🙏 *आज का वैदिक भजन* 🙏 1252
*भाग 2/3*
*ओ३म् को द॑दर्श प्रथ॒मं जाय॑मानमस्थ॒न्वन्तं॒ यद॑न॒स्था बिभ॑र्ति ।*
*भूम्या॒ असु॒रसृ॑गा॒त्मा क्व॑ स्वि॒त्को वि॒द्वांस॒मुप॑ गा॒त्प्रष्टु॑मे॒तत् ॥*
ऋग्वेद 1/164/4
खोज लिए धरती आकाश
और अन्त:स्तल सागर में उतरे
खोज ना पाए आत्मा को
आत्मज्ञान से रहे विमुख रे
खोज लिए धरती आकाश
और अन्त:स्तल सागर में उतरे
देह भिन्न है - आत्मा भिन्न है
आत्मा देह को धारण करती
अपने गुण कर्म और स्वभाव से
स्वतन्त्रता से कर्म है करती
देह त्याग आत्मा ही केवल
कर्मों के अनुसार विचरे
खोज लिए धरती आकाश
और अन्त:स्तल सागर में उतरे
सिन्धु तरङ्ग के अभय ऐ मानव!
अन्त:तरंग से ना तू डर
ऐ सन्सार के ज्ञाता अपने
आत्मज्ञान को उन्नत कर
हे आत्मा! तू जान प्रभु को
पा ले शाश्वत प्रेम और सुख रे
खोज लिए धरती आकाश
और अन्त:स्तल सागर में उतरे
देहतत्व तो अनित्य ही रहता
आत्मा नित्य सदा ही रहती
क्यों ना करे तू प्रेम नित्य से
जो आत्मा प्रभु को है वरती
आत्मा से विश्वात्मा का
ये सफर तो कठिन है
पर है सुखद रे
खोज लिए धरती आकाश
और अन्त:स्तल सागर में उतरे
खोज ना पाए आत्मा को
आत्मज्ञान से रहे विमुख रे
खोज लिए धरती आकाश
और अन्त:स्तल सागर में उतरे
*रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई*
*रचना दिनाँक :--* १२.१० १९९७ १०.०० रात्रि
*राग :- पीलू*
गायन समय दिन का तृतीय प्रहर, ताल कहरवा ८ मात्रा
*शीर्षक :- इसे कौन पूछने जाता है?*
वैदिक भजन ८२६(३ भागों में) भाग द्वितिय
*तर्ज :- मळयिल निरयुम पुळ पोले(मलयालम)
शब्दार्थ:-
विमुख = अलग, परे
*प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇*
इसे कौन पूछने जाता है?
सृष्टि रचना इतनी विचित्र है कि मनुष्य की बुद्धि चक्कर खा जाती है। सृष्टि के आरम्भ से तत्ववेत्ता लोग इसके रहस्य टटोलने में लगे हैं, और नित्य नए रहस्य मनुष्य समाज के आगे ला रहे हैं। मनुष्य में यदि अतुल बल ना भी हो तो भी यह मानना पड़ता है कि उसका बल बहुत प्रबल है। समुद्र के अंतःस्तल तक पहुंचकर इसने उसकी छान-बीन कर डाली। आकाश में उड़ा तो तारों के समाचार ले आया। वह दुर्दांत बली मंगल ग्रह वासियों से बातचीत करना और सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है। पर्वतों को इसने राई सम्मान बना दिया है। आज महारण्य मनुष्य बुद्धि वैभव के सामने एक ग्रामीण क्षुद्र क्षेत्र से अधिक नहीं है। ध्रुवों की दुर्बलता ध्रुवता को इसने अस्थिर कर दिया। पय, पवन, पावक, पृथ्वी सभी इस की सेवा करते हैं। नदियों के प्रवाह इसने मोड़ दिए हैं। आग बरसाने वाली गर्मी में अत्यन्त तप्त प्रदेश में यात्रा करते हुए इसे अब गर्मी नहीं सताती। वायु को इसने वश में कर लिया है। विभु और अखंड काल की भी इसने कलना कर डाली है। अपरिमेय से देशspace को इसने मानो सर्वथा नाप सा लिया है। अपने कल-बल से इसने सकल लोकों को एक क्षुद्र सा लोक(ग्राम) बना लिया है। देश और काल की विजय के कारण सम्पूर्ण भूतों पर इसने विजय पा ली है, इससे यह गर्वित हो उठा है। गर्व करने की बात भी है। गर्व इसका अनुचित भी नहीं है।
किन्तु कभी तूने सोचा भी ऐ बावले! तू क्या है? ओ समुद्र को मथ डालने वाले! बता, तू क्या है? ओ पर्वतों को पैरों तले रौंदने वाले! तेरा रूप क्या है? क्या कभी तूने अपने आपे को देखा है? तेरा यह शरीर--शीर्ण होने वाला शरीर--तो भूमि का बना है; जल,वायु, आग ने इसका सहयोग दिया, यह बन गया। क्या तूने कभी इसे भी टटोलने का यत्न किया है? यह कैसे पैदा हुआ? पहले -पहले कैसे उत्पन्न हुआ? क्यों उत्पन्न हुआ? क्या यह सारी सृष्टि जड़ का खेल है? क्या यह सब और चेतन का ज्ञान विहीन का, अनुभूति शून्य का चमत्कार है? आत्मा--'मैं कहने वाला, 'मेरा' मानना वाला--इसमें कहां है? तूने चीड़ -फाड़ कर के देख लिया। सच है, तुझे आत्मा शरीर में कहीं नहीं मिला!!! अ हा हा! तो तू 'मैं मै' कैसे करता है?
क्या तूने कभी किसी से पूछने का यत्न भी किया? जैसे शरीर की चीर फाड़ सीखने के लिए, नस- नाड़ी के ज्ञान के लिए तू गुरु के पास गया था, वैसे यह जानने के लिए कि मृत शरीर और अ-मृत शरीर मैं भेद क्यों है कभी किसी के पास गया? अरे! शरीर हड्डियों के सहारे है किन्तु इन हड्डियों का सहारा क्या है? अरे! उसे जान।
बहुतों को ऐसा आत्मतत्व के सुनने का ही अवसर नहीं मिलता, अथवा सुनने का, जानने का विचार ही नहीं आता। कई मनुष्य सुन तो पाते हैं किन्तु समझ नहीं पाते; क्योंकि वे प्रत्यक्षवादी हैं। प्रत्यक्ष से परे किसी पदार्थ को समझने में भी समर्थ नहीं होते। इस आत्मा का स्वरूप बतलाने वाला विरला ही होता है। सुनकर कोई विरला ही समझ पाता है। संसार में ऐसा जन तो सचमुच दुर्लभ है, जिसने ज्ञानी गुरु से इसे जानकर स्वायत्त कर लिया हो।
ऐ समुद्र की तरंगों से ना डरने वाले! बता, बता, अपने अन्दर की तरंगों से क्यों डरता है? इन्हें भी वश में कर! समुद्र की तरंगों के रहस्य को तू ने जान लिया, किन्तु अपनी तरंगों को तू न जान पाया। कितनी बड़ी विडम्बना है? सारे संसार का सार जानने वाला अपने को ही नहीं जानता।
ऋषि लोग कह गए हैं--आत्मा के जान लेने से सभी कुछ जाना जाता है। तू कभी किसी पदार्थ को टटोलता है, कभी किसी का निरीक्षण- परीक्षण करता है, किन्तु संतुष्ट नहीं हो पाता। आ, एक बार ऋषि यों की बात भी मान, आत्मा को जानने का यत्न कर। अवश्य सफल होगा। यह सफलता तुझे नया आलोक देगी। इस आलोक के साथ मिलेगा तुझे एक अलौकिक रस, जिसमें विरसता नाम को भी नहीं है; जिसका आस्वादन कर तू भटकना छोड़ देगा। हां, एक नियम उसके लिए अनिवार्य है, वह है श्रद्धा सहित निरन्तर दीर्घकाल तक प्रयत्न करना। यह वेद मन्त्र कई बातों की चेतावनी दे रहा है--१) आत्म तत्व को पहचानने के लिए ज्ञानी गुरु के पास जाना चाहिए २) आत्मा अनस्था है और अस्थि वाले शरीर से भिन्न है।३) यह अवस्था आत्मा अस्थि रुधिर प्राणमय शरीर को धारण करता है।४) यह शरीर भौतिक है, भूमि से=भूतों से बना है किन्तु ५) आत्मा क्वस्वित=आत्मा का उपादान कारण कोई नहीं, इसका निमित्त कारण भी कोई नहीं है। यह अकारणक है। नित्य है। नित्य और अनित्य में से नित्य ही प्रीति करने योग्य है।
आत्मा से प्रीति की रीति=
"यदि आत्मा से और विराट आत्मा से प्यार करना है तो अपने अंगों की भांति सबको अपनाना होगा; अपनी क्षुधा निवृत्ति की तरह उसकी भी चिन्ता करनी होगी। सच्चा आत्मप्रेमी किसी से घृणा नहीं करता। वह ऊंच-नीच की भद्दी भेद भावना को त्याग देता है। उतने ही पुरुषार्थ से दूसरे के दु:ख निवारण करता है, कष्ट क्लेष काटता है, जितने से अपने दु:खों को दूर करता है। ऐसे ज्ञानी जन ही वास्तव में आत्म प्रेमी कहलाने के अधिकारी हैं"
न दुष्टतो मर्त्या विन्दते वसु।ऋ•७.३२.२१
मनुष्य दुष्ट उपायों से धन प्राप्त नहीं कर सकता।
दूसरे चरण में बहुत स्पष्ट कहा है--
न स्त्रेधन्तं रयिर्नशत्--
हिंसक भी धन नहीं प्राप्त कर सकता।
कितना ही शास्त्रवेत्ता क्यों ना हो, जब तक हिंसा आदि दुष्ट उपायों को नहीं छोड़ता, तब तक शान्ति धन, आत्मा सम्पत्ति को नहीं प्राप्त कर सकता।
जो दुराचार से नहीं हटा, जो चंचल है, प्रमादी है, सावधान नहीं है, जिसके मन में क्षोभ है, वह बुद्धि से, ज्ञान से इस आत्मा को नहीं प्राप्त कर सकता।
आत्म ज्ञान के बिना शान्ति नहीं। जब प्रमाद तथा अनाचार से आत्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती तब उसकी प्राप्ति के बाद प्राप्त होने वाली शान्ति- सम्पत्ति की प्राप्ति की आशा कैसे की जा सकती है?
वेद कहता है देने योग्य धन को कोई शक्तिशाली ही प्रभु समर्पण की भावना से प्राप्त कर सकता है। बलहीन का संसार में ही ठिकाना नहीं, परलोक की तो बात ही क्या? यहां के लिए उपयुक्त धन कमाने को बड़ा बल चाहिए।
भाग २ का अन्त, कल भजन का अंतिम तृतीय भाग
🎧825Bवां वैदिक भजन🕉️👏🏽
🕉👏ईश भक्ति भजन
भगवान ग्रुप द्वारा 🙏🌹
🙏सभी वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं🙏🌹
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🙏Today's vaidik bhajan* 🙏 1252 B
*part 2/3*
*om ko da॑darsh prath॒mam jay॑manamasth॒nvantam॒ yad॑na॒stha bibha॑rti .*
*bhumya॒ asu॒rasri॑ga॒tma kva॑ svi॒tko vi॒dvans॒mup॑ ga॒tprashtu॑me॒tat ॥*
rigved 1/164/
👇Vaidik bhajan part 2👇
khoj liye dharati aakash
aur ant:stal saagar men utare
khoj na paaye aatma ko
aatmagnyan se rahe vimukh re
khoj liye dharati aakash
aur ant:stal saagar men utare
deha bhinna hai - aatmaa bhinna hai
aatmaa deh ko dhaaran karati
apane guna karm aur svabhaav se
swatantrataa se karm hai karati
deh tyaag aatma hi keval
karmon ke anusaar vichaare
khoj liye dharati aakash
aur ant:stal saagar men utare
sindhu tarang ke abhaya ai maanav!
ant:tarang se na too dar
ai sansar ke gyaataa apane
aatmagyaan ko unnat kar
he aatmaa! tu jaan prabhu ko
paa le shashvat prem aural sukh re
khoj liye dharati aakaash
aural ant:stal saagar men utare
dehatatva to anitya hi rahataa
aatmaa nitya sadaa hi rahati
kyon naa kare tu prem nitya se
jo aatmaa prabhu ko hai varati
aatmaa se vishvatmaa kaa
ye saphar to kathin hai
par hai sukhad re
khoj liye dharati aakaash
aur ant:stal saagar men utare
khoj na paaye aatmaa ko
aatmagnyan se rahe vimukh re
khoj liye dharati aakaash
aural ant:stal sagar men utare
*Composer, instrumentalist and Voice :- Pujya Shri Lalit Mohan Sahni Ji – Mumbai*
*Date of Creation :--* 12.10 1997 10.00 pm
*Raag :- Peelu*
Singing time Third hour of the day, Rhythm Kaharwa 8 beats
*Title:- Who is going to ask it?*
Vedic Psalms 826(in 3 parts) Part II
👇🏼Meaning of words👇🏼
Vimukh = separate, beyond
*tune:- *Mazhyil nirayum puzha pole(malayalam)
vimukh = alg, pare
👇🏼Meaning of Vaidik bhajan👇🏼
Discovered the earth and the sky
and went down into the deep sea
Don't search for the soul
Stay away from enlightenment
Discovered the earth and the sky
and went down into the deep sea
The body is different - the soul is different
The soul would hold the body
By his virtues, actions and nature
Freely does the work
Body renunciation soul only
Vichare according to the actions
Discovered the earth and the sky
and went down into the deep sea
Safe from the waves of the Indus, O man!
Don't be afraid of the inner wave
O knower of the world your
Advance enlightenment
O Spirit! You know the Lord
Get eternal love and happiness
Discovered the earth and the sky
and went down into the deep sea
The body element remains impermanent
The soul remains eternal forever
Why don't you love daily
which soul is to the Lord
of the cosmic soul from the soul
This journey is hard
But is pleasant Ray
Discovered the earth and the sky
and went down into the deep sea
Don't search for the soul
Stay away from enlightenment
Discovered the earth and the sky
and went down into the deep sea
*********
*Title :- Who goes to ask about this?*
Swaadyaay-Message of Pujya Shri Lalit Sahni Ji related to the presented bhajan :-- 👇👇*
Who is going to ask it?
The creation is so strange that the human mind is dizzy. Since the beginning of creation, philosophers have been probing its mysteries, and are constantly bringing new mysteries to human society. Even if a man does not have immense strength, it is believed that his strength is very strong. Reaching the bottom of the sea, it sifted through it. He flew into the sky and brought news of the stars. He wants to interact and establish relationships with the evil Bali Martians. The mountains it has made rye honor. Today, the great forest is nothing more than a rural petty area in the face of human intellectual glory. It destabilized the weakness polarity of the poles. Water, wind, fire, earth all serve it. It has diverted the flow of rivers. Traveling in the scorching heat in the scorching heat, it is no longer plagued by heat. It has subdued the air. It has also destroyed the Almighty and the unbroken time. It seems to have measured countryspace from the irrational. By its yesterday-power it has made all the worlds into a tiny little world. It has become proud of the fact that it has conquered all beings because of the victory of country and time. It is also something to be proud of. Pride is not unfair.
But have you ever thought, you fool! What are you? O churner of the sea! Tell me, what are you? O trampling the mountains underfoot! What is your appearance? Have you ever seen yourself? This body of yours--the decaying body--is made of earth; Water, air, fire helped it, it became. Have you ever tried groping it too? How did it come about? How did it first originate? Why did it originate? Is this whole creation root game? Is this all and the miracle of the conscious without knowledge, without perception? Where is the soul--the one who says 'I, the one who believes 'mine'--in it? You've ripped it off. True, you got nowhere in the soul body!!! A ha ha! So how do you 'me me'?
Did you ever even try to ask anyone? Like to learn the tearing of the body, for the knowledge of the veins, you went to the master,By the way have you ever been to anyone to find out why there is a difference between a dead body and a non-dead body? Hey! The body is supported by bones but what is the support of these bones? Hey! Know him.
Many do not have the opportunity to hear such a Self, or to hear, to know. Many men hear but do not understand; Because they are pragmatic. They are not even capable of understanding any substance beyond the direct. There is rarely anyone who can explain the nature of this soul. Few hear it and understand it. There is indeed a rare person in the world who has learned it from a wise teacher and made it autonomous.
O you who are not afraid of the waves of the sea! Tell me, tell me, why is he afraid of the waves inside him? Tame them too! You knew the mystery of the waves of the sea, but you could not know your own waves. How great is the irony? He who knows the essence of the whole world does not know himself.
The sages have said: Everything is known by taking the life of the soul. Sometimes you grope for something, sometimes you inspect something, but you are not satisfied. Come, once again, obey the sages, and try to know the soul. It will surely succeed. This success will give you a new light. With this light you will find a supernatural taste, in which there is no legacy; which you will taste and stop wandering. Yes, one rule is essential for him, that is to strive with faith constantly for a long time. This Vedic mantra is warning of many things--1) One should go to a wise guru to recognize the self element 2) The soul is unconscious and is different from the body with bones 4) This body is physical, made of earth=ghosts but 5) Atma Kvasvit=There is no cause of the soul, there is no cause of it. It is unreasonable. is constant. Of the eternal and the impermanent, the eternal is the one to be loved.
The manner of love for the soul=
"If one wants to love the soul and the Cosmic Spirit, one must embrace them all as one's own members; one must care for them as for the relief of one's hunger. The true self-lover hates no one. He would renounce the ugly sense of distinction between the high and the low." He relieves the sufferings of others with as much effort as he removes his own sufferings.
Such wise people are the ones who really deserve to be called self-lovers."
A mortal does not gain wealth from evil.R•7
Man cannot gain wealth by evil means.
The second step is very clear--
Not stredhantam rayirnashat--
Even the violent cannot get money.
No matter how much a scripture scholar, unless he gives up evil means like violence, he cannot attain peace, wealth and spiritual property.
He who has not turned away from evil, who is restless, careless, careless, whose mind is disturbed, cannot attain this soul by wisdom, by knowledge.
There is no peace without self-knowledge. When the soul cannot be attained by negligence and immorality, how can one hope to attain the peaceful property that follows its attainment?
The Vedas say that only a powerful person can obtain the wealth worth giving with the spirit of devotion to the Lord. The weak have no place in this world, what about the afterlife? It takes great strength to earn money suitable for here.
🕉👏Ishbhakti Bhajan
By God Group🙏🌹
🙏Welcome to all listeners🙏🌹
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