिमित्तमेतयोः शास्त्रोत्कर्षयोरीश्वरसत्त्वे वर्तमानयोरनादिः सम्बन्धः। एतस्मादेतद्भवति सदैवेश्वरः सदैव मुक्त इति। तच्च तस्यैश्वर्य्यं साम्यातिशयविनिर्मुक्तं , न तावदैश्वर्य्यान्तरेण तदतिशय्यते।


यदेवातिशयि स्यात्तदेव तत्स्यात्तस्माद्यत्र काष्ठाप्राप्तिरैश्वर्य्यस्य स ईश्वरः। न च तत्समानमैश्वर्यमस्ति। कस्मात् , द्वयोस्तुल्ययोरेकस्मिन् युगपत् कामितेऽर्थे , नवमिदमस्तु पुराणमिदमस्त्विति , एकस्य सिद्धावितरस्य प्राकाम्यविघातादनू त्वं प्रसक्तम्। द्वयोश्च तुल्ययोर्युगपत् कामितार्थप्राप्तिर्नास्ति , अर्थस्य विरुद्धत्वात्। तस्माद्यद्यस्य साम्यातिशय-विनिर्मुक्तमैश्वर्य्यं स ईश्वरः , स च पुरुषविशेष इति॥13॥


किं च -


तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्॥14॥


-अ॰ 1। पा॰ 1। सू॰ 25॥


भा॰ - यदिदमतीतानागत-प्रत्युत्पन्नं प्रत्येकसमुच्चयाती-न्द्रियग्रहणमल्पं बह्विति सर्वज्ञबीजमेतद्विवर्धमानं यत्र निरतिशयं स सर्वज्ञः। अस्ति काष्ठाप्राप्तिः सर्वज्ञबीजस्य , सातिशयत्वात् परिमाणवदिति। यत्र काष्ठाप्राप्तिर्ज्ञानस्य स सर्वज्ञः , स च पुरुषविशेष इति सामान्य-मात्रोपसंहारे कृतोपक्षयमनुमानं न विशेषप्रतिपत्तौ समर्थमिति। तस्य संज्ञादिविशेष-प्रतिपत्तिरागमतः पर्य्यन्वेष्या। तस्यात्मानुग्रहाभावेऽपि भूतानुग्रहः प्रयोजनम् - ज्ञानधर्मोपदेशेन कल्पप्रलय-महाप्रलयेषु संसारिणः पुरुषानुद्धरिष्यामीति। तथा चोक्तम् - आदिविद्वान्निर्माण-चित्तमधिष्ठाय कारुण्याद्भगवान् परमर्षिरासुरये जिज्ञासमानाय तन्त्रं प्रोवाचेति॥14॥


स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्॥15॥


- अ॰ 1। पा॰ 1। सू॰ 26॥


भा॰ - पूर्वे हि गुरवः कालेनावच्छेद्यन्ते। यत्रावच्छेदार्थेन कालो नोपावर्त्तते स एष पूर्वेषामपि गुरुः। यथाऽस्य सर्गस्यादौ प्रकर्षगत्या सिद्धः तथातिक्रान्त-सर्गादिष्वपि प्रत्येतव्यः॥15॥


तस्य वाचकः प्रणवः॥16॥


- अ॰ 1। पा॰ 1। सू॰ 27॥


भा॰ - वाच्य ईश्वरः प्रणवस्य। किमस्य सङ्केतकृतं वाच्यवाचकत्वमथ प्रदीप-प्रकाशवदवस्थितमिति। स्थितोऽस्य वाच्यस्य वाचकेन सह सम्बन्धः। सङ्केतस्त्वीश्वरस्य स्थितमेवार्थ- मभिनयति। यथावस्थितः पितापुत्रयोः सम्बन्धः सङ्केतेनावद्योत्यते - अयमस्य पिता , अयमस्य पुत्र इति सर्गान्तरेष्वपि वाच्यवाचक-शक्त्यपेक्षस्तथैव सङ्केतः क्रियते। सम्प्रतिपत्तिनित्यतया नित्यः शब्दार्थसम्बन्ध इत्यागमिनः प्रतिजानते॥16॥


विज्ञातवाच्यवाचकत्वस्य योगिनः -


तज्जपस्तदर्थभावनम्॥17॥


-अ॰ 1। पा॰ 1। सू॰ 28॥


भा॰ - प्रणवस्य जपः प्रणवाभिधेयस्य चेश्वरस्य भावना। तदस्य योगिनः प्रणवं जपतः प्रणवार्थं च भावयतश्चित्तमेकाग्रं सम्पद्यते। तथा चोक्तम् -


स्वाध्यायाद्योगमासीत योगात्स्वाध्यायमामनेत्। स्वाध्याय-योगसम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशत इति॥17॥


भाषार्थ - अब ईश्वर का लक्षण कहते हैं कि (क्लेशकर्म॰) अर्थात् इसी प्रकरण में आगे लिखे हैं जो अविद्यादि पांच क्लेश और अच्छे बुरे कर्मों की जो जो वासना, इन सब से जो सदा अलग और बन्धरहित है, उसी पूर्ण पुरुष को ईश्वर कहते हैं। फिर वह कैसा है? जिस से अधिक वा तुल्य दूसरा पदार्थ कोई नहीं तथा जो सदा आनन्दज्ञानस्वरूप सर्वशक्तिमान् है, उसी को ईश्वर कहते हैं॥13॥


क्योंकि (तत्र निरति॰) जिस में नित्य सर्वज्ञ ज्ञान है वही ईश्वर है। जिस के ज्ञानादि गुण अनन्त हैं, जो ज्ञानादि गुणों की पराकाष्ठा है, जिस के सामर्थ्य की अवधि नहीं। और जीव के सामर्थ्य की अवधि प्रत्यक्ष देखने में आती है, इसलिए सब जीवों को उचित है कि अपने ज्ञान बढ़ाने के लिए सदैव परमेश्वर की उपासना करते रहें॥14॥


अब उस की भक्ति किस प्रकार से करनी चाहिए, सो आगे लिखते हैं-(तस्य वा॰) जो ईश्वर का ओङ्कार नाम है सो पिता पुत्र के सम्बन्ध के समान है और यह नाम ईश्वर को छोड़ के दूसरे अर्थ का वाची नहीं हो सकता। ईश्वर के जितने नाम हैं, उनमें से ओंकार सब से उत्तम नाम है॥16॥


इसलिये (तज्जप॰) इसी नाम का जप अर्थात् स्मरण और उसी का अर्थविचार सदा करना चाहिये कि जिस से उपासक का मन एकाग्रता, प्रसन्नता और ज्ञान को यथावत् प्राप्त होकर स्थिर हो। जिस से उस के हृदय में परमात्मा का प्रकाश और परमेश्वर की प्रेम-भक्ति सदा बढ़ती जाय॥17॥


फिर उससे उपासकों को यह भी फल होता है कि-


किं चास्य भवति -


ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च॥18॥


-अ॰ 1। पा॰ 1। सू॰ 29॥


भा॰ - ये तावदन्तरायाः व्याधिप्रभृतयस्ते तावदीश्वर-प्रणिधानान्न भवन्ति। स्वरूपदर्शनमप्यस्य भवति। यथैवेश्वरः पुरुषः शुद्धः प्रसन्नः केवलः अनुपसर्गः तथायमपि बुद्धेः प्रतिसंवेदी यः पुरुष इत्येवमधिगच्छति॥18॥


अथ केऽन्तरायाः ये चित्तस्य विक्षेपकाः। के पुनस्ते कियन्तो वेति -


व्याधिस्त्यानसंशय-प्रमादालस्याविरतिभ्रान्ति-दर्शनालब्ध-भूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्त-विक्षेपास्तेऽन्तरायाः॥19॥


-अ॰ 1। पा॰ 1। सू॰ 30॥


भा॰ - नवान्तरायाश्चित्तस्य विक्षेपाः। सहैते चित्तवृत्तिभिर्भवन्त्येतेषामभावे न भवन्ति। पूर्वोक्ताश्चित्तवृत्तयः। व्याधिर्धातु-रसकरणवैषम्यम्। स्त्यानमकर्मण्यता चित्तस्य। संशय उभयकोटिस्पृक् विज्ञानं , स्यादिदम् एवं नैवं स्यादिति। प्रमादः समाधिसाधनानामभावनम्। आलस्यं कायस्य चित्तस्य च गुरुत्वादप्रवृत्तिः। अविरतिश्चित्तस्य विषयसम्प्रयोगात्मा गर्द्धः। भ्रान्तिदर्शनं विपर्य्ययज्ञानम्। अलब्धभूमिकत्वं समाधिभूमेरलाभः। अनवस्थितत्वं यल्लब्धायां भूमौ चित्तस्याप्रतिष्ठा , समाधिप्रतिलम्भे हि सति तदवस्थितं स्यादिति। एते चित्तविक्षेपाः नव योगमलाः , योगप्रतिपक्षा योगान्तराया इत्यभिधीयन्ते॥19॥


दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्व-श्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः॥20॥


-अ॰ 1। पा॰ 1। सू॰ 31॥


भा॰ - दुःखमाध्यात्मिकम् , आधिभौतिकम् , आधिदैविकं च। येनाभिहताः प्राणिनस्तदुपघाताय प्रयतन्ते तद्दुःखम्। दौर्मनस्यम् - इच्छाभिघाताच्चेतसः क्षोभः। यदङ्गान्येजयति कम्पयति तदङ्गमेजयत्वम्। प्राणो यद्बाह्यं वायुमाचामति स श्वासः। यत्कौष्ठ्यं वायुं निस्सारयति स प्रश्वासः। विक्षेपसहभुवो विक्षिप्तचित्तस्यैते भवन्ति समाहितचित्तस्यैते न भवन्ति॥20॥


अथैते विक्षेपाः समाधिप्रतिपक्षाः ताभ्यामेवाभ्यास-वैराग्याभ्यां निरोद्धव्याः। तत्राभ्यासस्य विषयमुपसंहरन्निदमाह -


तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः॥21॥


-अ॰ 1। पा॰ 1। सू॰ 32॥


भा॰ - विक्षेपप्रतिषेधार्थमेकतत्त्वावलम्बनं चित्तमभ्यस्येत्। यस्य तु प्रत्यर्थनियतं प्रत्ययमात्रं क्षणिकं च चित्तं , तस्य सर्वमेव चित्तमेकाग्रं , नास्त्येव विक्षिप्तं यदि पुनरिदं सर्वतः प्रत्याहृत्यैकस्मिन्नर्थे समाधीयते तदा भवत्येकाग्रमित्यतो न प्रत्यर्थनियतम्।


योऽपि सदृशप्रत्ययप्रवाहेण चित्तमेकाग्रं मन्यते , तस्यैकाग्रता यदि प्रवाहचित्तस्य धर्मः , तदैकं नास्ति प्रवाहचित्तं , क्षणिकत्वात्। अथ प्रवाहांशस्यैव प्रत्ययस्य धर्मः , स सर्वः सदृश- प्रत्ययप्रवाही वा विसदृश-प्रत्ययप्रवाही वा , प्रत्यर्थनियतत्वादेकाग्र एवेति विक्षिप्त-चित्तानुपपत्तिः। तस्मादेकमनेकार्थमवस्थितं चित्तमिति।


यदि च चित्तेनैकेनानन्विताः स्वभावभिन्नाः प्रत्यया जायेरन् , अथ कथमन्यप्रत्यय-दृष्टस्यान्यः स्मर्त्ता भवेत्। अन्यप्रत्ययोपचितस्य च कर्माशयस्यान्यः प्रत्यय उपभोक्ता भवेत्। कथञ्चित्समाधीयमानमप्येतद् गोमयपायसीयं न्यायमाक्षिपति। किञ्च स्वात्मानुभवापह्नवः चित्तस्यान्यत्वे प्राप्नोति। कथम् , यदहमद्राक्षं तत् स्पृशामि , यच्चास्पार्क्षं तत्पश्यामीति। अहमिति प्रत्ययः कथमत्यन्तभिन्नेषु चित्तेषु वर्त्तमानः सामान्यमेकं प्रत्ययिनमाश्रयेत् ? स्वानुभवग्राह्यश्चायमभेदात्मा अहमिति प्रत्ययः। न च प्रत्यक्षस्य माहात्म्यं प्रमाणान्तरेणाभिभूयते। प्रमाणान्तरञ्च प्रत्यक्षबलेनैव व्यवहारं लभते। तस्मादेकमनेकार्थमवस्थितं च चित्तम्॥21॥


यस्येदं शास्त्रेण परिकर्म निर्दिश्यते तत्कथम् -


भाषार्थ - इस मनुष्य को क्या होता है? (ततः प्र॰) अर्थात् उस अन्तर्यामी परमात्मा की प्राप्ति, और (अन्तराय) उसके अविद्यादि क्लेशों तथा रोगरूप विघ्नों का नाश हो जाता है॥18॥


वे विघ्न नव प्रकार के हैं-(व्याधि) एक व्याधि अर्थात् धातुओं की विषमता से ज्वर आदि पीड़ा का होना। (दूसरा) (स्त्यान) अर्थात् सत्य कर्मों में अप्रीति। (तीसरा) (संशय) अर्थात् जिस पदार्थ का निश्चय किया चाहे, उसका यथावत् ज्ञान न होना। (चौथा) (प्रमाद) अर्थात् समाधि-साधनों के ग्रहण में प्रीति और उनका विचार यथावत् न होना। (पांचवां) (आलस्य) अर्थात् शरीर और मन में आराम की इच्छा से पुरुषार्थ छोड़ बैठना (छठा) (अविरति) अर्थात् विषय सेवा में तृष्णा का होना (सातवां) (भ्रान्तिदर्शन) अर्थात् उलटे ज्ञान का होना, जैसे जड़ में चेतन और चेतन में जड़बुद्धि करना तथा ईश्वर में अनीश्वर और अनीश्वर में ईश्वरभाव करके पूजा करना। (आठवां) (अलब्धभूमिकत्व) अर्थात् समाधि की प्राप्ति न होना और (नववां) (अनवस्थितत्व) अर्थात् समाधि की प्राप्ति होने पर भी उस में चित्त स्थिर न होना। ये सब चित्त की समाधि होने में विक्षेप अर्थात् उपासनायोग के शत्रु हैं॥19॥


अब इन के फल लिखते हैं- (दुःखदौर्म॰) अर्थात् दुःख की प्राप्ति, मन का दुष्ट होना, शरीर के अवयवों का कंपना, श्वास और प्रश्वास के अत्यन्त वेग से चलने में अनेक प्रकार के क्लेशों का होना, जो कि चित्त को विक्षिप्त कर देते हैं। ये सब क्लेश अशान्त चित्तवाले को प्राप्त होते हैं, शान्त चित्तवाले को नहीं॥20॥


और उन के छुड़ाने का मुख्य उपाय यही है कि- (तत्प्रतिषेधा॰) जो केवल एक अद्वितीय ब्रह्मतत्त्व है उसी में प्रेम और सर्वदा उसी की आज्ञापालन में पुरुषार्थ करना है, वही एक उन विघ्नों के नाश करने का वज्ररूप शस्त्र है, अन्य कोई नहीं। इसलिये सब मनुष्यों को अच्छी प्रकार प्रेमभाव से परमेश्वर के उपासनायोग में नित्य पुरुषार्थ करना चाहिए कि जिस से वे सब विघ्न दूर हो जायें॥21॥


आगे जिस भावना से उपासना करने वाले को व्यवहार में अपने चित्त को प्रसन्न करना होता है सो कहते हैं-


मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्य-विषयाणां भावनातश्चित्त-प्रसादनम्॥22॥


-अ॰ 1। पा॰ 1। सू॰ 33॥


भा॰ - तत्र सर्वप्राणिषु सुखसम्भोगापन्नेषु मैत्रीं भावयेत् , दुःखितेषु करुणां , पुण्यात्मकेषु मुदिताम् , अपुण्यशीलेषूपेक्षाम्। एवमस्य भावयतः शुक्लो धर्म उपजायते। ततश्च चित्तं प्रसीदति , प्रसन्नमेकाग्रं स्थितिपदं लभते॥22॥


प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य॥23॥


-अ॰ 1। पा॰ 1। सू॰ 34॥


भा॰ - कोष्ठ्यस्य वायोर्नासिकापुटाभ्यां प्रयत्नविशेषाद्वमनं प्रच्छर्दनं विधारणं प्राणायामः। ताभ्यां वा मनसः स्थितिं सम्पादयेत्। छर्दनं भक्षितान्नवमनवत् प्रयत्नेन शरीरस्थं प्राणं बाह्यदेशं निस्सार्य्य यथाशक्ति बहिरेव स्तम्भनेन चित्तस्य स्थिरता सम्पादनीया॥23॥


योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञान-दीप्तिराविवेक-ख्यातेः॥24॥


-अ॰ 1। पा॰ 2। सू॰ 28॥


एषामुपासनायोगाङ्गाना-मनुष्ठानाचरणादशुद्धिरज्ञानं प्रतिदिनं क्षीणं भवति , ज्ञानस्य च वृद्धिर्यावन्मोक्ष-प्राप्तिर्भवति॥24॥


यम-नियमासन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणाध्यान-समाधयो-ऽष्टावङ्गानि॥25॥


-अ॰ 1। पा॰ 2। सू॰ 29॥


तत्राहिंसासत्यास्तेय-ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः॥26॥


-अ॰ 1। पा॰ 2। सू॰ 30॥


भा॰ - तत्राहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोहः। उत्तरे च यसनियमास्तन्मूलास्तत्सिद्धिपरतया तत्प्रतिपादनाय प्रतिपाद्यन्ते। तदवदातरूपकारणायैवोपादीयन्ते। (तथा चोक्तम्) - स खल्वयं ब्राह्मणो यथा यथा व्रतानि बहूनि समादित्सते तथा तथा प्रमादकृतेभ्यो हिंसानिदानेभ्यो निवर्त्तमानस्तामेवावदात-रूपामहिंसां करोति।


सत्यं यथार्थे वाङ् मनसे। यथा दृष्टं यथाऽनुमितं यथा श्रुतं तथा वाङ्मनश्चेति। परत्र स्वबोधसङ्क्रान्तये वागुक्ता , सा यदि न वञ्चिता भ्रान्ता वा प्रतिपत्तिवन्ध्या वा भवेत् , इत्येषा सर्वभूतोपकारार्थं प्रवृत्ता , न भूतोपघाताय। यदि चैवमप्यभिधीयमाना भूतोपघातपरैव स्यान्न सत्यं भवेत् , पापमेव भवेत्। तेन पुण्याभासेन पुण्यप्रकृतिरूपकेण कष्टं तमः प्राप्नुयात्। तस्मात्परीक्ष्य सर्वभूतहितं सत्यं ब्रूयात्।


स्तेयमशास्त्रपूर्वकं द्रव्याणां परतः स्वीकरणं , तत्प्रतिषेधः पुनरस्पृहारूपाख्यमस्तेयमिति। ब्रह्मचर्य्यं गुप्तेन्द्रियस्योपस्थस्य संयमः।


विषयाणामर्जन-रक्षण-क्षय-सङ्ग-हिंसा-दोष-दर्शनादस्वीकरणमपरिग्रह इत्येते यमाः॥26॥


एषां विवरणं प्राकृतभाषायां वक्ष्यते।


भाषार्थ - (मैत्री) अर्थात् इस संसार में जितने मनुष्य आदि प्राणी सुखी हैं, उन सबों के साथ मित्रता करना। दुःखियों पर कृपादृष्टि रखनी। पुण्यात्माओं के साथ प्रसन्नता। पापियों के साथ उपेक्षा अर्थात् न उनके साथ प्रीति रखना और न वैर ही करना। इस प्रकार के वर्तमान से उपासक के आत्मा में सत्यधर्म का प्रकाश और उसका मन स्थिरता को प्राप्त होता है॥22॥


(प्रच्छर्दन॰) जैसे भोजन के पीछे किसी प्रकार से वमन हो जाता है वैसे ही भीतर के वायु को बाहर निकाल के सुखपूर्वक जितना बन सके उतना बाहर ही रोक दे। पुनः धीरे धीरे भीतर लेके पुनरपि ऐसे ही करे। इसी प्रकार वारंवार अभ्यास करने से प्राण उपासक के वश में हो जाता है और प्राण के स्थिर होने से मन, मन के स्थिर होने से आत्मा भी स्थिर हो जाता है। इन तीनों के स्थिर होने के समय अपने आत्मा के बीच में जो आनन्दस्वरूप अन्तर्यामी व्यापक परमेश्वर है, उस के स्वरूप में मग्न हो जाना चाहिये। जैसे मनुष्य जल में गोता मारकर ऊपर आता है, फिर गोता लगा जाता है, इसी प्रकार अपने आत्मा को परमेश्वर के बीच में वारंवार मग्न करना चाहिए॥23॥


(योगाङ्गानु॰) आगे जो उपासनायोग के आठ अङ्ग लिखते हैं, जिन के अनुष्ठान से अविद्यादि दोषों का क्षय और ज्ञान के प्रकाश की वृद्धि होने से जीव यथावत् मोक्ष को प्राप्त हो जाता है॥24॥


(यमनियमा॰) अर्थात् एक (यम) दूसरा (नियम) तीसरा (आसन) चौथा (प्राणायाम) पांचवां (प्रत्याहार) छठा (धारणा) सातवां (ध्यान) और आठवां (समाधि) ये सब उपासनायोग के अङ्ग कहाते हैं और आठ अङ्गों का सिद्धान्तरूप फल संयम है॥25॥


(तत्राहिंसा॰) उन आठों में से पहला यम है। सो पांच प्रकार का है- एक (अहिंसा॰) अर्थात् सब प्रकार से, सब काल में सब प्राणियों के साथ वैर छोड़ के प्रेम प्रीति से वर्तना। दूसरा (सत्य)- अर्थात् जैसा अपने ज्ञान में हो वैसा ही सत्य बोले, करे और माने। तीसरा (अस्तेय)- अर्थात् पदार्थवाले की आज्ञा के विना किसी पदार्थ की इच्छा भी न करना, इसी को चोरीत्याग कहते हैं। चौथा (ब्रह्मचर्य्य)- अर्थात् विद्या पढ़ने के लिए बाल्यावस्था से लेकर सर्वथा जितेन्द्रिय होना और पच्चीसवें वर्ष से लेके अड़तालीस वर्ष पर्य्यन्त विवाह का करना, परस्त्री, वेश्या आदि का त्यागना, सदा ऋतुगामी होना; विद्या को ठीक ठीक पढ़ के सदा पढ़ाते रहना; और उपस्थ इन्द्रिय का सदा नियम करना। पांचवां (अपरिग्रह)- अर्थात् विषय और अभिमानादि दोषों से रहित होना। इन पांचों का ठीक ठीक अनुष्ठान करने से उपासना का बीज बोया जाता है॥26॥


दूसरा अंग उपासना का नियम है जो कि पांच प्रकार का है-


ते तु -


शौच-सन्तोष-तपः-स्वाध्यायेश्वर-प्रणिधानानि नियमाः॥27॥


-अ॰ 1। पा॰ 2। सू॰ 32॥


शौचं बाह्यमाभ्यन्तरं च। बाह्यं जलादिनाऽऽभ्यन्तरं रागद्वेषाऽसत्यादित्यागेन च कार्यम्। सन्तोषो धर्मानुष्ठानेन सम्यक् प्रसन्नता सम्पादनीया। तपः सदैव धर्मानुष्ठानमेव कर्त्तव्यम्। वेदादिसत्य-शास्त्राणाम-ध्ययनाध्यापने प्रणवजपो वा। ईश्वरप्रणिधानम् परमगुरवे परमेश्वराय सर्वात्मादि-द्रव्य-समर्पणमित्युपासनायाः पञ्च नियमा द्वितीयमङ्गम्॥27॥


अथाहिंसाधर्मस्य फलम्-


अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः॥28॥


अथ सत्याचरणस्य फलम्-


सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्॥29॥


अथ चौरीत्यागफलम्-


अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्॥30॥


अथ ब्रह्मचर्य्याश्रमानुष्ठानेन यल्लभ्यते , तदुच्यते - ब्रह्मचर्य-प्रतिष्ठायां वीर्यलाभः॥31॥


अथापरिग्रहफलमुच्यते-


अपिरग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासम्बोधः॥32॥


अथ शौचानुष्ठानफलम्-


शौचात्स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः॥33॥


किञ्च सत्त्वशुद्धि-सौमनस्यैकाग्रेन्द्रिय-जयात्मदर्शन-योग्यत्वानि च॥34॥


सन्तोषादनुत्तमसुखलाभः॥35॥


कायेन्द्रिय-सिद्धिरशुद्धि-क्षयात्तपसः॥36॥


स्वाध्यायादिष्टदेवता सम्प्रयोगः॥37॥


समाधि-सिद्धिरीश्वर-प्रणिधानात्॥38॥


-योग॰ अ॰ 1। पा॰ 2। सू॰ 35। 36। 37। 38। 39। 40। 41। 42। 43। 44। 45॥


भाषार्थ - (पहला) (शौच)- अर्थात् पवित्रता करनी सो भी दो प्रकार की है-एक भीतर की और दूसरी बाहर की। भीतर की शुद्धि धर्माचरण, सत्यभाषण विद्याभ्यास, सत्सङ्ग आदि शुभगुणों के आचरण से होती है और बाहर की पवित्रता जल आदि से शरीर, स्थान, मार्ग, वस्त्र, खाना, पीना आदि शुद्ध करने से होती है। (दूसरा) (सन्तोष)- जो सदा धर्मानुष्ठान से अत्यन्त पुरुषार्थ करके प्रसन्न रहना और दुःख में शोकातुर न होना किन्तु आलस्य का नाम सन्तोष नहीं है। (तीसरा) (तपः)- जैसे सोने को अग्नि में तपा के निर्मल कर देते हैं, वैसे ही आत्मा और मन को धर्माचरण और शुभगुणों के आचरणरूप तप से निर्मल कर देना। (चौथा) (स्वाध्याय)- अर्थात् मोक्षविद्या-विधायक वेद शास्त्र का पढ़ना पढ़ाना और ओङ्कार के विचार से ईश्वर का निश्चय करना कराना और (पांचवां) (ईश्वरप्रणिधानम्)- अर्थात् सब सामर्थ्य, सब गुण, प्राण, आत्मा और मन के प्रेमभाव से आत्मादि सत्य द्रव्यों का ईश्वर के लिए समर्पण करना। ये पांच नियम भी उपासना का दूसरा अङ्ग हैं॥27॥


अब पांच यम और पांच नियमों के यथावत् अनुष्ठान का फल कहते हैं- (अहिंसाप्र॰) अर्थात् जब अहिंसा धर्म निश्चय हो जाता है तब उस पुरुष के मन से वैरभाव छूट जाता है किन्तु उसके सामने वा उस के सङ्ग से अन्य पुरुष का भी वैरभाव छूट जाता है॥28॥


(सत्यप्र॰) तथा सत्याचरण का ठीक ठीक फल यह है कि जब मनुष्य निश्चय करके केवल सत्य ही मानता, बोलता और करता है, तब वह जो जो योग्य काम करता और करना चाहता है, वे वे सब सफल हो जाते हैं॥29॥


चोरीत्याग करने से यह बात होती है कि (अस्तेय॰) अर्थात् जब मनुष्य अपने शुद्ध मन से चोरी के छोड़ देने से प्रतिज्ञा कर लेता है, तब उस को सब उत्तम-उत्तम पदार्थ यथायोग्य प्राप्त होने लगते हैं और चोरी इस का नाम है कि मालिक की आज्ञा के विना अधर्म से उस की चीज को कपट से वा छिपाकर ले लेना॥30॥


(ब्रह्मचर्य॰) ब्रह्मचर्य सेवन से यह बात होती है कि जब मनुष्य बाल्यावस्था में विवाह न करे, उपस्थ इन्द्रिय का संयम रखे, वेदादि शास्त्रों को पढ़ता पढ़ाता रहे, विवाह के पीछे भी ऋतुगामी बना रहे और परस्त्रीगमन आदि व्यभिचार को मन, कर्म, वचन से त्याग देवे, तब दो प्रकार का वीर्य अर्थात् बल बढ़ता है- एक शरीर का, दूसरा बुद्धि का। उस के बढ़ने से मनुष्य अत्यन्त आनन्द में रहता है॥31॥


(अपरिग्रहस्थै॰) अपरिग्रह का फल यह है कि जब मनुष्य विषयासक्ति से बचकर सर्वथा जितेन्द्रिय रहता है, तब मैं कौन हूं, कहां से आया हूं और मुझ को क्या करना चाहिए अर्थात् क्या काम करने से मेरा कल्याण होगा, इत्यादि शुभ गुणों का विचार उस के मन में स्थिर होता है। ये ही पांच यम कहाते हैं। इन का ग्रहण करना उपासकों को अवश्य चाहिए॥32॥


परन्तु यमों का नियम सहकारी कारण है, जो कि उपासना का दूसरा अङ्ग कहाता है, और जिस का साधन करने से उपासक लोगों का अत्यन्त सहाय होता है। सो भी पांच प्रकार का है। उन में से प्रथम शौच का फल लिखा जाता है-


(शौचात्स्वा॰) पूर्वोक्त दो प्रकार के शौच करने से भी जब अपना शरीर और उस के सब अवयव बाहर भीतर से मलीन ही रहते हैं, तब औरों के शरीर की भी परीक्षा होती है कि सब के शरीर मल आदि से भरे हुए हैं, इस ज्ञान से वह योगी दूसरे से अपना शरीर मिलाने में घृणा अर्थात् सङ्कोच करके सदा अलग रहता है॥33॥


और उसका फल यह है कि (किञ्च॰) अर्थात् शौच से अन्तःकरण की शुद्धि, मन की प्रसन्नता और एकाग्रता, इन्द्रियों का जय तथा आत्मा के देखने अर्थात् जानने की योग्यता प्राप्त होती है॥34॥


तदनन्तर (सन्तोषाद॰) अर्थात् पूर्वोक्त सन्तोष से जो सुख मिलता है, वह सब से उत्तम है और उसी को मोक्षसुख कहते हैं॥35॥


(कायेन्द्रिय॰) अर्थात् पूर्वोक्त तप से उन के शरीर और इन्द्रियां अशुद्धि के क्षय से दृढ़ होके सदा रोगरहित रहते हैं॥36॥


तथा (स्वाध्याय॰) पूर्वोक्त स्वाध्याय से इष्टदेवता अर्थात् परमात्मा के साथ सम्प्रयोग अर्थात् साझा होता है फिर परमेश्वर के अनुग्रह का सहाय, अपने आत्मा की शुद्धि, सत्याचरण, पुरुषार्थ और प्रेम के सम्प्रयोग से जीव शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त होता है॥37॥


तथा (समाधि॰) पूर्वोक्त प्रणिधान से उपासक मनुष्य सुगमता से समाधि को प्राप्त होता है॥38॥ तथा-


तत्र स्थिरसुखमासनम्॥39॥


-अ॰ 1। पा॰ 2। सू॰ 46॥


भा॰ - तद्यथा पद्मासनं , वीरासनं , भद्रासनं , स्वस्तिकं , दण्डासनं , सोपाश्रयं , पर्य्यङ्कं , क्रौञ्चनिषदनं , हस्तिनिषदनम् , उष्ट्रनिषदनं , समसंस्थानं , स्थिरसुखं , यथासुखं चेत्येवमादीनि। पद्मासनादिकमासनं विदध्यात् , यद्वा यादृशीच्छा तादृशमासनं कुर्य्यात्॥39॥


ततो द्वन्द्वानभिघातः॥40॥


-अ॰ 1। पा॰ 2। सू॰ 48॥


भा॰ - शीतोष्णादिभिर्द्वन्द्वैरासनजयान्नाभिभयते॥40॥


तस्मिन् सति श्वास-प्रश्वासयोर्गति-विच्छेदः प्राणायामः॥41॥


-अ॰ 1। पा॰ 2। सू॰ 49॥


भा॰ - सत्यासनजये बाह्यस्य वायोराचमनं श्वासः , कोष्ठ्यस्य वायोर्निस्सारणं प्रश्वासस्तयोर्गतिविच्छेद उभयाभावः प्राणायामः। आसने सम्यक् सिद्धे कृते बाह्याभ्यन्तर-गमनशीलस्य वायोर्युक्त्या शनैः शनैरभ्यासेन जयकरणमर्थात् स्थिरीकृत्य गत्यभावकरणं प्राणायामः॥41॥


स तु बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिर्देश-कालसंख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः॥42॥


-अ॰ 1। पा॰ 2। सू॰ 50॥


भा॰ - यत्र प्रश्वासपूर्वको गत्यभावः स बाह्यः। यत्र श्वासपूर्वको गत्यभावः स आभ्यन्तरः। तृतीयः स्तम्भवृत्तिर्यत्रोभयाभावः सकृत्प्रयत्नाद्भवति। यथा तप्ते न्यस्तमुपले


जलं सर्वतः सङ्कोचमापद्यते तथा द्वयोर्युगपद्गत्यभाव इति।


बालबुद्धिभिरङ्गुल्यङ्गुष्ठाभ्यां नासिकाछिद्रमवरुध्य यः प्राणायामः क्रियते स खलु शिष्टैस्त्याज्य एवास्ति। किन्त्वत्र बाह्याभ्यन्तराङ्गेषु शान्तिशैथिल्ये सम्पाद्य सर्वाङ्गेषु यथावत् स्थितेषु सत्सु , बाह्यदेशं गतं प्राणं तत्रैव यथाशक्ति संरुध्य प्रथमो बाह्याख्यः प्राणायामः कर्त्तव्यः। तथोपासकैर्यो बाह्याद्देशादन्तःप्रविशति तस्याभ्यन्तर एव यथाशक्ति निरोधः क्रियते , स आभ्यन्तरो द्वितीयः सेवनीयः। एवं बाह्याभ्यन्तराभ्यामनुष्ठिताभ्यां द्वाभ्यां कदाचिदुभयोर्युगपत्संरोधो यः क्रियते स स्तम्भवृत्तिस्तृतीयः प्राणायामोऽभ्यसनीयः॥42॥


बाह्याभ्यान्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः॥43॥


-अ॰ 1। पा॰ 2। सू॰ 51॥


भा॰ - देशकाल-संख्याभिर्बाह्यविषयः परिदृष्ट आक्षिप्तः तथाऽऽभ्यन्तरविषयः परिदृष्ट आक्षिप्त उभयथा दीर्घसूक्ष्मः। तत्पूर्वको भूमिजयात् क्रमेणोभयोर्गत्यभावश्चतुर्थः प्राणायामः। तृतीयस्तु विषयानालोचितो गत्यभावः सकृदारब्ध एव देशकालसङ् ख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मश्चतुर्थस्तु श्वास-प्रश्वासयोर्विषयावधारणात् क्रमेण भूमिजयादुभयाक्षेपपूर्वको गत्यभावश्चतुर्थः प्राणायाम इत्ययं विशेष इति।


यः प्राणायाम उभयाक्षेपी स चतुर्थो गद्यते। तद्यथा यदोदराद् बाह्यदेशं प्रतिगन्तुं प्रथमक्षणे प्रवर्त्तते तं संलक्ष्य पुनः बाह्यदेशं प्रत्येव प्राणाः प्रक्षेप्तव्याः। पुनश्च यदा बाह्याद्देशादाभ्यन्तरं प्रथममागच्छेत्तमाभ्यन्तर एव पुनः पुनः यथाशक्ति गृहीत्वा तत्रैव स्तम्भयेत्स द्वितीयः। एवं द्वयोरेतयोः क्रमेणाभ्यासेन गत्यभावः क्रियते स चतुर्थः प्राणायामः। यस्तु खलु तृतीयोऽस्ति स नैव बाह्याभ्यन्तराभ्यासस्यापेक्षां करोति किन्तु यत्र यत्र देशे प्राणो वर्त्तते तत्र तत्रैव सकृत्स्तम्भनीयः। यथा किमप्यद्भुतं दृष्ट्वा मनुष्यश्चकितो भवति तथैव कार्य्यमित्यर्थः॥43॥


भाषार्थ - (तत्र स्थिर॰) अर्थात् जिस में सुखपूर्वक शरीर और आत्मा स्थिर हो, उस को आसन कहते हैं अथवा जैसी रुचि हो वैसा आसन करे॥39॥


(ततो द्वन्द्वा॰) जब आसन दृढ़ होता है, तब उपासना करने में कुछ परिश्रम करना नहीं पड़ता है और न सर्दी गर्मी अधिक बाधा करती है॥40॥


(तस्मिन्सति॰) जो वायु बाहर से भीतर को आता है, उसको श्वास और जो भीतर से बाहर जाता है, उस को प्रश्वास कहते हैं। उन दोनों के जाने आने के विचार से रोके। नासिका को हाथ से कभी न पकड़े किन्तु ज्ञान से ही उन के रोकने को प्राणायाम कहते हैं॥41॥


और यह प्राणायाम चार प्रकार से होता है- (स तु बाह्या॰) अर्थात् एक बाह्यविषय, दूसरा आभ्यन्तरविषय, तीसरा स्तम्भवृत्ति॥42॥


और चौथा जो बाहर भीतर रोकने से होता है अर्थात् जो कि (बाह्याभ्य॰) इस सूत्र का विषय है वे चार प्राणायाम इस प्रकार के होते हैं कि- जब भीतर से बाहर को श्वास निकले, तब उस को बाहर ही रोक दे, इस को प्रथम प्राणायाम कहते हैं। जब बाहर से श्वास भीतर को आवे, तब उस को जितना रोक सके, उतना भीतर ही रोक दे, इस को दूसरा प्राणायाम कहते हैं। तीसरा स्तम्भवृत्ति है कि न प्राण को बाहर निकाले और न बाहर से भीतर ले जाय किन्तु जितनी देर सुख से हो सके उस को जहां का तहां ज्यों का त्यों एकदम रोक दे और चौथा यह है कि जब श्वास भीतर से बाहर को आवे, तब बाहर ही कुछ-कुछ रोकता रहे और जब बाहर से भीतर जावे, तब उस को भीतर ही थोड़ा-थोड़ा रोकता रहे, इस को बाह्याभ्यन्तराक्षेपी कहते हैं और इन चारों का अनुष्ठान इसलिये है कि जिस से चित्त निर्मल होकर उपासना में स्थिर रहे॥43॥


ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्॥44॥


-अ॰ 1। पा॰ 2। सू॰ 52॥


एवं प्राणायामाभ्यासाद् यत्परमेश्वरस्यान्तर्यामिनः प्रकाशे सत्यविवेकस्यावरणाख्यमज्ञानमस्ति , तत्क्षीयते क्षयं प्राप्नोतीति॥44॥


किञ्च धारणासु च योग्यता मनसः॥45॥


-अ॰ 1। पा॰ 2। सू॰ 53॥


भाष्यम् - प्राणायामाभ्यासादेव प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्येति वचनात् प्राणायामानुष्ठानेनो-पासकानां मनसो ब्रह्मध्याने सम्यग्योग्यता भवति॥45॥


अथ कः प्रत्याहारः -


स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः॥46॥


-अ॰ 1। पा॰ 2। सू॰ 54॥


यदा चित्तं जितं भवति , परमेश्वर-स्मरणालम्बनाद्विषयान्तरे नैव गच्छति , तदेन्द्रियाणां प्रत्याहारोऽर्थान्निरोधो भवति। कस्य केषामिव ? यथा चित्तं परमेश्वरस्वरूपस्थं भवति तथैवेन्द्रियाण्यप्यर्थाच्चित्ते जिते सर्वमिन्द्रियादिकं जितं भवतीति विज्ञेयम्॥46॥


ततः परमावश्यतेन्द्रियाणाम्॥47॥


-अ॰ 1। पा॰ 2। सू॰ 55॥


ततस्तदनन्तरं स्वस्वविषयासम्प्रयोगेऽर्थात् स्वविषयान्निवृत्तौ सत्यामिन्द्रियाणां परमा वश्यता यथावद्विजयो जायते। स उपासको यदा यदेश्वरोपासनं कर्त्तुं प्रवर्त्तते , तदा तदैव चित्तस्येन्द्रियाणां च वश्यत्वं कर्त्तुं शक्नोतीति॥47॥


देशबन्धश्चित्तस्य धारणा॥48॥


-अ॰ 1। पा॰ 3। सू॰ 1॥


नाभिचक्रे हृदयपुण्डरीके , मूर्ध्नि , ज्योतिषि , नासिकाग्रे , जिह्वाग्र इत्येवमादिषु देशेषु बाह्ये वा विषये चित्तस्य वृत्तिमात्रेण बन्ध इति बन्धो धारणा बाह्यविषये अर्थादोङ्कारे विन्दौ वा॥48॥


तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्॥49॥


-अ॰ 1। पा॰ 3। सू॰ 2॥


भा॰ - तस्मिन् देशे ध्येयालम्बनस्य प्रत्ययस्यैकतानता सदृशः प्रवाहः प्रत्ययान्तरेण परामृष्टो ध्यानम्॥49॥


तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः॥50॥


-अ॰ 1। पा॰ 3। सू॰ 3॥


ध्यानसमाध्योरयं भेदः , ध्याने मनसो ध्यातृध्यानध्येयाकारेण विद्यमाना वृत्तिर्भवति समाधौ तु परमेश्वरस्वरूपे तदानन्दे च मग्नः स्वरूपशून्य इव भवतीति॥50॥


त्रयमेकत्र संयमः॥51॥


-अ॰ 1। पा॰ 3। सू॰ 4॥


भा॰ - तदेतद् धारणा-ध्यान-समाधि-त्रयमेकत्र संयमः। एकविषयाणि त्रीणि साधनानि संयम इत्युच्यते। तदस्य त्रयस्य तान्त्रिकी परिभाषा संयम इति। संयमश्चोपासनाया नवमाङ्गम्॥51॥


भाषार्थ - (ततः) इस प्रकार प्राणायामपूर्वक उपासना करने से आत्मा के ज्ञान का आवरण = ढांपनेवाला जो अज्ञान है, वह नित्यप्रति नष्ट होता जाता है और ज्ञान का प्रकाश धीरे-धीरे बढ़ता जाता है॥44॥


उस अभ्यास से यह भी फल होता है कि- (किञ्च धारणा॰) परमेश्वर के बीच में मन और आत्मा की धारणा होने से मोक्षपर्यन्त उपासनायोग और ज्ञान की योग्यता बढ़ती जाती है तथा उस से व्यवहार और परमार्थ का विवेक भी बराबर बढ़ता रहता है। इसी प्रकार प्राणायाम करने से भी जान लेना॥45॥


(स्वविषया॰) प्रत्याहार उसका नाम है कि जब पुरुष अपने मन को जीत लेता है, तब इन्द्रियों का जीतना अपने आप हो जाता है क्योंकि मन ही इन्द्रियों का चलानेवाला है॥46॥


(ततः पर॰) तब वह मनुष्य जितेन्द्रिय होके जहां अपने मन को ठहराना व चलाना चाहे, उसी में ठहरा और चला सकता है। फिर उस को ज्ञान हो जाने से सदा सत्य में ही प्रीति हो जाती है, असत्य में कभी नहीं॥47॥


(देशब॰) जब उपासनायोग के पूर्वोक्त पांचों अङ्ग सिद्ध हो जाते हैं, तब उस का छठा अङ्ग धारणा भी यथावत् प्राप्त होती है। 'धारणा' उस को कहते हैं कि मन को चञ्चलता से छुड़ा के नाभि, हृदय, मस्तक, नासिका और जीभ के अग्रभाग आदि देशों में स्थिर करके ओङ्कार का जप और उस का अर्थ जो परमेश्वर है उस का विचार करना॥48॥


तथा (तत्र प्र॰) धारणा के पीछे उसी देश में ध्यान करने और आश्रय लेने के योग्य जो अन्तर्यामी व्यापक परमेश्वर है, उस के प्रकाश और आनन्द में, अत्यन्त विचार और प्रेम भक्ति के साथ इस प्रकार प्रवेश करना कि जैसे समुद्र के बीच में नदी प्रवेश करती है। उस समय में ईश्वर को छोड़ किसी अन्य पदार्थ का स्मरण नहीं करना, किन्तु उसी अन्तर्यामी के स्वरूप और ज्ञान में मग्न हो जाना। इसी का नाम ध्यान है। 49॥


इन सात अङ्गों का फल समाधि है- (तदेवार्थ॰) जैसे अग्नि के बीच में लोहा भी अग्निरूप हो जाता है, इसी प्रकार परमेश्वर के ज्ञान में प्रकाशमय होके, अपने शरीर को भी भूले हुए के समान जान के आत्मा को परमेश्वर के प्रकाशस्वरूप आनन्द और ज्ञान से परिपूर्ण करने को समाधि कहते हैं। ध्यान और समाधि में इतना ही भेद है कि ध्यान में तो ध्यान करने वाला, जिस मन से, जिस चीज का ध्यान करता है, वे तीनों विद्यमान रहते हैं। परन्तु समाधि में केवल परमेश्वर ही के आनन्दस्वरूप ज्ञान में आत्मा मग्न हो जाता है। वहां तीनों का भेदभाव नहीं रहता। जैसे मनुष्य जल में डुबकी मारके थोड़ा समय भीतर ही रुका रहता है, वैसे ही जीवात्मा परमेश्वर के बीच में मग्न हो के फिर बाहर को आ जाता है॥50॥


(त्रयमेकत्र॰) जिस देश में धारणा की जाय, उसी में ध्यान और उसी में समाधि अर्थात् ध्यान करने के योग्य परमेश्वर में मग्न हो जाने को संयम कहते हैं। जो एक ही काल में तीनों का मेल होना है अर्थात् धारणा से संयुक्त ध्यान और ध्यान से संयुक्त समाधि होती है, उन में बहुत सूक्ष्म काल का भेद रहता है। परन्तु जब समाधि होती है, तब आनन्द के बीच में तीनों का फल एक ही हो जाता है॥51॥


अथोपासनाविषये उपनिषदां प्रमाणानि -


नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।


नाशान्तमनसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्॥1॥


-कठोपनि॰ वल्ली॰ 2। मं॰ 24॥


तपःश्रद्धे ये ह्युपवसन्त्यरण्ये


शान्ता विद्वांसो भैक्ष्यचर्य्यां चरन्तः।


सूर्य्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति


यत्रामृतः स पुरुषो ह्यव्ययात्मा॥2॥


-मुण्ड॰ 1। खं 2। मं॰ 11॥


अथ यदिदमस्मिन् ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकं वेश्म दहरोऽस्मिन्नन्तराकाशस्तस्मिन् यदन्तस्तदन्वेष्टव्यं तद्वाव विजिज्ञासितव्यमिति॥3॥


तं चेद् ब्रूयुर्यदिदमस्मिन् ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकं वेश्म दहरोऽस्मिन्नन्तराकाशः किं तदत्र विद्यते यदन्वेष्टव्यं यद्वाव जिज्ञासितव्यमिति॥4॥


स ब्रूयाद्यावान्वा अयमाकाशस्तावानेषोऽन्तर्हृदय आकाश उभे अस्मिन् द्यावापृथिवी अन्तरेव समाहिते , उभावग्निश्च वायुश्च सूर्य्याचन्द्रमसावुभौ विद्युन्नक्षत्राणि यच्चास्येहास्ति यच्च नास्ति सर्वं तदस्मिन् समाहितमिति॥5॥


तं चेद् ब्रूयुरस्मिंश्चेदिदं ब्रह्मपुरे सर्वं समाहितं सर्वाणि च भूतानि सर्वे च कामा यदैनज्जरावाप्नोति प्रध्वंसते वा किं ततोऽतिशिष्यत इति॥6॥


स ब्रूयान्नास्य जरयैतज्जीर्यति , न वधेनास्य हन्यत एतत्सत्यं ब्रह्मपुरमस्मिन् कामाः समाहिता एष आत्माऽपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसङ्कल्पो यथा ह्येवेह प्रजा अन्वाविशन्ति यथानुशासनं यं यमन्तमभिकामा भवन्ति यं (टिप्पणी- -यं-ह॰ ले॰ में नहीं है, सं॰ 1 में है॥ सं॰॥) जनपदं यं क्षेत्रभागं तं तमेवोपजीवन्ति॥7॥


-छान्दोग्योपनि॰ प्रपा॰ 8। मं॰ 1। 2। 3। 4। 5।


अस्य सर्वस्य भाषायामभिप्रायः प्रकाशयिष्यते।


भाषार्थ - यह उपासनायोग दुष्ट मनुष्य को सिद्ध नहीं होता, क्योंकि (नाविरतो॰) जब तक मनुष्य दुष्ट कामों से अलग होकर, अपने मन को शान्त और आत्मा को पुरुषार्थी नहीं करता तथा भीतर के व्यवहारों को शुद्ध नहीं करता, तब तक कितना ही पढ़े वा सुने, उस को परमेश्वर की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती॥1॥


(तपःश्रद्धे॰) जो मनुष्य धर्माचरण से परमेश्वर और उस की आज्ञा में अत्यन्त प्रेम करके अरण्य अर्थात् शुद्ध हृदयरूपी वन में स्थिरता के साथ निवास करते हैं, वे परमेश्वर के समीप वास करते हैं। जो लोग अधर्म के छोड़ने और धर्म के करने में दृढ़ तथा वेदादि सत्य विद्याओं में विद्वान् हैं, जो भिक्षाचर्य्य आदि कर्म करके संन्यास वा किसी अन्य आश्रम में हैं, इस प्रकार के गुणवाले मनुष्य (सूर्य्यद्वारेण॰) प्राण द्वार से परमेश्वर के सत्य राज्य में प्रवेश करके (विरजाः) अर्थात् सब दोषों से छूट के परमानन्द मोक्ष को प्राप्त होते हैं, जहां कि पूर्ण पुरुष, सब में भरपूर, सब से सूक्ष्म, (अमृतः) अर्थात् अविनाशी और जिस में हानि लाभ कभी नहीं होता, ऐसे परमेश्वर को प्राप्त होके, सदा आनन्द में रहते हैं॥2॥


जिस समय इन सब साधनों से परमेश्वर की उपासना करके उस में प्रवेश किया चाहें, उस समय इस रीति से करें कि-(अथ यदिद॰) कण्ठ के नीचे, दोनों स्तनों के बीच में और उदर के ऊपर जो हृदय देश है, जिस को ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उस के बीच में जो गर्त है, उस में कमल के आकार वेश्म अर्थात् अवकाशरूप एक स्थान है और उस के बीच में जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा बाहर भीतर एकरस होकर भर रहा है, वह आनन्दस्वरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने से मिल जाता है। दूसरा उस के मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है॥3॥


और कदाचित् कोई पूछे कि- (तं चेद् ब्रूयु॰) अर्थात् उस हृदयाकाश में क्या रक्खा है, जिस की खोजना की जाय?॥4॥


तो उस का उत्तर यह है कि- (स ब्रूयाद्या॰) हृदय देश में जितना आकाश है, वह सब अन्तर्यामी परमेश्वर ही से भर रहा है और उसी हृदयाकाश के बीच में सूर्य आदि प्रकाश तथा पृथिवीलोक, अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र, बिजुली और सब नक्षत्रलोक भी ठहर रहे हैं। जितने दीखनेवाले और नहीं दीखनेवाले पदार्थ हैं, वे सब उसी की सत्ता के बीच में स्थिर हो रहे हैं॥5॥


(तं चेद् ब्रूयु॰) इस में कोई ऐसी शंका करे कि जिस ब्रह्मपुर हृदयाकाश में सब भूत और काम स्थिर होते हैं, उस हृदयदेश के वृद्धावस्था के उपरान्त नाश हो जाने पर उस के बीच में क्या बाकी रह जाता है कि जिस को तुम खोजने को कहते हो?॥6॥


तो इस का उत्तर यह है- ( स ब्रूयात्॰) सुनो भाई! उस ब्रह्मपुर में जो परिपूर्ण परमेश्वर है, उस को न तो कभी वृद्धावस्था होती है, और न कभी नाश होता है। उसी का नाम सत्य ब्रह्मपुर है कि जिस में सब काम परिपूर्ण हो जाते हैं। वह (अपहतपाप्मा) अर्थात् सब पापों से रहित, शुद्धस्वभाव, (विजरः) जरा अवस्थारहित (विशोकः) शोकरहित (विजिघत्सोऽपि॰) जो खाने पीने की इच्छा कभी नहीं करता, (सत्यकामः) जिस के सब काम सत्य हैं, (सत्यसङ्कल्पः) जिस के सब सङ्कल्प भी सत्य हैं। उसी आकाश में प्रलय होने के समय सब प्रजा प्रवेश कर जाती है और उसी के रचने से उत्पत्ति के समय फिर प्रकाशित होती है। इस पूर्वोक्त उपासना से उपासक लोग जिस जिस काम की, जिस जिस देश की, जिस जिस क्षेत्रभाग अर्थात् अवकाश की इच्छा करते हैं, उन सब को वे यथावत् प्राप्त होते हैं॥7॥


सेयं तस्य परमेश्वरस्योपासना द्विविधास्ति - एका सगुणा द्वितीया निर्गुणा चेति। तद्यथा -( स पर्य्यगाच्छुक्र॰) इत्यस्मिन् मन्त्रे शुक्रं शुद्धमिति सगुणोपासनम्। अकायमव्रणमस्नाविरमित्यादि निर्गुणोपासनं च। तथा -


एको देवः सर्वभूतेषु गूढः


सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।


सर्वाध्यक्षः सर्वभूताधिवासः


साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥1॥


एको देव इत्यादि सगुणोपासनम् , निर्गुणश्चेति वचनान्निर्गुणोपासनम्। तथा सर्वज्ञादिगुणैः सह वर्तमानः सगुणः , अविद्यादि-क्लेश-परिमाण-द्वित्वादि-संख्या-शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्धादि-गुणेभ्यो निर्गतत्वान्निर्गुणः। तद्यथा - परमेश्वरः सर्वज्ञः , सर्वव्यापी , सर्वाध्यक्षः , सर्वस्वामी चेत्यादिगुणैः सह वर्त्तमानत्वात् परमेश्वरस्य सगुणोपासनं विज्ञेयम् तथा सोऽजोऽर्थाज्जन्मरहितः , अव्रणः छेदरहितः , निराकारः आकाररहितः , अकायः शरीरसम्बन्धरहितः , तथैव रूप-रस-गन्ध-स्पर्श-संख्या-परिमाणादयो गुणास्तस्मिन्न सन्तीदमेव तस्य निर्गुणोपासनं ज्ञातव्यम्।


अतो देहधारणेनेश्वरः सगुणो भवति देहत्यागेन निर्गुणश्चेति या मूढानां कल्पनास्ति , सा वेदादिशास्त्र-प्रमाणविरुद्धा विद्वदनुभवविरुद्धा चास्ति। तस्मात्सज्जनैर्व्यर्थेयं रीतिः सदा त्याज्येति शिवम्।


भाषार्थ - सो उपासना दो प्रकार की है-एक सगुण और दूसरी निर्गुण। उन में से (सपर्य्यगा॰) इस मन्त्र के अर्थानुसार शुक्र अर्थात् जगत् का रचनेवाला, वीर्यवान् तथा शुद्ध, कवि, मनीषी, परिभू और स्वयम्भू इत्यादि गुणों के सहित होने से परमेश्वर सगुण है और अकाय, अव्रण, अस्नाविर इत्यादि गुणों के निषेध होने से वह निर्गुण कहाता है।


तथा (एको देवः) एक देव इत्यादि गुणों के सहित होने से परमेश्वर सगुण, और (निर्गुणश्च) इस के कहने से निर्गुण समझा जाता है तथा ईश्वर के सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, शुद्ध, सनातन, न्यायकारी, दयालु, सब में व्यापक, सब का आधार, मङ्गलमय, सब की उत्पत्ति करनेवाला और सब का स्वामी इत्यादि सत्यगुणों के ज्ञानपूर्वक उपासना करने को सगुणोपासना कहते हैं और वह परमेश्वर कभी जन्म नहीं लेता, निराकार अर्थात् आकारवाला कभी नहीं होता, अकाय अर्थात् शरीर कभी नहीं धारता, अव्रण अर्थात् जिसमें छिद्र कभी नहीं होता, जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्धवाला कभी नहीं होता, जिस में दो तीन आदि संख्या की गणना नहीं बन सकती, जो लम्बा चौड़ा हलका भारी कभी नहीं होता, इत्यादि गुणों के निवारणपूर्वक उस का स्मरण करने को निर्गुण उपासना कहते हैं।


इस से क्या सिद्ध हुआ कि जो अज्ञानी मनुष्य ईश्वर के देहधारण करने से सगुण और देहत्याग करने से निर्गुण उपासना कहते हैं, सो यह उन की कल्पना सब वेद शास्त्रों के प्रमाणों और विद्वानों के अनुभव से विरुद्ध होने के कारण सज्जन लोगों को कभी न माननी चाहिए। किन्तु सब को पूर्वोक्त रीति से ही उपासना करनी चाहिए।


॥इति संक्षेपतो ब्रह्मोपासनाविधानम्॥14॥

Post a Comment

0 Comments

Ad Code