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मृत्यु के गर्भ में दम तोड़ती मानवता

 


मृत्यु के गर्भ में दम तोड़ती मानवता को मिला सहारा यह बात उन दिनों की है, जब पृथ्वी पर मनुष्य नहीं रहते थे शैतान राक्षस दुष्टो ने अपना एक तरफा साम्राज्य स्थापित कर लिया था, जो समुह इन दुष्टों की वातना से पीड़ित थी उन्ही में  से एक व्यक्ति जो सबसे अधिक प्रताड़ित था वह किसी तरह से स्वय की जान को जोख़िम में डाल कर इस समस्या के समाधान के भयानक तुफानी रात में  एक छोटा दिया अपने दिल में जलाकर इस खुखार दुनिया में निकल पड़ा, जितने संघर्ष अभी तक मिले थे वह तो केवल दाल में नमक के समान थे, आगे उसे पुरी दाल ही नमक की मिली दाल का तो नामोनिशान नहीं था, हजारों बार वह थोड़ी शक्ति वाला प्राणि ऊपर चढ़ने का प्रयास करता और बार बार वह फिसल कर गीर जाता, ऐसा ही कई सालो तक चलता रहा वह थक कर हार कर सो जाता फिर प्रयास करता ऐसे लोगो के रहा जो उसके लिए सहायक सिद्ध होते, उसे अपनी सहायता करने में लेकिन जो लोग सहायता देते वह उसी प्रकार था जैसे डुबते को तिनके का सहारा, वह यह सोचकर ग्लानि से भर जाता की वह ईतना कमजोर क्यों है, उसे इसका जबाब तब तक नहीं मिला जब तक वह शक्तिशाली और ताकतवर नहीं बन गया, और उसने ज्ञा विज्ञान ब्रह्मज्ञान का झंडा ले कर निकल पड़ा दुनिया से मानवता का दुख दुर करने के लिए, तो उसे पता चला दुनिया तो बहुत सुखी है, दुख का कारण व्यक्तिगत उसका अपना है फिर वह अपने दुख, गहरे जख्मों पर और उन घास पर जहाँ से दुष्ट किड़े उसकी जान और उसका खून चुस रहे थे, उनकी सफाई करके मरहम पट्टी करने लगा धिरे जैसे एक छोटा सा बीज मिट्टी की गहराइयों में दफन एक नव जीवन का संचार करता और पहले एक नाजुक सा अंकुरण होता है, ऐसे ही ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान रूपी महामानव रूपी वृक्ष का उदय हुआ, उसकी रक्षा उसी प्रकार की जैसे किसी भीड़ भाड़ शहर में कोई व वृक्ष अपने अस्तित्व को बचाने के लिए करता है, वह बड़ा बना और मानवता के रक्षक के रूप में स्वयं को एक दिन सफल कर लिया |

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