Ad Code

वैदिक भजन

English version is at the end
🙏 *आज का वैदिक भजन* 🙏 1191
*ओ३म् प꣢रि꣣ को꣡शं꣢ मधु꣣श्चु꣢त꣣ꣳ सो꣡मः꣢ पुना꣣नो꣡ अ꣢र्षति ।*
*अ꣣भि꣢꣫ वाणी꣣रृ꣡षी꣢णाꣳ स꣣प्ता꣡ नू꣢षत ॥५७७॥*
सामवेद 577 

*ओ३म् परि॒ कोशं॑ मधु॒श्चुत॑म॒व्यये॒ वारे॑ अर्षति ।*
*अ॒भि वाणी॒ॠषी॑णां स॒प्त नू॑षत ॥*
ऋग्वेद 9/103/3

अनुस्मृति अनुकृति अनुशयी अनुनयी
अनुस्मृति अनुकृति अनुशयी अनुनयी
बन जाए आत्मा भक्ति रस से 
करे तेरी स्तुति 
तुझे पाने के उद्देश्य से 
प्रभु सत्य कर्म करें 
हरदम भगवन् कीर्तन कर सकें
अनुस्मृति अनुकृति अनुशयी अनुनयी

अब हमारे श्वास-श्वास मनके हैं मन के 
मनोमय विज्ञानमय बने कोष प्रपन्न
कृपा हुई अनुभूत तेरी 
हुआ तुझमें आसन्न 
पाया आत्म प्रसाद तुझसे 
हुआ प्रेम-प्रगम 
आनन्दमय कोष तक 
पहुँचा दिया तुमने भगवन्
अनुस्मृति अनुकृति अनुशयी अनुनयी

अब तुम्हारी कृपा दे रही जीवन प्रतिक्षण 
आ रहा है अब तेरी 
स्तुतियों में भी आनन्द 
इन्द्रियाँ ऋषि बन गई हैं
पल्लवित अङ्ग-अङ्ग 
कर रही है साक्षात्कार 
जागा प्रेम-प्रसङ्ग 
वाणीरूप बना हर इक अङ्ग 
गाते गीत भजन
अनुस्मृति अनुकृति अनुशयी अनुनयी

वास्तविक रस पा लिया 
सार्थक हुआ जीवन 
सप्त ऋषियों को दिया 
प्रभु ने ही पूर्णानन्द 
तेरी संजीवनी से पाया 
सच्चा संजीवन 
आत्मदर्शी मेरी इन्द्रियाँ 
हो गईं पावन 
अब वो हैं परमात्मदर्शी
जिसमें परमानन्द
अनुस्मृति अनुकृति अनुशयी अनुनयी

मस्त होके इन्द्रियाँ 
हो गईं हैं गानमय 
मूक वाणी में जगा 
प्रभु तेरा प्रेम-प्रणय 
जड़ परमाणु पिण्ड भी 
हो गए चेतन 
आचरण करके अलौकिक 
हो गए प्रतिपन्न 
हो गया है  यह जीवन 
लम्बी सन्ध्या का कीर्तन 
अनुस्मृति अनुकृति अनुशयी अनुनयी
बन जाए आत्मा भक्ति रस से 
करे तेरी स्तुति 
तुझे पाने के उद्देश्य से 
प्रभु सत्य कर्म करें 
हरदम भगवन् कीर्तन कर सकें
अनुस्मृति अनुकृति अनुशयी अनुनयी

*रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई*
*रचना दिनाँक :--*   २.१०.२००६   २.०० मध्यान्ह

*राग :- चारुकेशी*
राग का गायन समय मध्यान्ह 12 से 3,  ताल दीपचंदी 14 मात्रा

*शीर्षक :- कवियों का गीत* वैदिक भजन ७६३वां
*तर्ज :- *
761-00162 

अनुस्मृति = सब और से ध्यान हटा केवल एकाकी में ध्यान 
अनुकृति = अनुरूपता 
अनुशयी=लीन, अनुरक्त, चरणों में पड़ा हुआ
अनुनयी = विनम्रता शालीनता 
प्रपन्न = पहुंचा हुआ, शरणागत
मनके = माला के दाने 
पंचकोष = पांच कोष,(अन्नमय, प्राणमय, मनोमय,और आनन्दमय )
आसन्न = संलग्न, पास आया हुआ
प्रसंग = लगाव, अनुराग
प्रणय = प्रीति युक्त प्रार्थना
प्रगम = प्रगति का प्रथम पग
संजीवनी = अमृत
संजीवन = साथ साथ रहना
          
*प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇*
कवियों का गीत
प्रभु! अब हम अन्नमय कोष के ऊपर उठ चुके हैं। हम खाते भी हैं पीते भी हैं परन्तु किसी ऊंचे उद्देश्य के लिए । हम प्राणमय कोष से भी ऊपर उठ गए हैं। हम श्वास तो लेते हैं परन्तु इस स्वास्थ लेने का भी कुछ उत्कृष्ट उद्देश्य है। प्रभु! अब तो हमारा श्वास विश्वास तुम्हारे पवित्र नाम की माला बन गया है। हम तो जीते केवल इसलिए हैं कि तुम्हारा कीर्तन कर सकें। तुम वास्तव में हमारे प्राणधार हो। अब तो हम मनोंमय तथा विज्ञानमय कोष तक भी परिमित नहीं रहे। बाह्य ज्ञान हमें संतोष नहीं देता। तुम्हारी कृपा की अनुभूति ने आत्म प्रसाद प्राप्त करा हमें आनन्दमय कोष तक पहुंचा दिया है।
प्रभु! अब एक हम हैं दूसरे तुम हो। यह कोष तो वास्तव में है ही तुम्हारी कृपा का। यहां संजीवनी ही संजीवनी है। इस कोष तक मृत्यु की पहुंच नहीं है। हम अमर हो गए हैं। तुम्हारी कृपा हमें प्रतिक्षण नया जीवन दे रही है। अब हम मर कैसे सकते हैं?
स्तुति का आनन्द हमें अब आने लगा है, अब केवल जीभ ही नहीं अपितु आंखें कान नासिकाएं तथा मुख्य सातों मुख्य मुख्य अंग अपनी-अपनी वाणी से तुम्हारे गीत गा रहे हैं। मेरे सम्पूर्ण ज्ञान का विषय ही आज तुम हो। देखने को तो मैं चकित हूं ,चुप हूं,परन्तु मेरी चुप आज बोल उठी है। इस चुप का कैसा रसीला स्वर है!
आज मुझे पता लग गया है कि इन्द्रियों को ऋषि क्यों कहा जाता है। आज मेरा अंग-अंग तुम्हारा साक्षात्कार कर रहा है,आंखें तुम्हारी महिमा को पहचान गई है। इन्हें रूप-मात्र में तुम दिखाई देते हो। रूप की प्रतीति तुम्हारी देन है। कान तुम्हारे गौरव के गीत पर मस्त हो रहे हैं। इन को श्रवण की शक्ति स्वयं तुम्हारी संजीवनी का सुरीला संगीत है। गंध और घ्राण  का सम्बन्ध एक दिव्य वस्तु है। इनको एक दूसरे के अनुकूल किसने किया? नासिका गंध पर मस्त है। उसे पता लग गया है कि इस गंध का दिव्य आधार तुम हो। मुख को चखने की शक्ति किसने दी? स्वाद को रचना के साथ किस ने मिलाया? आज रसना तुम्हारा दिया स्वाद ले रही है। सभी अंग ऋषि हो गए हैं । इन्होंने जीवन का वास्तविक रस पा लिया है। आवर्णों के पीछे का आनन्द इन्हें आज प्राप्त हो गया है। यह आनन्द तुम ही हो।
ऐ मेरे आनंदमय कोष के आनंद! सच्चा आनंद तुम ही हो।तुम्हारी संजीवनी से ही इन ऋषियों का जीवन है-- ऋषित्व है। मेरी आत्मदर्शी इन्द्रियां आज परमात्मदर्शी हो रही हैं। उन्हें अपनी सत्ता का पता लग गया है। वह सत्ता प्रभु की--सोम के स्रोत की--देन है।
इस आनंद पर मस्त होकर मेरी ऋषि इंद्रियां गानमय हो रही हैं। अपनी मूक वाणी में यह सभी तुम्हारे ही गीत गा रही हैं। प्रत्येक की चेष्टा दिव्य है। प्रत्येक का व्यवहार अलौकिक है। जड़ परमाणुओं के इन पिण्डों में चेतना कैसे आई? इनमें ऋषित्व का प्रादुर्भाव कैसे हुआ? मेरी ऋषि इन्द्रियों का ऋषि तो तुम्हारी महिमा ही काम मूर्त राग है। आज तो प्रभु! मेरा सुनना, मेरा देखना, मेरा चखना, मेरा सूंघना, मेरा छूना--यह सब तुम्हारी ही महिमा का कीर्तन है। मेरा संपूर्ण जीवन एक लंबी संध्या सा एक लंबा कीर्तन सा हो रहा है।
🕉👏ईश भक्ति भजन
भगवान् ग्रुप द्वारा 🌹🙏

🙏 *Today's Vedic Bhajan* 🙏 1191

*Om Pariksha Koshan Madhushchutma Somnath Punarna Aasharti*

*Abhi Vani Rishina Aasharti*

*Abhi Vani Rishina Aasharti*

*Om Pariksha Koshan Madhushchutma Somnath  ॥*
Rig Veda 9/103/3
🙏 *aaj ka vaidik bhajan* 🙏 1191

anusmrti anukrti anushayee anunayee
anusmrti anukrti anushayee anunayee
ban jaae aatmaa bhakti ras se 
kare teree stuti 
tujhe paane ke uddeshya se 
prabhu satya karm karen 
haradam bhagavan keertan kar saken
anusmrti anukrti anushayee anunayee

ab hamaare shvaas-shvaas manake hain man ke 
manomay vigyaanamay bane kosh prapanna
kripa huee anubhoot teree 
hua tujhamen aasanna 
paayaa aatma prasaad tujhase 
hua prem-pragam 
aanandamay kosh tak 
pahunchaa diyaa tumane bhagavan ! 
anusmrti anukrti anushayee anunayee

ab tumhaaree kripa de rahee jeevan pratikshan 
aa raha hai ab teree 
stutiyon mein bhee aanand 
indriyaan rishi ban gaee hain
pallavit ang-ang 
kar rahee hai saakshaatkaar 
jaaga prem-prasang 
vaaneeroop bana har ik anga 
gaate geet bhajan
anusmrti anukrti anushayee anunayee

vaastavik ras paa liyaa 
saarthak hua jeevan 
sapta rshiyon ko diya 
prabhu ne hee poornaanand 
teree sanjeevanee se paayaa 
sachcha sanjeevan 
aatmadarshee meree indriyaan 
ho gaeen paavan 
ab vo hain paramaatmadarshee
jisamen paramaanand
anusmrti anukrti anushayee anunayee

mast hoke indriyaan 
ho gaeen hain gaanamay 
mook vaanee mein jagaa 
prabhu tera prem-pranay 
jad paramaanu pind bhee 
ho gae chetan 
aacharan karake alaukik 
ho gae pratipann 
ho gaya hai  yah jeevan 
lambee sandhya ka keertan 
anusmrti anukrti anushayee anunayee
ban jae aatmaa bhakti ras se 
kare teree stuti 
tujhe paane ke uddeshy se 
prabhu saty karm karen 
haradam bhagavan keertan kar saken
anusmrti anukrti anushayee anunayee

Consantration on one thing, 
Confirmity, laying at the feet, modesty
Let the soul become filled with devotion

Let it praise you

With the aim of attaining you

Let it perform true deeds

Let it always be able to sing praises of the Lord

Let it now be like a mind

Let it become full of the mind's mind's mind's innermost being

Let it feel your grace

I am near you

I have received your blessings

Let it flow with love

You have taken me to the blissful treasure

Lord, Reminders, Reminders, Reminders

Now your grace is giving life every moment

Now even your praises bring joy

Let the senses become sages

Let every limb blossom

I am having a vision of you 
A love affair awakened

Each and every part of the body became speech

Singing songs and hymns

Reminders, imitations, followers

Real bliss was attained

Life became meaningful

Seven sages were given complete bliss by the Lord

True rejuvenation was attained by your Sanjivani

My self-seeing senses

Became pure

Now they are the God-seeing

In whom there is bliss

Reminders, imitations, followers

Becoming intoxicated, the senses

Became full of songs

Awakened in the silent voice

Lord, your love and romance

Even the inanimate atoms

Became conscious

By behaving supernaturally

This life has become

Long evening kirtan

Reminders, imitations, followers

Let the soul become

With the bliss of devotion

Let it praise

You  With the aim of attaining God, do true deeds. Always be able to sing the praises of God.

Anusmriti, Anukriti, Anushayi, Anunayi

Anusmriti = remove attention from all the other sides and concentrate on one thing only

Anukriti = conformity

Anushayi = absorbed, enamored, lying at the feet

Anunayi = humility, modesty

Prapanna = reached, surrendered

Beads = beads of a rosary

Panchkosh = five sheaths (food, vital, mental and blissful)

Aasanna = attached, near

Prasang = attachment, love

Pranay = prayer with love
Pragam = first step of progress
Sanjeevani = Amrit
Sanjeevani = staying together

Message of Pujya Shri Lalit Sahni Ji related to this Bhajan:-- 👇👇*

Song of poets

Prabhu! Now we have risen above the Annamaya Kosha. We eat and drink but for some higher purpose. We have also risen above the Pranamaya Kosha. We breathe but there is some higher purpose behind this breathing. Prabhu! Now our breath and faith have become a rosary of your holy name. We live only so that we can sing your praise. You are actually our life-giver. Now we are not even limited to the Manomaya and Vijnanamaya Kosha. External knowledge does not satisfy us. The experience of your grace has taken us to the Anandmaya Kosha by receiving Atma Prasad.

Prabhu! Now we are one and you are the other. This Kosha is actually of your grace. Here, there is only Sanjeevani. Death has no access to this Kosha. We have become immortal. Your grace is giving us new life every moment. Now how can we die?

 We have started enjoying the praise now, now not only the tongue but also the eyes, ears, nose and the seven main organs are singing your songs with their own voices. Today you are the subject of my complete knowledge. I am surprised to see, I am silent, but my silence has spoken today. What a sweet voice this silence has! Today I have come to know why the senses are called sages. Today every part of my body is seeing you, the eyes have recognized your glory. They see you only in form. The perception of form is your gift. The ears are getting intoxicated by the song of your glory. Their power of hearing is itself the melodious music of your Sanjeevani. The relationship between smell and olfaction is a divine thing. Who made them compatible with each other? The nose is intoxicated by smell. It has come to know that you are the divine basis of this smell. Who gave the power of tasting to the mouth? Who mixed the taste with the creation? Today the tongue is enjoying the taste given by you.  All the limbs have become sages. They have found the real essence of life. Today they have found the joy behind the colours. This joy is you.
O Anand of my blissful treasure! You are the true bliss. It is because of your life-giving water that these sages have life-- their sagehood. My self-realizing senses are becoming God-realized today. They have come to know about their existence. That existence is the gift of God--the source of Som.

Being intoxicated with this bliss, my sage senses are becoming melodious. All of them are singing your songs in their silent voice. Everyone's actions are divine. Everyone's behavior is supernatural. How did consciousness come into these bodies of inert atoms? How did sagehood emerge in them? The sage of my sage senses is your glory itself, the embodiment of Kama Raga. Today, Lord! My hearing, my seeing, my tasting, my smelling, my touching-- all this is the kirtan of your glory. My entire life is becoming like a long evening, a long kirtan.  🕉👏God's devotional song
by Bhagwan Group 🌹🙏

Post a Comment

0 Comments

Ad Code