अथ गणितविद्याविषयः
एका च मे तिस्रश्च मे तिस्रश्च मे पञ्च च मे पञ्च च मे सप्त च मे सप्त च मे नव च मे नव च मे एकादश च मे एकादश च मे त्रयोदश च मे त्रयोदश च मे पञ्चदश च मे पञ्चदश च मे सप्तदश च मे सप्तदश च मे नवदश च मे नवदश च मे एकविंशतिश्च मे एकविंशतिश्च मे त्रयोविंशतिश्च मे त्रयोविंशतिश्च मे पञ्चविंशतिश्च मे पञ्चविंशतिश्च मे सप्तविंशतिश्च मे सप्तविंशतिश्च मे नवविंशतिश्च मे नवविंशतिश्च मे एकत्रिंशच्च मे एकत्रिंशच्च मे त्रयस्त्रिंशच्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्॥1॥
चतस्रश्च मेऽष्टौ च मेऽष्टौ च मे द्वादश च मे द्वादश च मे षोडश च मे षोडश च मे विंशतिश्च मे विंशतिश्च मे चतुर्विंशतिश्च मे चतुर्विंशतिश्च मेऽष्टाविंशतिश्च मेऽष्टाविंशतिश्च मे द्वात्रिंशच्च मे द्वात्रिंशच्च मे षट्त्रिंशच्च मे षट्त्रिंशच्च मे चत्वारिंशच्च मे चत्वारिंशच्च मे चतुश्चत्वारिंशच्च मे चतुश्चत्वारिंशच्च मेऽष्टाचत्वारिंशच्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्॥2॥
-य॰ अ॰ 18। मं॰ 24।25॥
भाष्यम् - अभि॰-अनयोर्मन्त्रयोर्मध्ये खल्वीश्वरेणाङ्क-बीजरेखाणितं प्रकाशितमिति। (एका॰) एकार्थस्य या वाचिका संख्यास्ति (1), सैकेन युक्ता द्वौ भवतः (2), यत्र द्वावेकेन युक्तौ सा त्रित्ववाचिका (3)॥1॥
द्वाभ्यां द्वौ युक्तौ चत्वारः (4) , एवं तिसृभिस्त्रित्वसंख्यायुक्ता षट् (6), एवमेव चतस्रश्च मे पञ्च च मे इत्यादिषु परस्परं संयोगादि-क्रिययाऽनेकविधाङ्कैर्गणितविद्या सिध्यति। अन्यत् खल्वत्रानेकचकाराणां पाठान्मनुष्यैरनेकविधा गणितविद्याः सन्तीति वेद्यम्।
सेयं गणितविद्या वेदाङ्गे ज्योतिषशास्त्रे प्रसिद्धास्त्यतो नात्र लिख्यते। परन्त्वीदृशा मन्त्रा ज्योतिषशास्त्रस्थ-गणितविद्याया मूलमिति विज्ञायते। इयमङ्कसंख्या निश्चितेषु संख्यात-पदार्थेषु प्रवर्त्तते।
ये चाज्ञातसंख्याः पदार्थास्तेषां विज्ञानार्थं बीजगणितं प्रवर्त्तते। तदपि विधानमेका चेति। अ -क इत्यादि-सङ्केतेनैतन्मन्त्रादिभ्यो बीजगणितं निःसरतीत्यवधेयम्॥2॥
अग्न आयाहि वीतये गृणानो हव्यदातये।
नि होता सत्सि बर्हिषि॥
-साम॰ उत्तरा॰ प्र॰ 1। खं॰ 1।
यथैका क्रिया द्व्यर्थकरी प्रसिद्धेति न्यायेन स्वरसङ्केताङ्कैर्बीजगणितमपि साध्यत इति बोध्यम्। एवं गणितविद्याया रेखागणितं तृतीयो भागः सोऽप्यत्रोच्यते।
भाषार्थ - (एका च मे॰) इन मन्त्रों में यही प्रयोजन है कि अङ्क बीज और रेखा भेद से जो तीन प्रकार की गणितविद्या सिद्ध की है, उन में से प्रथम अङ्क (1) जो संख्या है, सो दो बार गणने से दो की वाचक होती है। जैसे 1+1 = 2। ऐसे ही एक के आगे एक तथा एक के आगे दो, वा दो के आगे एक आदि जोड़ने से भी समझ लेना। इसी प्रकार एक के साथ तीन जोड़ने से चार (4) तथा तीन (3) को तीन (3) के साथ जोड़ने से (6) अथवा तीन को तीन से गुणने से 3×3 = 9 हुए॥1॥
इसी प्रकार चार के साथ चार, पांच के साथ पांच, छः के साथ छः, आठ के साथ आठ इत्यादि जोड़ने वा गुणने तथा सब मन्त्रों के आशय को फैलाने से सब गणितविद्या निकलती है।
जैसे पांच के साथ पांच (55) वैसे ही पांच पांच छः छः (55) (66) इत्यादि जान लेना चाहिए। ऐसे ही इन मन्त्रों के अर्थों को आगे योजना करने से अङ्कों से अनेक प्रकार की गणितविद्या सिद्ध होती है। क्योंकि इन मन्त्रों के अर्थ और अनेक प्रकार के प्रयोगों से मनुष्यों को अनेक प्रकार की गणितविद्या अवश्य जाननी चाहिए।
और जो कि वेदों का अङ्ग ज्योतिषशास्त्र कहाता है, उस में भी इसी प्रकार के मन्त्रों के अभिप्राय से गणितविद्या सिद्ध की है और अङ्कों से जो गणितविद्या निकलती है, वह निश्चित और असंख्यात पदार्थों में युक्त होती है। और अज्ञात पदार्थों की संख्या जानने के लिए बीजगणित होता है, सो भी (एका च मे॰) इत्यादि मन्त्रों ही से सिद्ध होता है। जैसे (अ2+क2) (अ2-क3) (क 3 ÷अ3) इत्यादि सङ्केत से निकलता है। यह भी वेदों ही से ऋषि-मुनियों ने निकाला है। (अग्न2 आ॰3) इस मन्त्र के सङ्केतों से भी बीजगणित निकलता है॥2॥
और इसी प्रकार से तीसरा भाग जो रेखागणित है सो भी वेदों ही से सिद्ध होता है।
इयं वेदिः परो अन्तः पृथिव्या
अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः।
अयं सोमो वृष्णो अश्वस्य रेतो
ब्रह्मायं वाचः परमं व्योम॥3॥
-य॰ अ॰ 23। मं॰ 62॥
कासीत् प्रमा प्रतिमा किं निदानमाज्यं
किमासीत् परिधिः क आसीत्।
छन्दः किमासीत् प्रउगं किमुक्थं
यद्देवा देवमयजन्त विश्वे॥4॥
-ऋ॰ अ॰ 8। अ॰ 7। व॰ 18। मं॰ 3॥
भाष्यम् - (इयं वेदिः॰) अभिप्रा॰- अत्र मन्त्रयो रेखागणितं प्रकाश्यत इति।
इयं या वेदिस्त्रिकोणा चतुरस्रा श्येनाकारा वर्तुलाकारादियुक्ता क्रियतेऽस्या वेदेराकृत्या रेखागणितोपदेशलक्षणं विज्ञायते। एवं पृथिव्याः परोऽन्तो यो भागोऽर्थात् सर्वतः सूत्रवेष्टनवदस्ति स परिधिरित्युच्यते। यश्चायं यज्ञो हि सङ्गमनीयो रेखागणिते मध्यो व्यासाख्यो मध्यरेखाख्यश्च सोऽयं भुवनस्य भूगोलस्य ब्रह्माण्डस्य वा नाभिरस्ति। (अयं सो॰) सोमलोकोऽप्येवमेव परिध्यादियुक्तोऽस्ति। (वृष्णो अश्व॰) वृष्टिकर्तुः सूर्यस्याग्नेर्वायोर्वा वेगहेतोरपि परिध्यादिकं तथैवास्ति। (रेतः) तेषां वीर्यमोषधिरूपेण सामर्थ्यार्थं विस्तृतमप्यस्तीति वेद्यम् (ब्रह्मायं वा॰)यद् ब्रह्मास्ति तद्वाण्याः (परमं व्योम) अर्थात् परिधिरूपेणान्तर्बहिः स्थितमस्ति॥3॥
(कासीत् प्रमा) यथार्थज्ञानं यथार्थज्ञानवान् तत्साधिका बुद्धिः काऽसीत् सर्वस्येति शेषः। एवम् (प्रतिमा) प्रतिमीयतेऽनया सा प्रतिमा यया परिमाणं क्रियते सा कासीत् ? एवमेवास्य (निदानम्) कारणं किमस्ति ? ( आज्यम्॰) ज्ञातव्यं घृतवत्सारभूतं चास्मिन् जगति किमासीत् सर्वदुःखनिवारकमानन्देन स्निग्धं सारभूतं च ? ( परिधिः क॰) तथास्य सर्वस्य विश्वस्य पृष्ठावरणं (क आसीत्) गोलस्य पदार्थस्योपरि सर्वतः सूत्रवेष्टनं कृत्वा यावती रेखा लभ्यते स परिधिरित्युच्यते। (छन्दः॰) स्वच्छन्दं स्वतन्त्रं वस्तु (किमासीत्) (प्रउगं॰) ग्रहोक्थं स्तोतव्यं (किमासीत्) इति प्रश्नाः। एषामुत्तराणि - ( यद्देवा दे॰) यत् यं देवं परमेश्वरं विश्वेदेवाः सर्वे विद्वांसः (अयजन्त) समपूजयन्त पूजयन्ति पूजयिष्यन्ति च , स एव सर्वस्य (प्रमा) यथार्थतया ज्ञातास्ति (प्रतिमा) परिमाणकर्ता एवमेवाग्रेऽपि पूर्वोक्तोऽर्थो योजनीयः।
अत्रापि परिधिशब्देन रेखागणितोपदेशलक्षणं विज्ञायते। सेयं विद्या ज्योतिषशास्त्रे विस्तरश उक्तास्ति। एवमेतद्विषयप्रतिपादका अपि वेदेषु बहवो मन्त्राः सन्ति॥
॥इति संक्षेपतो गणितविद्याविषयः॥
भाषार्थ - (इयं वेदिः॰) अभिप्राय॰- इन मन्त्रों में रेखागणित का प्रकाश किया है। क्योंकि वेदी की रचना में रेखागणित का भी उपदेश है। जैसे तिकोन, चौकोन, श्येनपक्षी के आकार और गोल आदि जो वेदी का आकार किया जाता है, सो आर्यों ने रेखागणित ही का दृष्टान्त माना था। क्योंकि (परो अन्तः पृ॰) पृथिवी का जो चारों ओर घेरा है, उस को परिधि और ऊपर से अन्त तक जो पृथिवी की रेखा है उस को व्यास कहते हैं। इसी प्रकार से इन मन्त्रों में आदि मध्य और अन्त आदि रेखाओं को भी जानना चाहिए और इसी रीति से तिर्यक् विषुवत् रेखा आदि भी निकलती हैं॥3॥
(कासीत्प्र॰) अर्थात् यथार्थ ज्ञान क्या है? (प्रतिमा) जिस से पदार्थों का तोल किया जाय सो क्या चीज है? (निदानम्) अर्थात् कारण जिस से कार्य उत्पन्न होता है, वह क्या चीज है (आज्यं) जगत् में जानने के योग्य सारभूत क्या है? (परिधिः॰) परिधि किस को कहते हैं? (छन्दः॰) स्वतन्त्र वस्तु क्या है? (प्रउ॰) प्रयोग और शब्दों से स्तुति करने के योग्य क्या है? इन सात प्रश्नों का उत्तर यथावत् दिया जाता है-(यद्देवा देव॰) जिस को सब विद्वान् लोग पूजते हैं वही परमेश्वर प्रमा आदि नाम वाला है।
इन मन्त्रों में भी प्रमा और परिधि आदि शब्दों से रेखागणित साधने का उपदेश परमात्मा ने किया है। सो यह तीन प्रकार की गणितविद्या आर्यों ने वेदों से ही सिद्ध की है और इसी आर्य्यावर्त्त देश से सर्वत्र भूगोल में गई है।
॥इति संक्षेपतो गणितविद्याविषयः॥12॥
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