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विद्या का नाश नहीं होता

English version is at the end (Today part 1/3) 

1170 
विद्या का नाश नहीं होता    
 
मनुष्य जो कुछ देखा है सुनता है उसे सब का संस्कार उसके आत्मा पर पड़ता है। साधारण रीति से यही भासता है कि जो कुछ हम देख सुन रहे हैं, वह क्रिया उतने ही समय के लिए है जितने समय तक वह देखने सुनने का कर्म चल रहा है। क्योंकि ऐसा भी होता है कि हमने किसी स्थान विशेष में कोई वस्तु देखी, देखकर हम चले आए। फिर उसका कोई विचार नहीं उठाता। किन्तु कभी-कभी सहसा अथवा किसी कारण से उसकी स्मृति जाग खड़ी होती है। यह कैसे होता है देखने की क्रिया तो कभी भी की नष्ट हो चुकी। अब फिर उसके सम्बन्ध में यह स्मृति कैसे उत्पन्न हुई। मानना पड़ता है कि जो कुछ हम देखते सुनते आदि है उसे सबका एक संस्कार आत्मा पर पड़ता है,जो अनुकूल साधन पाकर स्मृति के रूप में जाग खड़ा होता है।भाव बह निकला कि हमारी सारी क्रियाओं ==चेष्टाओं की  आत्मा पर एक अमिट सी छाप पड़ती है जिसका मिटाना सरल नहीं है
विद्या ग्रहण करना भी एक क्रिया है चेष्टा है। उसकी भी आत्मा पर छाप पड़ती है , संस्कार पड़ता है ,और वह संस्कार अमिट सा है। इसलिए वेद ने कहा --न ता: नशन्ति। यह विद्या की छापें नष्ट नहीं होती। 
संसार का धन प्राकृतिक सम्पत्ति भौतिक ऋद्धि काल पाकर नष्ट हो जाती हैं। जहां संयोग है वहां वियोग आवश्यक भावी है। धन संपत्ति आज एक के पास है। कल वह चला चंचल उसे छोड़कर दूसरे के पास चली जाती है। पर इतनी बहुत सुंदर शब्दों में कहा है--
ओ हि वर्तन्ते रथ्येव चक्रान्यमन्यमुपतिष्ठन्त राय: 
ऋ०१०. ११७.५ धांतोरथ के पहियों की भांति लोटपोट होते रहते हैं और दूसरों दूसरों के पास जाते रहते हैं। आज एक धनी है कल वही निर्धन है। धन संयोगिक पदार्थ है संयोग का वियोग होकर ही रहता है किंतु विद्या का नाश कैसे हो वह आत्मा का गुण है। धन संयोगिक है कर उसे चुरा सकता है किंतु विद्या को-- न दभाति तस्कर;
चोर नहीं दबा सकता डाकू नहीं छीन सकता। मानो इस मंत्र के इस चरण का अनुवाद ही किसी कवि ने किया है--
हर्तुर्न गोचरं याति दत्ता भवति विस्तृता। 
कलपान्तेपि न या नश्येत किमन्यद्विद्यया समम्।। 
--- चोर की दृष्टि में आती नहीं और देने से बढ़ती है सृष्टि नाश होने पर नष्ट नहीं होती। विद्या के तुल्य ऐसी और कौन वस्तु हो सकती है। किसी विरोधी शत्रु का क्या समर्थ है जो विद्वान को दबा सके या विद्या का तिरस्कार कर सके--- नासामामित्रो व्यथिरो दधर्षति--- कोई दुखदाई शत्रु विद्या का दास नहीं कर सकता। विद्या केबल से मनुष्य में उत्तम उत्तम श्रेष्ठ गुना का विकास होता है विद्या के कारण महा विद्वानों ज्ञानियों की संगति में बैठने की योग्यता प्राप्त होती है। विद्याधन के कारण उसके पास गुणग्रही सज्जनों का सदा जमघट रहता है और वह उभयत: आदर का पात्र होता है । विद्यावान और विद्यार्थी दोनों ही वर्ग उसका सत्कार करते हैं। विद्वानों की संगति से उसे दान देने--- विद्यादान --की उत्तेजना मिलती है और वह देता है । वेद कहता है--- देवांश्च यामिर्यजते ददाति च- जिनके द्वारा विद्वानों का संघ करता है और विद्या दान करता है पुस्तक किसी कवि ने मानो इसी मंत्र चरण का आशय ही कहा है--- संजोयजति विद्यैव नीचगापि नरं सरित। समुद्रमिव दुर्धर्षं नृपं भाग्यमत: परम्।। --- जैसे नदी--- नीचे जाने वाली नदी समुद्र ऐसे महाशय, जलाशय से जा मिलती है। इसी प्रकार विद्या चाहे वह नीच पुरुषों में क्यों ना हो वह उसे विद्यावान को राजा से मिला देती है और फिर भाग्य से। 
कहीं किसी को भ्रम ना हो जाए कि जैसे धन सम्पत्ति दान देने से घट जाती है, जैसे किसी के पास एक करोड रुपए है, वह यदि 50 लाख किसी को दे दे तो उसके पास शेष 50 लाख रह जाएंगे, या किसी के पास 50000 भीगा भूमि है उसमें से वह 10000 बीघा भूमि किसी को दे डाले तो उसके पास 40000 बीघा शेष रह जाएंगे 
इसी प्रकार संसार की दूसरी सम्पत्तियों की दशा भी है। वह देने से घटती है और अवश्य घटती है। ऐसे ही विद्या भी दान देने से बांटने से घट जाती होगी। वेद इस भ्रम का मानो निरास करता हुआ करता है ---ज्योगित्ताभि: सचते गोपति: सह। 
--- ऐसा ज्ञानपति-- ज्ञानवान-- विद्या का निरन्तर दान करने वाला ज्ञान धन का धनी--- निरन्तर विद्या से सम्बन्ध रहता है।अर्थात् देने से विद्या बढ़ती है, घटती नहीं ,अत: विद्या अर्जन में पुरुषार्थी होकर, विद्यादान में उससे भी अधिक उद्योग करो। वेद कहता है--शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त संकीर अथर्व० 3/24/5--- सौ हाथों से कमाओ और हज़ार हाथों से बिखरो--- यह वचन कदाचित विद्या के सम्बन्ध में ही है।
विद्या रत्नरूपी महादान को सम्बन्धी लोग बांट नहीं सकता, चोर इसे ले जा नहीं सकता ।  दान से यह नष्ट नहीं होता। 
विद्या का नाश नहीं होता। किसी ने सत्य कहा है---- इसे चोर चुरा नहीं सकता, राजा छीन नहीं सकता,भाई बांट नहीं सकते, फिर इसका कोई भी भार नहीं । व्यय करने पर नित्य बढ़ता ही रहता है। अतः विद्यारुपी धन सब धनों में प्रधान है, मुख्य है। 
इसलिए विद्या की वृद्धि में सदा उद्योग करना चाहिए। क्योंकि वैदिक धर्म का विद्या के साथ अविना भाव-संबंध है। मनु महाराज ने धर्म के 10 लक्षणों में विद्या को स्थान दिया है यथा--
धृति क्षमा दमोऽस्तेय शौचमिन्द्रियनिग्रह। 
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशक धर्मलक्षणम्।। 
धृति=धीरज,हौसला, कार्य में विघ्न आने पर ना घबराना, क्षमा= सहनशीलता; दम= मन को वश में रखना मन की चंचलता दूर करना । अस्तेय= चोरी ना करना पराये पदार्थ का अनुचित रीति से प्रयोग न करना । शौच=अन्दर- बाहर की शुद्धता। इन्द्रिय- निग्रह =इन्द्रियों का वश में रखना ब्रह्मचर्य, धी=बुद्धि, विद्या= ज्ञान ; सत्य जो पदार्थ जैसा है उसे ठीक जानकर वैसा ही मनाना ,कहना। अक्रोध =क्रोध न करना , मन वचन तथा कर्म से किसी को दु:ख ना देना।,अर्थात् अहिंसा। 
वेद का मुख्य अर्थ भी विद्या का साधन है। विद्या के बिना मनुष्यत्व नहीं रह सकता अतः वेद और वेदानुकूल विद्या पर बहुत बोल देते है। 
विद्या के इस महत्व को जान, विद्या के ग्रहण करने और प्रचार में सबको यत्न करना चाहिए। 


               वैदिक भजन ११७० वां
                      राग पहाड़ी
            गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर
         ‌‌‌          ताल कहरवा ८ मात्रा
                ‌‌‌‌‌         वैदिक मन्त्र
न ता नशन्ति न दबाते तस्करो
नासामामित्रो व्यथिरो दधर्षति। 
देवांश्च याभिर्यजते ददाति च
ज्योगित्ताभि: सचते गोपति: सह ।। 
                                  ‌‌      अथर्व० ४.२१.३

           भाग-१

जीवन का मार्ग बीहड़ 
रहे क्षुद्र भ्रष्ट होकर 
कितना करें निवारण 
लगती है फिर भी ठोकर 
जीवन का............ 

कर्तव्य होवे सम्मुख 
जग-मोह फिर भी घेरे 
सही न्याय कर सके ना 
जब स्वार्थ मुंह को फेरे 
ना त्यागना सुपथ को 
कहते जो वेद वो कर 
जीवन का......... 

चाहे मूर्ख हो या ज्ञानी 
प्रश्न आदि से खड़ा है 
हैरत से लोग पूछे 
यह मार्ग कौन सा है 
सही आस्था ही रखना 
इन वेद के विप्रों पर 

जीवन का......... 
उस राह पर चलो ना 
जो लक्ष्य तक न जाए 
केवल बने जो भोगी 
पशु सम ही वो कहाये
मिला धर्म हित यह जीवन 
जाओ इसे ना खोकर 
जीवन का.......... 
     ‌ ‌    
           भाग-२

जीवन का मार्ग बीहड़ 
रहे क्षुद्र भ्रष्ट होकर 
कितना करें निवारण 
लगती है फिर भी ठोकर

रावण ने जब सिया को 
दिया लोभ माल धन का 
ठुकरा दिया सिया ने 
वो विहार -भोग तन का 
स्वधर्म को ना त्यागा 
भोगों को मारी ठोकर 
जीवन का ............ 

जीवन के सामने जब 
दिखता कठिन दोराहा 
तब नाच रंग भोग में 
जाता रहा ठगाया 
संसार-लालसा का 
बनता रहा वो नौकर 
जीवन का........... 

जो मूर्ख मंद मति है 
उसे प्रेय मार्ग भाए
परिपक्व  है विवेकी 
उसे श्रेय पथ सुहाये
होता विवेकी को ही 
सही मार्ग दृष्टिगोचर 
जीवन का.............. 

           भाग-३
जीवन का मार्ग बीहड़ 
रहे क्षुद्र भ्रष्ट होकर 
कितना करें निवारण 
लगती है फिर भी ठोकर

विद्या का धन है सुदृढ़ 
देने से वो घटे ना 
ना तो चोर- लुटेरे 
कभी लूट तो सके ना 
विद्या जो दे, तो रहती 
विद्या उसी की होकर 
जीवन का ........... 
विप्रों की संगति से 
देवयज्ञ करना सीखो 
वैदिक धर्म की प्रेरक 
पूजो सरस्वती को 
बुद्धि के खेत जोतो 
विद्या के बीज बोकर 
जीवन का ........ 
विद्या की महिमा जानो 
खुद पढ़ लो फिर पढ़ाओ 
निष्काम कर लो जीवन 
तुम सबके काम आओ 
दस लक्षणों में विद्या 
का है स्थान उत्तरोत्तर 
जीवन का ......... 
बीहड़= विषम ऊंचा नीचा 
क्षुद्र=छोटा नीच भ्रष्ट पतित दूषित 
निवारण=हटाना,दूर करना 
आस्था=श्रद्धा 
विप्र= ब्राह्मण पुरोहित 
श्रेय- मार्ग=धर्म पुण्य सदाचार युक्त मार्ग 
प्रेय-मार्ग= इन्द्रियों की ओर ले जाने वाला भोग मार्ग
दृष्टिगोचर=जो देख पड़ सके 
सुदृढ़ =बहुत पक्का 
संगति =मेलजोल 
उत्तरोत्तर=अधिक से अधिक
🕉👏द्वितीय श्रृंखला का १६३वां और अब तक का ११७० वां वैदिक भजन🙏🌹

Know ledge dose not get destroid

Vedic hymn 1170th
      Raag:-  Pahadi
       Singing time:-
 first quarter of the night
Tala Kaharva 8 beats

Vedic mantra👇

Na ta nashanti na dabhaati tuskaro
Naasaamaamitro vyathiro dadharshati l
Devanschayaabhiyajate dadaati cha jogittaabhihi sachate Gopatihi saha ll
 Atharva--  4.21.3

 Vaidik bhajan👇

         PART--1

jeevan ka maarg beehad 
rahe kshudra bhrasht hokar 
kitanaa karen nivaaran 
lagatee hai phir bhee thokar 
jeevan kaa............ 

kartavya hove sammukh 
jag-moh phir bhee ghere 
sahee nyaay kar sake naa 
jab svaarth munh ko phere 
naa tyaaganaa supath ko 
kahate jo ved vo kar 
jeevan kaa......... 

chaahe moorkh ho yaa gyaanee 
prashna aadi se khadaa hai 
hairat se log poochhe 
yah maarg kaun saa hai 
sahee aasthaa hee rakhanaa 
in ved ke vipron par 
jeevan ka......... 

us raah par chalo naa 
jo lakshya tak naa jaaye 
keval bane jo bhogee 
pashu sam hee vo kahaaye
milaa dharm hit yah jeevan 
jaao ise naa khokar 
jeevan ka.......... 

           PART--2

raavan ne jab siyaa ko 
diyaa lobh maal dhan kaa 
thukaraa diyaa siyaa ne 
vo vihaar -bhog tan kaa 
svadharm ko naa tyaagaa 
bhogon ko maaree thokar 
jeevan ka ............ 

jeevan ke saamane jab 
dikhataa kathin doraahaa 
tab naach rang bhog mein 
jaataa rahaa thagaayaa 
sansaar-laalasaa kaa 
banataa rahaa vo naukar 
jeevan ka........... 

jo moorkh mand mati hai 
use preya maarg bhaaye
paripakva  hai vivekee 
use shreya path suhaaye
hotaa vivekee ko hee 
sahee maarg drishtigochar 
jeevan ka.............. 

          PART--3

vidyaa kaa dhan hai sudridh 
dene se vo ghate naa 
naa to chor- lutere 
kabhee loot to sake naa 
vidyaa jo de, to rahatee 
vidya usee kee hokar 
jeevan ka ........... 
vipron kee sangati se 
devayagya karanaa seekho 
vaidik dharm kee prerak 
poojo sarasvatee ko 
buddhi ke khet joto 
vidyaa ke beej bokar 
jeevan ka ........ 
vidya kee mahimaa jaano 
khud padh lo phir padhao 
nishkaam kar lo jeevan 
tum sabake kaam aao 
das lakshanon mein vidyaa 
kaa hai sthaan uttarottar 
jeevan kaa .........

          Semantics👇
Bihad = uneven, high and low
Kshudra = small, low, corrupt, fallen, contaminated
Nivaaran = remove, remove
Aasthaa = faith
Vipra = Brahmin priest
Shreya-marg = path of religion, virtue and good conduct
Preya-marg = leading towards the senses  The path of enjoyment
Drishtigochar = that which can be seen
Sudridh = very strong
Sangati = association
Uttarottar = more and more

Meaning of bhajan
👇
             PART--1

The path of life is rugged
The petty and corrupt
How much can one do to prevent it
Still one stumbles
Life's problems...........
Duty should be in front
The worldly attachments still surround
But one can do true justice  Do not

When selfishness turns your face away

Do not abandon the right path

Do what the Vedas say

life's path...........

Whether a fool or a wise man

Stands with questions etc.

People ask in surprise

Which path is this

Keep true faith in these  On the Brahmins of the Vedas

life's path........

Don't walk on that path

Which doesn't lead to the goal

Which only becomes a pleasure-seeker

Those who are like animals are called

This life is given for the benefit of religion

Go without losing it

life's path.....  .....
        
         PART--2

The path of life is rugged
It remains petty and corrupt
How much can one do to prevent it
Still one stumbles
Life's path.

When Ravan tempted Sita with wealth  Sita rejected

That pleasure of the body

She did not abandon her religion

She kicked the pleasures

life's path.......... 

When life saw a difficult crossroads

Then she kept getting duped

by worldly desires

in dance and colourful pleasures  He kept becoming the servant of life's path..........

The foolish and slow-witted person
likes the path of love
The wise person
likes the path of merit
Only the wise person
can see the right path of life's path.............. 

               PART--3
The path of life is rugged
It remains petty and corrupt
How much can one do to prevent it
Still one stumbles
Life's path......... 

The wealth of knowledge is strong

It does not decrease by giving

Neither can thieves and robbers

ever rob it

Whoever gives knowledge,

It remains his

Life's path...........

Learn to perform Dev Yagya

By the company of Brahmins

Worship Saraswati

The instigator of Vedic religion

Plough the fields of wisdom

By sowing the seeds of knowledge

Life's path.........

Know the glory of knowledge

Study yourself and then teach

Make your life selfless

You can be useful to everyone

Among the ten characteristics, knowledge

has a place in the progressive

Life's path.........

 Swadhyay(self study)👇

Whatever a man sees or hears, its impression leaves a lasting impression on his soul. Generally it appears that whatever we see or hear, that action is only for as long as the act of seeing and hearing is going on. Because it also happens that we see something at a particular place, we go away after seeing it. Then we do not think about it. But sometimes suddenly or due to some reason its memory awakens. How does this happen? The act of seeing has been lost long ago. Now then how did this memory arise in relation to it. It has to be believed that whatever we see, hear etc., its impression leaves a lasting impression on the soul, which awakens in the form of memory after getting suitable means. The feeling flows out that all our actions == actions leave an indelible impression on the soul, which is not easy to erase. Acquiring knowledge is also an action, an effort. It also leaves an impression on the soul, an impression leaves an impression, and that impression is indelible. That is why the Vedas say -- Na Ta: Nashanti. These impressions of knowledge do not get destroyed.  The wealth of the world, the natural wealth, the physical riches, get destroyed with time. Where there is union, there is bound to be separation. Wealth and property are with one person today. Tomorrow he leaves it and goes to another. But it has been said in such beautiful words--
O hi vartante rathyeeva chakranyamanyamupatisthanta rai:
Rigveda 10. 117.5 Like the wheels of a chariot, they keep rolling and going to others. Today one is rich, tomorrow the same person is poor. Wealth is a conjunct thing, the separation of union is inevitable, but how can knowledge be destroyed, it is the quality of the soul. Wealth is conjunct, tax can be stolen, but knowledge-- smugglers cannot suppress it, thieves cannot suppress it, robbers cannot snatch it. It is as if some poet has translated this line of the mantra--
Harturna gocharam yaati datta bhavati vistita.
Kalpantepi na ya naashyet kimanyadvidyaaya samam.
--- It does not come in the sight of a thief and it grows by giving. The world does not get destroyed even if destroyed. What other thing can be equal to knowledge. What is the power of any enemy who can suppress a learned person or despise knowledge--- Nasamaamitro Vyathir Dadharsati--- No painful enemy can make a slave of knowledge. Only through knowledge, the best qualities develop in a man. Due to knowledge, one gets the ability to sit in the company of great learned people. Due to the wealth of knowledge, there is always a crowd of virtuous gentlemen around him and he is worthy of respect both ways. Both the learned and the student classes respect him. From the company of scholars, he gets the inspiration to give charity--- Vidyadaan-- and he gives. The Veda says--- Devaancha Yaamiryajate Dadati Cha-- Through whom he gathers scholars and donates knowledge. It is as if some poet has expressed the meaning of this mantra line--- Sanjoyajati Vidyaiva Nichgaapi Naram Sarit.  Samudramiva Durdharsham Nripam Bhagyamat: Param. --- Like a river--- A river flowing downstream meets the sea, similarly, gentleman, a water body. Similarly, even if knowledge is in lowly men, it makes the learned person meet a king and then fate. 
Let no one have the illusion that wealth decreases by donating, like someone who has one crore rupees, if he gives 50 lakhs to someone, then he will be left with only 50 lakhs, or someone who has 50000 bighas of land, if he gives 10000 bighas of land to someone, then he will be left with 40000 bighas. 
Similar is the condition of other worldly possessions as well. It decreases by giving and it will definitely decrease. Similarly, knowledge also decreases by donating and distributing it. The Veda seems to dispel this illusion --- Jyotigittabhi: Sachate Gopati: Saha.  --- Such a person who is knowledgeable -- one who continuously donates knowledge, one who is rich in the wealth of knowledge -- is constantly connected with knowledge.
Meaning, knowledge increases by giving, it does not decrease. Therefore, be diligent in acquiring knowledge and make even more efforts in donating knowledge. Veda says-- Shatahast Samahar Sahasrahasta Sankeer Atharva 3/24/5-- Earn with hundred hands and distribute with thousand hands--- this statement is perhaps related to knowledge only.

The gem of knowledge cannot be divided by relatives, a thief cannot take it away. It does not get destroyed by donation.

Knowledge does not get destroyed. Someone has rightly said--- a thief cannot steal it, a king cannot snatch it, brothers cannot divide it, then it does not have any burden. It keeps on increasing every day when spent. Therefore, the wealth of knowledge is the chief among all the wealth, the main one.

Therefore, one should always make efforts in increasing knowledge. Because Vedic religion has an inseparable emotional relationship with knowledge.  Manu Maharaj has given place to education in the 10 characteristics of religion, such as-
patience, forgiveness, Damosteya, cleanliness, sense-control.

 Patience, truth, anger and decadence of Dharmalakshanam. 
 Dhriti = patience, courage, not getting scared when there is an obstacle in work, Kshama = tolerance;  Dam = keeping the mind under control and removing its fickleness.  Asteya = Not to steal and not to use other's property in an inappropriate manner.  Cleanliness = purity inside and outside.  Indriya-nigraha = keeping the senses under control, celibacy, dhi = intellect, vidya = knowledge;  To know the truth as it is and to believe and say the same.  Akrodha = not getting angry, not hurting anyone by thoughts, words or deeds. That is non-violence.  The main meaning of Veda is also a means of knowledge.  Humanity cannot exist without education, hence a lot is said about Vedas and education based on Vedas.  Knowing this importance of education, everyone should make efforts to acquire and propagate education.

🕉👏163rd of the second series and 1170th Vedic hymn till now🙏🌹

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