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लौह स्तंभ' की अद्भुत रचना

"गर्व कीजिये क्योंकि ऐसी मिसाल दुनिया मे किसी और देश मे नही और दुनिया मूर्ख हमे कहती है कि बस सपेरों का देश था ...! सपेरे भी यहां के वैज्ञानिक थे, और गड़ेरिये भी प्रकृति के विशेषज्ञ ... विश्वप्रसिद्ध दिल्ली का ''लौह स्तम्भ'' हमारा भारत कितना अद्भुत है ...!
कितना ज्ञान बिखरा हुआ है यहाँ प्राचीन धरोहरों के रूप में, जिसे हमें समय रहते संभालना है। दुनिया की प्राचीनतम और जीवंत सभ्यताओं में से एक है हमारे देश की सभ्यता ...!
हमारी प्राचीन धरोहरें बताती हैं कि हमारा देश अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य प्रणाली, शिक्षा प्रणाली, कृषि तकनीकी, खगोल शास्त्र, विज्ञान, औषधि और शल्य चिकित्सा आदि सभी क्षेत्रों में बेहद उन्नत था ...!
मैगस्थनीज से लेकर फाह्यान, ह्वेनसांग तक सभी विदेशियों ने भारत की भौतिक समृध्दि का बखान किया है ..!
प्राचीन काल में उन्नत तकनीक और विराट ज्ञान संपदा का एक उदाहरण है अभी तक 'जंगविहिन' दिल्ली का लौह स्तंभ' ....! 
इसका सालों से 'जंग विहीन होना ' दुनिया के अब तक के अनसुलझे रहस्यों मे माना जाता है ...!
माना जाता है कि भारतवासी ईसा से पूर्व से ही लोहे को गलाने की तकनीक जानते थे । पश्चिमी देश इस ज्ञान में २००० से भी अधिक वर्ष पीछे रहे ..! इंग्लैण्ड में लोहे की ढलाई का पहला कारखाना सन् ११६१ में खुला था ...!

१२ वीं शताब्दी के अरबी विद्वान इदरिसी ने भी लिखा है कि भारतीय सदा ही लोहे के निर्माण में सर्वोत्कृष्ट रहे और उनके द्वारा स्थापित मानकों की बराबरी कर पाना असंभव सा है ...!
यह ३५ फीट ऊँचा और ६ हज़ार किलोग्राम है,  लौह-स्तम्भ में लोहे की मात्रा करीब ९८% है और अभी तक जंग नहीं लगा है। यह अपनेआप में प्राचीन भारतीय धातुकर्म की पराकाष्ठा है ..!
गुप्तकाल (तीसरी शताब्दी से छठी शताब्दी के मध्य) को भारत का स्वर्णयुग माना जाता है ...! 
लौह स्तम्भ में लिखे लेख के अनुसार इसे राजा चन्द्र ने बनवाया था । बनवाने के समय विक्रम सम्वत् का आरम्भ काल था। इस का यह अर्थ निकला कि उस समय समुद्रगुप्त की मृत्यु के उपरान्त चन्द्रगुप्त (विक्रम) का राज्यकाल था । तो बनवाने वाले चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय ही थे और इस का निर्माण 325 ईसा पूर्व का है ...!
लगभग १६०० से अधिक वर्षों से यह खुले आसमान के नीचे सदियों से सभी मौसमों में अविचल खड़ा है। इतने वर्षों में आज तक उसमें जंग नहीं लगी, यह बात दुनिया के लिए आश्चर्य का विषय है। जहां तक इस स्तंभ के इतिहास का प्रश्न है, यह चौथी सदी में बना था। इस स्तम्भ पर संस्कृत में जो खुदा हुआ है, उसके अनुसार इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। चन्द्रराज द्वारा मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर निर्मित भगवान विष्णु के मंदिर के सामने इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। इस पर गरुड़ स्थापित करने हेतु इसे बनाया गया होगा, अत: इसे गरुड़ स्तंभ भी कहते हैं। १०५० में यह स्तंभ दिल्ली के संस्थापक अनंगपाल द्वारा लाया गया ...!
कहते हैं कि इस स्तम्भ को पीछे की ओर दोनों हाथों से छूने पर मुरादें पूरी हो जाती हैं, परन्तु अब आप ऐसा प्रयास नहीं कर पाएंगे क्योंकि अब इसके चारों तरफ लोहे की सुरक्षा जाली है ...!
बिहार के जहानाबाद जिले में एक गोलाकार स्तंभ है जिसकी लम्बाई ५३.५ फीट और व्यास ३.५ फीट है जो उतर से दक्षिण की ओर आधा जमीन में तथा आधा जमीन की सतह पर है ...!
कुछ पुरातत्वविद इसे ही दिल्ली के लौह स्तम्भ का सांचा मानते है ...!"

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