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ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/१०. आकर्षणानुकर्षणविषयः

 


अथाकर्षणानुकर्षणविषयः

यदा ते हर्य्यता हरी वावृधाते दिवे दिवे।


आदित्ते विश्वा भुवनानि येमिरे॥1॥


-ऋ॰ अ॰ 6। अ॰ 1। व॰ 6। मं॰ 3॥


भाष्यम् - ( यदा ते॰) अस्याभिप्रा॰ - सूर्य्येण सह सर्वेषां लोकानामाकर्षणमस्तीश्वरेण सह सूर्य्यादिलोकानां चेति।


हे इन्द्रेश्वर वा वायो सूर्य्य! यदा यस्मिन्काले ते हरी आकर्षणप्रकाशनहरणशीलौ बलपराक्रमगुणावश्वौ किरणौ वा हर्य्यता हर्य्यतौ प्रकाशवन्तावत्यन्तं वर्धमानौ भवतस्ताभ्यां (आदित्) तदनन्तरं (दिवेदिवे) प्रतिदिनं प्रतिक्षणं च ते तव गुणाः प्रकाशाकर्षणादयो (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि भुवनानि सर्वान् लोकानाकर्षणेन येमिरे नियमेन धारयन्ति। अतः कारणात्सर्वे लोकाः स्वां स्वां कक्षां विहायेतस्ततो नैव विचलन्तीति॥1॥


भाषार्थ - (यदा ते॰) इस मन्त्र का अभिप्राय यह है कि सब लोकों के साथ सूर्य का आकर्षण और सूर्य आदि लोकों के साथ परमेश्वर का आकर्षण है।


(यदा ते॰) हे इन्द्र परमेश्वर! आप के अनन्त बल और पराक्रम गुणों से सब संसार का धारण, आकर्षण और पालन होता है। आप के ही सब गुण सूर्य्यादि लोकों को धारण करते हैं। इस कारण से सब लोक अपनी अपनी कक्षा और स्थान से इधर उधर चलायमान नहीं होते।


दूसरा अर्थ - इन्द्र जो वायु, सूर्य है, इस में ईश्वर के रचे आकर्षण, प्रकाश और बल आदि बड़े बड़े गुण हैं। उन से सब लोकों का दिन-दिन और क्षण-क्षण के प्रति धारण, आकर्षण और प्रकाश होता है। इस हेतु से सब लोक अपनी अपनी ही कक्षा में चलते रहते हैं, इधर उधर विचल भी नहीं सकते॥1॥


यदा ते मारुतीर्विशस्तुभ्यमिन्द्र नियेमिरे ।


आदित्ते विश्वा भुवनानि येमिरे॥2॥


-ऋ॰ अ॰ 6। अ॰ 1। व॰ 6। मं॰ 4॥


भाष्यम् - ( यदा ते मारुती॰) अस्याभिप्रायः - अत्रापि पूर्वमन्त्रवदाकर्षणविद्यास्तीति।


हे पूर्वोक्तेन्द्र! यदा ते तव मारुतीर्मारुत्यो मरणधर्माणो मरुत्प्रधाना वा विशः प्रजास्तुभ्यं येमिरे तवाकर्षणधारणनियमं प्राप्नुवन्ति तदैव सर्वाणि विश्वानि भुवनानि स्थितिं लभन्ते। तथा तवैव गुणैर्नियेमिरे। आकर्षणनियमं प्राप्तवन्ति सन्ति। अत एव सर्वाणि भुवनानि यथाकक्षं भ्रमन्ति वसन्ति च॥2॥


भाषार्थ - (यदा ते मारुती॰) अभि॰- इस मन्त्र में भी आकर्षण विद्या है। हे परमेश्वर! आप की जो प्रजा, उत्पत्ति स्थिति और प्रलयधर्मवाली और जिस में वायु प्रधान है, वह आप के आकर्षणादि नियमों से तथा सूर्यलोक के आकर्षण करके भी स्थिर हो रही है। जब इन प्रजाओं को आपके गुण नियम में रखते हैं, तभी भुवन अर्थात् सब लोक अपनी अपनी कक्षा में घूमते और स्थान में वस रहे हैं॥2॥


यदा सूर्य्यममुं दिवि शुक्रं ज्योतिरधारयः।


आदित्ते विश्वा भुवनानि येमिरे॥3॥


-ऋ॰ अ॰ 6। अ॰ 1। व॰ 6। मं॰ 5॥


भाष्यम् -(यदा सूर्य॰)। अभि॰- अत्रापि पूर्ववदभिप्रायः। हे परमेश्वरामुं सूर्य्यं भवान् रचितवानस्ति। यद्दिवि द्योतनात्मके त्वयि शुक्रमनन्तं सामर्थ्यं ज्योतिः प्रकाशमयं वर्त्तते , तेन त्वं सूर्य्यादिलोकानधारयो धारितवानसि। (आदित्ते) तदनन्तरं (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि भुवनानि सूर्य्यादयो लोका अपि (येमिरे) तदाकर्षणनियमेनैव स्थिराणि सन्ति अर्थाद्यथा सूर्यस्याकर्षणेन पृथिव्यादयो लोकास्तिष्ठन्ति तथा परमेश्वरस्याकर्षणेनैव सूर्यादयः सर्वे लोका नियमेन सह वर्त्तन्त इति॥3॥


भाषार्थ - (यदा सूर्य्य॰) अभि॰-इस मन्त्र में भी आकर्षण-विचार है। हे परमेश्वर! जब उन सूर्यादि लोकों को आपने रचा और आपके ही प्रकाश से प्रकाशित हो रहे हैं और आप अपने अनन्त सामर्थ्य से उन का धारण कर रहे हो, इसी कारण से सूर्य और पृथिवी आदि लोकों और अपने स्वरूप को धारण कर रहे हैं। इन सूर्य आदि लोकों का सब लोकों के साथ आकर्षण से धारण होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि परमेश्वर सब लोकों का आकर्षण और धारण कर रहा है॥3॥


व्यस्तभ्नाद्रोदसी मित्रो अद्भुतोऽ-


न्तर्वावदकृणो ज्योतिषा तमः।


वि चर्मणीव धिषणे अवर्त्तयद्


वैश्वानरो विश्वमधत्त वृष्ण्यम्॥4॥


-ऋ॰ अ॰ 4। अ॰ 5। व॰ 10। मं॰ 3॥


भाष्यम् - ( व्यस्तभ्नाद्रोदसी॰) अभि॰ - परमेश्वरसूर्यलोकौ सर्वांल्लोकाना-कर्षणप्रकाशाभ्यां धारयत इति।


हे परमेश्वर! तव सामर्थ्येनैव वैश्वानरः पूर्वोक्तः सूर्य्यादिलोको रोदसी द्यावापृथिव्यौ भूमिप्रकाशौ व्यस्तभ्नात् स्तम्भितवानस्ति। अतो भवान् मित्र इव सर्वेषां लोकानां व्यवस्थापकोऽस्ति। अद्भुत आश्चर्य्यस्वरूपः स सवितादिलोको ज्योतिषा तमोऽन्तरकृणोत्तिरोहितं निवारितं तमः करोति। वावत्तथैव धिषणे धारणकर्त्र्यौ द्यावापृथिव्यौ धारणाकर्षणेन व्यवर्त्तयत्। विविधतयैतयोर्वर्त्तमानं कारयति। कस्मिन्निव ? चर्मण्याकर्षितानि लोमानीव। यथा त्वचि लोमानि स्थितान्याकर्षितानि भवन्ति तथैव सूर्य्यादिबलाकर्षणेन सर्वे लोकाः स्थापिताः सन्तीति विज्ञेयम्। अतः किमागतं ? वृष्ण्यं वीर्यवद्विश्वं सर्वं जगच्च सूर्य्यादिलोको धारयति। सूर्य्यादेर्धारणमीश्वरः करोतीति॥4॥


भाषार्थ - (व्यस्तभ्नाद्रोदसी॰) अभि॰- इस मन्त्र में भी आकर्षणविचार है। हे परमेश्वर! आपके प्रकाश से ही वैश्वानर सूर्य आदि लोकों का धारण और प्रकाश होता है। इस हेतु से सूर्य आदि लोक भी अपने अपने आकर्षण से अपना और पृथिवी आदि लोकों का भी धारण करने में समर्थ होते हैं। इस कारण से आप सब लोकों के परम मित्र और स्थापन करनेवाले हैं और आपका सामर्थ्य अत्यन्त आश्चर्यरूप है। सो सविता आदि लोक अपने प्रकाश से अन्धकार को निवृत्त कर देते हैं तथा प्रकाशरूप और अप्रकाशरूप इन दोनों लोकों का समुदाय धारण और आकर्षण व्यवहार में वर्त्तते हैं। इस हेतु से इन से नाना प्रकार का व्यवहार सिद्ध होता है। वह आकर्षण किस प्रकार से है कि जैसे त्वचा में लोमों का आकर्षण हो रहा है, वैसे ही सूर्य आदि लोकों के आकर्षण के साथ सब लोकों का आकर्षण हो रहा है और परमेश्वर भी इन सूर्य आदि लोकों का आकर्षण कर रहा है॥4॥


आ कृष्णेन रजसा वर्त्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।


हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥5॥


-य॰ अ॰ 33। मं॰ 43॥


भाष्यम् - (आकृष्णेन॰)। अभि॰- अत्राप्याकर्षणविद्यास्तीति। सविता परमात्मा सूर्य्यलोको वा रजसा सर्वैर्लोकैः सहाकृष्णेनाकर्षणगुणेन सह वर्त्तमानोऽस्ति। कथम्भूतेन गुणेन ? हिरण्ययेन ज्योतिर्मयेन। पुनः कथम्भूतेन ? रमणानन्दादिव्यवहारसाधकज्ञानतेजोरूपेण रथेन। किं कुर्वन् सन् ? मर्त्यं मनुष्यलोकममृतं सत्यविज्ञानं किरणसमूहं वा स्वस्वकक्षायां निवेशयन् व्यवस्थापयन् सन् तथा च मर्त्यं पृथिव्यात्मकं लोकं प्रत्यमृतं मोक्षमोषध्यात्मकं वृष्ट्यादिकं रसं च प्रवेशयन् सन् सूर्य्यो वर्त्तमानोऽस्ति। स च सूर्य्यो देवो द्योतनात्मको भुवनानि सर्वान् लोकान् धारयति तथा पश्यन् दर्शयन् सन् रूपादिकं विभक्तं याति प्रापयतीत्यर्थः।


अस्मात् पूर्वमन्त्राद् द्युभिरक्तुभिरिति पदानुवर्त्तनात् सूर्य्यो द्युभिः सर्वैर्दिवसैरक्तुभिः सर्वाभी रात्रिभिश्चार्थात्सर्वांल्लोकान् प्रतिक्षणमाकर्षतीति गम्यते। एवं सर्वेषु लोकेष्वात्मिका स्वा स्वाप्याकर्षणशक्तिरस्त्येव। तथानन्ताकर्षणशक्तिस्तु खलु परमेश्वरेऽस्तीति मन्तव्यम्। रजो लोकानां नामास्ति। अत्राहुर्निरुक्तकारा यास्काचार्य्याः -


लोका रजांस्युच्यन्ते॥ -निरु॰ अ॰ 4। खं॰ 19॥


रथो रंहतेर्गतिकर्मणः , स्थिरतेर्वा स्याद्विपरीतस्य रममाणोऽस्मिंस्तिष्ठतीति वा , रयतेर्वा , रसतेर्वा॥ -निरु॰ अ॰ 9। खं॰ 11॥


विश्वानरस्यादित्यस्य॥ -निरु॰ अ॰ 12। खं॰ 21॥


अतो रथशब्देन रमणानन्दकरं ज्ञानं तेजो गृह्यते। इत्यादयो मन्त्रा वेदेषु धारणाकर्षण-विधायका बहवः सन्तीति बोध्यम्॥5॥


॥इति धारणाकर्षणविद्याविषयः संक्षेपतः॥


भाषार्थ - (आकृष्णेन॰) अभि॰-इस मन्त्र में भी आकर्षणविद्या है। सविता जो परमात्मा, वायु और सूर्य लोक है, वे सब लोकों के साथ आकर्षण, धारण गुण से सहित वर्त्तते हैं। सो हिरण्यय अर्थात् अनन्त बल, ज्ञान और तेज से सहित (रथेन) आनन्दपूर्वक क्रीड़ा करने के योग्य ज्ञान और तेज से युक्त हैं। इस में परमेश्वर सब जीवों के हृदयों में अमृत अर्थात् सत्य विज्ञान को सदैव प्रकाश करता है और सूर्यलोक भी रस आदि पदार्थों को मर्त्य अर्थात् मनुष्य लोक में प्रवेश करता, और सब लोकों को व्यवस्था से अपने अपने स्थान में रखता है। वैसे ही परमेश्वर धर्मात्मा ज्ञानी लोगों को अमृतरूप मोक्ष देता, और सूर्य लोक भी रसयुक्त जो ओषधि और वृष्टि के अमृतरूप जल को पृथिवी में प्रविष्ट करता है। सो परमेश्वर सत्य असत्य का प्रकाश और सब लोकों का प्रकाश करके सब को जनाता है तथा सूर्यलोक भी रूपादि का विभाग दिखलाता है।


इस मन्त्र से पहले मन्त्र में (द्युभिरक्तुभिः) इस पद से यही अर्थ आता है कि दिन रात अर्थात् सब समय में सब लोकों के साथ सूर्यलोक का और सूर्यादि लोकों के साथ परमेश्वर का आकर्षण हो रहा है तथा सब लोकों में ईश्वर ही की रचना से अपना अपना आकर्षण है और परमेश्वर की तो आकर्षणरूप शक्ति अनन्त है। यहां लोकों का नाम रज है और रथ शब्द के अनेक अर्थ हैं, इस कारण से कि जिस से रमण और आनन्द की प्राप्ति होती है, उसको रथ कहते हैं। इस विषय में निरुक्त का प्रमाण इसी मन्त्र के भाष्य में लिखा है, सो देख लेना। ऐसे धारण और आकर्षणविद्या के सिद्ध करने वाले मन्त्र वेदों में बहुत हैं॥5॥


॥इति धारणाकर्षणविषयः संक्षेपतः॥10॥

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